Saturday, December 20, 2014

पाकिस्तानी हुकूमत की मुश्किलें

सपोले सांप बन जाएं और सपेरे को ही डंसने लगें तो चिंता की बात है। पाकिस्तान ने जो बोया, वो काटा। ऊपर से, समूची दुनिया का दुर्भाग्य यह है कि वो अब भी दोगलापन नहीं छोड़ रहा। आतंकवाद की नकेल कसने के लिए जो उपक्रम करता प्रतीत हो रहा है, वह कभी सार्थक नतीजे नहीं दे सकता। अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठानों से जुड़ी एक अहम एजेंसी के संकेत हैं कि आतंकवादियों पर लगाम कसने की पाकिस्तानी कोशिश भारत जैसे मुल्कों के लिए मुश्किल का सबब बनेगी। यह आतंकी भारत जैसे देशों में गड़बड़ी फैलाने में झोंक दिए जाएंगे, तब तक उन्हें नेपाल आदि अस्थाई ठिकानों पर रोका जाएगा। हालांकि माना यह भी जा रहा है कि पाकिस्तान उग्रवादी संगठनों की जड़ें हिलाने की कोई भी कोशिश करेगा भी नहीं, नवाज शरीफ ने जो भी कुछ कहा है, वह अंतर्राष्ट्रीय जगत को दिखाने के लिए कहा है।
पाकिस्तान का हाल किसी से छिपा नहीं है। यहां सियासी सत्ता है, नवाज शरीफ निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्रपति की नियुक्ति है। सदन हैं, लब्बोलुआब यह है कि यहां ऊपरी तौर पर एक मुकम्मल लोकतंत्र है पर वास्तविक तस्वीर इसके बिल्कुल उलट है। सेना का यहां बरसों से वर्चस्व है, सेनाध्यक्ष की ताकत और प्रभाव राजनीतिक नेतृत्व से ज्यादा होता है। सेना के बारे में कहा जाता है कि वह जो चाहे करे, किसी की बिसात नहीं कि उसे टोक भी पाए। हाल ही में नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के दौरान नवाज शरीफ ने कोशिश की थी कि सेना पर राजनीतिक नियंत्रण कायम कर लें। अपने विश्वस्त जनरल को जिम्मेदारी भी दी लेकिन कुछ ही दिन बाद स्थितियां सामने आने लगी हैं। नए सेनाध्यक्ष भी सैन्य तंत्र की बैठकों में नवाज के विरुद्ध खुलकर बोलने लगे हैं। संवेदनशील क्षेत्रों के निरीक्षण में वह राजनेताओं की हिस्सेदारी को वह हतोत्साहित करने लगे हैं। पेशावर हमले के बाद प्रधानमंत्री नवाज शरीफ उन्हें साथ ले जाने के लिए बमुश्किल तैयार कर पाए। दूसरी मुश्किल है पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटरसर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई)। एजेंसी आतंकवादियों को न केवल पालती-पोसती है बल्कि उन्हें जन्म भी देती है। आतंक के क्षेत्र में युवकों की भर्ती को उसका प्रोत्साहन रहता है। मंशा होती है दुश्मन देशों में अपने नापाक मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाना। एजेंसी ने तमाम आतंकवादी संगठनों को भी पुष्पित-पल्लवित होने में मदद की है। सवाल यह है कि वह खुद के खड़े किए आतंकियों को क्यों मारेगी या मारने देगी? पेशावर की घटना के बाद जिस तरह के संकेत आए हैं, उनसे पता चलता है कि आतंकियों की योजना आईएसआई की शह पर सेना को सबक सिखाने की थी। यह बताना था कि सेना बेवजह आतंकवादियों को निशाना बंद करे।
सवाल यह है कि नवाज शरीफ इन परिस्थितियों में अपने ऐलान को धरातल तक कैसे पहुंचाएंगे क्योंकि आईएसआई का मजबूत तंत्र उन्हें ऐसा करने से रोकने की हरसंभव कोशिश करेगा। फिर, अगर वह सफल रहे भी तो इस्लामाबाद की गलियों तक पहुंच गए इन आतंकवादियों को कैसे काबू किया जाएगा? वह इन्हें मारने के बजाए समझाने का नाटक कराएंगे, बाद में धीरे से उन्हें भारत जैसे दुश्मन देशों में गड़बड़ी फैलाने के लिए भेज दिया जाएगा। नवाज शरीफ के लिए तीसरी समस्या न्याय पालिका है जो पूर्ववर्तियों की तरह उन्हें भी खासा परेशान कर रही है। अब बिल्कुल ताजा मामला मुंबई हमले के मास्टरमाइंड जकीउर रहमान लखवी का है। एक तरफ नवाज ताल ठोंक रहे थे, दूसरी तरह इस्लामाबाद की एक अदालत लखवी को छोड़ने की रूपरेखा बनाने में जुटी थी। विशेष बात यह है कि वकीलों की हड़ताल के बावजूद न्यायालय ने मामले की सुनवाई की। नवाज को भी खबरों से इस जमानत की जानकारी हुई। इस घटना से विश्वभर में यह संकेत गया कि नवाज के दावे नाटकमात्र थे और पाकिस्तान आतंकवाद को लेकर कतई गंभीर नहीं है। वहां भी अभियोजन अफसरों पर सरकारी नियंत्रण है और उनकी नियुक्ति सरकार ही करती है, फिर भी इन अधिकारियों ने मामला नवाज के संज्ञान में लाने की जरूरत भी नहीं समझी। हालांकि बाद में लोकलिहाज से लखवी को जेल में ही रोकने का निर्णय किया गया लेकिन यह पूरा घटनाक्रम सबसे ज्यादा भारत के लिए मुश्किलों का संकेत दे रहा है। रिपोर्ट बता रही हैं कि नेपाल में राजनीतिक मजबूती न आने की वजह से भारत पर उग्रवाद का खतरा गहरा रहा है। पाकिस्तान की योजना नेपाल के रास्ते उत्तर प्रदेश में सिख उग्रवादियों को भेजने की है। पाकिस्तान उत्तर प्रदेश को ट्रांजिट रूट के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है जिसके लिए भारत-नेपाल की 550 किमी लम्बी खुली सीमा मददगार साबित हो रही है। इन आतंकियों को तराई के इलाकों में शरण दिलाई जाती है और फिर, इन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में भेजे जाने की योजना है। पाकिस्तान की साजिश इस लिहाज से भी खतरनाक है कि सिख और मुस्लिम आतंकवादी संगठन एक साथ काम कर रहे हैं। नेपाल स्थित पाक दूतावास इन आतंकियों को हरसंभव मदद दे रहा है। सिद्धार्थनगर के बढनी बॉर्डर से सिख आतंकवादी माखन सिंह उर्फ दयाल की गिरफ्तारी से पाकिस्तान के मंसूबों का खुलासा हो चुका है। पाकिस्तान बब्बर खालसा पर दांव लगा रहा है। माखन दर्जनों सिख युवकों को आतंकी गतिविधियों की ट्रेनिंग दिलाकर नेपाल के रास्ते भारत भेज चुका है। उसके काठमांडू में सक्रिय आईएसआई एजेंटों से अच्छे सम्बन्ध हैं। नेपाल में वह अपनी गतिविधियों को पाकिस्तानी दूतावास के संरक्षण में अंजाम दे रहा था। सिद्धार्थनगर और महराजगंज जिले से अब तक एक दर्जन से दुर्दांत सिख आतंकी पकड़े जा चुके हैं।  इन गिरफ्तार लोगों में अधिकतर की पहचान जैश-ए-मोहम्मद और अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के सदस्य के रूप में की जा चुकी है। 

Saturday, December 13, 2014

दर्द का इलाज भी तो कीजिए...

कोई सात-आठ साल पहले की बात है, जीवन से त्रस्त महिला आत्महत्या के लिए घर से निकली और कुछ दूर स्थित रेल पटरियों पर पहुंच गई। कुछ दूरी पर ट्रेन थी, दिमाग तेजी से चला, बच्चों के चेहरे सामने घूमने लगे। निर्णायक पल में मन  मोह में पड़ गया, सोच बैठा कि नहीं करनी आत्महत्या पर हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे। शरीर को पीछे खींचा लेकिन साड़ी फंस गई और ट्रेन की चपेट में आकर दोनों पैर कट गए। दुर्भाग्य टूट पड़ा था। टांगें तो गई ही थीं, साथ ही में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत आत्महत्या के प्रयास का मुकदमा और दर्ज हो गया। कुछ समय बाद पति की मृत्यु हो गई। दोनों बच्चों का जिम्मा उसके सिर आ गया। उधर मुकदमे में पैरवी नहीं हो पायी, तारीख-दर-तारीख के बाद 40 वर्षीय यह महिला जेल चली गई। छह माह से जेल में है, और एक बच्चा राजकीय शिशु सदन में है तो दूसरा मोटर मैकेनिक के साथ काम करके किसी तरह जीवन काट रहा है। मां की रिहाई में अभी छह माह का समय बाकी है।
गोरखपुर की ये आपदा का पहाड़ टूट पड़ने सरीखी घटना थी। दुर्भाग्य से, ऐसी घटनाओं की संख्या अच्छी-खासी है। कानून-व्यवस्था के लिए गैरजरूरी सिद्ध हो रहे कानूनों को खत्म करने की तैयारी कर रही केंद्र सरकार ने धारा 309 को निष्प्रभावी करने का निर्णय किया है। बेशक, ऐसा होना चाहिये क्योंकि यह सरासर मानवता के खिलाफ धारा है। आत्महत्या का प्रयास उन्हीं हालात में किया जाता है जब किसी के लिए जिंदगी नरक बन जाए और ऐेसे हालात के मारे किसी व्यक्ति को खुदकुशी की कोशिश में नाकाम रहने पर जेल में डाल देना न तो न्यायोचित है और न ही समझदारी भरा कदम। केंद्र सरकार के स्तर पर लंबे समय से विचाराधीन इस फैसले की लाभ-हानि को समझने के लिए धारा 309 के इतिहास को जानना जरूरी है। ब्रिटिश काल में बनी भारतीय दंड संहिता में धारा 309 को शामिल कर आत्महत्या के प्रयास को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया था। सन 1863 में ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी सुविधा के अनुसार दंड संहिता बनाई थी, जिसमें आत्महत्या को अपराध के दायरे में शामिल करने के पीछे साम्राज्यवादी नीति और भारतीय समाज की विशिष्ट सामाजिक दशा थी। उस वक्त ग्रामीण आबादी बहुल भारतीय समाज में पारिवारिक कलह के ऊंचे ग्राफ के चलते आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक थी। सत्ता ने समस्या के मनोवैज्ञानिक निराकरण के बजाए इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया। इसके पीछे मंशा और भी थी। ब्रिटिश सरकार ने यह प्रावधान अपने अत्याचारों को कानून की आड़ में छिपाने के लिए किया था। तमाम उदाहरण बताते हैं कि ब्रिटिश सत्ता के जुल्म का शिकार होने पर पीड़ित की मौत को आत्महत्या में तब्दील कर दिया जाता था जबकि जिंदा बचने पर पीड़ित को आत्महत्या के प्रयास का दोषी ठहराकर उसकी आवाज को दबा दिया जाता था। इस बीच 1947 में देश आजाद हुआ, जल्दबाजी में आजादी के बाद भी धारा 309 और अन्य तमाम प्रावधान देश के कानून में बदस्तूर शामिल रहे। हालांकि समय-समय पर इन्हें हटाने की मांग उठती रही, सबसे पहले विधि आयोग ने 1961 में इस धारा को हटाने की सिफारिश की।
जनता पार्टी सरकार के कार्यकाल (1977) में इस संस्तुति को स्वीकार कर संसद में संशोधन विधेयक लाया गया। राज्यसभा की मंजूरी के पश्चात यह लोकसभा से पारित हो पाता इससे पहले ही सरकार गिर गई और यह विधेयक भी ठंडे बस्ते में चला गया। उसके बाद भी कई बार विधि आयोग ने ऐसी संस्तुतियां कीं। अब जाकर मोदी सरकार ने व्यर्थ के कानूनी प्रावधानों को हटाने की पहल के तहत धारा 309 का भविष्य तय किया। अठारह राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों से सहमति मिलने के बाद गृह मंत्रालय ने इस धारा को आईपीसी से डिलीट किया। आत्महत्या को अपराध बनाने वाले कानून के आलोचकों का कहना है, कोशिश के लिए दंड देना क्रूरता और अनुचित है क्योंकि इससे परेशानी में फंसे शख्स को दोहरा दंड मिलता है। यह शख्स पहले से ही काफी दुखी होता है और इसी दुख की वजह से वह अपनी जिंदगी खत्म करना चाहता है। धारा के समर्थक यह कहते थे कि आत्महत्या की कोशिश को दंड के दायरे में लाना मानव जीवन की गरिमा बचाने की कोशिश है। मानव जीवन राज्य के लिए भी अनमोल है और इसे नष्ट करने की कोशिश की अनदेखी नहीं की जा सकती। बहरहाल, सरकार राहत दे चुकी है लेकिन सतर्क कदमों की जरूरत अब भी है। हमें समाज में पारिवारिक हिंसा और कलह के चढ़ते ग्राफ की हकीकत को ध्यान में रखना होगा। इस स्थिति में खुदकुशी की कोशिश के मामले बढ़ने की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। स्कूली बच्चे भी पारिवारिक दबाव का सामना न कर पाने पर आत्महत्या की कोशिश करते हैं, इन्हें रोकने के लिए स्कूलों और कॉलेजों के साथ पारिवारिक परामर्श केंद्रों का जाल बनाने की जरूरत है। इसके साथ ही मानसिक रोग निराकरण केंद्रों पर काउंसलिंग की सुविधा भी बढ़ानी होगी। यह कदम यदि समय रहते उठा लिये गए तो सरकार का निर्णय सुकून देने वाला सिद्ध हो सकता है। इस दिशा में जो भी कुछ करना है, वह सरकार के साथ ही इस दिशा में कार्यरत गैरसरकारी संगठनों की जिम्मेदारी है और वह इससे कतई मुंह नहीं मोड़ सकते।

Saturday, December 6, 2014

ओवैसी से डरे हैं आजम खां...

