Wednesday, November 28, 2012

कांग्रेस की राहुल से उम्मीदें

'जाएंगे तो लड़ते हुए जाएंगे' के जिस नारे के आसरे कांग्रेस आर्थिक सुधारों का फर्राटा भरने वाले मनमोहनी अर्थशास्त्र की अपनी लीक पर चल रही है और उसी की थाप पर उसके युवराज राहुल गांधी आगामी लोकसभा चुनाव का रास्ता तैयार कर रहे हैं। वहीं मनमोहन सिंह के पास भी कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को पूरा करने की एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी है। प्रश्न यह है कि आधी-अधूरी रणनीति के दम पर अभी तक हर चुनावी समर में उतरे राहुल से ज्यादा उम्मीदें करना क्या ठीक रहेगा? सूरजकुंड के मंथन में तय हो चुका है कि कांग्रेस को राहुल की अगुवाई में ही 2014 का रास्ता तय करना है और पार्टी ने इसी को ध्यान में रखकर राहुल को राष्ट्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाया है। गौर करने लायक बात है कि इस पूरी उपसमिति में भी सोनिया के सलाहकारों की छाप साफ देखी जा सकती है। जहां गठबंधन और चुनावी घोषणा पत्र वाला विभाग सोनिया के सबसे भरोसेमंद एके एंटनी के पास है तो वहीं प्रचार-प्रसार का जिम्मा गांधी परिवार के सबसे वफादार दिग्विजय सिंह संभालेंगे। राहुल को आगे करने की अटकलें कांग्रेस में लम्बे समय से चल रही थीं। सूरजकुंड के बाद पार्टी के किए गए फैसलों ने एक बात तो साफ कर दी है कि आने वाला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन के बजाए राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करके लड़ने जा रही है। इस चुनाव में पार्टी के टिकट आवंटन में भी राहुल गांधी की ही चलेगी और वही नेता टिकट पाने में कामयाब होगा जो राहुल गांधी की चुनावी बिसात के खांचे में फिट बैठेगा। ऐसा ना होने की सूरत में कई नेताओं के टिकट कटने का अंदेशा अभी से बनने लगा है। पार्टी में एक बड़ा तबका लम्बे समय से उनको आगे करने की बात कह रहा था। खुद मनमोहन सिंह भी उनसे मंत्रिमंडल में शामिल होने का आग्रह कर चुके थे। राहुल को कांग्रेस आने वाले लोकसभा चुनाव में उस ट्रंप कार्ड के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रही है जो अपनी काबिलियत के बूते देश में युवाओं की एक बड़ी आबादी के वोट का रुख कांग्रेस की ओर मोड़ सके। लेकिन राहुल गांधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान भी नहीं है। 2009 के लोकसभा चुनावों में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा, आरटीआई, किसान कर्ज माफी जैसी योजनाओं के सिर ही बंधा था। उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गांधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था और भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्योंकि वह आम आदमी से जुड़ने चले थे। वह दलितों के घर आलू-पूड़ी खाने जाते थे, कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस के दौरान उजागर करते थे। लेकिन संयोग देखिये राजनीति एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है, यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है। अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है। साथ ही ‘आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ’ जैसे नारों की भी हवा निकली हुई है क्योंकि महंगाई चरम पर है। सरकार ने घरेलू गैस की सब्सिडी सीमित कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में दी है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है। वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई, घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे से लेकर तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही, एफडीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है। देश की अर्थव्यवस्था जहां सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है, वहीं आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्योंकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है। यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनॉमिक्स के जरिए आम आदमी के बजाए कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा दिखा रही है। ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है कि राहुल गांधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है। यूपीए-2 की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा काम नहीं हुआ है। उल्टा कांग्रेस कॉमनवेल्थ, 2-जी, कोलगेट जैसे घोटालों पर लगातार घिरती रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है। ऊपर से रामदेव, अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदाराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है। देश में मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्योंकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई साख वापस नहीं आ सकती। दाग तो दाग हैं, वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते। ऊपर से आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने नहीं रखते। उसके लिए दो जून की रोजी-रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है। वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है । ज्यादा समय नहीं बीता जब 2009 में 200 से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावों में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु के विधान सभा चुनावों में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरूर लेकिन यहां भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही। इन जगहों पर राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी। संगठन भी अपने बजाय राहुल के करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगों की भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गांधी ने भी उन इलाकों का दौरा नहीं किया जहां कांग्रेस कमजोर नजर आई। चुनाव निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए जबकि दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है।

