Saturday, December 28, 2013

यमुना तट पर केजरीवाल

अरविंद केजरीवाल ने आखिरकार दिल्ली की कमान संभाल ही ली। कठिन चुनौतियां हैं और वह बार-बार कह रहे हैं कि इनसे निपटने में खरा सिद्ध होंगे। अहम मोर्चा है राजधानी के हर घर में प्रतिदिन सात सौ लीटर पानी की आपूर्ति का। बिजली की कीमतें घटाने के मामले में वह चाहें कुछ कर दिखाएं भी, लेकिन पानी का मामला बेहद मुश्किल है। जिस यमुना से उनकी दिल्ली की पानी मिलता है, पहली बात तो साल के ज्यादातर महीनों में उसमें पानी की कमी रहती है और दूसरा, हरियाणा सामने खड़ा है। कांग्रेस शासित हरियाणा आसानी से मान जाएगा, यह कतई संभव नहीं। केजरीवाल ने बड़े वादे किए थे। शक है कि उन्हें दिल्ली फतह का यकीन था। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा जता दिया। पानी दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश का भी बड़ा दर्द है। वर्ष 1995 में पांच राज्यों हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश औऱ हरियाणा के बीच यमुना जल पर समझौता हुआ था, पर यह अक्सर विवादों का विषय बनता है।हरियाणा से गुजरने के बाद यमुना दिल्ली पहुंचती है तो वह उसे काफी प्रदूषित कर देती है। उत्तर प्रदेश, खासकर ब्रज, में यमुना जल बड़ा मुद्दा है। यमुना आस्था से भी जुड़ी नदी है, भगवान कृष्ण की वजह से उसे आस्था का यह दर्जा हासिल हुआ है। हर साल ब्रज में करीब आठ करोड़ श्रद्धालु आते हैं, लेकिन जब ये लोग यमुना में गिरते नालों को देखते हैं तो उनकी भावनाएं आहत होती हैं। यही कारण है कि यमुना के किनारे भूमिगत जल भी प्रदूषित हो चुका है। आसपास के क्षेत्र में गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। आगरा-मथुरा समेत पूरा ब्रज यमुना शुद्धिकरण के लिए आंदोलनरत रहा है। संतों ने तो यमुना मुक्ति यात्रा तक आयोजित की है। ऐसे में आम आदमी पार्टी के नायक का रास्ता खासा कठिन हो जाता है कि वह दिल्ली को अपने वादे के मुताबिक पानी दे पाएंगे। केजरीवाल एक तरफ तो दिल्ली के निकटवर्ती हरियाणा में पैर पसारने की योजना बना रहे हैं, दूसरी तरफ, इसी हरियाणा के विरुद्ध उनका मोर्चा खुलने जा रहा है। वह कैसे मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा उन्हें पानी देने के लिए तैयार हो जाएंगे जबकि कृषि प्रधान हरियाणा के तमाम इलाकों के खेतों में सिंचाई और जलापूर्ति यमुना पर ही आश्रित है। आंकड़ों पर जाएं तो दिल्ली की जलापूर्ति हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर निर्भर है। दिल्ली जल बोर्ड वहां प्रतिदिन करीब 835 एमजीडी पानी की सप्लाई करता है जिसका करीब 50 प्रतिशत भाग हरियाणा से मिलता है और करीब 25 फीसदी हिस्सा गंग नहर से। उत्तर प्रदेश जहां पानी को प्रदूषित करने के लिए दिल्ली से दो-दो हाथ करने के लिए मजबूर है, वहीं हरियाणा से उसकी लड़ाई पानी की समुचित आपूर्ति को लेकर है। हरियाणा और दिल्ली के बीच भी यही विवाद है और गर्मियों में अक्सर केंद्र सरकार को दखल देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बदली स्थितियों में सवाल यह है कि केंद्र सरकार क्यों कांग्रेस शासित हरियाणा से पानी छोड़ने के लिए कहेगी जबकि पानी न मिलने पर आम आदमी पार्टी से जनता के मोहभंग का लाभ उसे मिल सकता है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार भी अपनी जनता का हक काटकर दिल्ली का गला तर करने को तैयार नहीं होगी, क्योंकि वह भी राजनीतिक रूप से आम आदमी पार्टी के