उत्तर प्रदेश की सियासत के सबसे विवादित नेताओं में एक मोहम्मद आजम खां अगर  अचानक ताजमहल की कमाई पर वक्फ बोर्ड के दावे को दम देते हैं तो इसके मायने क्या हैं? ताज को वक्फ सम्पत्ति बताकर उन्होंने तूफान से पहले शांत पड़ी मुस्लिम सियासत में कंकड़ फेंका है। यह कुछ दिन बाद की तैयारियां हैं, जब देश का सबसे विवादित दल मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन (एमआईएम) राज्य विधानसभा के चुनावों के लिए कमर कस रहा होगा।असदुद्दीन उवैसी की यह पार्टी कई जिलों में अपनी इकाइयां गठित करने के लिए प्रयासरत है। असल में, मोहम्मद आजम खां इस समय ओवैसी के आगमन की खबरों से भयाक्रांत हैं।
संभव है कि असदुद्दीन उवैसी को ज्यादा लोग न जानते हों, लेकिन अपने राज्य आंध्र प्रदेश और आसपास की मुस्लिम सियासत में वह भूकम्प की मानिंद हैं। उन्हीं की शैली के उनके छोटे भाई अकबरुद्दीन हिंदुस्तान को खुलेआम चुनौती देते हैं। मुंबई हमले को जायज ठहराते हैं। मुंबई हमले के दोषी पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को बच्चा बताते हैं और भी बहुत-कुछ बोलते हैं जिसका उल्लेख करना नीति और नैतिकता के हिसाब से उचित नहीं। करीब दो साल पहले 24 दिसम्बर, 2012 को आदिलाबाद के कौमी जलसे में अकबरुद्दीन ओवैसी ने जो-कुछ भी बोला, उससे हंगामा बरप गया। अकबरुद्दीन विधायक हैं और असदुद्दीन ओवैसी एमआईएम अध्यक्ष और हैदराबाद से लोकसभा सांसद हैं। एमआईएम की शुरुआत अकबरुद्दीन के पिता सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने की थी और अब उनकी राजनीतिक विरासत को उनके दोनों बेटे संभाल रहे हैं। लोगों को भड़काना या फिर समूचे हिंदुस्तान को चुनौती देने जैसा बयान अकबरुद्दीन की राजनीति का हिस्सा रहा, लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि न तो तत्कालीन केंद्र सरकार और न ही आंध्र प्रदेश सरकार ने कोई कार्रवाई की। दरअसल, उन्हें बखेड़े का डर था इसीलिये जब खूब बखिया उधड़ी तो कार्रवाई की औपचारिकता निभा ली गई। सुल्तान से इतर, उनके दोनों बेटों की योजना पार्टी के देश के अन्य हिस्सों में विस्तार की है। वह चाहते हैं कि एमआईएम सियासी ताकत बने और मुसलमानों का पूरा वोट उनके हिस्से में आ जाए। विस्तारवादी योजना की शुरुआत भी अच्छी हुई, जब महाराष्ट्र में उनकी पार्टी को दो विधानसभा सीटें प्राप्त हुर्इं। कई सीटों पर एमआईएम पहले तीन स्थानों पर रही।  वह भी जब, जबकि उसकी तैयारियां भी आधी-अधूरी थीं। भाजपा और शिवसेना के तमाम प्रत्याशी जीत के लिए तरस गए होते, यदि एमआईएम मैदान में नहीं होती क्योंकि उसने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के थोक में मुस्लिम वोट काटे। इससे उवैसी बंधुओं में उत्साह का संचार हुआ और उन्होंने उत्तर प्रदेश की तरफ रुख करने का फैसला कर लिया। मुस्लिमों की अच्छी-खासी आबादी वाले आजमगढ़ जैसे जिलों में उन्होंने कार्यकर्ताओं की भर्ती कर ली है। असदुद्दीन ने आजमगढ़ के गांव को गोद लेने का ऐलान किया है जहां से सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव सांसद हैं। आगरा में भी सुगबुगाहट है। धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले दलों से नाराज कार्यकर्ता एमआईएम के स्थानीय कर्ता-धर्ताओं से संपर्क साधने लगे हैं। इसी तरह मुसलिमीन देश की राजधानी दिल्ली में भी अपने पंख फैलाने की तैयारी कर रही है, जहां उसका सांगठनिक ढांचा तैयार है। वह उन सीटों की पहचान करने में लगी है, जहां से उसकी जीत सुनिश्चित हो सकती है।
ताज महल पर शिगूफेबाजी की वजह भी यही है। वरना करीब नौ साल पहले भी यह मुद्दा उठा है, तब उसकी कमाई पर उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने दावा किया था। ताज महल को अपनी मिल्कियत बताया था, तब से मामला सुप्रीम कोर्ट में है। थोड़ी हैरानी होती है, कोई सालभर पहले ही खां ने कहा था कि बाबरी मस्जिद के बजाय कोई भीड़ अगर ताज महल को ध्वस्त करने के लिए निकलती तो वह खुद उसका नेतृत्व करते क्योंकि ताज महल जनता के पैसे के दुरुपयोग का नमूना है और शाहजहां को कोई हक नहीं था कि वह अपनी प्रेमिका की याद के लिए जनता के करोड़ों रुपये लुटा देते। फिर भी आजम खां बेशक, यह मुद्दा उठाकर सक्रिय नहीं हुए। लेकिन कट्टरपंथी समूह इस मुद्दे को लपकने का मन बना चुके हैं। यह वो कट्टरपंथी हैं जो विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं और एमआईएम की दस्तक से बेचैन हैं। वह चाहते हैं कि उवैसी रुक जाएं। अटकलें यह हैं कि लव जिहाद के बाद ताजमहल को चुनावी आग में झोंकने की व्यूह रचना की जा रही है। भारतीय राजनीति में ऐसी शोशेबाजी कोई नयी नहीं है बल्कि तमाम बार इनके इस्तेमाल से कामयाबी हासिल की गई है। अभी उत्तर प्रदेश चुनावों में काफी समय बाकी है। एमआईएम अगर अभी से तैयारी में जुटेगी तो तमाम सूरमाओं की सियासी जमीन खिसक सकती है। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (समान विचारधारा के महागठबंधन के बाद संभावित नाम समाजवादी जनता दल), बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का मुस्लिम वोट उनसे बिदक सकता है। दूसरी तरफ, यानी भगवा खेमे की बात करें तो वहां भी पूरे जोरों पर तैयारियां हैं। लव जिहाद के मुद्दे को जिस तरह से तूल दिया गया, उससे यही संकेत मिल रहा है। धार्मिक आधार ताज महल को कसने पर उधर से भी प्रतिक्रिया हो सकती है क्योंकि एक प्रभावशाली समूह अरसे से ताज महल को तेजो महालय बताकर विवादित करने की कोशिश में है। यह मसला फिर जोर पकड़ेगा, इसकी संभावनाएं पुख्ता हो रही हैं। इसके बावजूद, अच्छी बात यह है कि मुसलमानों का बड़ा तबका ताज महल को विवादित करने के मसले पर कुपित-क्रोधित है। आगरा में आजम के बयान की प्रतिक्रिया में एकजुटता से कहा गया है कि ताज महल देश और दुनिया की एक बेमिसाल और अनमोल धरोहर है। कमाई पर हक से भी असहमति जताई गई है क्योंकि वक्फ के नियंत्रण में जो इमारतें हैं, उनका बुरा हाल किसी से छिपा नहीं है। फिर ताज से हुई कमाई आगरा के विकास में भी लगाई जा रही है।

Saturday, November 29, 2014

'सार्क' पर ललचाता चीन

दक्षिण एशियाई देशों का साझा मंच सार्क अपने 18वें शिखर सम्मेलन में अगर किसी बड़े परिणामों तक नहीं पहुंच पाया तो इसकी वजह क्या हैं? भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ की बात यदि छोड़ भी दें तो संगठन के नेताओं के बीच वो सौहार्द दिखा ही नहीं जिसके लिए यह जाना-माना जाता था। दरअसल, एक छिपी शक्ति कुछ नेताओं को अपनी अंगुलियों पर नचा रही थी। उसकी मंशा  थी कि सम्मान गुट निरपेक्ष देशों के नेता के रूप में जैसा सम्मेलन भारत ने सार्क में पाया है, उसमें कमी आ सके। यह छिपी शक्ति थी चीन। एशिया की यह महाशक्ति सार्क और अन्य एशियाई देशों में उपस्थिति बढ़ाने के साथ ही दखलंदाजी की यथासंभव कोशिश में जुटी है।
सार्क यानी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन में अमेरिकी प्रेक्षक के रूप में बराक ओबामा प्रशासन की दक्षिण एवं मध्य एशिया के लिए मुख्य वार्ता निशा देसाई बिस्वाल की तरह चीनी पर्यवेक्षक की भी मौजूदगी थी।  यूरोपीय संघ, जापान और म्यांमार भी संगठन के पर्यवेक्षक हैं। असल में, चीन सार्क की सदस्यता चाहता है इसीलिये उसने सदस्य देशों को बुनियादी ढांचे और विकास के लिए अरबों डॉलर की पेशकश कर ललचाया है। चीन दक्षिण एशिया की परिधि में नहीं आता, फिर भी पाकिस्तान और नेपाल ने उसकी सदस्यता की पैरवी की है। नेपाल के वित्त, विदेश और सूचना प्रसारण मंत्री समेत कुछ पूर्व मंत्रियों ने चीन की खुलेआम पैरवी की है। ऐसी स्थितियों में भारत को सतर्क होने की जरूरत है। पिछले अधिवेशन में पाकिस्तान ने इस आशय का प्रस्ताव भी रखा था। चीन का सार्क में भी आर्थिक और रणनीतिक प्रभाव का विस्तार भारत के हितों को चुनौती देता है। भारत सार्क में चीन के दखल से चिंतित नहीं है, लेकिन वह सार्क मंच का सबसे ताकतवर भागीदार है। चीन को सदस्य बनाया जाता है, तो भारत के पड़ोसी देशों को चीन के रूप में एक आर्थिक विकल्प मिल जाएगा। जाहिर है, इससे भारत का वर्चस्व घटेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसीलिये सार्क देशों को टॉप प्रायर्टी पर ले रखा है, वह निजी तौर पर प्रयास कर रहे हैं कि पाकिस्तान को छोड़कर अन्य देशों के साथ गहरे रिश्ते बनाए जाएं। इसी क्रम में नेपाल को 150 करोड़ रुपए का ट्रॉमा सेंटर, ध्रुव हेलीकॉप्टर, 900 मेगावाट पनबिजली परियोजना, एक अरब डालर का आसान ऋण, बस सेवा और 500-1000 के नोटों का नेपाल में भी चलन आदि ऐसे कुछ तोहफे दिए गए हैं कि नेपाल चीन की तरफ न जाए। परंतु चीन ने पाकिस्तान और श्रीलंका में जिस तरह परिवहन और आर्थिक बुनियादी ढांचा बनाया है, उससे चीन के असरदार विस्तार को नकारा नहीं जा सकता। इसके अलावा, उसने सिल्क रोड प्रोजेक्ट से सार्क देशों को आधारभूत ढांचे के लिए 40 अरब डॉलर देने का वादा किया है। नेपाल को उसके उत्तरी, सीमाई जिलों के चौतरफा विकास के लिए 1.6 अरब डालर देने की पेशकश की है। ये जिले चीन के तिब्बत वाले भाग से सटे हुए हैं।
पाकिस्तान की कोशिश कश्मीर मुद्दे पर एक सशक्त समर्थक ढूंढने की है जो वह आजादी के बाद से निरंतर करता रहा है। चीन खुलकर उसके पक्ष में नहीं बोलता लेकिन सहयोग में किसी तरह की कसर भी बाकी नहीं रखा करता। पाकिस्तान को लगता है कि यदि चीन सार्क का सदस्य बन गया तो यहां भी शक्ति संतुलन की स्थिति आएगी और वह भारत के विरुद्ध चीन के पाले में जाकर खड़ा हो जाएगा। हालांकि सार्क द्विपक्षीय मामलों पर विचार का मंच नहीं है, लेकिन दो बड़े देशों का तनाव और टकराव अंतत: संगठन के विमर्श को ही प्रभावित करता है। शायद इसीलिए पाकिस्तान चीन के दखल की पैरवी कर रहा है। भारत का तर्क है कि सार्क का गठन दक्षिण एशिया के देशों के बीच सहयोग को बढ़ाने के मद्देनजर किया गया था। कश्मीर मुद्दा ही उसके लिए जीवनदायिनी है किंतु वहां चल रहे विधानसभा चुनावों ने पाकिस्तान की उम्मीदों को झटका दिया है। अब तक हुए जबर्दस्त मतदान को भाजपा के पक्ष में भी माना जा रहा है। पाकिस्तान जानता है कि अगर कश्मीर में भाजपा का प्रभाव बढ़ा तो उसके लिए तमाम मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। अलगाववादी तत्वों की गतिविधियां बाधित होंगी। कश्मीर घाटी में बहुसंख्यक मुसलमान हैं जो भाजपा का परंपरागत वोट बैंक नहीं माने जाते। इस हकीकत के बावजूद लोकसभा चुनावों में विधानसभा की कुल 87 में से 25 सीटों पर भाजपा विजयी रही, जबकि नौ अन्य सीटों पर उसे दूसरा स्थान हासिल हुआ। भाजपा ने तब तकरीबन 33 फीसदी वोट पाए थे। माना जा रहा है कि कश्मीर ने हाल ही में भयंकर बाढ़ और उसके बाद की बर्बादी झेली है,साथ ही इस जटिल घड़ी में प्रधानमंत्री की शिरकत और मदद को देखा भी है। लिहाजा, चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता भी मिल सकती है। पाकिस्तान की मुश्किल यह है कि वह कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह की हिमायत करता है और प्रचंड मतदान इस बात का सबूत है कि जनमत भारत के साथ है। जनता हर स्तर पर पाकिस्तान की दखलंदाजी को नकार रही है। कश्मीर को पाकिस्तान की पैरोकारी, हमदर्दी और जनमत संग्रह की मांग कतई मंजूर नहीं। नतीजतन, पाकिस्तान के लिए यह निराशा और हताशा का संदर्भ हो सकता है कि जिस कश्मीर की आड़ में पाकिस्तान अपनी कूटनीति खेलना चाहता है, उसे उसकी भूमिका की दरकार नहीं है। आज का कश्मीर भारतीय होने में सुरक्षित और अपनत्व का एहसास करता है। वह धरती की जन्नत का नूर लौटते और पर्यटन की बयार बहते देखना चाहता है। कमोबेश, पाकिस्तान की उस संदर्भ में कोई जरूरत नहीं है।

Sunday, November 23, 2014

विदेशी परिंदों के देशी ठिकाने

ताजमहल, फतेहपुर सीकरी जैसी विश्वदाय इमारतें और मथुरा-वृन्दावन के मंदिर ही नहीं, ब्रज में बहुत-कुछ है। देश- दुनिया के लोग यूं ही नहीं पहुंचते  और करोड़ों-अरबों विदेशी मुद्रा  की ऐसे ही कमाई नहीं हो जाती, पर कुछ ऐसा भी है जिसे अभी प्रचार पाना है। ब्रज में दो ऐसे पड़ाव हैं जहां देश-विदेश के कई हजार आम और खास पक्षी आते हैं। सर्दियां दस्तक दे चुकी हैं और साथ ही आगरा की कीठम झील और भरतपुर के घना पक्षी विहार में इन अद्भुत मेहमानों का आना शुरू हो चुका है। नजारे मनभावन हैं, पर दुखद ये है कि भीड़ उतनी नहीं है जितनी पक्षियों की कम भीड़ वाले क्षेत्रों में रहती है।
आगरा अपनी कीठम झील को इंटरनेशनल वैटलैण्ड लिस्ट में शुमार कराने को लायायित है। भरतपुर स्थित केवलादेव घना पक्षी विहार को यूनेस्को ने विश्व धरोहर सूची में रख रखा है।  इसका उल्लेख बाबरनामा में भी आता है। विख्यात पक्षी वैज्ञानिक सलीम अली ने कहा था कि पक्षियों का यह अंतर्राष्ट्रीय प्रवास एक अनसुलझी गुत्थी, एक रहस्य है। शीतकाल में यहां लगभग सवा दो सौ प्रजातियों के स्थानीय और विदेशी परिंदे यहां निर्द्वंद्व दाना चुगते, घोंसले बनाते और प्रजनन करते देखे जा सकते हैं। इस पक्षी विहार का निर्माण करीब ढाई सौ साल पहले किया गया था और बाद में नामकरण केवलादेव (शिव) मंदिर पर कर दिया गया। प्राकृतिक ढाल होने के कारण यहां वर्षाकाल में अक्सर बाढ़ का सामना करना पड़ता था। इसलिए भरतपुर के शासक महाराजा सूरजमल ने यहां अजान बांध का निर्माण कराया, जो दो नदियों (गंभीरी और बाणगंगा) के संगम पर बनवाया गया था। संरक्षित वन्य क्षेत्र की घोषणा से पहले यह रियासत काल में भरतपुर के राजाओं का निजी शिकारगाह था। अंग्रेजी शासन के दौरान कई वायसरायों और प्रशासकों ने हजारों की तादाद में बत्तखों और मुर्गाबियों का शिकार किया। लेकिन आजादी के कुछ साल बाद यह अली की वजह से यह सिलसिला बंद हो गया। प्रवासी पक्षियों के लिए बेहद उपयुक्त वातावरण, प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता और पक्षियों को मनवांछित भोजन की उपलब्धता इन दोनों स्थलों की खासियत है। सर्दियों की आमद पर इन वैटलैण्ड पर पक्षियों की चहचहाहट, बसेरों के लिए कशमकश और विचरण करते उनके दल बरबस ही सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। ये प्रवासी पक्षी मुख्यत: तिब्बत, मध्य एशिया, रूस, अफगानिस्तान और साइबेरिया से अपना सफर तय करते हुए डेरा जमाते हैं। पिछले दो साल की गणना का आंकड़ा देखें तो वर्ष 2012-13 में प्रवासी पक्षियों की 110 प्रजातियों के लगभग 85 हजार पक्षी भरतपुर पहुंचे। वर्ष 2013-14 में इन पक्षियों की 112 प्रजातियों के लगभग इतने ही पक्षियों ने यहां पड़ाव बनाया। पक्षियों के आगमन में बढ़ोत्तरी सिद्ध करती है कि भरतपुर पर्यावरण की दृष्टि से सैरगाह पक्षियों की पसंदीदा स्थली बन रहा है। हालांकि कीठम के मामले में यह स्थिति थोड़ी उलट है, वहां कम प्रजातियों के अपेक्षाकृत कम पक्षियों का आगमन होता है लेकिन नजारे वहां भी कम आकर्षक नहीं हुआ करते।
जिन पक्षियों के आने का क्रम प्रतिलक्षित हो रहा है, उसमें मुख्यत: बार हैडिड गीज, नार्दर्न पिंटेल, कॉमन टील, कॉमन पौचार्ड, कूट्स, टफ्ड पौचार्ड, ग्रेट कारमोनेंट, रूडी शेल्डक और पूरासियन वेग्योन जैसी मुख्य प्रजातियां यहां सर्द ऋतु बिताने आती हैं। इसके अलावा कॉमन रोल्डक, साइबेरियन क्रेन (पांच साल से इसका आगमन बंद हुआ है), ओस्प्रे, वफ विलेड पिपट, इंडियन स्केमर और लिटल गल्ल की इक्का-दुक्का प्रजातियां भी दिखाई दीं जो अब तक हिमाचल प्रदेश में ही ज्यादातर आती थीं। रिंग और कलरिंग पर प्रवासी पक्षियों की पहचान चिह्नित करने के प्रयत्न भी किए गए थे, जिससे पता चला है कि चिह्नित पक्षियों के आने के क्रम में थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव चलता रहता है। निष्कर्ष पक्षियों के अमुक स्थान पर आगमन क्रम में परिवर्तन को दर्शाते हैं। संभावना यह है कि एक जगह आने के बाद चिह्नित पक्षी किसी अन्य स्थल को अपना नया बसेरा बना लेते हों, उनकी जगह दूसरे पक्षियों का आगमन बदस्तूर परिवर्तनशीलता को दर्शाता है। संदेह नहीं है कि पक्षी बहुत अच्छे से दिशाओं का अंदाजा लगा लेते हैं और मीलों दूर यात्रा करने के बाद भी नहीं भटकते और गंतव्य स्थल को हमेशा याद रखते हैं। यह अनोखी दक्षता उन्हें स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। दोनों ही वैटलैण्ड्स के आसपास खेती होती है और इसीलिये पक्षियों की स्वाभाविक प्रक्रिया दानों को चुगने और सुलभ उपलब्ध भोजन को भक्षण करने की होती है, फिर चाहे वह किसानों की खेती ही क्यों न हो। पक्षियों के किसानों की खेती की तरफ पसरते कदमों को रोकने के लिए तरह-तरह के कदम उठाने की प्रक्रिया पक्षियों को डर का एहसास दिलाती है। किसान पटाखे, ड्रम और टीन बजाकर भी पक्षियों को अपनी फसलों से दूर रखने की कोशिश करते हैं। पक्षी मानवीय निकटता, चाहे वह बनावटी ही क्यों न हो, को सहर्ष स्वीकार नहीं करते इसलिये वहां से दूर भाग जाते हैं। हो सकता है कि कुछ प्रतिशत पक्षी इसी वजह से आगामी वर्ष के लिए अपना बसेरा बदल लेते हों।  बहरहाल, हमें पर्यटन की दृष्टि से इन दोनों स्थलों का प्रचार करना है। साथ ही पक्षियों के अनुकूल पर्यावरण भी बनाना है क्योंकि पर्यटक आएंगे तो उन्हें पक्षियों का झीलों के आसपास मंडराना और उनकी मधुर चहचहाहट रोचक लगेगी। ऐसे में व्यक्ति प्राकृतिक सौंदर्य में कहीं खो सा जाता   है। प्रवासी मेहमान पक्षियों को देखने की चाह भी हमारे पर्यटन को नया आयाम प्रदान करेंगी। पर्यटन के क्षेत्र में एक नए अध्याय का सूत्रपात होगा।