Tuesday, November 27, 2012

सोना और महंगाई का रिश्ता

सोने आज उस मूल्य पर है, जहां पहले कभी नहीं था। कभी शादी-ब्याहों के मौसम में महंगाई का रास्ता पकड़ने वाली यह पीली धातु अब सालभर रफ्तार पर रहने लगी है। यह संकेत है महंगाई बढ़ने का। मौद्रिक नीति में भारतीय रिजर्व बैंक की कड़ाई के बावजूद ब्रेक जरूर लगा किंतु ठहराव नहीं आया है। कीमतों में स्थिरता के मोर्चे पर भारत अन्य देशों से पिछड़ रहा है। सोने का बढ़ता आयात बता रहा है कि लोगों में इसकी दीवानगी बढ़ रही है। दरअसल, सोने की कीमतों और महंगाई का महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। मुद्रास्फीति की गति में लगातार वृद्धि की कई तरह से विवेचना की जा सकती है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि पहली श्रेणी में शुरूआत में ही मौद्रिक चक्र में सख्ती न करने के कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है यानि देश के नीति-नियंताओं की लापरवाही इसकी वजह बनती है। फिर घरेलू खाद्य कीमतों में इजाफे से महंगाई उछाल पाती है। यह स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य के रास्ते आती है। मानते तो यह भी हैं कि सरकारी पात्रता योजनाओं के कारण ग्रामीण लोगों की आय में वृद्धि से कीमतों पर दबाव बढ़ा है। पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड नहीं आती थी, वहां कृषि से आय प्रमुख थी इसलिये यह समस्या पिछले तीन दशकों से लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर विभिन्न खाद्यान्नों की ऊंची कीमत भी इसके लिए जिम्मेदार रही है। रिजर्व बैंक जो रास्ता अपनाती है, उस रास्ते यानि ब्याज दरों में बदलाव के जरिये मुद्रास्फीति पर नियंत्रण का तरीका यह है कि इससे मौजूदा निवेश और खपत को प्रभावित किया जाए। इसके तहत ऋण को और महंगा किया जा सकता है। केंद्रीय बैंक ने पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में रेपो दर में 13 बार वृद्धि की, और इसे पौने पांच से बढ़ाकर साढ़े आठ प्रतिशत तक पहुंचा दिया। इस अवधि का जिक्र इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यही वो काल था जब सरकार केंद्रीय बैंक के जरिए महंगाई पर काबू करने का पहला अस्त्र चला रही थी। हालांकि इसका असर उतना नहीं हुआ जितना अपेक्षित था और थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पांच-साढ़े पांच फीसदी के सहज दायरे से बाहर चली गई। इस प्रयोग का मनचाहा नतीजा न निकलने के बाद अर्थशास्त्री मानने लगे कि मुद्रास्फीति के आंकलन के बारे में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ज्यादा कारगर है। इस सूचकांक के अनुसार अप्रैल 2012 से मुद्रास्फीति की दर नौ-दस फीसदी के इर्द-गिर्द बनी हुई है। उल्लेखनीय यह है कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में मुद्रा के मुद्रण का काम सन 2007 के पश्चात पूर्ववर्ती समय की तुलना में अधिक तेजी से चल रहा है। तमाम सर्वेक्षणों, यहां तक कि सरकारी राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आफिस के भी सर्वे, का निष्कर्ष है कि गत कुछ वर्षों में देश में लोगों की निजी संपत्ति और हैसियत में जबर्दस्त तेजी आई है। संपत्ति में हुई इस वृद्धि के मूल में अक्टूबर 2009 से करीब एक वर्ष तक वैश्विक स्तर पर स्वर्ण की कीमतों में 75 फीसदी की तेजी बड़ा कारण है। याद करें, तब सोने की कीमत प्रति औंस 1000 डॉलर के मुकाबले 1750 डॉलर प्रति औंस तक पहुंच गई थी। रुपये की कसौटी पर कसें तो यह अंतर और भी अधिक है। आयात के आंकड़ों का जिक्र भी प्रासंगिक है, भारत में सोने का आयात 13 हजार से 40 हजार टन के बीच है। इसके पीछे भारत के लोगों में सुरक्षित निवेश के तौर पर बड़ी मात्रा में सोना भंडारित करने का चलन है। सोने से बेइंतिहा प्रेम करने वाला भारत अकेला देश है। यहां महिलाओं की भी यह पसंदीदा धातु है। गरीब हो या अन्य किसी भी तबके की, हर महिला चाहती है कि उसके पास सोने का अच्छा-खासा संग्रह हो ताकि वक्त-जरूरत उसे बेचकर काम भी चलाया जा सके। यह तथ्य भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि केवल सोना ही कोई ऐसी वैश्विक जिंस नहीं जिसके मूल्यों में इतनी तेजी से वृद्धि हुई हो। सोने में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो उसे अन्य जिंसों से अलग खड़ा कर देती हैं। यह पीढ़ियों तक घरों में रखी जाती है, यही नहीं यह पीढ़ी दर पीढ़ी अन्य संपत्तियों की तरह हस्तांतरित भी होती है। सोने को मानक मानना पुरानी बात है। बावजूद इसके, आधिकारिक दस्तावेजों में आज भी विभिन्न देशों के सरकारी खजानों और अन्य संस्थानों में रखे हुए स्वर्ण भंडारों को विदेशी मुद्रा के बराबर माना जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक वर्ष 2009 में भारत में निजी तौर पर 17 हजार टन सोने का स्टॉक था जिसकी कीमत वर्ष 2012 के अक्टूबर महीने में तकरीबन 960 अरब डॉलर यानी कुल जीडीपी के 50 फीसदी से ज्यादा थी। इससे तीन साल पहले यह मात्र 550 अरब डॉलर था। देश में लोगों के बाद ज्यादा वित्तीय परिसंपत्तियों की कीमतों में गिरावट के दौरान भी सोने के मूल्यों में हुई बढ़ोतरी ने एक सीमा तक घरेलू खपत को सहारा दिया है। माना यह जा रहा है अगर सोने की कीमतों में तेजी का क्रम आगे भी जारी रहता है तो देश के मौद्रिक प्रशासन को मुद्रास्फीति को काबू करने में और अधिक मशक्कत करनी पड़ेगी। सरकार इस मोर्चे पर सोच नहीं रही। वह भी तब जबकि देश की कमान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथों में है। सन् 1991 में वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन ने नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में आर्थिक उदारवादी नीति अपनाई और विदेशी निवेश को आमंत्रित किया। इससे देश में विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ, परन्तु उनका यह महत्वपूर्ण निर्णय देश के तत्कालीन हालात के वशीभूत होकर मजबूरी में उठाया गया कदम था, न कि सरकार की कल्याणकारी नीतियों का नतीजा। तब हालात ऐसे थे कि आवश्यकता पूरी करने के लिए पेट्रोलियम पदार्थों को खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भी खजाने में नहीं थी। रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर तेल खरीदना पड़ा था। मनमोहन ने इसी वजह से उदारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनाया था। कोशिश थी कि देश में विदेशी मुद्रा का प्रवाह हो सके और विश्व पटल पर साख बच जाए। बाद की सरकारों में भी स्थितियां बहुत बदली नहीं और अन्य दलों की सरकारें भी नीति बदल नहीं पार्इं। कोई यदि उदारवादी नीतियों के लिए मनमोहन को श्रेय देता है तो यह उसकी गलती है। दरअसल, यह देश की अर्थव्यवस्था की मजबूरी ही है।