बिल्कुल करीब नहीं है। उत्तर प्रदेश तो खुलकर यमुना मुक्ति आंदोलन के साथ है। यमुना रक्षक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संत जयकृष्ण दास के नेतृत्व में संचालित आंदोलन के कार्यकर्ताओं के समक्ष प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव खुलकर कह चुके हैं कि यमुना की गंदगी के लिए दिल्ली जिम्मेदार है और हरियाणा ने उसे हथिनीकुंड में रोक दिया है। सरकार की ओर से मंत्री ने हरियाणा सरकार से बात की है, आंदोलनकारी भी हुड्डा के संपर्क में हैं। अखिलेश सरकार की योजना यमुना के समानांतर नाले के निर्माण की है, साथ ही यमुना के समानांतर पाइप लाइन डालकर गंदे पानी का शोधन कर इसे कृषि और अन्य उपयोग में लाने का उसका मन है। इन परिस्थितियों में अरविंद का मोर्चा और कठिन हो जाता है। दुःख की बात यह है कि सारी मारामारी यमुना के उस जल के लिए है, जिसके जहरीला होने की हद तक प्रदूषित होने के कारण दिल्ली जल बोर्ड साल में कई बार शोधन कार्य रोक देता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी स्वीकार करता है कि हालात बहुत खराब हैं। राष्ट्रीय गंगा घाटी प्राधिकरण ने 764 ऐसी औद्योगिक इकाइयों को चिह्नित किया, जिनसे नदियों में सबसे अधिक प्रदूषण फैलता है। कुछ के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई लेकिन पूरा तंत्र भूल गया कि प्रदूषण बढ़ाने में ऐसे बहुत सारे छोटे कल-कारखाने जिम्मेदार हैं, जो अपंजीकृत हैं और ऐसी इकाइयां दिल्ली में सर्वाधिक हैं। इसके अलावा मौजूदा जलमल शोधन संयंत्रों की क्षमता पर भी शुरू से सवाल उठते रहे हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि आदर्शों की राजनीति का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल ने इतना बड़ा वादा करने से पहले जमीनी हकीकत का आंकलन क्यों नहीं किया। इसके बजाए, वह यमुना शुद्धिकरण और उसके बाद बढ़ी जल की मात्रा से दिल्ली को ज्यादा पानी देने का वादा करते तो ज्यादा अच्छा रहता। तब बदलाव की उम्मीद करने वाली उत्तर प्रदेश और हरियाणा की जनता भी उनके साथ आ पाती।

Sunday, December 22, 2013

सीमाएं लांघता 'देवयानी एपिसोड'

भारत-अमेरिका कूटनीतिक सम्बन्धों में तनातनी है। शायद पहली बार अमेरिका को किसी देश से इतना प्रबल विरोध सहना पड़ रहा है, तो भारत ने भी संभवतया पहली दफा विवाद के किसी एपीसोड पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया जताई है। साथ ही, यह दिखाने की कोशिश की है कि वह मामले से बेहद खफा है, बदला लेने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता। लेकिन भारतीय रुख तमाम प्रश्न भी खड़े कर रहा है, यदि राजनयिक देवयानी खोबरागडे के विरुद्ध शिकायत है और अमेरिका उसकी जांच कर रहा है तो हम महज विरोध की परंपरा से आगे बढ़ने में इतने व्यग्र क्यों दिख रहे हैं। यह कहां की समझदारी है कि विदेश मंत्री संसद में चीखकर कहें कि मैं देवयानी को सुरक्षित वापस नहीं ला पाया तो सदन को कभी मुंह नहीं दिखाऊंगा। क्यों देवयानी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें सुरक्षा कवच मुहैया कराया जा रहा है, ताकि यह भ्रम ही न रहे कि वह राजनयिकों के लिए तय विशेषाधिकारों की परिधि में आती हैं या नहीं। अरसे से जिसे हम मित्र सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे, उसी अमेरिका के साथ ऐसा व्यवहार क्यों हो रहा है कि वह पाकिस्तान जैसा कोई शत्रु देश हो। राजनयिकों के विशेषाधिकारों का