Sunday, October 27, 2013

मुक्ति के लिए तड़पती शिक्षा

कल्पना कीजिए, आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो खुद को डॉक्टर लिखता है और प्रैक्टिस करता है पर यह नहीं पता कि उसने डॉक्टरी की यह पढ़ाई कर कब ली? आप पहल करते हैं, विश्वविद्यालय से उसकी डिग्री सत्यापित कराने का प्रयास करते हैं और डिग्री सत्यापित भी हो जाती है। अब सच्चाई के धरातल पर आएं, ऐसा हो सकता है कि विश्वविद्यालय फर्जी डिग्री भी सत्यापित कर दें। यह कारनामा कोई एक विवि नहीं कर रहा बल्कि देशभर में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां माफिया की सक्रियता से गलत कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। प्रवेश, छात्रवृत्ति से लेकर शिक्षण, परीक्षाएं और परीक्षाफल तक, सब गड़बड़ियों का शिकार बना है। ऐसे रैकेट सैकड़ों-हजारों में हैं जो नियमविरुद्ध मनमाफिक संस्थानों में प्रवेश दिला सकते हैं। छात्रवृत्ति का करोड़ों-अरबों रुपया डकार रहे हैं, पढ़ाने के लिए कोचिंग जैसे समानांतर तंत्र बना चुके हैं और परीक्षाफल में गड़बड़ियों की बदौलत फेल अभ्यर्थी को पास कराने का धंधा कर धनकुबेर बन चुके हैं। परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी में हताशा बढ़ रही है, सरकारी शिक्षा तंत्र से इतर वो दूसरे विकल्प चुनने के लिए मजबूर है। शिक्षा देश का भविष्य बनाती है। कहा जाता है कि शिक्षा का स्तर जैसा होगा, देश भी वैसा ही बनेगा। अपने देश की बात करें तो वर्तमान भय, भूख और भ्रष्टाचार का शिकार है तो हम भविष्य रुपहला होने की उम्मीद लगा रहे हैं। हमें लगता है कि भावी पीढ़ी कुछ कर दिखाएगी और हम महाशक्ति बनने का सपना साकार कर पाएंगे लेकिन शिक्षा के जिस जरिए से हम यह स्वप्न बुन रहे हैं, वह दिनोंदिन खोखला हो रहा है। भ्रष्टाचार की दीमक शिक्षा के मंदिरों की चौखट चाट रही है। बड़ी अजीब सी स्थिति है, हम लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति की आलोचना का कोई मौका नहीं छोड़ते और उसका विकल्प भी नहीं तलाशते। शिक्षा क्षेत्र में ईमानदारी की जरूरत बताते हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। शिक्षा का पूरा तंत्र जैसे जाम सा है, आरोपों के घेरे में बुरी तरह घिरा हुआ है। माफिया की दखलंदाजी इस हद तक बढ़ गई है कि फर्जी शैक्षिक कागजातों को भी सत्य सिद्ध कर दिया जाता है। केंद्रीय विश्वविद्यालय और आईआईटी-आईएमएम जैसे संस्थान अंगुलियों पर गिनने लायक ही हैं, राज्य विश्वविद्यालयों का तो पूरी तरह बेड़ा गर्क हो रहा है। यहां कर्मचारी-अफसर सब लूट मचाने में लगे हैं, ईमानदार अगर कोई आ जाए तो उसे काम ही नहीं करने दिया जाता। तथ्यों के आधार पर बात करें तो स्थितियों का अंदाज लगा पाना ज्यादा आसान होगा। उजागर होगा कि संख्या की दृष्टि से अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नम्बर पर आने वाली भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था गुणवत्ता के मामले में सबसे नीचे है और दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वाले नौ विद्यार्थियों में सिर्फ एक ही कॉलेज का मुंह देख पाता है। उच्च शिक्षा के लिए पंजीकरण कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानि मात्र 11 फीसदी भारत में है जबकि हम जिस महाशक्ति अमेरिका से अपनी मेधा की तुलना करते हैं, वहां यह अनुपात 83 प्रतिशत है। इस अनुपात को 15 फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य है और इसके लिए भारत को करीब सवा दो लाख करोड़ रुपया खर्च करना होगा, जबकि हमने पंचवर्षीय योजना के लिए सिर्फ 77 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। सरकारी निष्क्रियता की वजह से देसी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फीसदी शिक्षकों की कमी है। शिक्षा के पुरसाहाल और हमारी अनदेखी