Sunday, November 25, 2012

'आप' से आम आदमी की उम्मीदें

समाजसेवी अन्ना हजारे के साथ उठे जनांदोलन के तूफान में एक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नई सियासी पार्टी का गठन कर लिया है, नाम दिया है आम आदमी पार्टी। शॉर्टफॉर्म में कहें तो 'आप'। लेकिन सवाल कई खड़े हैं। केजरीवाल एक ऐसे अभियान पर निकले हैं जहां जीत के पीछे अब तक हथकंडों की नई-नई कहानियां हुआ करती हैं। राजनीति शब्द चाहे चार अक्षरों का मेल है लेकिन इसके अच्छे अर्थ कम और बुरे शब्दों की इंतिहा है। समस्या यह भी है कि केजरीवाल ने अपनी पार्टी का गठन तो राष्ट्रीय स्तर के नतीजे पाने की आस में किया है पर पहुंच कुछ क्षेत्रों तक सीमित है। अभी तक राजधानी दिल्ली तक ही उनकी धमक बार-बार दिखती रही है, देश के बाकी हिस्से सिर्फ उनकी कथा-कहानियां सुना, सुनाया करते हैं। कुछ समय पहले अन्ना नाम की आंधी चली जिसमें सरकार की नींद गुम सी हो गई। जनलोकपाल लाने के उद्देश्य से अन्ना हजारे के नेतृत्व में एक टीम अन्ना का गठन किया गया। परंतु दुर्भाग्यवश अन्ना टीम जनलोकपाल बिल को तो पास नहीं करा पाई लेकिन अंदरूनी मतभेद बढ़ता देख अन्ना को अपनी टीम भंग करना पड़ी। लेकिन समाज के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार को समाप्त करने का जो कार्य अन्ना टीम नहीं कर पाई उसे पूरा करने का बीड़ा अन्ना टीम का मुख्य चेहरा रहे मैगसेसे अवॉर्ड विजेता अरविंद केजरीवाल ने उठाया है। आंदोलन की शुरुआत में केजरीवाल सत्ताधारी दल को निशाना बनाकर नए-नए घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर कर रहे थे। माना जा रहा था कि वह विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगामी लोकसभा चुनावों के चेहरे को बदलकर रख देंगे। लेकिन अब जब उन्होंने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भी आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं तो संसद तक पहुंचने की उनकी रणनीति के सफल होने पर संदेह उठने लगे हैं। नि:संदेह केजरीवाल का स्वघोषित उद्देश्य काबिल-ए-तारीफ है लेकिन जिस रणनीति पर चलकर वह अपने उद्देश्य को पाने की कोशिश कर रहे हैं वह कितनी सफल होगी इस बात पर बहस शुरू हो गई है। एक तरफ वह चाहते हैं कि अपने खुलासों से जनता को जागरूक करें ताकि आगामी चुनावों में वह अपने वोट का सही प्रयोग कर उन्हें संसद तक पहुंचाए। ह्यआम आदमीह्ण की मानसिकता और विचारों पर पूरी तरह से भरोसा करने के बाद केजरीवाल सत्ताधारी पार्टी के साथ-साथ विपक्षी दलों को भी आरोपों के निशाने पर लेने लगे हैं। कोशिश यह है कि पार्टी विशेष नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्ट नेताओं की पोल खोलकर उनकी सच्चाई जनता के सामने लायी जाए। आदर्शवाद की राजनीति के सहारे वह वास्तविक लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं। उनकी रणनीति की सफलता पर संदेह करने वाले लोगों का कहना है कि केजरीवाल जिस आदर्शवाद को प्रधानता देकर जनता की सोच को महत्व दे रहे हैं वह उनके सभी प्रयासों को असफल कर देगा। वह भूल गए हैं कि भारत की जनता चंद रुपयों और जरा से लालच के लिए अपना वोट बेच देती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जब प्रत्याशी पर लगे गंभीर आरोपों के बाद भी जनता उसे वोट देकर कुर्सी पर बैठा देती है। इसे उसकी विवशता कहें या फिर आदत लेकिन धनबल और बाहुबल के कारण जनता अपना वोट बेचने में देर नहीं करती। देश का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि एक सच्चे इंसान के लिए जनता तालियां तो बजा सकती है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का बटन दबाने से पहले उसकी आंखें तमाम प्रलोभनों, निजी स्वार्थों और जाति-धर्म जैसे फुसलावों पर रास्ता भटक जाती हैं। जनता के सपनों को पूरा करने का दावा और वादा कर रहे केजरीवाल के सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं, जिनसे वे समय रहते पार नहीं पाए तो अगले आम चुनाव में अप्रासंगिक भी हो सकते हैं। सामाजिक आंदोलनों के मैदान से आकर ताजा-ताज नेता बने केजरीवाल की सक्रियता पर निगाह दौड़ाएंगे तो यह साफ हो जाएगा कि भारतीय राजस्व सेवा के इस पूर्व अधिकारी के नेतृत्व में आयी नयी पार्टी के पास कोई रणनीति नहीं है। केजरीवाल ने केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के एनजीओ में अनियमितताओं को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन करते हुए शुरू में कहा था कि पुलिस उन्हें जेल ले जाती है तो वे जेल से नहीं निकलेंगे। जेल से छूटते ही केजरीवाल ने संसद मार्ग का रुख कर लिया। फिर कहा कि जब तक खुर्शीद इस्तीफा नहीं देते, तब तक उनका धरना जारी रहेगा। लेकिन फिर फर्रुखाबाद में रैली का ऐलान कर धरना खत्म कर दिया। भले ही वे आम लोगों के बीच उम्मीद जगाते हैं, लेकिन वे अपनी किसी बात पर बहुत देर तक टिकते नहीं दिख रहे। केजरीवाल के आंदोलन के सुर आदर्शवाद के इर्दगिर्द ज्यादा सुनाई पड़ते हैं। कुछ लोगों को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन कर ताकतवर मंत्री और केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक चेहरे के रूप में राजनीति कर रहे खुर्शीद का इस्तीफा महज नारों और आरोपों के सहारे लेने की कोशिश को आदर्शवाद ही माना जाएगा। इसके अलावा केजरीवाल की प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी के आगे की राह को लेकर भी तस्वीर साफ नहीं लगती। एक और उदाहरण है, उन्होंने पिछले दिनों अपने समर्थकों से कहा कि जो लोग देश के लिए काम करना चाहते हैं, वे अपने नाम उनके पास नोट कराएं। लेकिन इसके साथ ही यह ताकीद भी दी कि सिर्फ नाम लिखवाने से काम नहीं चलेगा, बल्कि बुलाए जाने पर आना भी होगा। साफ है कि अरविंद को अपने साथ जोड़ने के लिए लोगों की जरूरत है, क्योंकि उनके पास कोई संगठन नहीं है। राजनीतिक पार्टी के ऐलान के बाद अब वह अपने संगठन को औपचारिक स्वरूप देने की कवायद शुरू करेंगे। लेकिन देश के हर ब्लॉक, जिले और प्रदेश में संगठन खड़ा करना इतना आसान नहीं है। समय भी ज्यादा नहीं है क्योंकि 2014 के चुनाव महज सवा-डेढ़ साल दूर हैं। अन्ना का साथ न होना भी केजरीवाल को खल रहा होगा। अन्ना के साथ देश भर में कई लोग जुड़े हुए हैं।