Thursday, November 6, 2014

जम्मू-कश्मीर की बदलती आवोहवा

घाटी में इनदिनों चुनाव का मौसम है, तो आवोहवा बदली हुई है। राज्य में कांग्रेस के साथ साझी सत्ता पर काबिज नेशनल कॉन्फ्रेंस और प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट चुनाव के पक्ष में नहीं थे, लेकिन मजबूरी है इसलिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। दोनों दल जानते हैं कि एक कदम भी पीछे हटे तो राज्य में भारतीय जनता पार्टी के लिए रास्ता साफ करने का आरोप लगेगा, और अगर भाजपा किसी तरह सत्ता में आ गई तो पूरा खेल बिगड़ जाएगा। राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए ये सर्वाधिक दुष्कर और प्रतिष्ठा के चुनाव हैं।
जम्मू और कश्मीर, दोनों का मिजाज उलट है। जम्मू में हिंदूवादियों का अच्छा असर है। इस बार की अमरनाथ यात्रा के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं के विरुद्ध यहां के दुकानदारों और स्थानीय लोगों ने जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया था। एक महीने तक स्थानीय बाजार बंद रखा गया था। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने इस पर प्रतिक्रिया जाहिर की किंतु बाजार खुले नहीं। जम्मू के बारे में कहा जाता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे अलगाववादी दल यहां अपनी कई स्थानीय इकाइयां गठित नहीं कर पाए हैं। यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात जम्मू के कपड़ा विक्रेता अमित कुमार से हुई। अमित गौरवान्वित थे कि हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी को उनके साथी दुकानदारों ने स्थानीय लोगों की मदद से स्थानीय होटल लिटिल हॉर्ट से खदेड़ दिया था। गिलानी पांच दर्जन लोगों के साथ स्थानीय इकाइयों का गठन करने आए थे, लेकिन पुलिस और खुफिया एजेंसियों की सक्रियता से परेशान लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से गिलानी को होटल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। योजना में होटल संचालक को साथ लेकर होटल में तोड़फोड़ का नाटक किया गया। यह एक उदाहरण मात्र है। जम्मू छोड़िए, कश्मीर में भी जब भारत-विरोधी किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, जम्मू में जबर्दस्त प्रतिक्रिया होती है। यहां न केवल भाजपा बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरी तरह सक्रिय तंत्र है। जम्मू में भाजपा का जनाधार ही है कि उसके प्रत्याशी जीत हासिल करते रहे हैं। इन चुनावों में राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों की बेचैनी की एक वजह भाजपा की वो योजना है जिसके तहत वह कश्मीर में भी प्रत्याशी लड़ा रही है। यह योजनाबद्ध सक्रियता ही है कि उसके प्रत्याशियों  ने प्रतिद्वंद्वियों से पहले चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया। सूची में मुस्लिमों की संख्या भी खूब है, जबकि अब तक मुस्लिम तो दूर, भाजपा के बैनर तले हिंदू भी चुनाव लड़ने से बचा करते थे। डराने के लिए भाजपा और अन्य हिंदूवादी दलों के प्रत्याशियों पर हमले तक हो जाया करते थे।
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर अक्सर हिंदू समर्थक कहकर मुुस्लिम विरोधी होने का आरोप  लगाया जाता है, ऐसे में मुसलमानों का जुड़ाव साबित करता है कि राष्ट्रवादी मुस्लिमों का पुराना भाजपाई सूत्र निराधार नहीं है। हाल ही में थॉमस फ्रीडमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा कि खामीयुक्त लेकिन जीवंत लोकतंत्र की वजह से ही भारत के मुसलमानों में से बहुसंख्य खुद को पहले भारतीय मानते हैं। कुछ दिन पहले घाटी में जिस वक्त बाढ़ का प्रकोप था, तब केंद्र की सक्रियता ने भी मुस्लिमों का रुख मोड़ा था। राज्य सरकार के नाकाम हो जाने पर स्थानीय लोगों ने इस आपदा से निपटने की अभूतपूर्व कोशिश आरंभ की। जरूरत के समय नदारद होने पर राज्य सरकार की आलोचना हुई लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्परता दिखाकर बाजी लूट ली। अलगाववादी नेताओं को मुंह की खानी पड़ी। राज्य सरकार नाकाम थी और अगर, कश्मीरियों ने संकट के पहले दिन से यानी जब सेना हरकत में नहीं आई थी तब से ही अपना काम करना शुरू न किया होता तो हालात और भी भयावह होते। छात्र, मोहल्लों के नेताओं आदि ने सुरक्षित ठिकानों और वहां रहने के अस्थायी इंतजाम शुरू कर दिए थे। शुरुआत में सेना को अपना काम करने में इन युवाओं से जबरदस्त मदद हासिल हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी अधिकारी तो मौके से पूरी तरह नदारद हो चुके थे। लोग लापता थे, परिवार बिछड़ चुके थे, ऐसे में तकनीक से लैस इन युवाओं ने सोशल मीडिया की मदद से संचार की कमी पूरी की। वहीं अन्य ने आपातकालीन आपूर्ति के लिए शिविर बनाए जहां से मदद घाटी पहुंंचनी शुरू हुई। धीरे-धीरे पूरा देश उनके पीछे एकजुट हो गया। यहां भी भाजपा का तंत्र सक्रिय था, उसके सुगठित सोशल मीडिया तंत्र ने कारगर भूमिका का निर्वाह किया। सेना के मीडिया संस्थान आर्मी लायजन सेल ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान के नेतृत्व में एएलसी ने अपने फेसबुक पेज और ट्विटर फीड को सूचना केंद्र में बदल दिया। यह पूरी प्रक्रिया बहुत मददगार साबित हुई। सेना जनसंपर्क में पहले से कमजोर थी लेकिन लगता है अब हालात बदल रहे हैं। केंद्र सरकार ने सेना के अच्छे काम की फसल काटी है। इसमें दो राय नही कि सेना इस आपदा के दौरान बहुत मजबूत होकर उभरी है लेकिन कश्मीर की रोजमर्रा की राजनीति की प्रकृति से यही अंदाजा मिलता है कि यह एक क्षणिक लाभ है। बस एक फर्जी मुठभेड़, बलात्कार या शोषण का एक इल्जाम स्थानीय लोगों की नजर में सेना को दोबारा शक के दायरे में ला देगा और सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम के चलते होने वाले अन्यायों की बात की जाने लगेगी लेकिन भाजपा के लिए फिलहाल हवाएं सुखदेय हैं। बकौल अमित, जम्मू को लगता है कि भाजपा को सत्ता से अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए उलटी गिनतियां शुरू होंगी। स्थानीय लोगों की और भी उम्मीदें हैं और यही चुनावों में अहम भूमिका का निर्वाह करेंगी।

Sunday, November 2, 2014

कुलपति पद को तो बख्शें

उच्च शिक्षा पटरी से उतर रही है। विश्वविद्यालयों की स्थितियां प्रतिदिन बिगड़ रही हैं। शासन-सत्ता ने कुलपतियों के हवाले छोड़ रखा है और कुलपति नियंत्रक की भूमिका ढंग से नहीं निभा पा रहे। दरअसल, कुलपति चयन की प्रक्रिया में गंभीर त्रुटियां हैं, सरकारों और राज्यपालों ने इसे अपने मनमुताबिक मान लिया है और जो नियुक्तियां हो रही हैं, उनका पैमाना प्रशासनिक और अकादमिक अनुभव कम, राजनीतिक उद्देश्य ज्यादा हो गए हैं। यह स्थितियां रहीं तो रहा-सहा ढांचा ढहने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला।
विश्वविद्यालय ज्ञान तथा नवाचार के केंद्र के रूप में स्थापित किए जाते हैं। यहां नई पीढ़ी को तैयार किया जाता है। कोई भी संस्था या विश्वविद्यालय किस ऊंचाई तक अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा सकता है तथा युवा प्रतिभा का विकास कर सकता है, जिसमें कुलपति द्वारा प्रदत्त शैक्षिक, नैतिक तथा बौद्धिक नेतृत्व सबसे महत्वपूर्ण होता है। परंपरा से कुलपति का पद समाज में श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। व्यवस्था उसके ज्ञान तथा विद्धतापूर्ण योगदान के कारण सदैव नतमस्तक रही है। डॉक्टर राधाकृष्णन, सर रामास्वामी मुदलियार, आशुतोष मुखर्जी, पंडित मदन मोहन मालवीय, गंगानाथ झा, डॉक्टर अमरनाथ झा, डॉक्टर जाकिर हुसैन जैसे कई विख्यात नाम याद आते हैं। इन नामों को सुनकर ही कुलपति की गरिमा, प्रतिष्ठा का पक्ष उभरकर सामने आ जाता है। इसी के मद्देनजर कोठारी आयोग (1964-66) ने स्पष्ट संस्तुति की थी कि शिक्षा के इतर क्षेत्रों से सेवानिवृत्त होकर आए व्यक्तियों की कुलपति पद पर नियुक्ति उचित नहीं। विशेष परिस्थितियों में ऐसा कुछ करना भी पड़े तब भी उसे किसी को पुरस्कृत करने या पद देने के लिए प्रयोग न किया जाए। विश्वविद्यालय शिक्षा के मंदिर ही नहीं बल्कि विद्वत समाज की वजह से भी जाने जाते हैं और कुलपति को विद्धता तथा योगदान के आधार पर विश्वविद्यालय को नेतृत्व देना होता है। इसका आधार उसकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिकता होती है। ज्ञान की खोज और सृजन गहन प्रतिबद्धता के आधार पर ही हो पाता है। इसके लिए उचित वातावरण का निर्माण कुलपति का विशेष उत्तरदायित्व होता है। उस वातावरण में सम्मान तथा श्रद्धा उसे तभी मिलती है जब वह शोध, नवाचार तथा अध्यापन में सक्रिय भागीदारी निभाता है। वह मात्र अपने पद के अधिकारों के आधार पर सम्मान और श्रद्धा अर्जित नहीं करता है। कुछ समय से यह मिसालें भी सामने आ रही हैं कि पुलिस अफसर और नौकरशाह भी कुलपति के पद पर नियुक्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला अपर पुलिस महानिदेशक मंजूर अहमद की आगरा विश्वविद्यालय में नियुक्ति से शुरू हुआ था, जो धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी आरंभ हो गया। इसके अतिरिक्त राजनेताओं को कुलपति बनाने के तो और भी तमाम उदाहरण हैं। इस तरह की नियुक्तियों में देखा यह गया है कि राजनेता और नौकरशाह अकादमिक बातों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया करते बल्कि उनका पूरा जोर प्रशासनिक व्यवस्थाओं की तरफ होता है। वह उन बातों के लिए जरूरी समय नहीं निकालते जो विश्वविद्यालयों के मूल कार्यों में शुमार हैं। इसीलिये उनके कार्यकालों में शोध और पाठ्यक्रम उन्नयन के कार्यों में ब्रेक लग जाया करते हैं।
सेवारत अफसरों की नियुक्तियों से तो और भी समस्याएं आती हैं। वह काम ढंग से नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह मात्र एक अस्थायी व्यवस्था है जैसे वह किसी विभाग से स्थानांतरित होकर यहां आए हों। राजनीतिक नेतृत्वों ने पहुंच वाले नौकरशाहों को लगने लगता है कि एक से दूसरे विभाग में स्थानांतरित होकर वह कार्यकुशलता दिखा सकता है तो सेवानिवृत्त होकर एक विश्वविद्यालय क्यों नहीं चला सकता? नेता और नौकरशाह जब मिल जाते हैं तब वे शिक्षाविदों, प्राध्यापकों और विद्वानों को चयन समितियों में अधिकतर अवसरों पर खानापूर्ति के लिए आमंत्रित करते हैं। कुलपति की नियुक्तियों में जाति, पंथ, क्षेत्रीयता अब खुलेआम हावी हो रही है। इस क्रम में अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय का उदाहरण देखें, इस विवि की स्थापना की घोषणा पूर्व राष्ट्रपति और प्रख्यात वैज्ञानिक डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन जैसे नामों के साथ की गई, लेकिन जब वहां पहले कुलपति की नियुक्ति की घोषणा हुई तो लोगों का आश्चर्य और आशंकाएं उभर कर सामने आ गर्इं। कलाम अलग हो चुके हैं। लोग पूछते हैं कि यह विश्वविद्यालय कहां से चल रहा है, दिल्ली से, पटना से, विदेश से या नालंदा से? जो भी हो, यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि शिक्षा की प्रगति न केवल ठहरी है वरन नीचे जा रही है। निजी विश्वविद्यालयों की स्थितियां भी सुखद नहीं हैं।  देश में जब मानद विश्वविद्यालयों की अचानक बाढ़ आ गई है, तब उसके पीछे की कहानी भी सारे देश में प्रचलित हुई। कुलपतियों की नियुक्ति भी अनेक बार चर्चा के उसी दायरे में आती है कि कौन किस का नामित है, वह कैसे सबसे आगे निकल गया, पद पर आकर उसका सबसे बड़ा लक्ष्य क्या होगा, इत्यादि। मानद विश्वविद्यालयों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब राजनेता अथवा व्यापारी पिता ने संपत्ति अर्जित की, शिक्षा को निवेश का सुरक्षित क्षेत्र माना और पुत्र को कुलपति या कुलाधिपति बना दिया जिससे बौद्धिक क्षमताओं से परिपूर्ण शख्सियतें हताश हो जाती हैं और अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। असल में, यह मनन का वक्त है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाए बिना देश की ज्ञान संपदा नहीं बढ़ सकती। यह तभी संभव होगा जब उच्च शिक्षा नौकरशाहों तथा राजनेताओं के गठबंधन से मुक्ति पा सके। इसके लिए प्राध्यापकों, विद्वानों तथा साहित्यकारों को एकजुट होकर आवाज उठानी होगी।