प्रावधान है और सभी देश इन्हें पूरा आदर-सत्कार देते हैं। अमेरिका पर आरोप है कि उसने मर्यादाएं लांघीं और भारतीय राजनयिक की वस्त्र उतारकर तलाशी से भी नहीं हिचका। उन्हें खूंखार कैदियों के साथ हवालात में रखा गया। भारत ने तत्काल प्रतिक्रिया जाहिर की और अमेरिकी राजनयिकों के यह अधिकार जैसे सीज कर दिए। लेकिन यह प्रतिक्रिया बेहद निचले स्तर की रही। कहां की समझदारी है कि जिस अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों ने निशाने पर ले रखा हो, जिसके दूतावासों पर हमले किए हों, जिसके राजनयिकों के अपहरण के उदाहरण हों, उस अमेरिका के दूतावास तो हम इतना असुरक्षित छोड़ दें कि आम यातायात वहां से गुजरने लगे। माना कि आम चुनाव नजदीक हैं और अमेरिका के विरुद्ध नरम रवैये से मतदाताओं में गलत संकेत जा सकते थे लेकिन ईश्वर न करे, कि राजनयिकों और दूतावास के साथ कुछ गलत हो गया होता तो हम क्या जवाब देते। क्या तब हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न चुनावों का मुद्दा नहीं बनते? अगर अमेरिका जांच पर ही उतारू था तो क्यों हम, उसकी प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार नहीं कर रहे। होना तो यह चाहिये कि हम देवयानी के जांच में बेदाग सिद्ध होने का इंतजार करते। बजाए इसके, हमने यह सुनिश्चित करने के लिए देवयानी बची रहें, हमने उन्हें विशेषाधिकारों का कवच मुहैया कराते हुए न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में तैनात कर दिया। इस तरह उन्हें विएना संधि के तहत राजनयिकों को मिलने वाले सारे अधिकार मुहैया करा दिए गए। फिलहाल कौंसुलर अफसर होने के कारण देवयानी को ये अधिकार हासिल नहीं थे। अगर यह जरूरी भी था, तो क्यों हमारा विदेश मंत्रालय अब तक भारतीय दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ का दर्जा दिलाने में कोताही बरतता रहा जबकि वहां स्थित रूसी दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ दर्जा प्राप्त है। इसके उलट, अमेरिका ने यही विशेषाधिकार भारत स्थित अपने कूटनीतिक मिशनों के कर्मचारियों के लिए प्राप्त किया हुआ है। अमेरिका को दोष देने से पहले हमें अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि हमने अपने कूटनीतिज्ञों को कितना सुरक्षा कवच प्रदान कर रखा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि विपक्षी दलों ने भी मुद्दे से ज्यादा नहीं समझा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इंकार किया, तब तक तो खैर थी लेकिन संसद के सत्र में जिस तरह से मर्यादा की सीमाएं पार हुर्इं और अमेरिका को गालियां तक दी गर्इं, वह किस तरह से सही मानी जा सकती हैं। अमेरिका अगर भूल भी रहा था और राजनयिक के साथ गलत व्यवहार पर उतारू था तो हमारे सब्र के बांध का छलक जाना, कहां तक न्यायोचित माना जा सकता है। सियासी पार्टियों का सारा आक्रोश वोटों की राजनीति तक सीमित था, इसीलिये तो भाजपा नेता यशवंत सिन्हा शालीनता की सीमा पार कर गए और यह कह बैठे, 'भारत ने काफी संख्या में अमेरिकी राजनयिकों के साथियों को वीजा जारी किए हैं। जैसे अमेरिका में मानक से कम वेतन देना अपराध है, वैसे ही धारा 377 के तहत हमारे देश में समलैंगिक संबंध भी अपराध हैं तो भारत सरकार ऐसे सभी अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेती! उन्हें जेल में डालिए और यहीं सजा दीजिए।' इन सब बातों से इतर, अगर हम वैश्विक स्थितियों की बात करें तो अमेरिका के साथ रहकर भी