Friday, November 23, 2012

सियासी अखाड़े में चित्त ममता

बिना तैयारी के लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव ने तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां कम से कम खुशी से कोई नहीं जाना चाहेगा। इतना हो-हल्ला करना और समर्थन के नाम पर अकेले बीजू जनता दल का सामने आना, ममता की बड़ी सियासी मात है। इससे सत्ताधारी यूपीए की नेता कांग्रेस को ममता का मजाक उड़ाने का मौका मिल गया है। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले छिड़ी बेमुरव्वत जंग में, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता अपने कल तक के सहयोगियों को यह कहकर चिढ़ाने से नहीं हिचक रहे हैं कि जनतंत्र के इतिहास में पहली बार है कि एक पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव लाना पहले तय कर लिया और उसके लिए लोकसभा में पचपन की संख्या पूरी करने के लिए समर्थकों की खोज करने के लिए बाद में निकली। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि कहीं बनर्जी को एक बार फिर राष्ट्रपति चुनाव के मौके जैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ गई। पाखंड, चाहे वामपंथ से बढ़कर वामपंथी दीखने का ही क्यों न हो, अक्सर ऐसे ही शर्मिंदा कराता है। ऐसी नौबत क्यों आती है, यह समझने के लिए किसी भारी राजनीतिक विद्वत्ता की जरूरत नहीं है। सचाई यह है कि जिस वामपंथ से बढ़कर कांग्रेस विरोधी नजर आने की कोशिश में तृणमूल कांग्रेस अपने अविश्वास प्रस्ताव को लेकर इतना उछल रही है, उसने ही नहीं विपक्ष के बाकी सभी घटकों ने भी, तृणमूल के प्रस्ताव के प्रति कोई गर्मजोशी नहीं दिखाई। इसकी वजह सीधे-सीधे संसदीय संख्याओं और राजनीतिक कतारबंदियों के उस गणित में है, जिसे ध्यान में रखते हुए वामपंथ ने खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के सरकार के फैसले के खिलाफ, संसद के दोनों सदनों में ऐसे नियमों के तहत प्रस्ताव के लिए नोटिस दिए हैं, जिनमें चर्चा पर निर्णय मतदान से होने की व्यवस्था है। दूसरे शब्दों में इस तरह सरकार में विश्वास-अविश्वास के प्रश्न को बरतरफ करते हुए, खुदरा व्यापार में एफडीआई के फैसले पर जरूर, संसद के विश्वास-अविश्वास का निर्णय कराया जा सकता है। इस प्रस्ताव के सफल होने की संभावना ज्यादा होने की और अविश्वास प्रस्ताव की विफलता ही पहले से तय होने की वजह भी किसी से छुपी हुई नहीं है। वास्तव में अगर तृणमूल कांग्रेस के नाता तोड़ने के बाद भी मनमोहन सिंह की सरकार कम से कम अब तक लोकसभा में बहुमत साबित करने को लेकर बहुत आश्वस्त नजर आई तो इसीलिए कि समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने, सबसे बढ़कर अपनी आपसी प्रतिद्वंद्विता के चलते भी, यूपीए-द्वितीय की सरकार के लिए अपना आम समर्थन बनाया हुआ है। इन दोनों पार्टियों के चालीस से ज्यादा लोकसभा सदस्यों का समर्थन, कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार को बहुमत का भरोसा दिलाने के लिए काफी है। इसके विपरीत, खासतौर पर खुदरा व्यापार में एफडीआई के मुद्दे पर, समाजवादी पार्टी विरोध का दो-टूक रुख ही नहीं अपना चुकी है बल्कि सपा इसी निर्णय को केंद्र में रखकर वामपंथी पार्टियों व अन्य धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए, 20 सितंबर को देशव्यापी विरोध कार्रवाई के आह्वान में भी शामिल थी। इतना ही नहीं, सत्ताधारी यूपीए में अब भी शामिल, द्रमुक ने भी उक्त विरोध कार्रवाई के लिए समर्थन का ऐलान किया था। सच तो यह है कि यूपीए में शामिल पार्टियों के ससंदीय सत्र की पूर्व-संध्या में आयोजित भोज में भी द्रमुक ने प्रधानमंत्री को इसका इशारा किया कि एफडीआई के मुद्दे पर पर अगर मतदान की नौबत आयी, तो उसके लिए सरकार के पक्ष में खड़े होना मुश्किल होगा। साफ है कि अगर सरकार के खिलाफ किसी प्रस्ताव के संसद में मंजूर होने की संभावनाएं हैं, तो खुदरा व्यापार में एफडीआई के खिलाफ प्रस्ताव के ही मंजूर होने की संभावनाएं हैं। मामला इससे बढ़कर राजनीतिक है। अविश्वास प्रस्ताव की निश्चित हार का मतलब है कि सरकार को अभयदान। इससे सरकार को अनावश्यक रूप से संसद में अपने बहुमत का सबूत पेश करने का बहाना मिलता। यह न सिर्फ अगले छ: महीने के लिए सरकार को किसी भी तरह के अविश्वास प्रस्ताव की चिंता से बरी कर देता, शेष शीतकालीन सत्र में सरकार को अपने सत्यापित बहुमत के डंडे से, अपनी तमाम आलोचनाओं को पीटने का भी मौका दे देता। इसके बाद, एफडीआई के मुद्दे पर संसद में किसी सार्थक चर्चा तथा निर्णय की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस तरह, खुद को वामपंथ से गर्मपंथी दिखाने की हड़बड़ी में तृणमूल कांग्रेस, वस्तुगत रूप से तो अपने पूर्व-सहयोगी की ही मदद करने पर उतारू नजर आई। तृणमूल कांग्रेस के और देश के भी दुर्भाग्य से, शेष विपक्ष की अनिच्छा के बावजूद, तृणमूल कांग्रेस विपक्ष को इस प्रकटत: आत्मघाती रास्ते पर घसीटने की कोशिश कर रही थी। इसका तृणमूल कांग्रेस के लिए कहीं कम नुकसानदेह रास्ता यह हो सकता था कि अन्नाद्रमुक तथा बीजू जनता दल जैसी पार्टियों से अविश्वास प्रस्ताव के लिए सांसदों की उसकी संख्या पूरी करा लेती। प्रस्ताव का गिरना और उसका कांग्रेस की मदद करना तो तय था, पर तृणमूल को शायद इसका ज्यादा राजनीतिक खामियाजा नहीं भुगतना पड़ता। दूसरी सूरत यह हो सकती है कि आगे चलकर एनडीए का विस्तार करने के अपने क्षुद्र स्वार्थ को देखते हुए, भाजपा तथा उसकी पहल पर एनडीए अनिच्छापूर्वक ही सही, सुश्री बनर्जी को मौजूदा मुश्किल से निकालने में मदद करने के लिए तैयार हो सकती थी। उस सूरत में अविश्वास प्रस्ताव के संबंध में वस्तुगत स्थिति तो नहीं बदलती पर तृणमूल कांग्रेस का एनडीए के समर्थन का अतीत जरूर फिर से प्रासंगिक होकर, उसके अल्पसंख्यक-हितैषी मुखौटे को दरका देता। दूसरे शब्दों में, ममता बनर्जी ने अपने लिए आगे कुंआ, पीछे खाई की स्थिति पैदा कर ली है। अविश्वास प्रस्ताव की उछलकूद, खुद उन्हें महंगी ही पड़ने जा रही है। इसकी शुरुआत हो चुकी है।