Friday, October 24, 2014

मोदी का मिशन कश्मीर

हरियाणा और महाराष्ट्र में फतेह के बाद भारतीय राजनीति के नए चाणक्य नरेंद्र मोदी के एजेंडे में अब जम्मू-कश्मीर सबसे ऊपर है। मकसद मात्र सत्ता प्राप्त करना ही नहीं है बल्कि एक तीर से कई निशाने साधे जाने हैं। पाकिस्तान को सबक तब सीमा के साथ ही घाटी से भी मिलेगा। भाजपा जिस रास्ते पर चल रही है, उसमें जम्मू ही नहीं, पूरे कश्मीर में भी गंभीरता से चुनाव लड़ना शामिल है। जिस राज्य में कोई प्रधानमंत्री साल में एक भी न जाता रहा हो, वहां मोदी पीएम बनने के बाद चार बार हो आए हैं। उनका हर दौरा चर्चा में आया है, कामयाब रहा है।
कश्मीर मुद्दा हर राजनीतिक पार्टी के गले की फांस रहा है। भाजपा इस मामले में खुद को अलग बताती है और वादा करती रही है कि सत्ता मिलते ही वह इसका समाधान करेगी। इस समय हालांकि वह अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर चुप है लेकिन पहले इसकी समाप्ति के लिए खासे अभियान चला चुकी है। यह अनुच्छेद राज्य को अन्य राज्यों से अलग करते हुए विशेष अधिकार प्रदान करता है। भाजपा मानती है कि घाटी से अगर यह अनुच्छेद हटा दिया जाए तो कुछ दिन के असंतोष के बाद समस्या हल हो जाएगी। बाहर के लोग आकर बसने लगेंगे तो वो इलाके भी रोशन हो जाएंगे जहां से अलगाव के झण्डे उठते हैं। अन्य राज्यों की तरह जम्मू एवं कश्मीर भी निवेश आकर्षित कर पाएगा जिससे समूल विकास सुनिश्चित हो सकेगा।  इसी क्रम में पार्टी की योजना पर्यटन के विकास की है। जम्मू कश्मीर देश का एक ऐसा राज्य है जहां पर्यटन की काफी संभावनाएं हैं। इससे न सिर्फ रोजगार पैदा होगा बल्कि देश के अन्य नागरिकों के लिए भी कश्मीर के दरवाजे खुलेंगे। वह भली-भांति जानती है कि कश्मीर के लोग अपने लिए बनाई गई नीतियों से संतुष्ट नहीं हो पाते क्योंकि वह पर्याप्त प्रचार-प्रसार के अभाव में उन्हें समझ ही नहीं पाते। केंद्र की नीतियों को राज्यों की सरकारें अपने व्यक्तिगत हितों की वजह से पूरी तरह  क्रियान्वित ही नहीं होने देतीं। इसी वजह से उसने ठानी है कि केंद्र कश्मीरियों के उत्थान के लिए जो भी नीति बनाएगा, उसके बारे में वह कश्मीरियों को भली-भांति समझाएगी। उन्हें महसूस कराएगी कि यह योजना उत्थान और कल्याण के लिए बनी है। आतंकवाद की मार झेल रहे कश्मीर के अवाम में सेना को लेकर भी असंतोष है। समय-समय पर वहां के मुख्यमंत्री भी सेना को प्राप्त विशेष अधिकारों की समाप्ति की मांग करते रहे हैं। मोदी समझ रहे हैं कि चुनौती लोगों में सेना और नई दिल्ली के प्रति सम्मान और भरोसा पैदा करने की भी है इसीलिये वह बार-बार दौरा कर रहे हैं। उन्होंने भरोसा कायम भी किया है। वह समझा रहे हैं कि देश में जिस तरह बदलाव की बयार बह रही है, उससे कश्मीर को वंचित नहीं रहना है। कश्मीर में एक समस्या आतंकवाद में कुछ प्रतिशत युवाओं की संलिप्तता भी है। कश्मीर में बेरोजगारी मुख्य समस्या है। रोजगार के अभाव में आतंकवादी समूह बड़ी संख्या में युवकों को गुमराह करके पूरे राज्य को आतंकवाद की आग में झोंके हुए हैं। इसके लिए भाजपा रोजगार के ढेरों मौके मुहैया कराने की योजना बना रही है। मोदी के एजेंडे में कश्मीरी पंडितों की वापसी भी है। उन्हें लग रहा है कि मूल निवासियों के घर लौटने से राजनीतिक रूप से उसे फायदा है। इससे न केवल उसका वोट प्रतिशत बढ़ेगा बल्कि समर्थकों का एक बड़ा समूह भी हासिल हो जाएगा। दरअसल, उग्रवाद का प्रभाव जिन लोगों पर सबसे ज्यादा पड़ा है, वो कश्मीरी पंडित ही हैं। घाटी में बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित अपने घरों से विस्थापित हुए हैं। कश्मीरी पंडितों ने मोदी के समर्थन का यह कहते हुए ऐलान किया है कि उन्हें घर वापसी के लिए मार्ग सुगम करना होगा। ऐसा होता है आतंकवादियों के हौसले भी कमजोर होंगे।
अब सवाल यह है कि मोदी और उनकी पार्टी इन वादों-इरादों को अंजाम तक पहुंचाने में कितनी सफल रहने वाली है? घाटी में सब-कुछ वहां के लोगों पर निर्भर नहीं है बल्कि पाकिस्तान जैसी बाहरी शक्तियां भी प्रभावी हैं। मोदी की योजना पहले एक मोर्चे पर फतेह हासिल करने की है। राजनीतिक रूप से सशक्त होने के बाद वह यह कहने में सफल हो जाएंगे कि उन्हें घाटी के लोगों का समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान को सीमा पर कमजोर सिद्ध करना भी उनकी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा है। इसीलिये सीमा पर फायरिंग शुरू होने के बाद उन्होंने तत्काल टिप्पणी नहीं की ताकि यह संकेत जाए कि वह पाकिस्तानी हरकतों को टिप्पणी के काबिल भी नहीं समझ रहे। सेना सशक्त है और जवान खुद इसका जवाब देने में सक्षम हैं। इसी का असर है कि पाकिस्तान को तेवर कड़े करने पड़े, संसद में भारत के विरुद्ध निंंदा प्रस्ताव भी उसने इसीलिये पारित किया ताकि भारत पर दबाव बढ़े और मोदी सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह सीमा पर हमलावर न रहकर, रक्षात्मक हो जाए। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी संकेत चले जाएं कि मोदी सरकार का रुख पाकिस्तान के प्रति खासा आक्रामक है। पाकिस्तान को कमजोर दोस्त साबित करने से घाटी के लोगों पर मनोवैज्ञानिक असर होगा, वह मानने लगेंगे कि पाकिस्तान से बेहतर भारत के साथ रहना है। राजनीतिक रणनीति की बात करें तो भाजपा की तैयारी इस बार पूरे राज्य में अपने प्रत्याशी खड़े करने की है। आतंकवाद का सर्वाधिक शिकार श्रीनगर में भी वह मैदान में होगी, यह दीगर है कि यहां पार्टी का चेहरा कोई मुस्लिम होगा। पार्टी की योजना अन्य कई सीटों पर भी मुस्लिम प्रत्याशी खड़े करने की है। कोशिश तो सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस और मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी  के नेताओं से पाला बदलवाने की भी है। मोदी कश्मीर मिशन खुद देख रहे हैं, सारी योजनाएं उनकी अपनी है। इसलिये पार्टी को उम्मीद कामयाबी की है।

Saturday, October 18, 2014

शिक्षा में पिछड़तीं मुस्लिम लड़कियां

कहते हैं कि तुमने एक मर्द को पढ़ाया तो सिर्फ एक व्यक्ति को पढ़ाया पर यदि किसी औरत को पढ़ाया तो एक खानदान और एक नस्ल को पढ़ा दिया। दुर्भाग्य है कि यह कहावत जिस मुस्लिम समाज में सुनी-सुनाई जाती है, वह खुद बालिका शिक्षा के प्रति सर्वाधिक लापरवाह है। देश में बालिका शिक्षा की दर 40 प्रतिशत है, वहीं सौ में से मात्र 11 मुस्लिम बालिकाओं को ही उच्च शिक्षा मिल पा रही है। शहरी क्षेत्रों में 4.3 और ग्रामीण इलाकों में 2.26 फीसदी लड़कियां ही स्कूल जाती हैं। सच्चर समिति की रिपोर्ट में जो आंकड़े दिए गए हैं, यह उससे उलट हैं। यह आंकड़े गैरसरकारी संगठन के हैं।
बेशक, शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है। शिक्षित कौमों ने ही हमेशा तरक्की की है। किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्व दे रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। भारत में, खासकर मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है। आंकड़े साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी बहुत अच्छी तस्वीर पेश नहीं कर पाई थी, जिसमें बताया गया था कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में औसतन साढ़े तीन प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों के स्कूल जाने का जिक्र था। नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्राथमिक स्तर यानी पांचवीं तक की कक्षाओं में 1.483 करोड़ मुस्लिम बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, यह संख्या प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में दाखिला लेने वाले कुल 13.438 करोड़ बच्चों की 11.03 फीसदी है जो वर्ष 2007-08 में 10.49 फीसदी थी और 2006-07 में 9.39 प्रतिशत। इन कक्षाओं में पढ़ रहे कुल मुस्लिम छात्रों में 48.93 फीसदी लड़कियां शामिल हैं। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में भी मुस्लिम बच्चों की तादाद में इजाफा हुआ तो है लेकिन इतना नहीं जो संतोष पैदा करता हो। काबिले गौर यह भी है कि उच्च प्राथमिक विद्यालय में लड़कियों की संख्या मुस्लिम छात्रों की तादाद की 50.03 फीसदी है, जबकि सभी वर्ग की लड़कियों के उच्च प्राथमिक कक्षा में कुल दाखिले महज 47.58 फीसदी हैं। यह रिपोर्ट देश के 35 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों के 633 जिलों के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त स्कूलों से एकत्रित जानकारी पर आधारित है। रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 64 साल तक की हिंदू महिलाओं (46.1 फीसदी) के मुकाबले केवल 25.2 फीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोजगार के क्षेत्र में हैं। अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है और वह अपनी मर्जी से अपने ऊपर एक भी पैसा खर्च नहीं कर पातीं। लड़कों की शिक्षा के बारे में मुस्लिम अभिभावकों का तर्क होता है कि पढ़-लिख लेने से कौन सी उन्हें सरकारी नौकरी मिल जानी है। फिर पढ़ाई पर क्यों पैसा बर्बाद किया जाए? बच्चों को किसी काम में डाल दो, सीख लेंगे तो जिंदगी में कमा-खा लेंगे। वहीं लड़कियों के मामले में कहा जाता है कि ससुराल में चूल्हा-चौका ही तो संभालना है इसलिए बेहतर है कि लड़कियां सिलाई-कढ़ाई और घर का कामकाज सीख लें। ससुराल में यह तो नहीं सुनना पड़ेगा कि मां ने कुछ सिखाया नहीं। कारणों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए धार्मिक कारण काफी हद तक जिम्मेदार हैं जो  खुद-ब-खुद गढ़ लिये गए हैं। धर्म कहता है कि पिता और पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी वो खुद भी है। वह खुद शादी भी कर सकती है हालांकि माता-पिता की सहमति को शुभ माना गया है। इसके अतिरिक्त भी कई सुविधा-अधिकार उन्हें हासिल हैं जो इस बात के गवाह हैं कि उनके अनपढ़ रहने या पिछड़ेपन के लिए इस्लाम कतई जिम्मेदार नहीं है। इसके बावजूद, उनकी हालत यदि संतोषजनक नहीं है तो इसके लिए पुरुष सत्तावादी समाज है, जो हर धर्म में है। इसी की वजह से वह उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इस तस्वीर का दूसरा रुख भी है जो उम्मीदें पैदा करता है। मुस्लिम महिलाओं के आगे बढ़ने की यह कहानियां बस्तियों से हटकर हैं। फातिमा बी जहां हमारे देश की पहली महिला न्यायाधीश थीं, नजमा हेपतुल्ला नरेंद्र मोदी कैबिनेट में अहम जिम्मेदारी संभाल रही हैं, वहीं तमाम अन्य क्षेत्रों में भी महिलाएं अपनी योग्यता का परिचय दे रही हैं। तुर्की जैसे आधुनिक देश में ही नहीं बल्कि कट्टरपंथी समझे जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश सरीखे देशों में भी महिलाओं को प्रधानमंत्री तक बनने का मौका मिला है। यह वाकई एक खुशनुमा अहसास है कि मजहब के ठेकेदारों की तमाम बंदिशों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं राजनीति के साथ खेल, व्यापार उद्योग, कला, साहित्य, रक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। अल्पसंख्यक मामलों की केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला कहती हैं कि मुस्लिम लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ाना मोदी सरकार के एजेंडे में है क्योंकि सभी वर्गों का एकसाथ विकास ही देश के संपूर्ण विकास में मददगार सिद्ध हो सकता है। बेशक, यह सही सोच है। ऐसे समय में जब सभी वर्गों-धर्मों की लड़कियां आगे बढ़ रही हैं, हम मुस्लिम लड़कियों के साथ अन्याय नहीं कर सकते। मलाला यूसुफजई को मिला नोबेल अवार्ड प्रेरित कर रहा है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के इस हिस्से के बारे में भी सोचें और कुछ करें। मोदी सरकार यदि सकारात्मक सोच रही है, तो यह स्वागतयोग्य है।

Monday, October 13, 2014

अलगाववादियों में हताशा के दिन...

पहले बाढ़ और फिर पाकिस्तानी सेना की फायरिंग के बाद जम्मू-कश्मीर एक बार फिर सुर्खियों में है। लेकिन इस दफा मामला बेहद गंभीर और संगीन है। इंटेलीजेंस ब्यूरो तक पहुंची एक रिपोर्ट के मुताबिक, श्रीनगर में बीते दिनों ईद की नमाज के बाद भड़की हिंसा के दौरान प्रदर्शनकारियों ने इराक के खतरनाक आतंकी संगठन आईएसआईएस का झंडा लहराया था। 
शुरुआती रिपोर्टों में बताया गया है कि यह पाकिस्तानी शह पर हो रहा है। सीमा पर पाकिस्तान ने जब सिरदर्द बनना शुरू किया तो यह तत्व घाटी में अंदर सिर उठाने लगे। कोशिशें हुर्इं कि भारत की सेना सीमा और अंदर, दोनों मोर्चों पर मुश्किल में फंस जाए। कुछ जगह भारत विरोधी नारे लगाकर भी माहौल बिगाड़ने की कोशिशें की गर्इं। हालांकि इन तत्वों को भारतीय सेना की ताकत का अंदाजा था इसलिये सारे कुकृत्य चोरी-छिपे और अंदरूनी इलाकों में हुए। कश्मीर घाटी में सुरक्षाबलों के सामने अक्सर पथराव की भी घटनाएं होती हैं बल्कि यह घटनाएं ही एक समस्या नहीं है बल्कि उन्हें प्रदर्शनों के दौरान गालियों, भड़काऊ नारेबाजी और दीवारों पर लिखे देश विरोधी नारों से भी जूझना पड़ता है। कई बार सुरक्षाबल भारत विरोधी नारे लिखने वालों को मुंहतोड़ जवाब देते हैं और नारों को संपादित कर अपने राष्ट्र प्रेम का प्रतीक बना देते हैं। पिछले दिन एक उदाहरण सामने आया था, जिसमें कुछ राष्ट्र विरोधी तत्वों ने नौहट्टा के मुख्य चौक पर यह नारा लिखा- गो इंडिया गो लेकिन सुरक्षाबलों ने इस नारे को संपादित कर वहां- गुड इंडिया गुड लिख दिया। नौहट्टा और बारामूला के ओल्ड ब्रिज क्षेत्र में अक्सर घंटों तक चलते रहने वाले पथराव के दौरान पत्थर फेंकने वालों और सुरक्षाबलों के बीच तीखा वाकयुद्ध भी होता है।यह तत्व यह भूल जाते हैं कि  भारतीय सेना के आत्मविश्वास और राष्ट्रप्रेम की दुनियाभर में मिसालें दी जाती हैं। कुछ मुट्ठीभर युवक इन नारों से न तो सुरक्षाबलों को डरा सकते हैं और न स्थानीय लोगों को। असल में, कश्मीर बाढ़ के दिनों में आतंकवादी गिरोहों के व्यवहार से कश्मीर घाटी की आम जनता को बहुत निराशा हुई है। जब सेना के जवान कश्मीरियों को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे थे, उस समय पाकिस्तान का गुणगान करने वाले आतंकी संगठन घरों या आश्रय स्थलों में छिपे बैठे थे। उन्हें अपनी जान ही प्यारी थी, घाटी की आवाम के जान और माल की इन्हें कोई चिंता न थी। उन आतंकी गिरोहों का मनोबल बनाए रखने के लिए भी पाकिस्तान के लिए सीमा पर हलचल करना लाजिमी हो गया था। यदि पाकिस्तान की इस कार्रवाई से सचमुच घाटी के आतंकियों में आशा जगती है, तो समझ लीजिए कि उसी अनुपात में देश की बाकी जनता के मन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर उपजे हुए विश्वास और आशा में कमी आ जाएगी। यह साधारण मनोवैज्ञानिक स्थिति पाकिस्तान की सरकार समझती ही होगी। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा पर की जा रही हरकतों को समझना ज्यादा आसान हो जाएगा। लेकिन केवल समझ मात्र लेने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि उसका उत्तर भी तलाशना होगा। ऐसा उत्तर जो सीमा पर शत्रु देश को दिया जाए और देश के भीतर उन लोगों को, जो शत्रु द्वारा किए जा रहे आक्रमण को भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं।