का ही नतीजा है कि डिग्रियों की हैसियत घट रही है। छात्रों को नौकरी नहीं मिल पा रही और माध्यमिक विद्यालयों में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कई राज्य विश्वविद्यालयों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने नकारात्मक सूची में डाल दिया है और वो इन विश्वविद्यालयों से पासआउट छात्रों को नौकरी के लिए कॉल तक नहीं करते, इंटरव्यू और नौकरी मिलना तो दूर की बात है। नैसकॉम और मैकिन्से सरीखी प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के रिसर्च के अनुसार, इंजीनियरिंग डिग्री प्राप्त चार में से सिर्फ एक और मानविकी के 10 में से एक छात्र को ही नौकरी के योग्य माना जा रहा है। इस स्थिति से भारत के उस दावे की हवा निकल जाती है कि उसके पास विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी और वैज्ञानिक शक्ति का जखीरा है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (नैक) के सर्वे का निष्कर्ष है कि देश के 90 फीसदी कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमजोर है। यह स्थिति तो तब है जबकि भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी, ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं हो पाते। आश्चर्यजनक रूप से हम निजी क्षेत्र को तो शिक्षा में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं लेकिन प्रतिस्पर्धा का माहौल नहीं बना पा रहे। इसी के नतीजतन, आजादी के पहले 50 साल में सिर्फ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला था लेकिन पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दे दी गई। ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र के प्रवेश से शिक्षा का बुरा ही हुआ, कई विश्वविद्यालय तो ऐसे भी बने हैं जिन्होंने अल्प समय में ही दुनियाभर में नाम कमाया है। लेकिन अपवाद ज्यादा हैं, कमाई मात्र के लिए आने वाले ने शिक्षा का बेड़ा गर्क ही किया है। इन्हीं नकारात्मक स्थितियों का नतीजा है कि प्रतिभा पलायन के साथ ही विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रति मेधावी छात्र-छात्राओं का रुझान बढ़ा है। भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानि करीब 43 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं क्योंकि देशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर उन्हें पसंद नहीं आ रहा। (लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)

Monday, October 21, 2013

मंगलम का अमंगल

कोयला घोटाले की तपिश इस बार उद्योग जगत तक पहुंची है और चपेट में आए हैं 40 अरब डॉलर से ज्यादा की परिसंपत्तियों वाले औद्योगिक घराने के सर्वेसर्वा कुमारमंगलम बिड़ला। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने न केवल बिड़ला समूह की कंपनी हिंडाल्को के दफ्तरों पर छापे मारे हैं बल्कि कुमारमंगलम के विरुद्ध भी प्राथमिकी दर्ज कर ली है। सरकार भी सकते में है क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से उसका ‘तोता’ कहे जाने वाली जांच एजेंसी ने एक बड़े उद्यमी पर निशाना साधा और चुनावी बेला में उसके समक्ष बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी। बात इतनी होती तो भी खैर थी, उद्योग जगत ने जिस तरह के तेवर दिखाए हैं, उससे देश में निवेश का माहौल प्रभावित होने का खतरा पैदा हुआ है। सरकार खुद सफाई की मुद्रा में है। कुमारमंगलम निश्चिंत हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है इसलिए वह एफआईआर से परेशान नहीं हैं लेकिन इससे सीबीआई को लेकर बहस का नया दौर चलने की संभावनाएं बनी हैं। पूरे मसले में सीबीआई सामने आकर बोलने से बच रही है तो शक है कि कहीं वह अंधेरे में तीर तो नहीं चला रही। मोइली की बात कहीं सही तो नहीं, जिसमें उन्होंने कहा था कि सीबीआई ने जो किया, यदि