डिम्पल यादव में संतुलन का गुण

सैनिक परिवार की पृष्ठ भूमि से राजनीतिक परिवेश में आना और विभिन्न जातियों और विचार धाराओं के बीच संतुलन स्थापित करना, एक महिला के लिए कितनी मुश्किल परीक्षा होगी। घरेलू जिम्मेदारियों को निभाते हुए ऐसी राजनीतिक परीक्षा में उतरना जहां विभिन्न जातियों और विचार धाराओं के बीच संतुलन स्थापित करके चलना हो तो यह मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं? डिम्पल यादव को कभी यह एहसास नहीं रहा होगा कि एक दिन उन्हें अपने पितातुल्य ससुर और देश के प्रमुख राजनेता, परिवार के वरिष्ठ सदस्यों की मौजूदगी और भारी जनसमूह के सामने उस लक्ष्य की ओर सफलतापूर्वक चलना होगा जो उनके परिवार की राजनीतिक सफलताओं और मान मर्यादा को आगे बढ़ाता है। डिम्पल यादव से किया जाने वाला यह महत्वपूर्ण सवाल है कि उस रोज उन्हें कैसा लगा जब भारी जन समूह उनके बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था। डिम्पल भले ही आज एक असाधारण और खुले विचारों वाले राजनीतिक परिवार से हैं मगर उन्हें बड़ों के सामने पारिवारिक अनुशासन और लोक लिहाज और जन आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर चलना, राजनीति के अटपटे और अंतहीन संघर्षों की चुनौती से भरा है और वह अपनी कुशलता से इनका सामना भी कर रही हैं। जिस तरह से उन्होंने शीर्ष राजनीतिक परिवार से सम्बन्ध रखने के बावजूद अपनी पहचान अलग सिद्ध करने की कोशिश की है, उससे लगता है कि अन्य परिवारों की महिला सदस्यों की तरह न होकर वह अपना अलग मुकाम हासिल करेंगी।