हम खुद को नफे में मान सकते हैं वरना रूस की हैसियत अब पहले जैसी है नहीं और चीन जैसा दुश्मन लगातार अपनी ताकत में इजाफा कर रहा है। पाकिस्तान से चीन का गठजोड़ हमारे लिए किसी भी दिन बड़ी चुनौती बनकर रूबरू हो सकता है। ऐसे में अमेरिका ही आशा की एकमात्र किरण है और वह काफी समय से चीन पर अंकुश रखने की नीयत से एशिया में भारत की भूमिका बढ़ाने के लिए कदम उठा रहा है। अमेरिका भारत को अपना रणनीतिक साझीदार मानता है और दोनों के सुरक्षा हित साझा हैं। दोनों ही देश आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त हैं और उससे लोहा लेने के लिए मजबूर हैं। समुद्री सुरक्षा, हिन्द महासागर क्षेत्र, अफगानिस्तान और कई क्षेत्रीय मुद्दों पर दोनों देश व्यापक तौर पर अपने हित साझा करते हैं। बात का लब्बोलुआब यह है कि हमें पूरे प्रकरण में समझदारी दिखानी चाहिये थी जो हमने अभी तक नहीं दिखाई है। यह भारत और अमेरिकी सम्बन्धों के लिए कतई उचित नहीं है। यह आत्मघाती भी हो सकती है।

Saturday, December 14, 2013

सियासत और सोशल मीडिया

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार एक और मंच भी था, जहां भाषण देते नेता नहीं थे और न ही किसी पार्टी के स्तर से घोषणापत्र जारी किए जा रहे थे, वहां आम लोग ही थे और हर मुद्दे पर उनकी बेबाक राय थी। प्रत्याशियों के गुणों का मूल्यांकन था और कमियां भी खूब इंगित की जा रही थीं। सोशल मीडिया के इस मंच का असर जमकर दिखाई दिया। चारों राज्यों में जबर्दस्त मतदान के लिए भी इस मंच की प्रेरणा का अहम रोल है। सियासी पार्टी सकते में हैं, प्रचार के परंपरागत तरीकों से हटकर उन्हें, मीडिया के इस नए रूप के लिए भी रणनीति बनानी पड़ी है। असर कितना व्यापक है कि, चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव में प्रत्येक प्रत्याशी के लिए सोशल मीडिया पर उसकी सक्रियता की हर जानकारी मांगने जा रहा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों की एक अहम उपलब्धि है आम आदमी पार्टी का उदय। प्रचार अभियान के परंपरागत तरीकों से हटकर इंटरनेट की दुनिया के जबर्दस्त प्रयोग की बदौलत उसे यह उपलब्धि हासिल हुई है। आज की तारीख में शहरी मध्य वर्ग और उसमें भी युवाओं तक पहुंचने का इंटरनेट सबसे मजबूत माध्यम है। केजरीवाल की पार्टी ने सबसे पहले यह भांप लिया और पहली बार इंटरनेट के संगठित उपयोग की शुरुआत की। यही वो पहली पार्टी है जिसने अपनी एंड्रायड एप्लीकेशन बनवाई। फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के दो प्रमुख मंचों और वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब का जमकर प्रयोग किया। भाजपा भी पीछे नहीं थी। सब-कुछ इतने बेहतर तरीके से संचालित किया गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की हर सभा आनलाइन थी। फेसबुक और ट्विटर पर लिंक शेयर हो रहे थे। दोनों दलों के चुनाव प्रबंधक समझ गए थे कि चुनावी सभाओं में भाग लेने वाले ही लोग वोटर नहीं हैं, बल्कि वो भी हैं जो विभिन्न कारणों से इंटरनेट के जरिए देश के सियासी घटनाक्रमों से जुड़े रहते हैं। सूचनाएं लगातार अपडेट हो रही थीं, यह तत्परता ही है कि मतदान होने से पहले ही चुनाव नतीजों का आंकलन भी कर लिया गया, जैसे दिल्ली में मतदान से एक दिन पूर्व फेसबुक और ट्विटर पर जो ट्रेंड था, उसमें आम आदमी पार्टी को बढ़त हासिल थी। मतदान से एक दिन पहले ट्विटर पर केजरीवाल को सात लाख लोग फॉलो कर रहे थे। फेसबुक पर केजरीवाल प्रशंसकों