Sunday, October 12, 2014

बड़ी मुश्किलों में पाकिस्तान

पाकिस्तान आंतरिक मुश्किलों में बुरी तरह घिर चुका है। हर मोर्चे पर बुरे हाल हैं। आर्थिक तंत्र मजबूत नहीं रहा, महज कुछ साल में इस पड़ोसी देश का निर्यात सवा दस से महज चौथाई प्रतिशत तक गिर गया है। सैन्य तंत्र भी ढह रहा है। तमाम सैन्य इकाइयां कई-कई माह तक वेतन के लाले झेलती हैं। भारी-भरकम विदेशी कर्ज के सहारे वह कितने दिन चल पाएगा, यह देखना बाकी है। यह भी आशंका है कि राजनीतिक सत्ता का कुछ माह में पतन हो जाए। हालांकि भारत के लिए पाकिस्तान के पतन की स्थिति भी अच्छी नहीं होगी क्योंकि वहां अगली सत्ता उग्रवादियों की होगी या फिर, तानाशाहों की।
आतंकवाद का जिस तरह से पाकिस्तान में प्रसार हुआ है, वैसा शायद किसी देश में नहीं हुआ होगा। कभी स्वात घाटी तक जो उग्रवादी सत्ता चलाते थे, कराची का व्यापारिक ताना-बाना ढेर कर रहे थे, वो आज इस्लामाबाद में बे-खौफ घूमते हैं, उद्योगपतियों-व्यापारियों से चौथ वसूला करते हैं। बंदूकें वहां छिपकर नहीं रखी जातीं बल्कि किसी भी कमर में बेल्ट में अटकी नजर आ जाती हैं। गोलियां चलना वहां आम बात है। ऐसा नहीं कि राजधानी में पुलिस तंत्र गायब हो लेकिन वह मात्र लकीर पीट रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि पिछले 10 साल में यहां दो सौ पुलिसकर्मी आतंकी हमलों में मारे गए। जब राजधानी का हाल यह हो तो बाकी देश कैसा होगा, बताने की जरूरत नहीं दिखती।   आतंकवादी संगठनों का इतना जबर्दस्त जलवा है कि तालिबान ने खुलकर कह दिया है कि उसका लक्ष्य परमाणु हथियारों के साथ पाकिस्तान पर कब्जा करना है। कराची के मेहरान नौसैनिक अड्डे पर तालिबान बड़ा हमला कर ही चुका है। पाकिस्तान परमाणु क्षमता वाला अकेला मुसलमान देश है और तालिबान का इरादा हथियारों को नष्ट करने का नहीं बल्कि उन पर कब्जा करने का है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से ही लग जाता है कि सैन्य अड्डे पर मुट्ठीभर आतंकियों का साथ देने वाले पाकिस्तानी सेना के तालिबान समर्थक अफसर थे। रक्षा विशेषज्ञों का आंकलन है कि पाकिस्तानी नौसेना, वायुसेना और थलसेना, तीनों में तालिबान की घुसपैठ हो चुकी है।
पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसे हालात हैं, तालिबान की धमकी एक डरावनी हकीकत में न बदल जाए क्योंकि पर्दे के पीछे से पाक में असल सत्ता चला रही पाक सेना आतंकियों के मुकाबले पस्त दिख रही है। आम पाकिस्तानी न तो अब पाक फौज पर विश्वास करता है और न ही देश के राजनीतिज्ञों पर। संघीय सरकार प्रतीकात्मक रह गई है। बलूचिस्तान में चल रहे अलगाववादी आंदोलन ने भी मामला बिगाड़ा है।  भारत की मानिंद पाकिस्तान में अभी तक राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज नहीं है क्योंकि जिन चार समुदायों-सिंधी, बलूची, पंजाबी और पठानों ने पाकिस्तान की स्थापना की, वे आज भी खुद को सिंधी, बलूची, पंजाबी और पठान मानते हैं। इनमें अपना स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की भावना बलवती होती जा रही है। मोहाजिर आज भी मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाए हैं और स्वयं को शोषित-उपेक्षित अनुभव कर रहे हैं। कराची, हैदराबाद, सिंध में जहां बड़ी संख्या में मोहाजिर हैं और वे अपने लिए अलग राज्य चाहते हैं। यह भी पाकिस्तान के एक और विभाजन का बड़ा कारण बन सकता है। पाकिस्तान की करीब आधी आबादी उग्रवाद, गरीबी और बेरोजगारी की वजह से गंभीर मानसिक रोगों का शिकार है। मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में गिरावट के कारण लोगों की सहनशीलता कम हुई है और लोग हिंसक भी हुए हैं। उनमें असुरक्षा की भावना से ग्रस्त घर गई है। उग्रवाद, अराजकता और आत्मघाती हमलों की वजह से पाकिस्तान के लोगों की जिंदगी बेहद खराब हो चुकी है। रही-सही कसर कीमतों में बढ़ोत्तरी और बेरोजगारी ने पूरी कर दी है। अर्थव्यवस्था बुरी तरह से विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से मिलने वाली सहायता पर निर्भर है। कीमतें आसमान छू रही हैं, बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर है और युवाओं की आबादी का बड़ा हिस्सा नौकरी की तलाश में देश छोड़ने की फिराक में है। कहा तो यहां तक जाने लगा है कि इस देश की आर्थिक स्थिति ऐसे ही बिगड़ती गई तो उसका भी सोवियत संघ और यूगोस्लाविया की तरह विघटन हो जाएगा। इतिहास पर नजर डालें तो मोहम्मद अली जिन्ना ने जब पाकिस्तान की बागडोर संभाली थी, तब आर्थिक स्थिति खराब नहीं थी। यह स्थिति खराब तब हुई जब उसने अपना रक्षा बजट बढ़ाया। भारत विरोध ही उसका एकमात्र एजेंडा हो गया। औद्योगिक विकास ठप हो गया। कृषि क्षेत्र में विकास अवश्य हुआ, किन्तु वो भी इतना नहीं था कि वह पूरे देश के वित्तीय हाल को संभाल सके। आर्थिक स्थिति के कारण ही पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में भेदभाव बढ़ता गया, सत्ता का केंद्र चूंकि पश्चिमी पाकिस्तान में था इसलिए पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बंगलादेश बन गया। विभाजन की मांग कर रहे गुटों-संगठनों की धमक इतनी है कि यह देश दोबारा बंट जाए तो बड़ी बात नहीं। लेकिन पूरी स्थितियों में भारत को राहत का अनुभव नहीं करना चाहिये क्योंकि आतंकवादियों के हाथ में सत्ता आने पर वह भारत का सिरदर्द बढ़ाएंगे। इसलिये केंद्र सरकार को सतर्क कदम उठाने की जरूरत है। उसे अमेरिका जैसे उन देशों के साथ समन्वय बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिये जो आतंकवाद के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं। आतंकवाद पर लगाम के बाद ही भारत का सिरदर्द कम हो सकेगा।

Thursday, October 2, 2014

डिजिटल इंडिया का सपना

स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार डिजिटल इंडिया मिशन पर जोर लगाने की तैयारियों में जुटी है। यह सामयिक है और भारत के लिए जरूरी भी। दरअसल, हम तकनीक की नई दुनिया में बहुत आगे पहुंच चुके हैं। तकनीक की दुनिया के नए उभरे इस देश में जहां 18 साल में मोबाइल कनेक्शन शून्य से साढ़े 87 करोड़ तक पहुंच गए हैं, जो अमेरिका और चीन के बाद इंटरनेट की तीसरी सबसे बड़ी आबादी है, जिसमें लगभग 90 करोड़ फोन कनेक्शनों में 97 फीसद मोबाइल हैं, गूगल की 13 सदस्यीय मैनेजमेंट टीम में से जिस देश के चार नागरिक शुमार हैं, जिसके 100 अरब डॉलर के आईटी-बीपीओ उद्योग का 70 फीसदी व्यापार निर्यात आधारित है।अब तस्वीर  का दूसरा रुख देखिए, जो सिद्ध कर रहा है कि भारतीय भी अपने देश को तकनीक महाशक्ति बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे।
इस रुख को स्पष्ट करने के लिए मैं पांच ऐसे व्यक्तियों का उदाहरण दे रहा हूं, जो अपने क्षेत्रों के महारथी हैं लेकिन अब देशहित में जुटे हैं। पहला व्यक्ति नंदन नीलेकणि ने नामी कंपनी इंफोसिस के ऐशो-आराम छोड़कर लगभग सवा अरब लोगों को डिजिटल पहचान पत्र जारी करने के प्रोजेक्ट में लगा था। दूसरा, हर महीने डिजिटल दुनिया में सर्च कर रहे 100 अरब लोगों को उसके बेहतर नतीजे दिलाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है। नाम है-बेन गोम्स।  तीसरी एक युवती है जिसने दुनिया की सबसे लोकप्रिय मानी जाने वाली सोशल नेटर्वकिंग कम्पनी के लिए प्रमुख फीचर बनाए। रुचि सांघवी आज नेटर्वकिंग साइट्स के लिए बड़ा नाम है। चौथा, रिकिन गांधी नामक भारतीय तकनीकी और सामाजिक संस्थाओं को साथ लाकर किसानों के फायदे के लिए काम दिन-रात एक कर रहा है और पांचवें संजीव बिखचंदानी लगभग 30 लाख लोगों को नौकरी खोजने में मददगार हैं। नीलेकणि ने बंगलोर में एक सॉफ्टवेयर कम्पनी से करियर शुरू किया और 28 साल जब वह पीक पर थे तो देश के लिए काम करने में उतर आए। नंदन की शुरू की हुई उस कम्पनी और उसकी जैसी कई अन्य कम्पनियों ने भारत के आईटी-बीपीओ उद्योग को 2014 में 150 अरब डॉलर से ज्यादा का कर दिया। सिलिकन वैली में बंगलोर के मूल निवासी बेन गोम्स भी खासे चर्चित हैं। कभी ब्रिटिश कम्पनी जेडएक्स स्पेक्ट्रम कम्यूटर के साथ घर में जोड़-तोड़ करने वाले बेन आज दुनिया की सबसे बड़ी वेब सर्च कंपनी में हैं। आप गूगल में कुछ खोजने के लिए टाइप करते हैं तो उसमें अपने-आप दिखने वाले सुझाव गोम्स की ही वजह से हैं। इसी तरह की उपलब्धियां भरी कहानी है पुणे की 23 वर्षीय रुचि सांघवी की। उन्होंने नई कम्पनी से काम शुरू किया, यह कम्पनी कॉलेज जाने वालों के लिए डेटिंग सर्विस जैसी लगती थी।
बतौर ट्रेनी इंजीनियर करियर शुरू करने वालीं रुचि फेसबुक में प्रिंसिपल प्रॉडक्ट मैनेजर और उसकी न्यूज फीड सेक्शन हेड रहीं। महज 29 साल की उम्र में नौकरी छोड़ने के बाद रुचि ने नई कंपनी शुरू की और सिलिकन वैली में सहयोगियों को अपने साथ ले लिया। बाद में इस कम्पनी का ड्रॉपबॉक्स ने अधिग्रहण कर लिया। ड्रॉपबॉक्स इंटरनेट से जुड़ी वो जगह है जहां आप अहम दस्तावेज और तस्वीरें रख सकते हैं। इतनी ही धमक रिकिन गांधी की जिन्होंने अंतरिक्ष यात्री बनने का सपना महज चंद कदम की दूरी पर ही छोड़ दिया। उन्होंने अमेरिका छोड़ा, भारत आए और किसानों के साथ काम करने के लिए डिजिटल वीडियो का इस्तेमाल किया ताकि उन किसानों की जिÞंदगी बेहतर की जा सके जो तकनीक से दूर हैं और पिछड़े हैं। स्थानीय तौर पर पर बना ये वीडियो ग्रामीण भारत के लिए साधारण अविष्कार है क्योंकि वहां इंटरनेट की पहुंच नहीं है लेकिन मोबाइल जरूर पैठ कर रहा है। संजीव बिखचंदानी की कहानी कुछ अलग और प्रेरणादायी है। दिल्ली के संजीव ने बहुराष्ट्रीय कम्पनी की नौकरी छोड़ी और करीब एक दशक तक बिना वेतन संघर्ष किया। वर्ष 1997 में उन्होंने नौकरी खोजने के लिए वेबसाइट बनाई तो उसे लोगों के बीच ऐसी लोकप्रियता मिली कि आज वह भारत के प्रमुख वेब बिजनेस के मालिक हैं। करियर पत्रिकाओं से  उन्हें इस वेबसाइट को शुरू करने की प्रेरणा मिली जिनमें उनके मित्र नौकरियां खोजा करते थे। यह वो दौरथा जब समूचे देश में इंटरनेट  प्रयोग करने वालों की संख्या महज 15 हजार थी जो आज लगभग साढ़े सात करोड़ है और हर साल 30 फीसदी की गति से बढ़ रही है। चेन्नई के राम श्रीराम ने नेटस्केप में तब काम किया जब वह कम उत्पादों वाली कम्पनी थी। श्रीराम ने उसे छोड़कर जंगली डॉट कॉम शुरू की, फिर उसे जेफ बेजोस को लगभग साढ़े 18 करोड़ डॉलर में बेच दिया। वह आज भी गूगल के बोर्ड में हैं जिसकी लीडरशिप टीम के 13 में पांच सदस्य भारतीय मूल के हैं। ऐसे उदाहरणों वाले देश में मोदी सरकार के डिजिटल इंडिया प्रोग्राम की कामयाबी ज्यादा मुश्किल नजर नहीं आ रही। इस प्रोग्राम की बड़े पैमाने पर लॉन्चिंग मोदी सरकार का अगला एजेंडा है। अगले महीने सरकार इस कार्यक्रम औपचारिक शुरुआत करने का मन बना रही है। मोदी ने अपनी टीम से इनोवेटिव और नए आइडियाज के साथ शुरुआत करने के लिए कहा है। फिलहाल, जिस आइडिया को संभावित लॉन्चिंग कार्यक्रम के लिए चुना गया है, वह है मोदी का देश के एक हजार पंचायतों के मुखियाओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से बात करना और उन्हें इंटरनेट का महत्व समझाना। विश्व की शीर्ष आईटी कम्पनी आईबीएम ने इसमें काफी रुचि दिखाई है और इस मिशन में सरकार के साथ जुड़ने को लेकर आगे और बातचीत हो सकती है। मोदी फेसबुक को सक्रिय सहयोगी बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

Sunday, September 14, 2014

काली दुनिया के लिए नूरा-कुश्ती

याद कीजिए उन दिनों को जब समूचे उत्तर प्रदेश में लॉटरी का खेल चरम पर था। सुबह होते ही लॉटरी बाजार में रौनक हो जाती और शाम ढलने तक खूब लोग आबाद-बर्बाद हो जाया करते। सरकार भी खुश,  टैक्स के रूप में उसकी करोड़ों की आय जो थी एक दिन की। दिन बदले, सामाजिक बुराई ने तमाम परिवारों को लील लिया, तमाम जानें चली गर्इं, लोगों के घर बिक गए, कर्जे के बोझ तले दब गए। मजबूरी में राज्य सरकार को रोक लगानी पड़ी और फिर यह खेल, परदे के पीछे चला गया। हालांकि कुछ राज्यों में अब भी जारी है, यूपी में भी फिर सुगबुगाहट है, पर सरकार मूड में नहीं दिखती।
देश में लॉटरी का कुल बाजार (आॅनलाइन लॉटरी सहित) तकरीबन 60 अरब डॉलर से ज्यादा है। इस कारोबार को अनिच्छापूर्वक ही सही, व्यापार विषय के तौर पर मान्यता दी जाती है। यह संविधान की संघीय सूची में केंद्र के लिए आरक्षित है जबकि सट्टेबाजी-जुआ राज्य के विषय हैं। नैतिकता की कीमत पर फल-फूल रहे यह बाजार राजस्व के एक बड़े स्रोत हैं और संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी जाते हैं लेकिन सरकारें संभावनाओं की नींव पर चलायी जाती हैं। बहरहाल, मैं लॉटरी की इस समय बात इसलिये कर रहा हूं कि पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के बीच लॉटरियों को लेकर मतभेद खत्म करने के लिए दर्जनों आदेश पारित किए हैं। हर राज्य अपनी लॉटरी से पूरा राजस्व प्राप्त करना चाहता है और उसकी यह कोशिश होती है कि उसके क्षेत्र में दूसरों का दखल न हो। राज्य यह भूल रहे हैं कि हमारे संघीय संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत देश में व्यापार की स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित है। राज्य की सीमाओं से पार लॉटरियों के बढ़ते विवादों की वजह से केंद्र ने 1998 में लॉटरी विनियमन अधिनियम बनाया जिसमें राज्यों को अनुमति दी गई कि वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं लेकिन इसे कुछ राज्यों और एजेंटों ने चुनौती दे दी। शीर्ष कोर्ट ने बीआर एंटरप्राइजेज बनाम यूपी स्टेट (1999) मामले में दिए फैसले में इस कानून को सही ठहराया लेकिन कुछ प्रावधान भी स्पष्ट कर दिए। कोर्ट ने कहा कि केवल वे राज्य जो लॉटरी का संचालन नहीं करते हैं वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर रोक लगा सकते हैं। लेकिन लॉटरियों को लेकर झगड़ा खत्म नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय को इस कानून से जुड़े कुछ सवालों को अभी तय करना है क्योंकि राज्य एक-दूसरे के खिलाफ कानूनी अड़चन डालना जारी रखे हुए हैं। सिक्किम-पंजाब के बीच विवाद को तूल पकड़ चुका है जिसमें सिक्किम की आॅनलाइन लॉटरी को बंद करने का प्रयास किया गया था। नगालैण्ड ने भी विवाद में पक्ष बनने की कोशिश की थी लेकिन पिछले हफ्ते अपनी याचिका वापस ले ली। समस्या और भी हैं। केरल जैसे राज्य परोपकारी गतिविधियों के आवरण में लॉटरी का धंधा करते हैं। अन्य राज्य रोक लगाएं तो हो-हल्ला मचा दिया जाता है।
इससे अलग भी देश में तमाम तरह के जुए और चल रहे हैं। सट्टा तो प्रतिदिन फल-फूल रहा ही है, शेयर बाजार, रुई बाजार, चांदी-सोना बाजार, गुड़-खांड, अरंडा, मूंगफली बीजों जैसे तमाम वायदा सौदों के जरिए भी जुआ खेला जा रहा है। इन बाजारों में कोई भी व्यक्ति बिना माल पास हुए करोड़ों रुपयों का माल बेच सकता है। रुपये न होते हुए करोड़ों का माल खरीद सकता है, बस उसे मात्र सेटलमेंट के दिन भावों में फर्क का भुगतान करना पड़ेगा। पूरी दुनिया में रोजाना करोड़ों रुपये के वायद सौदे होते हैं, कुछ इसी तरह का चलन मुंबई, दिल्ली और कोलकाता आदि शहरों में है जहां लाखों रुपयों के सट्टा सौदे रोजाना अंजाम तक पहुंचते हैं। सट्टे का मूल स्वरूप यही है कि आपका अंदाज सही निकला तो आप कमाएंगे और दूसरा कोई नुकसान उठाएगा। इन व्यापारों में धन पैदा नहीं होता। यह कमाई हुई संपत्ति नहीं बल्कि एक से दूसरे व्यक्ति को इसका अंतरण है। सरकार कमाई के लोभ में इनकी स्वीकृति देती है और भूल जाती है कि यही वायदा कारोबार कई बार महंगाई बढ़ने की वजह बनते हैं।  वह याद नहीं रखती कि राष्ट्र धन की वृद्धि इन सट्टों से कतई नहीं हो सकती। सरकार को इनके नियमन के लिए भी तत्काल कदम उठाने चाहिये। उसे याद रखना चाहिये कि जुए-सट्टे या लॉटरी से उसकी जनता का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी समस्याएं बढ़ रही हैं। पति-पत्नियों में तलाक की वजह यह भी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, जुए की लत से मरने वालों की संख्या कुल मौतों में से सात प्रतिशत के आसपास है जो वर्ष 2001 में मात्र एक प्रतिशत थी। समस्या का जितना जल्दी हल हो जाए, उतना ही अच्छा। यह समय की मांग भी है।