Sunday, November 18, 2012

बाल ठाकरे की विरासत का सवाल

मराठा शेर बाल ठाकरे के अवसान पर यह सवाल सबको मथ रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीति का अगला खेवैया कौन होगा होगा, राज ठाकरे या उद्धव ठाकरे? अपने चाचा बाल ठाकरे की शैली में सियासत करने वाले राज के बाद अपना अलग दल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है जिसे उन्होंने छह साल में पाल-पोसकर बड़ा किया है। उद्धव के पास पिता की बनाई, पाली-पोसी शिवसेना है जिसका पूरे महाराष्ट्र के साथ कुछ अन्य राज्यों में संगठन है, कार्यकर्ता हैं। मुश्किल यह है कि उद्धव के पास तेवर नहीं। बाल ठाकरे चाहते थे कि राज और उद्धव फिर एक हो जाएं, हालांकि इस बारे में आंकलन अभी दूर की कौड़ी है और राज-उद्धव तैयार हो जाएं, यह संभव नहीं दिख रहा। फिर भी, यह संभव हो जाए तो शिवसेना में आया बल राजनीतिक समीकरणों में बड़ा उलटफेर कर देगा। बाल ठाकरे के जीते-जी राजनीतिक हलकों में राज ठाकरे को उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था। राज का उठने-बैठने और यहां तक कि भाषण देने का अंदाज अपने चाचा पर गया था। उद्धव को भी पार्टी में ऊंचा मुकाम हासिल था लेकिन लोकप्रियता और स्वीकार्यता में वह राज से उन्नीस बैठते थे। पिछले विधानसभा चुनाव में जहां शिवसेना को 44 सीटें मिली थीं, राज ठाकरे की एमएनएस 14 सीटें जीतने में सफल हुई थी। दोनों भाइयों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ती चली गई। उद्धव की बीमारी के दिनों में राज न सिर्फ उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे बल्कि उन्हें अपनी कार में बैठा कर वापस मातोश्री लाए। राज की इस पहल पर कई लोगों की भौंहें तनी लेकिन दोनों कैंपों से यही प्रतिक्रिया आई कि इसके राजनीतिक अर्थ नहीं लगाए जाने चाहिए लेकिन राज के इस कदम को बारीकी से देखा जाए तो इसके गहरे राजनीतिक माने समझ में आते हैं। भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठबंधन कम से कम कागज पर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एनसीपी गठबंधन को हराने की क्षमता रखता है। बाल ठाकरे जैसे राजनीतिक रूप से सजग इंसान के लिए मौके की नजाकत को भांपना और उसका राजनीतिक फायदा उठाना बाएं हाथ का खेल था। बाल ठाकरे अब नहीं रहे। उनके घोषित उत्तराधिकारी उद्धव को एक महीने के अंदर दिल के दो-दो आॅप्रेशन कराने पड़े हैं। अंतिम क्षणों में बाल ठाकरे का अपने नाराज भतीजे से संपर्क साधना और उन्हें अपने चचेरे भाई से मतभेदों को दूर करने के लिए राजी करना, एक राजनीतिक सूजबूझ भरा कदम था। बाल ठाकरे का फॉर्मूला था कि अगले विधानसभा चुनावों के बाद राज को शिवसेना विधानमंडल दल का नेता बनाया जाए और उद्धव को पार्टी की कमान दी जाए। राज को इस फॉमूर्ले से कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उद्धव की तरफ से इसे हरी झंडी नहीं मिली है। बाल ठाकरे के इस असंभव से समझे जाने वाले प्रस्ताव पर गुपचुप तरीके से ही सही लेकिन विचार तो चल रहा है लेकिन देखने वाली चीज यह होगी कि ठाकरे के जाने के बाद दोनों भाई उनकी विरासत को अक्षुण्ण रख पाते हैं या नहीं। पार्टी में फूट के बाद राज्य के दूरदराज इलाकों में हुए सर्वेक्षणों में संकेत मिले थे कि दोनों भाइयों का आपसी मतभेद कभी दुश्मनी में नहीं बदल सकता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि दोनों पार्टियां फिर से एक हो जाएं। लेकिन अब, जबकि छह साल में पहली बार ठाकरे परिवार में मेल-मिलाप की जरूरत महसूस हो रही है तो क्या ये मुमकिन है कि नव निर्माण सेना शिवसेना में फिर से वापस चली जाए। इसका जवाब शायद अभी न मिले लेकिन दोनों पार्टियों का फिर से मिल जाना इतना आसान भी नहीं होगा। राज ठाकरे ने अपनी पार्टी को राज्यभर में स्थापित कर दिया है। चुनावी सफलताओं के कारण अब राज्य में उनकी पार्टी को संजीदगी से लिया जाता है। दूसरी तरफ शिव सेना के समर्थकों को अपनी तरफ खींचकर उन्होंने अपने भाई और चाचा की पार्टी को कमजोर करने का भी काम किया है। अगर राज ठाकरे शिवसेना में लौटेंगे तो इसकी कीमत भी चाहेंगे। क्या उद्धव उन्हें वो पद देने के लिए तैयार होंगे जिसके न मिलने पर वो पार्टी से अलग हुए थे या फिर उन्हें उद्धव की बराबरी का कोई दर्जा दिया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो राज उद्धव को लोकप्रियता में काफी पीछे छोड़ देंगे। क्या उद्धव ये सियासी खुदकुशी करने को तैयार होंगे। दूसरी तरफ शिव सेना के नेतागण इस बात को जानते हैं कि राज ठाकरे की वापसी से 2014 के आम चुनाव और उसी साल होने वाले विधानसभा के चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त फायदा होगा। इससे भी ज्यादा शिवसेना और नवनिर्माण सेना के जमीनी कार्यकतार्ओं की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो जाएगी। अब देखना है दोनों भाइयों की दोबारा दोस्ती का सफर ठाकरे परिवार तक ही सीमित रहता है या फिर राजनीति में अपना रंग लाता है। यहां यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि बाला साहेब खुद की तरह अपने बेटे को भी किंग मेकर बनाना चाहते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, मैंने शुरू से यही किया। सत्ता से अलग रहा हूं। और चाहता हूं उद्धव भी ऐसा ही करे। मैंने उससे कहा है कि सत्ता के पीछे न भागे। इसके बदले सामाजिक काम करे। शिवसेना को अच्छी तरह चलाए। और लोगों को सत्ता हासिल करने का मौका दे। ताकि जनता के साथ न्याय हो सके। बाला साहेब के रहते ही शिवसेना के टुकड़े हुए थे, तब पिछड़े वर्ग के छगन भुजबल और कद्दावर नारायण राणे जैसे बड़े नाम अलग हो गए थे। लेकिन शिवसेना पर असर उतना नहीं पड़ा जितना कोई दल होता तो उसे पड़ता। ठाकरे नाम के बाद शिवसेना का वजूद नहीं। यह वैसा ही है, जैसे गांधी नाम के बिना कांग्रेस की कल्पना करना। शिवसेना में दो नंबर के नेताओं के कोई मायने नहीं हैं। शिवसैनिकों की भीड़ ही शिवसेना की असली ताकत है। यह साफ है कि राज और उद्धव में से जो भी शिवसैनिकों की भीड़ जुटाएगा, वही सही मायने में 'हिंदू हृदय सम्राट' बन पाएगा। गणित उतना सरल नहीं है, भीड़ जुटाने के मामले में राज और उद्धव के बीच राज ही सरस हैं। फिलहाल तो शिवसेना ब्रांड ही उद्धव के पास है। जब तक उद्धव खुद शिवसेना का नेतृत्व नहीं छोड़ते या बालासाहेब को बेतहाशा प्रेम करनेवाली शिवसैनिकों की भीड़ एमएनएस में शामिल नहीं होती, तब तक राज उस पर काबिज नहीं हो सकते। यह बड़े सवाल हैं जिनका जवाब सियासत के जानकारों के साथ ही आम जनता भी ढूंढ रही है।