की संख्या 10 लाख से ज्यादा थी जबकि भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार डॉ. हर्षवर्धन को ट्विटर पर महज 17 हजार लोगों ने फॉलो किया था। भाजपा देर से सक्रिय हुई, मतदान से तीन दिन पहले प्रारंभ हर्षवर्धन के फेसबुक पेज को 65 हजार लोगों ने तीन दिन में लाइक किया। लेकिन शीला दीक्षित को लेकर आकलन गलत रहा, वह लाइक के मामले में हर्षवर्धन से आगे थीं, उनके अधिकृत पेज को सवा लाख लाइक मिले थे। चुनावी मामलों में हर कदम फूंक-फूंककर रखने वालीं राजनीतिक पार्टियां यदि गंभीर हैं तो आंकड़ों के मामले में भी इंटरनेट की ताकत एक वजह है। इन्हीं आंकड़ों की बात करें तो टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आॅफ इंडिया (ट्राई) के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष 2012-13 के अंतिम दिन देश में इंटरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या 17 करोड़ 40 लाख थी, चुनाव आयोग जैसी प्रमुख इकाई ने जिसमें नौ करोड़ लोगों को वोटर माना है। इंटरनेट उपयोग करने वाले तीन-चौथाई लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। चुनाव आयोग भी मान रहा है कि मतदान प्रतिशत बढ़ने के पीछे इंटरनेट की मुख्य भूमिका रही है। आयोग की साइट पर मतदाता पंजीकरण के लिए पहुंचने वालों में करीब 70 फीसदी लोग युवा हैं और 35 वर्ष से कम आयु के हैं। यह पहला मौका है, जब देश की उस पढ़ी-लिखी विशाल युवा आबादी ने वोटर के रूप में अपना नाम दर्ज कराया है, जो सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हो सकती है। चुनाव सर्वेक्षण संचालित करने वाली कंपनी सी-वोटर का अनुमान बताता है कि इंटरनेट प्रयोग करने वाले नौ करोड़ से ज्यादा लोगों का तीन से चार फीसदी भाग आगामी आम चुनावों को प्रभावित करने की हैसियत में है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के साथ ही बंगलुरू, चण्डीगढ़, अहमदाबाद जैसे नए उभरे महानगरों में यह प्रतिशत इससे अधिक भी होने की संभावना जताई गई है क्योंकि यहां की युवा आबादी सोशल मीडिया पर दूसरे शहरों की अपेक्षा ज्यादा सक्रिय है। सी-वोटर ने अपने मतदान-पश्चात सर्वेक्षण में इंगित किया है कि इन विधानसभा चुनावों में युवाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। चुनाव आयोग के पास सूचनाएं हैं कि पार्टियां और प्रत्याशी अपने चुनावी व्यय का एक अच्छा-खासा हिस्सा सोशल मीडिया पर व्यय करने लगी हैं इसीलिये उसके स्तर से विधानसभा चुनाव से पूर्व निर्देश जारी किए गए कि राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के जरिए सोशल मीडिया पर पोस्ट सामग्री चुनाव आचार संहिता के दायरे में आएगी। उम्मीदवारों को नामांकन करते वक्त अन्य सूचनाओं के साथ अपने सोशल मीडिया एकांउट के बारे में भी सूचना देनी होगी। सोशल मीडिया की निगरानी के लिए वही तरीका अपनाया जाएगा, जो टीवी और अखबारों के लिए अपनाया जाता है। आयोग लोकसभा चुनावों में व्यवस्थाएं और कड़ी करने जा रहा है। दूसरी तरफ, सियासी दल भी मुस्तैद हैं। राष्ट्रीय दलों के साथ ही क्षेत्रीय दल भी इंटरनेट पर अपनी सक्रियता बढ़ाने के लिए कमर कस रहे हैं। फेसबुक पर पेज प्रमोट करने की सुविधा का जमकर प्रयोग हो रहा है। यानि आने वाले दिनों में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव जैसे पुरानी पीढ़ी के नेताओं की भी इंटरनेट सक्रियता बढ़ती नजर आने वाली है।

Saturday, December 7, 2013

नेल्सन मंडेला और मलाला...