Saturday, September 6, 2014

हांफती जेलों के लिए उम्मीद की किरण

निर्धारित सजा की आधे से अधिक अवधि जेल में गुजार चुके विचाराधीन कैदियों की रिहाई का रास्ता साफ हुआ है। निर्धारित सजा की आधे से अधिक अवधि जेल में गुजार चुके विचाराधीन कैदियों की रिहाई का रास्ता साफ हुआ है। सुप्रीम कोर्ट का यह वाकई स्वागतयोग्य निर्णय है क्योंकि देशभर की जेलों में 60 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं। इन्हीं की वजह से जेलों में कैदियों का  भार बढ़ रहा है, सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो रही है। मानवाधिकार के मोर्चे पर आलोचनाएं झेल रहीं जेलें इस फैसले से राहत की सांस ले सकती हैं। इन विचाराधीन कैदियों के मानवाधिकार हनन के पुराने आरोप से जेलों का प्रशासन खासा परेशान रहता है।
बेशक, यह मानवाधिकारों का हनन है कि आप किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कीजिए और उसे सजा सुनाए बगैर ही जेल में रखे रहिए। झारखण्ड की एक जेल से रामकरण मांझी नामक कैदी की मौत खबर आई थी। मांझी को दो वर्ष पूर्व छेड़छाड़ की धारा 294 के तहत गिरफ्तार किया गया था। थानाधिकारी चाहता तो उसे थाने से ही जमानत दे सकता था, लेकिन उसने गरीब मांझी को जेल भेज दिया। छेड़छाड़ के आरोप में छह माह की सजा का प्रावधान है किंतु उसके मामले में सुनवाई ही  नहीं हुई। वह निर्धारित से चार गुनी सजा काटता रहा और 68 वर्ष की आयु में उसकी मौत हो गई। यह उसके मानवाधिकार का सरासर उल्लंघन था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मामलों पर संज्ञान लिया है।  हम यह कैसे भूल सकते हैं कि किसी भी राष्ट्र में कानून व्यवस्था के दृष्टिकोण से जेलों का महत्व हमेशा से रहा है। अपराध नियंत्रण के लिए जेलों की अनिवार्यता को हर शासन व्यवस्था ने स्वीकार किया है। जेलों को सुधार गृह के रूप में मान्यता है, दंड का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब हमारी जेलें सुधार गृह के तौर पर सफलता से काम कर पाएंगी। लेकिन हकीकत क्या है, सलाखों के भीतर सब-कुछ वैसा नहीं चल रहा जैसा चलना चाहिए। जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं और उन पर नियंत्रण के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के बारे में हमने अरसे से नहीं सोचा। कैदियों के अनुपात में जेलें न होने पर दो आशंकाएं पैदा होती हैं। पहली, हम जनसंख्या और अपराध के बदलते परिवेश को ध्यान में रखते हुए जेलें बनवाने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं और दूसरी, हम अपराध नियंत्रण में लागतार असफल हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो भारत की कुल लगभग 1400 छोटी-बड़ी जेलों में से लगभग तीन लाख 81 हजार कैदियों में से दो लाख 54 हजार विचाराधीन कैदी हैं। सुप्रीम कोर्ट का जिन अंडर ट्रायल कैदियों पर निर्णय आया है, उसकी यह स्थिति क्यों है। इसके लिए बढ़ते अपराधों को कारण माना जाए या फिर धीमी न्याय प्रणाली को। भारतीय जेलों में ज्यादातर कैदी ऐसे हैं जिनके केस की सुनवाई दशकों से चल रही है और वे सलाखों के पीछे रहने को मजबूर हैं।  जेलों में सजायाफ्ता कैदियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या है। जेलों में असंतुलन की इस स्थिति में सुधार गृह के अनुकूल वातावरण बना पाना संभव नहीं दिखता। जेलों के औचित्य पर सर्वाधिक प्रश्नचिह्न तब लगता है, जब आए दिन जेलों से बढ़ रहे आंतरिक अपराधों, आत्महत्याओं और तमाम तरह की सांठगांठ की खबरें आती हैं।
तमाम बार जेलों में बंद रसूखदार अपराधियों के पास से मोबाइल आदि बरामद हुए हैं। यहां एक तरफ तो रसूखदार कैदियों के लिए तमाम सुविधा-संसाधन उपलब्ध हैं, वहीं आम कैदियों की मूलभूत सुविधाओं में कटौती की जाती है जिससे तमाम कैदियों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके मन में जेलों के प्रति यातना गृह का भाव आ जाता है। अपराध नियंत्रण के लिए बनी जेलों में ही यदि आंतरिक अपराध फलने-फूलने लगे तो अपराधियों के सुधार की संभावनाएं समाप्त ही हो जाएंगी। हाल तो यह भी है कि जेल तंत्र की शह पर तमाम पेशेवर अपराधी जेलों से ही अपनी आपराधिक गतिविधियां संचालित कर जेलों के उद्देश्यों और दंड नीतियों को मुंह चिढ़ाते हैं। जेलों के भीतर की समस्याएं यहीं तक सीमित नहीं, तमाम बुनियादी समस्याएं भी हैं, जो कहीं न कहीं जेलों के वास्तविक उद्देश्यों के पूरे होने में बाधक हैं। कैदियों की भीड़ तले दबती जेल कैदियों की मूलभूत जरूरतें भी पूरा कर पाने में असफल साबित हो रही हैं। कैदियों के स्वास्थ्य, सुधार, शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण आदि की बात की जाए तो भी कैदियों और जेलों की संख्या के अनुपात का असंतुलन भारी नजर आता है। शारीरिक और मानसिक स्थिति के प्रति जेल अफसरों के ढुलमुल रवैये के कारण आए दिन कैदियों के रोगग्रस्त होने, आपसी झड़पों और आत्महत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं। बुनियादी सुविधाओं को तरसते आम कैदियों के हालात बहुत बेहतर नहीं हैं और शायद यही कारण है कि जेलें अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पा रही और इसके लिए सबसे ज्यादा न्याय प्रणाली की धीमी गति दोषी है। दो-राय नहीं कि हमें समय रहते अपने मूल उद्देश्यों से भटकती इन जेलों के प्रति गंभीर होना होगा और उन तमाम बिंदुओं पर सजग होना पड़ेगा कि जेलों के अंदर स्वस्थ माहौल बनाया जा सके। जेल अपने इन उद्देश्यों से भटकती जाएंगी तो समाज को सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने न्याय प्रणाली की नाकामी का खामियाजा भुगत रहे लोगों को राहत का इंतजाम किया है। बेशक, यह लोग न्याय तंत्र के स्तर से तात्कालिक राहत पाने के हकदार हैं।

Sunday, August 31, 2014

ताकती न रह जाए काशी...

बनारस की कला का दुनिया में डंका है, और कलाकारों का सबसे प्रिय विषय गंगा है। कोई उसे अपनी बदहाली पर रोता दिखाता है तो पौराणिक महत्व को इंगित करता है। रंगों की इस दुनिया में गंगा बिकती है। काशी 24 घंटे जीती है, उल्लास से भरी है, अपने जीवंत लोगों से उसमें हर पल जिंदगी दौड़ती है। किसी और शहर से उलट इस शहर के तमाम हृदयस्थल हैं, गलियां हों या गंगा के घाट या ढेरों मोहल्ले, सब जीना सिखाते हैं। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के नाम से चर्चित हरिश्चंद्र घाट पर जाइये तो वो देखेंगे जो सिर्फ इसी शहर में हो सकता है, कि श्मशान पर भी लोग शाम काटने पहुंच जाया करते हैं। कहते हैं कि काशी में मरने पर मोक्ष मिलता है, इसीलिये जीवन के अंतिम दिन काटने के लिए पहुंचने वालों की संख्या भी यहां अच्छी-खासी होती है। हम यह भी नहीं भूल सकते कि नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी इकाइयां प्रदेश सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। दिल्ली से आया पैसा फिर कहीं जेबों में न पहुंच जाए और काशी ताकती रह जाए, कलियुग है ये।
वाराणसी यूं तो हर दिल में है, सदियों से चर्चा का विषय है। नरेंद्र मोदी ने चुनाव लड़ा तो काशी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छा गई। मोदी जीते और अब देश के पीएम हैं, सो कर्ज उन्हें उतारना है और वो उपक्रम शुरू कर चुके हैं। जापानी शहर क्योटो की तर्ज पर उन्होंने ऐतिहासिक शहर के कायाकल्प की तैयारी की है। मैंने भी कई दफा अपने भीतर काशी को जीया है, महसूस किया है। मेरे जैसे तमाम होंगे जिनकी नजर में काशी जैसा दूसरा शहर कोई नहीं। काशी की ही तरह आध्यात्मिक शहर क्योटो ने निस्संदेह उन्नति की है, बुलेट ट्रेन से लेकर कोई अत्याधुनिक सुविधा ऐसी नहीं जो इस शहर को हासिल न हो। काशी की ही तरह क्योटो भी आध्यात्मिक शहर है, यहां कई प्राचीन विशाल मंदिर हैं, यह जापान में बौद्ध धर्म का केंद्र है और अहमियत इतनी है कि यह 11वीं शताब्दी में यह जापान की राजधानी रहा है। जापान को काशी की विरासत के संरक्षण, आधुनिकीकरण, कला, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करना है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में काशी की मूल छवि को क्षति पहुंचने की भी खासी आशंकाएं हैं क्योंकि काशी और क्योटो में कई अंतर हैं जो तस्वीर के बदलने में बाधक हो सकते हैं। काशी गंगा का शहर है लेकिन बाढ़ उसे बरसात के मौसम में हर साल डराती है। गंगाजल नदी की सीमा लांघकर सामनेघाट के आसपास के बड़े भूभाग को चपेट में ले लेता है, यही नजारे शहर में अन्य तमाम स्थानों पर भी आम होते हैं। बरसाती जल की निकासी के भी पुख्ता इंतजामात नहीं हैं क्योटा इससे उलट पर्वतीय तलहटी में है और वहां इस तरह की कोई समस्या नहीं है। क्योटो का विस्तार अनियमित नहीं जबकि काशी ने बेतरतीब ढंग से विस्तार पाया है। शहर अपनी आबादी का बोझ तो सह ही रहा है, बिहार जैसे निर्धन पड़ोसी राज्य से भी यहां अच्छी-खासी संख्या में लोगों का पलायन हुआ है। नतीजतन, गंगा के डूब क्षेत्र में भी अनाधिकृत कॉलोनियां बसा ली गई हैं।
क्योटो में पुरातन इमारतों और आध्यात्मिक स्थलों का बखूबी संरक्षण हुआ है लेकिन काशी में संरक्षण तो दूर, यह स्थल अवैध कब्जों की मार बर्दाश्त कर रहे हैं। गंगा घाट भी अतिक्रमण के चलते अपना पुरातन स्वरूप खो रहे हैं। जापान ने न केवल पुराना क्योटो संरक्षित किया बल्कि नया शहर भी बसाया जो स्मार्ट सिटी की सारी खूबियों से भरपूर है। बनारस में यह असंभव नजर आता है क्योंकि योजनाबद्ध विकास के तहत अगर नया शहर बसाने की कोशिश की जाएगी तो निवेश जुटा पाना मुश्किल होगा। अवैध कब्जे करने वालों से यदि हम नियमित रूप से अत्याधुनिक सुविधा युक्त महंगे आवास खरीदने की बात करेंगे तो यह हास्यास्पद ही कहलाएगा। क्योटो में समृद्ध जापानी फिल्म उद्योग है, सूचना प्रौद्योगिकी की इकाइयां हैं। दूसरी तरफ काशी में भोजपुरी फिल्मों के दर्शक तो बहुत हैं लेकिन उद्योग यहां विकसित नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी हब उस उत्तर प्रदेश सरकार को विकसित करना होगा जो अपनी राजधानी लखनऊ और ताजनगरी आगरा में तमाम प्रयासों में मुंह की खा चुकी है। उसके आमंत्रणों पर कंपनियां आती तो हैं लेकिन इकाई स्थापना की बात आते ही कन्नी काट जाती हैं। हां, क्योटो की तरह कला का केंद्र बनारस भी है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने देश को कई नामी-गिरामी कलाकार दिए हैं, घाटों पर जाकर देखिए तो पाएंगे कि कला का यहां माहौल भी है। जापानी शहर की तरह यहां पर्यटकों की भी अच्छी-खासी आवाजाही है। काशी विश्वनाथ, संकटमोचक हनुमान मंदिर, काल भैरव, संत रविदास मठ समेत तमाम धार्मिक स्थल हैं जो हर साल लाखों पर्यटकों के बनारस आने का जरिया बनते हैं। यह भी तय है कि क्योटो की तर्ज पर विकास के बाद पर्यटकों की संख्या में और भी वृद्धि हो जाएगी। एक प्लस प्वाइंट यह भी है कि यहां अपना बाबतपुर हवाई अड्डा है और ट्रेन कनेक्टिविटी भी अच्छी-खासी है। पास ही स्थित मुगलसराय देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है। क्योटो की कामयाबी में एक पन्ना इसी ट्रेन नेटवर्क कनेक्टिविटी के कारण जुड़ा है।
लेकिन बनारस की तस्वीर-तकदीर बदलने की बातों के दौरान हम यह नहीं भूल सकते कि उत्तर प्रदेश सरकार के बगैर किसी भी सपने के साकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शहर उन्नत तब होगा जब 24 घंटे अबाध विद्युत आपूर्ति मयस्सर हो जाएगी और यह जिम्मा प्रदेश सरकार को उठाना है। मोदी के सांसद बनने के बाद से यह शहर विद्युत वितरण में जबर्दस्त सौतेलापन सहन कर रहा है। लेकिन राजनीतिक मतभेद से इतर, हम यह भी नहीं भूल सकते कि राज्य में बिजली का संकट भी कम नहीं। नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी तमाम इकाइयां भी सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। ऐसे में डर यह रहेगा कि दिल्ली से आया पैसा कहीं शासन-सत्ता और स्थानीय अफसरों के गठजोड़ की जेब में न चला जाए। हम पुरानी योजनाओं की समीक्षा किए बगैर हम कैसे नई योजनाओं से अपेक्षाएं लगा सकते हैं। अब जापान की ही बात करें तो उसके सहयोग से यमुना शुद्धिकरण योजना प्रारंभ हुई थी पर स्थितियां बदली नहीं, नदी पर अब भी प्रदूषण की मार है बल्कि पहले से अधिक है। जापान सहयोग कर सकता है, रोडमैप बनाकर तकनीक दे सकता है। लेकिन तमाम बिंदु और भी हैं जिनकी अनदेखी सपने के साकार होने में बाधक बन सकती है।