Wednesday, November 14, 2012

म्यांमार पर सधे कदमों की जरूरत

म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की 40 साल बाद आजकल भारत की यात्रा पर हैं। पिछले चार दशक से म्यांमार के सैन्य शासकों के साथ रिश्ते बनाए रखने वाले भारत को सू की के साथ संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। इसकी वजह भी हैं, सू की अपने देश में शक्तिशाली होने के रास्ते पर हैं, तमाम देशों की विदेश नीतियां उन्हें केंद्रबिंदु में रखकर बनाई-बदली जा रही हैं। म्यांमार से चूंकि भारत के सहयोग की पुरानी परम्परा है इसलिये उस पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। सू की के भारत दौरे और उसके निष्कर्षों को समूचा विश्व जानने को व्यग्र है। भारत ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया है, किसी राष्ट्राध्यक्ष जैसी अहमियत दी है। लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर संतुलन बनाए रखने की एक बड़ी चुनौती भारत के सामने खड़ी है। भारत का मौजूदा नेतृत्व इस देश को कितना महत्व देता है, यह इससे पता चलता है कि 1987 के बाद डॉ. मनमोहन सिंह पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जो म्यांमार गए हैं। सू की राजनीतिक स्तर पर दोनों देशों के लोगों के बीच घनिष्ठ सम्बंध चाहती हैं, क्योंकि हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच चीन आड़े आया है और भारत को शक है कि सैन्य शासक चीन से नजदीकी बनाने को प्रायर्टी देते हैं। भारत से सू की का रिश्ता पुराना है, यहां उनका बचपन बीता है। 60 के दशक में उनकी मां खिन की भारत में बर्मा की राजदूत थीं। उस दौरान वह अकबर रोड के उसी घर में रहती थी जहां आज कांग्रेस का कार्यालय है। म्यांमार की सैनिक सरकार से दो दशक से ज्यादा समय से लोहा लेनेवाली सू की ने दिल्ली के जीसस एंड मैरी कॉन्वेंट में स्कूली शिक्षा ली थी और उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए लेडी श्रीराम कॉलेज में दाखिला लिया था। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चली गई थीं। इस बीच शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडीज में भी उन्होंने दो साल तक अध्ययन किया था। तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। लोकतंत्र की समर्थक सू की अब 67 साल की हो चुकी हंै। भारत ने दशकों तक म्यांमार के सैन्य हुकूमत से संबंध बनाए रखा जिससे पश्चिमी मुल्क नाता तोड़ चुके थे। हालांकि बीच-बीच में वह सू की को भी बराबर अहमियत देता रहा। इसी क्रम में उन्हें 1993 में जवाहर लाल नेहरू अवॉर्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग से सम्मानित किया गया था। उस समय वह म्यांमार की सैनिक सरकार द्वारा अपने घर में नजरबंद रखी गई थीं। 1991 में जब उन्हें नोबेल पुरस्कार देने की आधिकारिक घोषणा हुई तब भी वह नजरबंद हीं थीं। इसके चलते वह अपने इस पुरस्कार को ग्रहण नहीं कर सकी थीं। आंग सान सू की सलाखों के पीछे तो कभी घर में नजरबंद होकर भी लोकतंत्र के लिए लड़ती रहीं। इस संघर्ष में उनका देश की जनता ने भी खूब साथ दिया। यही वजह है कि हाल ही में संपन्न चुनावों में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली और कभी नजरबंद रहने वाली सू की ने एक बार फिर खुली हवा में सांस ली। सांसद बनने के बाद वह अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकलीं तो भाषणों में भारत का कई बार नाम लिया और अपने देश से भारत के निरंतर सहयोग की बार-बार वकालत की। इससे यह सिद्ध हुआ कि वह भारत को काफी महत्व देती हैं। सू की ने 24 वर्षों के बाद अपने देश से बाहर निकलना शुरू किया है। यह बात बेहद महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि जब उनके पति लंदन में बीमारी से जूझ रहे थे तब भी सू की ने देश छोड़ने से मना कर दिया था। उन्हें डर था कि उन्हें वापस म्यांमार में नहीं आने दिया जाएगा। लेकिन चुनाव जीतने के बाद यह डर लगभग खत्म हो गया। उन्हें देश की सरकार ने पिछले माह ही उनका पासपोर्ट सौंपा था। अप्रैल में हुए चुनावों के महीने भर बाद मनमोहन ने म्यामांर की यात्रा की थी। म्यांमार पर चीन के प्रभाव को देखते हुए सिंह ने व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया। इस दौरान भारत और म्यांमार के बीच 12 समझौते हुए, इनमें सुरक्षा, सीमा से सटे इलाकों में विकास, व्यापार और परिवहन में सहयोग की इबारत रचने का संकल्प लिया गया। सू की भारत के इस रुख से दुखी हैं। वह कह चुकी हैं कि भारत को म्यांमार की दिखावटी सरकार के बहकावे में नहीं आना चाहिए। हाल ही में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, मैं निराशा के बजाए दुख शब्द का इस्तेमाल करूंगी क्योंकि भारत के साथ मेरा निजी लगाव है। दोनों देशों के बीच काफी नजदीकी है। अति आशावादी न रहें, लेकिन इतना साहस अवश्य होना चाहिए जिस चीज को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, उसे प्रोत्साहित करें। अति आशा से मदद नहीं मिलती है क्योंकि ऐसे में आप गलत चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं. नजरअंदाजी ठीक नहीं है और ठीक न होना ही गलत है। भारत और म्यांमार के कारोबारी रिश्ते बहुत मजबूत हो सकते हैं। प्रेक्षक मानते हैं कि म्यांमार से सटी भारत की पूर्वी सीमा पर 'सही ढंग से निवेश' किया जाना चाहिए। लोकतंत्र की राह पर चलने की कोशिश करते म्यांमार से अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने कई प्रतिबंध हटा भी दिए हैं। अमेरिका, यूरोप, चीन और भारत के कारोबारी वहां निवेश करना चाहते हैं। सरकारें भी तैयार हैं, अगर सू की यह सिद्ध करने में कामयाब रहती हैं कि बदला माहौल उनके अनुकूल है तो निवेश का यह क्रम तेजी से शुरू हो सकता है। म्यांमार की सैनिक सरकार के पूर्व नेता थीन सेन ने जिस तरह के संकेत दिए हैं, उससे लगता है कि सू की का कद और बढ़ने जा रहा है। सेन के अनुसार, यदि लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की को जनता का समर्थन प्राप्त होता है तो वह देश की राष्ट्रपति बन सकती हैं। सेन ने कहा कि जनता की इच्छाओं का सम्मान किया जाएगा। वर्ष 2015 में चुनाव में जनता जिसके पक्ष में भी मतदान करेगी, उसे स्वीकार किया जाएगा।

Sunday, November 4, 2012

अमर सिंह पर सपा की कृपा के मतलब...