वह सबूतों पर आधारित है तो उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो हमें सावधान रहना चाहिए। कोयला घोटाला वैसे ही सरकार के गले में फंसा हुआ है, प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह तक कठघरे में हैं। हिंडाल्को पर छापेमारी चर्चा का उतना विषय नहीं थी कि तभी सीबीआई ने कुमारमंगलम पर वार कर दिया। उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज होते ही तूफान आ गया। अंदरखाने की सरगर्मियां तब सतह पर आर्इं जब केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कड़े तेवर दिखाए। वह खुलकर बोले, कानून को अपना काम करने देना चाहिए लेकिन यह भी ख्याल रखने की जरूरत है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार या कोई भी एजेंसी कानून से बड़ी नहीं है। भारत कतई रूस की तरह काम नहीं कर सकता, जहां सभी अरबपतियों को जेल के भीतर डाल दिया जाता है। यहां औरंगजेब का शासन नहीं है, कानून का राज चलता है। इससे पहले वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा हमलावर थे। उन्होंने इसे देश में निवेश का माहौल खराब करने वाला कदम बताया था। उद्योग जगत की ओर से मोर्चा संभाला भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने। उसने कहा कि साख बनाने में वर्षों लग जाते हैं और बिगड़ने में जरा भी वक्त नहीं लगता इसलिए ऐसी कार्रवाई से पहले सावधानी बरतने की जरूरत है। बहरहाल, सरकार की चिंताओं की वजह है। कई राज्यों में विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं और अगले साल आम चुनाव प्रस्तावित हैं। चुनावी वक्त में राजनीतिक दलों और उद्योग जगत की दोस्ती चर्चाओं में रहा करती है। इसके अतिरिक्त एक बड़े उद्योगपति के फंसने से सरकार पर आरोपों का नया दौर शुरू हो सकता है। और तो और... उद्योग जगत यदि खुद को मुश्किल में महसूस करेगा तो निवेश का माहौल प्रभावित तो होगा ही। केंद्र की यूपीए सरकार से वैसे भी उद्यमियों की नाराजगी ही रही है। यूपीए-2 के पहले आम बजट में जिस तरह से उद्योग जगत से विमुख रहने की अप्रत्यक्ष नीति शुरू की गई थी, वह वित्तीय वर्ष 2013-14 के बजट तक अनवरत चली। देश की अर्थव्यवस्था का यह अहम घटक कर रियायतों के लिए तरसता रहा। तटस्थ बजट की शैली पर चलते हुए सरकार ने न तो अपने आम मतदाता का ही भला किया, ना ही उद्योगों का। आक्रोश की स्थिति भांपने के लिए रतन टाटा का वह भाषण याद कीजिए, जिसमें उन्होंने यूपीए के बजाए नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। वह यह कहने से भी नहीं हिचके कि नेतृत्व की कमी की वजह से देश में आर्थिक संकट है। सरकार निजी क्षेत्र में चंद प्रभावशालियों के निहित स्वार्थों के प्रभाव के आगे झुकी है और नीतियां बदली गई हैं, लटकाई गई हैं और उनके साथ छेड़छाड़ हुई है। जिस तरह से कुछ नीतियां अगर तैयार की गर्इं तो उन्हें उसी रूप में क्रियान्वित किया जाना चाहिये था, इससे उद्योग जगत प्रगति की राह पर बढ़ता और देश का भला होता। आर्थिक मोर्चे पर भी सरकार असफल सिद्ध हुई है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही महंगाई चरम सीमा तक बढ़ी और रुपया ऐतिहासिक अवमूल्यन का शिकार हुआ। घरेलू उद्योगों की ओर से मांग की गई थी कि बाजार का रुख आयात मूल्य में इजाफा कर आयातित वस्तुओं के देसी विकल्पों की तरफ मोड़ा जाना चाहिये। एक मांग विदेशी वस्तुओं के आयात पर विशेष अधिभार लगाने की भी थी। अधिभार लगाते वक्त कीमत कम करने वाले रक्षात्मक उपाय किए जाने की वकालत हुई थी। सरकार को डर था कि इस अधिभार से उस पर संरक्षणवादी नीतियों के पोषण का आरोप लग सकता है किंतु उद्योग जगत ने सुझाव दिया कि यह कुछ अवधि के लिए हो और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होते ही इसे हटा लिया जाए। इस अवधि में उद्योग जगत भी अपना भला करने में सक्षम हो जाएगा। अधिभार को विश्व व्यापार संगठन में अधिसूचित किया जाए ताकि व्यापार साझेदारों में भारत को लेकर भरोसे की कमी न हो। इस बीच सभी क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होने वाले अधिभार से आम और खास का फर्क नहीं रह जाएगा और इससे गड़बड़ी की आशंकाएं कम होंगी अन्यथा स्थिति 1991 से पहले जैसी हो सकती है। लेकिन सरकार चेती नहीं। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति पर भी उद्योग जगत ने बार-बार असहमति जताई। उद्योग जगत रिजर्व बैंक से दरों में कटौती की उम्मीद कर रहा था ताकि उपभोक्ताओं के लिए आवास और वाहन ऋण थोड़े सस्ते हो जाते और बाजार में रौनक लौटती। निराशा के भंवर में डुलाती रही सरकार से कुमारमंगलम के विरुद्ध एफआईआर ने नाराजगी और बढ़ाई है। सरकार को तत्परता से कदम उठाना होगा, यह चाहे सीबीआई पर सबूत सार्वजनिक करने का दबाव बनाने की प्रक्रिया ही क्यों न हो। साथ ही यह ध्यान भी रखना होगा कि आम जनता में यह संकेत न जाए कि वह दबाव में झुक गई।

Sunday, October 13, 2013

नदियों को डंसता प्रदूषण

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर हटाने से इंकार किया है। प्रदूषण की मार से दम तोड़ रहीं इन नदियों के लिए यह आदेश जीवनदायिनी की तरह है। हाल कितना खराब है, बताने की जरूरत नहीं। उदाहरण के लिए दिल्ली में यमुना महज 22 किमी बहती है किंतु वहां हर सवा किमी पर बहने वाले 18 बड़े नाले उसका दम निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। आगरा हो या दिल्ली, पानी को साफ करने के वास्ते जो गिने-चुने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं, उनमें फिर से गंदे नाले का पानी आ मिलता है। नाले को टैप करने के इंतजाम महज दिखावे के हैं। प्रदूषण रोकने के सरकारी इंतजाम की तो बात ही छोड़िए, हम खुद भी नदियों का बेड़ा गर्क करने से बाज नहीं आ रहे। समस्या इसीलिये तेजी से बढ़ रही है। नदियां हमारे जीवन के साथ ही हमारी संस्कृति और परंपराओं का अंग हैं। ऐसे में प्रदूषण के बढ़ते ग्राफ में हमारी हिस्सेदारी दुर्भाग्य का विषय है। यमुना हिमालय के चंपासागर ग्लेशियर से निकलती है और 1376 किमी का सफर तय करते हुए इलाहाबाद पर गंगा में विलीन हो जाती है। प्रदूषण का हाल सभी जगह खराब है लेकिन दिल्ली में वजीराबाद से ओखला बैराज तक नालों के कूड़ा-कचरे के साथ ही औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले रसायनों से विषैली हो जाती है। जुलाई में हुए एक परीक्षण के मुताबिक, हरियाणा में ताजेवाला बांध में बायोकेमिकल आॅक्सीजन डिमांड यानि बीओडी शून्य है यानि यहां का पानी प्रयोग करने लायक है लेकिन दिल्ली में भीषण प्रदूषण की वजह से बीओडी का स्तर 23 तक पहुंच गया है, जिससे नदी में मछलियां मर जाती हैं और वनस्पतियों की समाप्ति हो जाती है। दिल्ली में यमुना को लोगों ने मृत नदी कहना शुरू कर दिया है। यह हाल तो तब है जबकि 1993 से 2008 तक यमुना की सफाई के लिए केंद्र सरकार ने 13 अरब रुपये खर्च किए हैं। विश्व बैंक जैसी अन्य एजेंसियों ने तो यहां हजारों करोड़ रुपये फूंके हैं। दिल्ली के निजामुद्दीन पुल के नीचे देखने पर पता चलता है कि यमुना की स्थिति कितनी खराब है। पिछले 15 साल में यहां यमुना जल में घुली आॅक्सीजन की मात्रा शून्य के स्तर पर टिकी है। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यमुना की स्थिति पर डॉ. विनोद तारे और डॉ. पूर्णेंदु बोस की रिपोर्ट बताती है कि वजीराबाद बैराज के बाद यमुना में जो भी पानी बह रहा है, वह पूरी तरह से सीवेज का पानी है यानि दिल्ली में यमुना नहीं, सिर्फ नाला बहता है। यमुना की जो सूरत दिल्ली में है, कमोवेश वही अन्य शहरों में है। इसी तरह का हाल गंगा का है। इलाहाबाद और वाराणसी जैसे धार्मिक महत्व के शहरों में गंगा का प्रदूषण चरम पर है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए 1985 गंगा एक्शन प्लान शुरू करने की घोषणा की थी। इसका पहला चरण 31 मार्च, 2000 को पूरा मान लिया गया और इस पर 462 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसके बाद गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण शुरू हुआ जिसमें यमुना और दूसरी नदियों के एक्शन प्लान भी शामिल कर लिये गए, दिसम्बर 2012 तक इसमें 2598 करोड़ रुपये खर्च हुए। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। संगम सरीखे धार्मिक महत्व के स्थल की बदौलत के बावजूद बीओडी की अधिकतम डिमांड तीन एमजी प्रतिलीटर की तुलना में 11.4 एमजी प्रतिलीटर है। वहीं वाराणसी में बीओडी 14.4 एमजी प्रतिलीटर है। हजारों करोड़ रुपये फूंकने के बाद भी नतीजे आने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती, वहीं और पैसा खर्च करने के बहाने ढूंढे जा रहे हैं। प्रदूषण की बात ज्यादा उठी, मथुरा-वृंदावन से यमुना प्रदूषण के विरुद्ध उठी आवाज दिल्ली पहुंच गई तो आनन-फानन में एक प्रस्ताव तैयार किया गया और कह दिया गया कि यमुना के प्रदूषण का अगर दिल्ली में इलाज कर दिया जाए तो समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकता है। सवाल उठा कि इसमें कितनी राशि खर्च होगी, तो जवाब दिया गया कि 1217 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से अगले 15 साल में 18 हजार करोड़ रुपये। नदियों के प्रदूषण का बुरा असर भूजल स्तर पर भी हो रहा है। आर्गेनिक केमिस्ट्री में एमएससी ऋषिकेश के 36 वर्षीय आचार्य नीरज ने 2010 में गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा की पैदल यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान लगातार गंगा या उसके पास लगे हैंडपपों का पानी पीते रहने से उनके शरीर में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ गई। उनके शोध के निष्कर्षों में अंकित है कि किसी भी नदी के पास जमीनी स्तर पर प्रदूषण साफ करने के उपाय कभी लागू नहीं हुए और इसी वजह से गंगा एक्शन प्लान नाकाम हुआ। जाधवपुर विवि के प्रो. दीपंकर चक्रवर्ती के 15 वर्ष लम्बे शोध में पता चला कि पटना, बलिया, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर तक नदी किनारे आॅर्सेनिक की मात्रा चरम स्थिति में है। यमुना में दिल्ली के पास गढ़ मुक्तेश्वर तक आॅर्सेनिक की पुष्टि हुई है। अब अगर मूर्तियों के विसर्जन से प्रदूषण की स्थिति की बात की जाए तो स्थिति और भी गंभीर नजर आने लगेगी। नदी में हजारों मूर्तियों के विसर्जन के दौरान पूजा सामग्री, पॉलीथिन बैग, फोम, फूल, खाद्य सामग्री, साज-सज्जा का सामान, मेटल पॉलिश, प्लास्टिक शीट, कॉस्मेटिक का सामान डाला जाता है, जो प्रदूषण का हाल और बिगाड़ देता है। मूर्ति विसर्जन से पानी की चालकता पीएच, ठोस पदार्थों की मौजूदगी, बीओडी और घुलनशील आक्सीजन (डीओ) में कमी बढ़ जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्ययन के मुताबिक सामान्य समय में यमुना के पानी में पारे की मात्रा लगभग नहीं के बराबर होती है, लेकिन धार्मिक उत्सवों के दौरान यह अचानक बढ़ जाती है। यहा तक कि क्रोमियम, तांबा, निकल, जस्ता, लोहा और आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का पानी में अनुपात भी बढ़ जाता है। हम यह क्यों नहीं समझते कि समय के साथ परंपराएं भी बदली जानी चाहिये, यदि वह भीषण संकट की दस्तक दे रही हों। नदियां दूषित हो रही हैं। सूख रही हैं, जहां पानी है, वहां वेग नहीं है जो तमाम प्रदूषण को बहाकर ले जा सके। जरूरत किसी वैकल्पिक व्यवस्था की है जिससे परंपरा भी निभ जाएं और नदियों की जान भी बच जाए। आस्था के नाम पर अड़ियल रवैये से अब काम नहीं चलने वाला वरना भावी पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी।

Saturday, October 12, 2013

कारगिल से केरन तक...