Saturday, August 23, 2014

कामयाबी के नए एपिसोड

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़ी ताकत कहलाकर खुद को गौरवान्वित करने वाले भारत का यह दूसरा चेहरा है, जो उसे रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेक्टर की महाशक्तियों में एक सिद्ध कर रहा है। हम बहुत आगे हैं और हमारे साथ सफर शुरू करने वाले ब्राजील, स्वीडन जैसे देश पीछे छूट रहे हैं। कॉल सेंटर या छोटे स्तर के प्रोजेक्ट चलाने वालीं भारतीय कम्पनियां उच्चस्तरीय गुणवत्ता  की उपलब्धियां हासिल कर रही हैं। सेमी कंडक्टर डिजाइन, विमानन, वाहन उद्योग, नेटवर्क और चिकित्सा उपकरण क्षेत्र की भारतीय कम्पनियां दुनिया में ब्रांड बनी हैं। यही वजह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुद के रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर बनाने का फैसला करना पड़ा है। कामयाबी की कहानियां यहीं तक नहीं हैं, कंज्यूमर इलेक्ट्रानिक उपकरणों के चर्चित ब्रांड पाम-प्री स्मार्टफोन और अमेजॉन किंडल के भीतर भारत में डिजाइन किए गए कलपुर्जे लग रहे हैं। इंटेल ने अपना भारत में डिजाइन किया है। 
टेक्नोलॉजी वर्ल्ड में भारत जाना-पहचाना नाम है। यह वो देश है जिससे प्रतिस्पर्धी विदेशी कम्पनियां डर रही हैं। चीन जहां कम कीमत के उत्पादों से बाजार पर काबिज होने के प्रयास में है, भारत टिकाऊपन में उसे टक्कर दे रहा है। भारत की बढ़ती हैसियत का नतीजा है कि आईबीएम जैसी कम्पनी ने यहां एक लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया, जो उसके लिए सर्वाधिक परिष्कृत उपकरण तैयार किया करते हैं। मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्मार्ट सिटी के लिए सिस्को आधुनिकतम तथा पूर्ण कारगर नेटर्वकिंग प्रौद्योगिकी विकसित कर चुकी है। एडोब, कैडेंस, आॅरेकल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी ज्यादातर बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनियां मुख्यधारा के उत्पादों का निर्माण कर रही हैं, वहीं कभी फिलिप्स का अंग रही एनएक्सपी हार्डवेयर बाजार में बड़ा नाम है। इसके अतिरिक्त, बहुराष्ट्रीय भारतीय कम्पनियों का वैश्विक बाजारों की ओर बढ़ना भी समान रूप से खासा मायने रखता है, जैसे टाटा की सस्ती नैनो कार यूरोप में प्रवेश कर चुकी है और रेवा न्यूयॉर्क में कारखाना शुरू करने वाली है ताकि अमेरिकी बाजार को बिजली से चलने वाली कारों की आपूर्ति हो सके। कुछ कमियां भी हैं, हम अमेरिका की सिलिकॉन वैली की तरह शुरुआती तौर पर उद्यमशील नहीं हैं। इस मामले में चीन भी हमसे काफी आगे है, जहां कई नए सिरे से शुरू होने वाले उद्यम (स्टार्ट-अप कम्पनियां) सरकार से मिलने वाली ढेर सारी रियायतों का भरपूर लाभ उठा रही हैं। हालांकि स्थितियां बदल रही हैं। देशकी कई स्टार्ट अप यूनिट्स स्मार्ट हैं और उनमें बहुत-कुछ पाने की भूख है। ऐसी कई कम्पनियां सिलीकॉन वैली स्थित अपने कारोबारी सहयोगियों से भी अच्छा कामकाज कर रही हैं। यह इकाइयां बेशक, बड़ी उपलब्धियां हासिल नहीं कर रहीं किंतु ज्यादातर उन समस्याओं को सुलझाने में सफल रही हैं जिन्हें अब तक अमेरिकी कम्पनियां तक सुलझा नहीं पाई हैं। इन्हीं में से एकनेचुरा कम्पनी वनस्पति तेल से आॅफसेट प्रिंटर इंक बना रही है जो पूरी तरह वातावरण में घुलनशील (बायो डिग्रेडेबल) है। आॅफसेट प्रिंटिंग उद्योग हर साल 10 लाख टन पेट्रोलियम उत्पादों का दोहन करते हुए पांच लाख टन कार्बनिक यौगिकों का धुआं छोड़ता है।
आईआईटी दिल्ली से पोषित यह कम्पनी ऐसी स्याही बना रही है जो किसी भी प्रकार का वाष्पशील कार्बनिक यौगिक उत्सर्जित नहीं करती, इस स्याही को आसानी से धोया जा सकता है। बड़े पैमाने पर उत्पादन से इस स्याही की उत्पादन लागत बहुत कम हो जाती है। भविष्य की बात करें तो यह कम्पनी भविष्य में करोड़ों डॉलर के वैश्विक कारोबार में सफल होगी। आउट-आॅफ-होम विज्ञापन कम्पनी लाइवमीडिया ने करीब पांच करोड़ लोगों को देखने के लिए 2200 जगहों पर 4500 विज्ञापन स्क्रीन्स लगाए हैं। अमेरिकी तर्ज पर चलने वाली यह स्क्रीन्स दरअसल, एक दुर्लभ कारनामा हैं। ऐसे किसी नेटवर्क के जरिए पैसा कमाना मुश्किल है लेकिन इस गुत्थी को सुलझाते हुए कम्पनी ने रोचक वीडियो कंटेंट बनाए हैं जो सीएनएन की खबरों या डिज्नी चैनल के मनोरंजक कार्यक्रमों से बेहतर हैं। कम्पनी इन स्क्रीन्स पर लोगों को गेम्स, क्विज, वर्ग पहेली और एनिमेशन फिल्में दिखाती है। लाइवमीडिया ने इस काम में महारथ हासिल कर ली है। बेल लैब्स ने एक कंटेंट मैनेजमेंट एंड राइटिंग सिस्टम तैयार किया है जिसके जरिए वह मोबाइल फोन ग्राहकों को अच्छी गुणवत्ता के वीडियो और इंटरेक्टिव कंटेंट को मौजूदा नेटवर्क पर उपलब्ध कराती है। इसी तरह की बड़ी सफलताओं की वजह से कई अमेरिकी वेंचर कैपिटल कम्पनियों को भारत में अपनी शाखाएं खोलनी पड़ी हैं। लेकिन कम्पनियां भारत की अपनी वेंचर कैपिटल कम्पनियों की कमी के कारण इस क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर गतिविधियां नहीं कर पा रही हैं। यदि इन कम्पनियों की उपस्थिति हो जाए तो स्टार्ट-अप्स कम्पनियां बड़ी आसानी से सिलीकॉन वैली में प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं।  एक अच्छा संकेत और भी है। नई कम्पनियों के संस्थापक आम तौर पर ऊंची रैंक और अधेड़ उम्र के अनुभवी एक्जीक्यूटिव्स हैं जो बहुत बूढ़ा होने से पहले कुछ असरदार काम कर दिखाने की चाहत के साथ ही खासा पैसा भी कमाने की इच्छा के साथ मैदान में उतरे हैं। यहां हजारों की तादाद में आरएंडडी वर्कर हैं जो खासा कीमती अनुभव हासिल कर रहे हैं। यह भी चौंकाने वाली बात है कि अमेरिकी स्टार्ट अप्स की तुलना में भारतीय स्टार्ट अप्स का यह परिदृश्य बहुत कम समय में अस्तित्व में आया है। ऐसे हालात में जरूरत सरकारी प्रोत्साहन की है, इन कम्पनियों की नजरें भारत की नई सरकार पर टिकी हुई हैं।

Friday, August 1, 2014

हवाओं के खिलाफ जंग

सिविल सेवा परीक्षा हंगामे का सबब है। देश की इस सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में हुए बदलाव के विरुद्ध आंदोलन का दौर जारी है।विरोध परीक्षा पैटर्न के बदलाव का है, यह कहकर कि हिंदी भाषी छात्र-छात्राओं का चयन मुश्किल हो गया है और अब अंग्रेजी का दबदबा है। दलील दी जा रही है कि सिविल सेवा परीक्षा के इस बार के अंतिम नतीजे में महज दो-तीन फीसदी गैर-अंग्रेजी भाषी छात्र पास हो पाए। बदलाव की हिमायत भी हुई है, समर्थकों का कहना है कि प्रशासन में अंग्रेजी का प्रयोग अहम है, और देश-दुनिया में अंग्रेजी का जितना उपयोग बढ़ा है, उससे बच पाना कतई संभव नहीं। यह रोशनी से भागने का यत्न है। वर्ष 2011 में सिविल सेवा परीक्षा के दोनों स्तरों प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा के प्रारूप में बदलाव किया गया। इसके तहत प्रारंभिक परीक्षा में सभी अभ्यर्थियों को दो पेपर देने हैं, एक सामान्य अध्ययन और दूसरा है सीसैट यानि सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट। सीसैट फिलहाल विवाद की जड़ में है। छात्रों का कहना है कि नए बदलाव से प्रारंभिक परीक्षा में ही उन्हें बाहर करने की साजिश की गई है। असल में, दूसरा पेपर रखा ही इसलिये गया था कि परीक्षा केवल रट लेने वालों की कामयाबी का रास्ता बन गई थी। इसके जरिए ये जानने की कोशिश की गई कि अभ्यर्थी कितनी जल्दी, कितना सही और कितने अच्छे तरीके से निर्णय ले सकता है जो एक प्रशासनिक अफसर के लिए आवश्यक गुण हैं। तय है कि इसका असर हुआ और तमाम वो छात्र सफलता से वंचित होने लगे जो महज रटे-रटाए उत्तरों के जरिए परीक्षा भेद लेते थे। एक समस्या और है। छात्रों की शिकायत है कि परीक्षा के हिंदी प्रश्नपत्र में अंग्रेजी प्रश्नपत्र का गूगल से अनुवाद कर दिया जाता है जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और वह सही उत्तर देने पर भी फेल हो जाते हैं। जहां तक अंग्रेजी को हटाने की मांग है, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। आज के वक्त में अंग्रेजी के बगैर किसी प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक कर पाना नितांत असंभव है। हम कैसे ऐसे अफसर पैदा कर सकते हैं जो बदलते जमाने के साथ कदमताल करने वाला न हो, जिसे त्वरित और उचित निर्णय लेने की समझ न हो। प्राथमिक शिक्षा के माध्यम पर आए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को याद कीजिए, जिसमें कहा गया था कि अंग्रेजी भी शिक्षा का अनिवार्य अंग होनी चाहिये। आज के समय में अंग्रेजी की महत्ता की अनदेखी नहीं की जा सकती है। मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार के लिए दर दर की ठोकरें खाने से अच्छा है कि उस भाषा में शिक्षा प्रदान की जाए जो आगे चलकर छात्रों को रोजगार प्रदान कराने में सहायता प्रदान करे। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट तौर पर स्कूली शिक्षा के माध्यम को तय करने का अधिकार स्कूलों को देते हुए कहा कि राज्य सरकारें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। सरकारें भाषाई अल्पसंख्यक शिक्षक संस्थानों में क्षेत्रीय भाषाओं को थोप नहीं सकतीं। यह फैसला 90 के दशक में कर्नाटक सरकार के स्तर से पहली से चौथी कक्षा तक की शिक्षा का जरिया अनिवार्य रूप से मातृभाषा कन्नड़ किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका के संदर्भ में था। कर्नाटक में स्कूलों की मान्यता प्राप्त करने के लिए मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य शर्त बना दी गई थी। इसके साथ ही उन स्कूलों की मान्यता रद्द की गई जो ऐसा नहीं करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की, छात्रों पर उनकी मातृभाषा थोपना गलत है। बच्चे किस माध्यम में पढ़ेंगे, यह फैसला अभिभावकों पर छोड़ दिया जाए और इसमें राज्य दखलंदाजी न करे। बेशक, वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन चुकी है और मातृभाषा में शिक्षा या प्रतियोगी परीक्षाओं में उसे महत्व देने की अनिवार्यता कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। हमें आधुनिक विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है तो अंग्रेजी का विरोध छोड़ना होगा। हमें तरक्की हासिल करनी है तो यह अंग्रेजी को दरकिनार करने से नहीं होगी। राजनीतिज्ञों के एक समूह ने जिस तरह से सिविल सेवा परीक्षा को लेकर आंदोलनरत छात्रों का समर्थन किया है, उससे लगता है कि सियासी दखलंदाजी परीक्षा पैटर्न में बदलाव के लिए दबाव बना रही है। यह बदकिस्मती ही है कि देश का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी को विदेशी भाषा बताते हुए इसके प्रति आज के माहौल में भी पूर्वाग्रह से ग्रसित है। यह वर्ग अपनी भाषा को लेकर प्राय: भावुक रहता है और उसे अपनी जातीय अस्मिता से जोड़कर देखता है। कभी-कभी तो इसे वह राष्ट्रीय अस्मिता से खिलवाड़ भी बताने लगता है। हालांकि वह ये भी जानता हैं कि आज के समय मातृभाषा का अध्ययन भावनात्मक संतोष तो दे सकता है पर रोजी-रोजगार नहीं दिला सकता। राजनीतिक कारणों से इस तथ्य को सीधे-सीधे स्वीकार करने का साहस सियासी दलों और उसके लोगों में नहीं है। उनका यही संशय अक्सर कुछ राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों और सरकारी फैसलों में दिखता रहता है। हम दुनिया की तरफ देखें तो नजर आएगा कि चीन और जापान ने समय से कदमताल किया है। दोनों देश पहले अपनी भाषा को लेकर कुछ ज्यादा जज्बाती थे पर अब उन्हें अंग्रेजी की महत्ता समझ आ गई है। चीन में अंग्रेजी सीखने वालों की बढ़ती तादात इसका सटीक उदाहरण है। वहां के लोग भारत में व्यापार की संभावनाएं देखते हुए हिंदी सीखने से भी नहीं हिचक रहे। समय आ गया है कि भारत में भी मातृभाषा और विदेशी भाषा का भेदभाव समाप्त कर सस्ती और गुणवत्तापूर्ण अंग्रेजी शिक्षा सस्ती और सर्वसुलभ बनाई जाए। यह समय की मांग है। हम लंबे समय तक कूप मंडूक बनकर नहीं रह सकते।

Saturday, July 26, 2014

पांच पैसे के फेर में फंसा एक तंत्र

दिल्ली हाईकोर्ट महज पांच पैसे की एक लड़ाई में 41 साल से फैसला नहीं दे पा रहा जिसमें एक कंडक्टर ने गलती से एक महिला को 15 पैसे की बजाय 10 पैसे का टिकट दे दिया था। चेकिंग दस्ते ने गलती पकड़ ली और कंडक्टर नौकरी से बर्खास्त हो गया। अदालत चाहे तो भी कंडक्टर को नौकरी पर नहीं रखवा सकती क्योंकि वह रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुका है। लेकिन मुकदमा चालू आहे... पिछले कुछ दिनों में न्याय तंत्र से जुड़ी यह दूसरी खबर है जो निराशा पैदा करती है। कुछ दिन बीते होंगे, जब सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज और प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने यह कहकर न्यायिक व्यवस्था को फिर कठघरे में खड़ा कर दिया था कि तमिलनाडु के एक भ्रष्ट जज को मद्रास हाईकोर्ट का न्यायाधीश बना दिया गया और तमाम शिकायतों के बावजूद द्रमुक के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोई कदम नहीं उठाया। दबाव बनाने में उनका इशारा द्रमुक चीफ एम. करुणानिधि पर था, जिन्हें इस जज ने अतिशीघ्र जमानत दे दी थी। न्याय पालिका पर पहली बार उंगली नहीं उठीं। भ्रष्टाचार ही नहीं, अनैतिक आचरण की शिकायतें भी आम हुई हैं। मुकदमों के बोझ से मामलों के निपटारे में अनावश्यक देरी, अधिवक्ताओं की महंगी फीस और भ्रष्टाचार ने न्याय व्यवस्था को ध्वस्तीकरण के कगार पर पहुंचा दिया है। परिणामस्वरूप चारों तरफ अव्यवस्था, अपराधों की बेखौफ एवं उन्मुक्त प्रवृत्ति के साथ ही भ्रष्टाचार ने बीमारी को लाइलाज बना दिया है। आम नागरिक के दिलोदिमाग में अदालतों के प्रति विश्वास डगमगा गया है। दिल्ली हाईकोर्ट जैसे इस मामले से यह आम धारणा बन गई है कि देश की अदालतों में न्याय दुरूह हो रहा है। वादों के निस्तारण की गति इतनी धीमी है कि एक पीढ़ी के दर्ज किए मामलों पर निर्णय तीसरी-चौथी पीढ़ी तक जाकर हो पाते हैं। सियासी हस्तक्षेप बढ़ा है। भाई भतीजावाद व परिवारवाद मुश्किलें खड़ी कर रहा है। अदालती अवमानना का डर गड़बड़ियों का रक्षा कवच बन रहा है। समय-समय पर अधिवक्ता संगठनों जैसे मंचों से आवाज उठी भी, लेकिन वह बुलंद नहीं बन पाई। दरअसल, जिस तेजी से न्याय मिलना चाहिए वह लोगों को नहीं मिल पाता और बस यहीं से भ्रष्टाचार की शुरूआत हो जाती है। देश में आबादी के अनुसार कोर्ट होनी चाहिए इस बात से सरकार सहमत तो है पर जब बात संख्या बढ़ाने की होती है तो संसाधनों की कमी का रोना रोया जाता है। देश में बहुत सारे अपराध केवल इसलिए ही हो जाते हैं कि पीड़ित पक्ष को समय से न्याय नहीं मिल पाता और वे हताशा में गलत मार्ग पर चले जाते हैं। भारतीय लोकतंत्र और संविधान में निहित उपबंधों के अनुसार न्यायपालिका की भूमिका, हैसियत, महत्व और जिम्मेदारी इतनी ज्यादा है कि इसे तीसरा खंबा कहा जाता है। प्रारंभ में न्यायपालिका की जिम्मेदारी समाज में न्यायिक व्यवस्था की स्थापना और वादों-विवादों का निपटारा करना ही था। कालांतर में विधायिका और कार्यपालिका दिग्भ्रमित, भ्रष्ट और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करने लगी तो न्यायपालिका की भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई। वो न सिर्फ देश की पथ निर्देशक बल्कि एक तरह से संचालक की भूमिका में आ गई । इसका परिणाम ये हुआ कि कि देश की छोटी से बड़ी समस्या, नीति, नियमों, कानूनों, व्यवस्थाओं, अपराध, सामाजिक रीति रिवाजों, मान्यताओं के औचित्य और वैधानिकता आदि तमाम विषयों को दुरुस्त करने और सही दिशा देने की सारी जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर आ पड़ी। यहीं से वो स्थिति बनी जब न्यायपालिका पर अति सक्रियता का आरोप लगने लगा एवं कई बार खुद न्यायिक क्षेत्र से ये कहा गया कि न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्रों व अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। बलशाली होने के बाद उसे भ्रष्टाचार के कीड़े ने भी ग्रास बनाना शुरू कर दिया। निचले से लेकर उच्च स्तर तक भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की बढ़ती घटनाओं के अलावा अन्य और भी महत्वपूर्ण बातें हैं जो न्यायपालिका की साख को कम कर रही हैं और लोगों के न्यायपालिका के प्रति विश्वास में कमी का कारण बन रही हैं। इनमें सबसे बडा कारण है न्यायपालिका की निष्पक्षता पर आंच। निचले से लेकर शीर्ष स्तर तक अदालतों में पदस्थापित न्यायिक अफसरों के परिजनों, नाते-रिश्तेदारों द्वारा उन्हीं अदालतों में प्रैक्टिस करना व परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से इसके लाभ मिलने का एक बड़ा आरोप न्यायपालिका पर लगता रहा है। राजनीतिज्ञों, व्यावसायियों, आर्थिक रूप से सबल लोगों की तुलना में मध्यम एवं गरीब लोगों के साथ अलग-अलग न्यायिक व्यवहार एवं निर्णय तक देने का सीधा आरोप भी न्यायपालिका के लिए बड़ा प्रश्नचिह्न है। इसके अलावा एक आरोप ये भी है कि न्यायपालिका के फैसलों की आलोचना अक्सर मानहानि के दायरे में आने या ला दिए जाने के कारण नहीं हो पाती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि न्यायपालिका अपनी आलोचना के प्रति बिल्कुल असहिष्णु सा व्यवहार करती है। किसी भी क्षेत्र की तरह न्यायपालिका पर भी यदि तमाम कुप्रवृत्तियों का असर पड़ा रहा है तो यह अनापेक्षित नहीं है। किंतु जिस देश में अदालत को ईश्वर के बाद दूसरा दर्जा हासिल हो, वहां इस तरह की गुंजाइश नहीं हुआ करती। कभी-कभी यह अक्षम्य हो जाता है कि कोई न्यायाधीश अपने इंटर्न से छेड़छाड़ का आरोपी पाया जाए। दिनकरन जैसे जजों पर महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने के लिए देश को मजबूर होना पड़े। असल में, सारी स्थितियों में सरकार का काम बढ़ रहा है। उस पर यह दायित्व आया है कि वो न्याय की त्वरित व्यवस्था करे। आज देश की हर तहसील में प्राथमिक न्यायलय तो स्थापित किए ही जा सकते हैं। इनकी स्थापना में जो खर्च सरकार का होगा, वह कुल मुकदमों पर बोझ कम कर बहुत सारे मानव दिवसों की बचत करा देगा। देश के मानव संसाधनों को ठीक ढंग से उपयोग करना ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि जब तक हम अपने संसाधनों को सही दिशा में नहीं लगाएंगे, तब तक हमारा कोई भी लक्ष्य हमें नहीं मिल पाएगा।