नेल्सन मंडेला नहीं रहे और मलाला यूसुफजई को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार पुरस्कार मिला है। एक साथ ये दोनों जिक्र आश्चर्य पैदा करते हैं लेकिन दोनों का सम्बन्ध है और वो भी गहरा। दक्षिण अफ्रीका के गांधी नेल्सन मंडेला और पाकिस्तानी वीरबाला मलाला यूसुफजई एक ही विचारधारा की दो अलग-अलग पीढ़ियों का नेतृत्व करते हैं। मंडेला उन दिनों और देश में रौशनी बनकर उभरे जहां एक बड़ी आबादी का पर्याय अंधेरा था और मलाला उस पाकिस्तान की हैं जहां महिला अधिकार बेमानी हैं। महिलाएं पर्दे के भीतर हैं और उनकी आवाज दबाने के हरचंद कोशिश होती रहती है। बाकी दुनिया की तरह उन्हें तमाम तरह की आजादियां मयस्सर नहीं। समानताएं और भी हैं। नेल्सन ही मलाला के आदर्श पुरुष हैं और दोनों को इस पुरस्कार के काबिल समझा गया है। नेल्सन युग पुरुष हैं। वह स्वतंत्रता, प्रेम, समानता और ऐसे मूल्यों के प्रतीक हैं जिनकी हमें हमेशा, हर जगह जरूरत होती है। उनका लंबा संघर्ष मानवता का उदाहरण है। वह जब बड़े हुए, तब उनका देश काले-गोरों के बीच खाई में कहीं खोया हुआ था। वहां काले यानि अश्वेत सिर्फ मरने के लिए पैदा हुआ करते थे लेकिन मंडेला सबसे अलग थे। उन्होंने महज 10 साल की उम्र में लड़ने का फैसला किया। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के झण्डे तले ऐसा अभियान छेड़ा कि श्वेत सरकार मुश्किल में आ गई। वह 27 साल जेल में रहे, उगता हुआ सूरज नहीं देखा। यह उनका आत्मबल ही था कि डटे रहे और अफ्रीका की गोरी सरकार को उनके सामने झुक जाना पड़ा। मलाला की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। वह पाकिस्तान में स्वात घाटी के मिंगोरा शहर में पैदा हुर्इं। मिंगोरा पर तालिबान का कब्जा था। महज 11 साल की उम्र में ही मलाला ने डायरी लिखनी शुरू कर दी थी। वर्ष 2009 में छद्म नाम गुल मकई के तहत बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखकर मलाला पहली बार दुनिया की नजर में आ गर्इं। डायरी में उन्होंने स्वात में तालिबान के कुकृत्यों का वर्णन किया और अपने दर्द को बयां किया। लिखा, आज स्कूल का आखिरी दिन था इसलिए हमने मैदान पर कुछ ज्यादा देर खेलने का फैसला किया। मेरा मानना है कि एक दिन स्कूल खुलेगा लेकिन जाते समय मैंने स्कूल की इमारत को इस तरह देखा, जैसे मैं यहां फिर कभी नहीं आऊंगी। मलाला ने ब्लॉग और मीडिया में तालिबान की ज्यादतियों के बारे में लिखना शुरू किया तो धमकियों का अंबार लग गया। महिलाओं पर स्कूल में पढ़ने से लेकर कई पाबंदियां थीं। मलाला भी इसकी शिकार हुई। डायरी लोकप्रिय हो रही थी और उधर, लोगों में जागरूकता बढ़ रही