Friday, August 1, 2014

हवाओं के खिलाफ जंग

सिविल सेवा परीक्षा हंगामे का सबब है। देश की इस सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में हुए बदलाव के विरुद्ध आंदोलन का दौर जारी है।विरोध परीक्षा पैटर्न के बदलाव का है, यह कहकर कि हिंदी भाषी छात्र-छात्राओं का चयन मुश्किल हो गया है और अब अंग्रेजी का दबदबा है। दलील दी जा रही है कि सिविल सेवा परीक्षा के इस बार के अंतिम नतीजे में महज दो-तीन फीसदी गैर-अंग्रेजी भाषी छात्र पास हो पाए। बदलाव की हिमायत भी हुई है, समर्थकों का कहना है कि प्रशासन में अंग्रेजी का प्रयोग अहम है, और देश-दुनिया में अंग्रेजी का जितना उपयोग बढ़ा है, उससे बच पाना कतई संभव नहीं। यह रोशनी से भागने का यत्न है। वर्ष 2011 में सिविल सेवा परीक्षा के दोनों स्तरों प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा के प्रारूप में बदलाव किया गया। इसके तहत प्रारंभिक परीक्षा में सभी अभ्यर्थियों को दो पेपर देने हैं, एक सामान्य अध्ययन और दूसरा है सीसैट यानि सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट। सीसैट फिलहाल विवाद की जड़ में है। छात्रों का कहना है कि नए बदलाव से प्रारंभिक परीक्षा में ही उन्हें बाहर करने की साजिश की गई है। असल में, दूसरा पेपर रखा ही इसलिये गया था कि परीक्षा केवल रट लेने वालों की कामयाबी का रास्ता बन गई थी। इसके जरिए ये जानने की कोशिश की गई कि अभ्यर्थी कितनी जल्दी, कितना सही और कितने अच्छे तरीके से निर्णय ले सकता है जो एक प्रशासनिक अफसर के लिए आवश्यक गुण हैं। तय है कि इसका असर हुआ और तमाम वो छात्र सफलता से वंचित होने लगे जो महज रटे-रटाए उत्तरों के जरिए परीक्षा भेद लेते थे। एक समस्या और है। छात्रों की शिकायत है कि परीक्षा के हिंदी प्रश्नपत्र में अंग्रेजी प्रश्नपत्र का गूगल से अनुवाद कर दिया जाता है जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और वह सही उत्तर देने पर भी फेल हो जाते हैं। जहां तक अंग्रेजी को हटाने की मांग है, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। आज के वक्त में अंग्रेजी के बगैर किसी प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक कर पाना नितांत असंभव है। हम कैसे ऐसे अफसर पैदा कर सकते हैं जो बदलते जमाने के साथ कदमताल करने वाला न हो, जिसे त्वरित और उचित निर्णय लेने की समझ न हो। प्राथमिक शिक्षा के माध्यम पर आए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को याद कीजिए, जिसमें कहा गया था कि अंग्रेजी भी शिक्षा का अनिवार्य अंग होनी चाहिये। आज के समय में अंग्रेजी की महत्ता की अनदेखी नहीं की जा सकती है। मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार के लिए दर दर की ठोकरें खाने से अच्छा है कि उस भाषा में शिक्षा प्रदान की जाए जो आगे चलकर छात्रों को रोजगार प्रदान कराने में सहायता प्रदान करे। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट तौर पर स्कूली शिक्षा के माध्यम को तय करने का अधिकार स्कूलों को देते हुए कहा कि राज्य सरकारें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। सरकारें भाषाई अल्पसंख्यक शिक्षक संस्थानों में क्षेत्रीय भाषाओं को थोप नहीं सकतीं। यह फैसला 90 के दशक में कर्नाटक सरकार के स्तर से पहली से चौथी कक्षा तक की शिक्षा का जरिया अनिवार्य रूप से मातृभाषा कन्नड़ किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका के संदर्भ में था। कर्नाटक में स्कूलों की मान्यता प्राप्त करने के लिए मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य शर्त बना दी गई थी। इसके साथ ही उन स्कूलों की मान्यता रद्द की गई जो ऐसा नहीं करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की, छात्रों पर उनकी मातृभाषा थोपना गलत है। बच्चे किस माध्यम में पढ़ेंगे, यह फैसला अभिभावकों पर छोड़ दिया जाए और इसमें राज्य दखलंदाजी न करे। बेशक, वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन चुकी है और मातृभाषा में शिक्षा या प्रतियोगी परीक्षाओं में उसे महत्व देने की अनिवार्यता कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। हमें आधुनिक विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है तो अंग्रेजी का विरोध छोड़ना होगा। हमें तरक्की हासिल करनी है तो यह अंग्रेजी को दरकिनार करने से नहीं होगी। राजनीतिज्ञों के एक समूह ने जिस तरह से सिविल सेवा परीक्षा को लेकर आंदोलनरत छात्रों का समर्थन किया है, उससे लगता है कि सियासी दखलंदाजी परीक्षा पैटर्न में बदलाव के लिए दबाव बना रही है। यह बदकिस्मती ही है कि देश का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी को विदेशी भाषा बताते हुए इसके प्रति आज के माहौल में भी पूर्वाग्रह से ग्रसित है। यह वर्ग अपनी भाषा को लेकर प्राय: भावुक रहता है और उसे अपनी जातीय अस्मिता से जोड़कर देखता है। कभी-कभी तो इसे वह राष्ट्रीय अस्मिता से खिलवाड़ भी बताने लगता है। हालांकि वह ये भी जानता हैं कि आज के समय मातृभाषा का अध्ययन भावनात्मक संतोष तो दे सकता है पर रोजी-रोजगार नहीं दिला सकता। राजनीतिक कारणों से इस तथ्य को सीधे-सीधे स्वीकार करने का साहस सियासी दलों और उसके लोगों में नहीं है। उनका यही संशय अक्सर कुछ राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों और सरकारी फैसलों में दिखता रहता है। हम दुनिया की तरफ देखें तो नजर आएगा कि चीन और जापान ने समय से कदमताल किया है। दोनों देश पहले अपनी भाषा को लेकर कुछ ज्यादा जज्बाती थे पर अब उन्हें अंग्रेजी की महत्ता समझ आ गई है। चीन में अंग्रेजी सीखने वालों की बढ़ती तादात इसका सटीक उदाहरण है। वहां के लोग भारत में व्यापार की संभावनाएं देखते हुए हिंदी सीखने से भी नहीं हिचक रहे। समय आ गया है कि भारत में भी मातृभाषा और विदेशी भाषा का भेदभाव समाप्त कर सस्ती और गुणवत्तापूर्ण अंग्रेजी शिक्षा सस्ती और सर्वसुलभ बनाई जाए। यह समय की मांग है। हम लंबे समय तक कूप मंडूक बनकर नहीं रह सकते।

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