... तो क्या अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में वापसी की तैयारियां शुरू हो गई हैं। अपने पूर्व नेता अमर सिंह के विरुद्ध 600 फर्जी कम्पनियों के माध्यम से करोड़ों रुपए की मनीलॉड्रिंग का केस वापस लेने के समाजवादी पार्टी सरकार के कदम से अटकलें तेज हो गई हैं। माना यह भी जा रहा है कि इन मामलों के जरिए अपनी सांसद जया बच्चन के मेगास्टार पति अमिताभ बच्चन को राहत देने की मंशा है जिनकी देर-सवेर गर्दन फंसने का अंदेशा पैदा होने लगा था। सियासती गलियारों में चर्चाएं तो यहां तक हैं कि सरकार के कदम के पीछे अपने कुछ नेताओं को बचाने की भी योजना है। इतने बड़े और चर्चित मामले की फाइल यूं बंद कराने से अटकलें लगना तो लाजिमी है ही। अमर सिंह पिछले आठ साल से, खासकर 1996 से हिन्दुस्तान की राजनीति की कई धुरियों में से एक रहे हैं, जिनका इस्तेमाल ज्यादातर समाजवादियों ने तो कभी वामपंथियों ने और कभी कांग्रेसियों ने किया। यूं तो उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय जाता है प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को लेकिन वास्तव में यह चर्चा में तब आए जब कर्ज के बोझ में दबे बॉलीवुड मेगास्टार अमिताभ बच्चन की मदद की और प्रत्येक जगह उनके साथ दिखने लगे। सपा में आने के बाद तो वह आएदिन चर्चा बटोरने लगे। यहां तक कि उन्हें और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को दो जिस्म और एक जान तक कहा जाने लगा। अपनी पुत्रवधु डिंपल यादव के रूप में सपा की अपनी ही जीती सीट को फीरोजाबाद में हार जाने से आहत मुलायम सिंह ने अमर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद अमर सिंह ने अपनी अलग पार्टी लोकमंच बनायी और हर गली-मुहल्ले में उन्होंने मुलायम सिंह के खिलाफ आग उगली। विधानसभा चुनाव में इस पार्टी के 360 प्रत्याशी मैदान में उतरे लेकिन जीता एक भी नहीं। दरअसल, अमर सिंह राजनेताओं की उस जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सिर्फ परिणाम की चिंता करता है। साधन की पवित्रता और अपवित्रता से जिसका दूर-दूर तक कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सपा सरकार ने जो मामले वापस लिये हैं, वह गंभीरतम श्रेणी के हैं। कानपुर निवासी शिवाकांत त्रिपाठी की शिकायतों पर यह मामले दर्ज हुए थे और गंभीरता देखते हुए तत्कालीन बसपा सरकार ने इनकी जांच पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा को सौंपी थी। एक क्षेत्राधिकारी जांच का दायित्व संभाल रहे थे। मामले के अनुसार, घोटाले में तमाम छोटी-छोटी 600 कम्पनियों के सस्ते शेयरों को ऊंचे दामों पर खरीदा गया, फिर फर्जी तरीके से उन्हें बेच दिया गया। चूंकि मामला 25 हजार रुपए से बहुत ज्यादा राशि का था इसलिये स्थानीय पुलिस इस संबंध में जांच नहीं कर सकती थी, इसलिए तत्कालीन मायावती सरकार ने मामले की जांच आार्थिक अपराध शाखा को सौंप दी। इसके बाद शिवाकांत त्रिपाठी ने एक याचिका दाखिल कर हाईकोर्ट से आग्रह किया कि पूरी जांच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) से कराई जाए, साथ ही जांच की निगरानी अदालत करे। इस दौरान हाईकोर्ट ने अमर सिंह की गिरफ्तारी पर स्टे दे दिया। साथ ही 20 मई 2011 को ईडी को निर्देश दिया कि मामले की जांच अपने स्तर से करे। ईडी ने अक्टूबर में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपनी जांच रिपोर्ट फाइल की है। इसी बीच प्रदेश की सपा सरकार ने आर्थिक अपराध शाखा से मामला दोबारा कानपुर की बाबूपुरवा थाने की पुलिस को ट्रांसफर करने का आदेश जारी कर दिया। अखिलेश सरकार के निर्देश पर कानपुर पुलिस ने अदालत में अपनी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी है। सपा कह रही है कि सरकार किसी भी मामले में निष्पक्ष जांच की पक्षधर है। पिछली सरकार के दौरान मामले में जांच ठीक से नहीं हो सकी थी, इसी कारण मामला बाबूपुरवा थाने की पुलिस को ट्रांसफर किया गया था। याचिकाकर्ता शिवाकांत त्रिपाठी मामले में अपनील करने की तैयारी में हैं। शिवाकांत का आरोप है कि मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष के तौर पर अमर सिंह ने कई वित्तीय अनियमितताएं कीं। शिवाकांत त्रिपाठी ने मामले में कई किलो कागजात भी सबूत की तरह पेश किए, जिनमें बताया गया कि अमर सिंह ने कोलकाता, दिल्ली और कई अन्य जगहों के फर्जी पतों वाली कंपनियों से मनी लांड्रिंग की। मामले की वापसी के पीछे दिल्ली के चर्चित शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी की भूमिका को भी माना जा रहा है। बुखारी सपा सरकार के अब तक के कार्यकाल में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। वह कैबिनेट मंत्री आजम खां के धुर विरोधी हैं और आजम खुद अमर सिंह को पसंद नहीं करते। दोनों के बीच कटुता जगजाहिर है। बुखारी के माध्यम से अमर सिंह ने मुलायम सिंह के पास अपनी अर्जी भिजवाई है कि उनके खिलाफ मायावती सरकार के दौरान दर्ज किया गया मनी लॉंड्रिंग का मुकदमा वापस ले लिया जाए। बुखारी आजम से बदला ले रहे हैं।