थी। नतीजतन, तालिबान के विरुद्ध एक हवा बन गई। मात्र 14 साल की मलाला पर आतंकवादियों ने हमला किया। वह बुरी तरह घायल हुर्इं और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन गर्इं। महज 16 वर्षीय मलाला का कद आज बड़े-बड़ों से बड़ा है। उन्हें इस प्रतिष्ठित सम्मान से पहले पाकिस्तान का राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार, वैचारिक स्वतंत्रता के लिए यूरो संसद का सखारोव अवार्ड, अंतर्राष्ट्रीय बाल शांति पुरस्कार और मैक्सिको के समानता पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। मलाला एक दिन पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं। एक राजनीतिज्ञ के तौर पर मलाला पाकिस्तान के ज्यादा काम आ सकती है। पाकिस्तानी में कट्टरपंथियों की सोच का केंद्रीय तत्व बदतर किस्म का लैंगिक शोषण है, वह चाहते हैं कि देश जाहीलिया यानि पूर्वाग्रह और अज्ञानता के दिनों की ओर चला जाए। इस्लाम के सही मायने उन्हें शायद नहीं पता या फिर उनकी अनदेखी का मकसद सुर्खियां पाना है। जहां इस्लाम ने शिशु कन्या की हत्या सरीखी तमाम कुरीतियों को प्रतिबंधित करके अरब महिलाओं का दिल जीता था, वहीं पाकिस्तानी तालिबान और उसके समर्थक उस धर्म को शर्मसार करते हैं, जिसके वे अनुयायी हैं। मलाला उन सियासतदां का अच्छा विकल्प हैं जो शरीर ही नहीं, दिमाग से भी बूढ़े हो चुके हैं। सत्तर साल के परवेज मुशर्रफ की कट्टरता परस्त सोच का वह विकासवादी जवाब हैं। दोगली नीतियों से अपने मुल्क का बुरा करने वाले नवाज शरीफ से ज्यादा समझदार हैं मलाला। लेखिका और पूर्व पीएम बेनजीर भुट्टो की भतीजी फातिमा भुट्टो भी उनकी पैरोकार हैं जो निडर और बुलंद आवाज के लिए जगप्रसिद्ध हैं। वह कहने से नहीं हिचकतीं कि निडर और साफ सोच वाली आवाजें पिछड़े इलाकों से उठनी चाहिए न कि उच्चवर्गीय शहरियों के बीच से। शहरों से उठने वाली आवाजें कुछ निश्चित पृष्ठभूमि और अंग्रेजीदां तबके से आती हैं। इसका कारण यह है कि वे अंतर्राष्ट्रीय स्कूलों में गई होती हैं। पाकिस्तानियों को और ज्यादा मुखर स्वर की जरूरत है। ऐसी ही आवाज भारत, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे तमाम उन देशों से भी आनी चाहिये जहां किसी न किसी तरह की अनियमितताएं या शोषण है। भ्रष्टाचार का दानव पैर पसार रहा है। मलाला यूसुफजई उस विशाल युवा वर्ग की नुमाइंदगी करती हैं जो राजनीति में स्वच्छता चाहता है और नेल्सन मंडेला की तरह वह अन्याय बर्दाश्त करने का इच्छुक नहीं। उसे विकास की आस है, वह भ्रष्टाचार जैसे घुन का समूल नाश चाहता है। भारत जैसे युवाओं के देश का युवा भी बाकी दुनिया से अलहदा नहीं।