कब आएंगे अच्छे दिन...

उत्तराखंड विधानसभा के उपचुनावों को यदि पैमाना माना जाए जहां तीनों सीटें कांग्रेस ने जीती हैं तो सवाल उठ रहा है कि क्या नरेंद्र मोदी के प्रति जनता की दीवानगी में कमी आई है? मोदी सरकार का दावा है कि ठोस कार्यों की नींव रखी जा रही है, जिनके नतीजे कुछ साल बाद नजर आएंगे लेकिन जनता क्या यह आसानी से मान लेने के लिए तैयार बैठी है? यूपीए सरकार में हर कदम पर समस्या से जूझ रहे अवाम में मोदी को प्रचंड बहुमत राहत पाने के लिए दिया है, और शायद व्यग्रता की जगह निराशा ले रही है, निराशा ही उम्मीदों के ज्वार को ठंडा कर रही है। प्रतिदिन वाचाल होती महंगाई की आग उत्साह पर भारी है। जनअपेक्षाओं की आंधी पर चढ़कर आने वाली सरकारों के समक्ष चुनौतियां भी बड़ी होती हैं क्योंकि जनता सत्ता परिवर्तन के साथ ही चौतरफा बदलाव देखने को उत्सुक होती है। इतिहास गवाह है कि जनता जिसे सिर-आंखों पर बैठाती है, उसे भरोसा टूटने पर अपने मन से निकाल भी देती है। मोदी सरीखी चुनावी कामयाबी 1971 में इंदिरा गांधी को मिली थी। जिस प्रकार अच्छे दिनों की आस लेकर आम जनता मोदी के साथ खड़ी थी, ठीक ऐसे ही गरीबी हटाओ के लोकलुभावन नारे पर यकीन कर जनता ने इंदिरा को को दो तिहाई बहुमत दिया था। इंदिरा की लोकप्रियता का ग्राफ भी मोदी की तरह चरम पर था किंतु 1972-73 में सूखे के कारण देश में अकाल पड़ गया। खाड़ी में अशांति से विश्व बाजार में तेल की कीमत चार गुना बढ़ गई। परिणामस्वरूप, खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में 27 प्रतिशत की ऐतिहासिक वृद्धि हुई। इंदिरा को भी मोदी की मानिंद सत्ता में पहुंचाने में पहली बार मतदान करने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों की भूमिका रही किंतु महंगाई ने बाद में उन्हें बेहद अलोकप्रिय बना दिया। मोदी इससे सबक ले सकते हैं। राजनीतिक समझ-बूझ के लिए प्रसिद्ध मौजूदा सत्ता नायक जानते भी होंगे कि स्थितियों में बदलाव के लिए जनता की व्यग्रता ने उन्हें कुर्सी तक पहुंचाया है। अब अगर, उनकी सरकार को कसौटी पर कसा जाए तो स्थितियां बहुत अच्छी नजर नहीं आतीं। महंगाई के मोर्चे पर सरकार ने सख्ती के आदेश दिए, लेकिन हुआ कुछ नहीं, और बात प्रपंच सरीखी लगकर समाप्त हो गई। अच्छे दिनों का मतलब था क्या, लोगों ने माना था कि मोदी के पीएम बनने के बाद पांच बातें हो जाएं तो अच्छे दिनों का आगाज मान लिया जाएगा। सबसे पहले महंगाई कम होनी चाहिये थी। महंगाई मतलब, सब्जी, अनाज और दूसरी रोज की खाने-पीने चीजें उन्हें सस्ती मिलें। उद्यमियों को भरोसा लौटना था कि वो आसानी से उद्योग लगा चला सकें। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर अच्छा चलने लगे यानि कारें, एसी, फ्रिज खूब बिकें। लोगों को सस्ता कर्ज मिलने लगे ताकि घर-गाड़ी के सपने पूरे होने लगें। सड़क, बिजली और पानी की सहूलियत आसानी से मिल सके। सर्वाधिक जरूरी था कि देश में रोजगार के ढेरों मौके सृजित हों जिससे लोगों की कमाई का जरिया बने, कमाई बढ़ भी सके और इस तरह से खर्च और बचत हो सके कि देश की तरक्की की रफ्तार मतलब जीडीपी के आंकड़े दुरुस्त हो सके। पर हुआ क्या, टमाटर सौ रुपये किलो के भाव तक पहुंच गया। कोई सब्जी ऐसी नहीं जो सस्ती हो। आटा, दाल, चावल, दूध और दूसरी सारी जरूरी चीजें तेजी से महंगी हुई हैं। अभी तक मौसम का जो हाल रहा है, उससे साफ लग रहा है कि इस साल मॉनसून सामान्य से कम हो सकता है जिसका सीधा-सा मतलब खेती पर बुरा असर। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर भी निराश है, कारों की बिक्री का आंकड़ा बढ़ नहीं पाया है। देश में महंगे कर्ज की वजह से औद्योगिक घरानों को अपनी विस्तार योजनाएं थामनी पड़ी हैं जिससे घरेलू निवेश बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सरकार ने हर किसी को घर देने के लिए बजट में रियल स्टेट सेक्टर को बढ़ावा देने के कदम उठाए लेकिन घर खरीदने के लिए कर्ज पर ब्याज की दर अब भी बहुत ज्यादा है। इसकी वजह से रियल एस्टेट सेक्टर में जबर्दस्त ठहराव है। रियल एस्टेट सेक्टर को उम्मीद थी कि मोदी के आने से तेजी आएगी पर सरकार ने निराश ही किया। जिस तरह के आर्थिक कदम सरकार ने उठाए हैं, उससे देश की जीडीपी में खास बेहतरी नहीं होने वाली। यह चिंता की बात है क्योंकि जीडीपी ग्रोथ यानि तरक्की की रफ्तार दशक में सबसे कम साढ़े पांच प्रतिशत की है और इस वित्तीय वर्ष में कोई सकारात्मक संकेत भी नहीं मिल रहा। हालांकि इसमें समस्या भी थी, मोदी की सरकार ने जब काम शुरू किया तब तक वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही बीत चुकी थी और दूसरी तिमाही का आधार बन चुका था, ऐसे में इस तरक्की की रफ्तार को चमत्कारिक तरीके से बढ़ाना किसी भी सरकार के लिए चुनौती ही था। मुश्किलें और भी हैं। शेयर बाजार में घरेलू निवेशकों को रुचि कितनी तेजी से खत्म हुई है। अंदाज लगाइए, साल की पहली तिमाही में घरेलू निवेशकों यानि एनएसडीएल के जरिए ट्रेडिंग एकाउंट खुलवाने वालों की संख्या में आधा प्रतिशत की कमी आ गई। मोदी सरकार बनने के बाद हालात सुधरने की संभावनाएं जताई जा रही थीं पर यह उम्मीद के मुताबिक खरी सिद्ध नहीं हुर्इं। बहरहाल, मोदी सरकार के लिए आगे के दिन काफी कठिन हैं। इराक संकट की वजह से भारत का तेल आयात बिल बढ़ा है। रसोई गैस की कीमत में वृद्धि के लिए भी पेट्रोलियम मंत्रालय का दबाव है। बिजली दरों में भी प्रति यूनिट 45 प्रतिशत की वृद्धि के आसार बन रहे हैं, कमजोर मॉनसून तो सबसे बड़ी चुनौती है ही। देखना है कि बड़े वायदे करके सत्ता तक पहुंची यह सरकार क्या कदम उठाती है।

Monday, July 21, 2014

बदलाव की एक बयार

समस्याओं की तपिश और सरकारों की मनमानी के खिलाफ यह एक ठण्डी हवा का झोंका ही है। यहां सरकार और भारी-भरकम निजी कंपनियों के सामने आम आदमी है, जैसे तोप के मुकाबिल एक छोटी की सींक। शुरुआत में यह आम जन भी थर्राया-घबराया, लेकिन काम आया हौसला। आज वो धरती का सीना चीरकर खुद काला सोना निकाल रहा है, सरकार को टैक्स देता है। काफिला बढ़ रहा है, तमाम हाथ उसके साथ उठे हैं। वो जीता है, नायक सिद्ध हुआ है और कामयाबी की कथाएं रच रहा है। झारखंड के हजारीबाग जिले की यह कहानी है। बड़कागांव प्रखंड के 205 गांवों वाले कर्णपुरा घाटी क्षेत्र, विशेषकर आराहरा गांव, में काला सोना यानि कोयले का बहुमूल्य और अकूत भंडार है। सेंट्रल प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट, रांची ने अध्ययन किया तो पाया कि यहां एक एकड़ जमीन के नीचे औसतन एक लाख से ढाई लाख टन कोयला भंडार है जिसका बाजार मूल्य साठ करोड़ रुपए के आसपास है। यहां कोयला खनन के लिए जमीन के अंदर खान नहीं बनानी पड़ती, ऊपरी तीन-साढ़े तीन फुट मिट्टी हटा देने से कोयले की परत दिखने लगती है, जिसे गैंती या मामूली विस्फोट से उखाड़ा जा सकता है। वैसे, राज्य के कई क्षेत्रों में समान स्थितियां हैं और सार्वजनिक और निजी कंपनियां आजादी के बाद से ही जमकर कोयला खनन कर रही हैं। मुनाफा इतना है कि सरकार को महज तीन सौ रुपये प्रतिटन रॉयल्टी चुकानी है और बाकी पैसा जेब में। इन कंपनियों की एक दिन की कमाई तीन से चार लाख के आसपास है। बहरहाल, सरकार को नाममात्र की रायल्टी 120 से 300 रुपए प्रतिटन देकर बाकी कोयला ले उड़ती हैं और अकूत मुनाफा कमाती है। बहरहाल, कर्णपुरा पर रिपोर्ट के बाद सरकार चेती, नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन को वरवाडीह कोयला खान परियोजना के साथ ही निजी निजी क्षेत्र की इकाइयों को 16 हजार उपजाऊ भूमि पर खनन के पट्टे आवंटित कर दिए गए। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद एनटीपीसी केवल चार सौ एकड़ जमीन ही अधिग्रहीत कर पाई। इस परियोजना को धन देने वाले अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के दबाव में और कोयले की बढ़ती घरेलू मांग को देखते हुए सरकार हर कीमत पर इस परियोजन को साकार करना चाहती थी इसलिये जबर्दस्त रस्साकसी हुई। क्षेत्र के किसानों में शुरू से भ्रम था कि सरकार कोयला ले ही लेगी इसलिये विरोध करना बेकार है। उनका डर बढ़े, इसके लिए कंपनी ठेकेदार और सरकारी अफसर किसानों से कहते फिरते थे कि विकास के लिए बिजली चाहिए और बिजली उत्पादन के लिए कोयला चाहिए जिसे सरकार ले ही लेगी इसलिए अपनी जमीन बचाने का आंदोलन बेकार है। हां, मुआवजे की दर पर बातचीत हो सकती है। कंपनी ने 35 हजार रुपये प्रति एकड़ से शुरुआत की और फिर, राशि को बढ़ाकर दस लाख तक कर दिया लेकिन किसान आंदोलन शुरू कर चुके थे और वो डिगे नहीं। विनोबा भावे विवि हजारीबाग के प्रोफेसर मिथिलेश डांगी नौकरी छोड़कर किसानों के साथ हो गए। उन्हें समझाया और बार-बार हौसला दिया। हालांकि एक किसान को जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। तमाम लोगों पर मुकदमे लादे गए। कारवां रुका नहीं। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया जिसने ऊर्जा में कई गुना इजाफा कर दिया। शीर्ष न्यायालय की खण्डपीठ ने केरल के लिगनाइट खनन से संबंधित मुकदमे में फैसला देते हुए व्यवस्था दी कि खनिजों को स्वामित्व उसी का है जो जमीन का स्वामी है। यह स्वामित्व जमीन की सतह से पृथ्वी के केंद्र यानि पानी से लेकर सभी खनिजों तक लागू है। न्यायालय ने कहा कि देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो खनिजों का स्वामित्व सरकार को देता हो। सरकार या कंपनियों को खनिजोंपर अधिकार प्राप्त करना है तो उन्हें वैध तरीके से जमीन का अधिग्रहण या उसे खरीदना होगा। संवैधानिक स्थिति यही है लेकिन खनिजों की बढ़ती जरूरत और अनंत मुनाफे की संभावनाओं ने तमाम स्तरों से यह प्रचार करा दिया है कि जमीन का स्वामी केवल तीन-चार फुट ऊपरी सतह का मालिक है, उसके नीचे की सभी चीजों की मालिक सरकार है और कभी भी, कैसे भी उन खनिजों को हासिल कर सकती है। उत्साहित किसान खनन के बाद निकले कोयले को बेचते हैं, फिर नियमानुसार सरकार को रॉयल्टी भी चुका रहे हैं। वास्तविकता यह है कि कर्णपुरा घाटी के आंदोलन ने न सिर्फ कोयले के स्वामित्व और उपयोग के अधिकार पर ही नहीं, बल्कि सभी प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व और विनियोजन के अधिकार का सवाल उठा दिया है। एक दशक में झारखंड में 101 परियोजनाओं पर सहमति बनी लेकिन जमीन पर सिर्फ दो ही उतर पाए क्योंकि स्थानीय जनता अपने जल, जंगल, जमीन और खनिजों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं। पूरे झारखंड में स्थानीय स्तर के ऐसे आंदोलनों की बाढ़-सी आई हुई है। आंदोलनों की वजह आर्सेलर मित्तल को जाना पड़ा, टाटा की परियोजनाएं रुक गर्इं, ईस्टर्न कोल फील्ड का विस्तार अटक गया। कोयले का उत्पादन नीचे गिर रहा है, धनबाद में कोयला खदानों पर कब्जा करने की रणनीति बनाई जा रही है। ऐसे में ये आंदोलन एक बड़े बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। देश के लिए यह एक झोंका ही सही लेकिन इसे बयार आने का संकेत तो समझा ही जा सकता है।