सन् 1999 में भारत को मजबूरीवश कारगिल का संग्राम लड़ना पड़ा था और अब, 2013 में लगभग उसी शैली में दो हफ्ते तक पाक सीमावर्ती क्षेत्र केरन में हमारी सेना आतंकियों से जूझती रही। लगभग तीन दर्जन से ज्यादा पाक आतंकी मौत के घाट उतारे गए। भारतीय सेना के बड़े आॅपरेशन में एके-47 और स्नाइपर राइफलों के अलावा अन्य घातक युद्ध हथियार, रेडियो सेट, गोला-बारूद, दवाइयां, खाद्य पदार्थ जैसी सामग्री बरामद हुई। कारगिल की तरह केरन में भी आतंकी लंबी लड़ाई के लिए आए थे। आश्चर्य की बात यह है कि कुशल और पेशेवर भारतीय सेना को एक बार फिर लोहे के चने चबाने पड़े। कारगिल जैसी ही गफलत की धुंध केरन में छाई रही और सेना को फिर अंधा युद्ध लड़ना पड़ा। सवाल यह है कि सेना की खुफिया यूनिट पहले की तरह समय से सटीक जानकारी क्यों नहीं जुटा सकी? कारगिल की तरह केरन में भी सैन्य कार्रवाई विलंब से क्यों शुरू हुई? गनीमत यह है कि इस बार पाक आतंकी कारगिल की तरह बड़ी मुसीबत नहीं बन पाए। कारगिल युद्ध में हमें पांच सौ से ज्यादा सैनिकों का बलिदान देना पड़ा था। केरन क्षेत्र के गांव शाला भाटा में चले आॅपरेशन में हमारा एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ। बकौल सेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह, पाकिस्तानी सेना ने कारगिल की तरह घुसपैठ कराई थी। घुसपैठिये कारगिल की तरह पहाड़ पर नहीं बल्कि नाले में छिपे बैठे थे। लश्कर-ए-तोइबा और हिजबुल मुजाहिदीन नामक खूंखार आतंकी संगठनों के यह लोग लगातार पाकिस्तानी सेना के संपर्क में थे। हालांकि भारत में पाक उच्चायुक्त सलमान बशीर ने घुसपैठियों को पाक समर्थन के आरोप को गलत करार दिया लेकिन भारतीय सेना ने इन आतंकियों के कब्जे से एक खत बरामद किया जिसमें साजिश की पूरी कहानी दर्ज थी। पाक घुसपैठियों के कई संदेश इंटरसेप्ट हुए जिनसे पता चला कि उन्हें रसद और हथियारों की सप्लाई निरंतर जारी थी। यह सब, तब हुआ जब सीमा के इस पार और उसपार एक बार फिर अमन की कलियां फूट रही थीं। अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाक समकक्ष नवाज शरीफ मिल रहे थे। भारत पाक को आतंक के खिलाफ नसीहतें और चेतावनियां दे रहा था। इधर, सीमा पर पाक सेना और बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई का नापाक गठजोड़ अपनी पुरानी कूटनीति लागू कर रहा था। हालात लगभग कारगिल के समय जैसे ही थे। तब भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ थे और वह तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से प्रेम की पींगें बढ़ा रहे थे। भावुक होकर वाजपेयी तब बस से लाहौर जा पहुंचे थे। उस समय के खलनायक पाक सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ बन गए। उन्होंने कारगिल की पहाड़ियों में जा छिपे आतंकियों को सेना का खुला समर्थन दे दिया और भारत के विरुद्ध बाकायदा युद्ध छेड़ दिया। बाद में आरोप यह भी लगा कि मुशर्रफ ने युद्ध के बाबत नवाज से सहमति भी नहीं ली थी। बताया तो यहां तक गया था कि मुशर्रफ साजिश में इस कदर लिप्त थे कि भारतीय सीमा में चहलकदमी करके मौके का जायजा लेकर लौट गए थे। इसके बाद उनके निर्देश पर युद्ध शुरू हो गया। दो दिन पहले ही पूर्व पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी का बयान आया है कि वह सेना और आईएसआई को सत्ता के काफी करीब खींचकर लाए थे। मतलब साफ है कि पाकिस्तान में हुक्मरान और सेना के बीच दूरियां बनी रहती हैं। वहां सेना ही निर्णायक भूमिका में रहती है। जब भी सत्ता से टकराव होता है तो जम्हूरियत को रद्दी की टोकरी में फेंककर सैन्य तानाशाह बागडोर अपने हाथ में ले लेते हैं। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं। पाकिस्तान में पिछले पांच साल तक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की चुनी हुई सरकार चली । यह वहां की जम्हूरियत के लिए एक आश्चर्य से कम नहीं है। हालांकि इस बीच पाक सेना ने सीमा पर कई दर्जन बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया। कई बार खूंखार आतंकियों को रात के अंधेरे में हमारी सीमा में प्रवेश कराकर संगीन वारदातें करार्इं। एक बार तो आतंकी हमारे दो सैनिकों के सिर ही काटकर ले गए। इससे पूरे देश में उबाल आ गया। तब से लगातार अब तक पाक सेना हरकत-दर-हरकत करने पर उतारू है। भारत लगातार अमन का सपना पाले हुए है जो टूटता ही नहीं। मगर सवाल यह है कि कारगिल और केरन जैसी बड़ी वारदातों को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। आखिर पुराने शत्रु द्वारा लगातार पैदा की जा रही गफलत की धुंध के बीच कब तक हम अंधा युद्ध करते रहेंगे। सारी दुनिया को पता है कि गुलाम कश्मीर के कई क्षेत्रों में लश्कर-ए-तोइबा और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठन प्रशिक्षण शिविर चलाते हैं। पाक सेना और वहां की सरकार उन्हें खुला समर्थन देती है। यही खूंखार तत्व जब तब भारत की सीमा में घुसकर खून खराबा करते हैं। देश में कई तरह से यह आवाज उठी है कि भारत आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को स्वयं समाप्त करे तभी सीमा पर शांति स्थापित हो सकती है। कैसा विद्रूप है कि मुंबई हमले का मास्टरमाइंड और जमात-उल-दावा नामक धार्मिक संगठन के मुखिया हाफिज सईद को पाक का सरकारी संरक्षण प्राप्त है और वह खुलेआम सार्वजनिक मंचों से भारत को युद्ध के लिए ललकारता है। सईद स्वयं आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलवाता है तथा सिरफिरे युवकों को गुमराज करके भारत पर हमले कराता है। दरअसल, यह एक छद्म युद्ध है जो पाकिस्तान की सेना ने 1972 में हुए शिमला समझौते के बाद से छेड़ रखा है। पाकिस्तान के राजनीतिक चेहरे दुनिया के सामने चाहे जो कहें मगर वे करते वही हैं, जो वहां की सेना चाहती है। पाक सेना ने आईएसआई की मदद से बांग्लादेश बनने के बाद रंजिशवश कई कूटनीतियां बना रखी हैं जिसे भारत को समझना होगा। याद कीजिए तब जुल्फिकार अली भुट्टो गुलाम कश्मीर में तकरीरें किया करते थे कि पाक भारत से एक हजार साल तक लड़ता रहेगा। उनकी कूटनीति का परिणाम आज भी आतंकी हमलों के रूप में भारत भोग रहा है। 1972 से अब तक के आतंकी हमलों से भारत को सबक सीखना चाहिए। पाक द्वारा लगभग 40 साल पहले छेडेÞ गए छद्म युद्ध के खिलाफ भारत को वास्तविक युद्ध लड़ना ही पडेÞगा अन्यथा कारगिल और केरन जैसी मानसिक त्रासदियां देश को झेलनी ही पडेÞंगी।