Friday, October 24, 2014

मोदी का मिशन कश्मीर

हरियाणा और महाराष्ट्र में फतेह के बाद भारतीय राजनीति के नए चाणक्य नरेंद्र मोदी के एजेंडे में अब जम्मू-कश्मीर सबसे ऊपर है। मकसद मात्र सत्ता प्राप्त करना ही नहीं है बल्कि एक तीर से कई निशाने साधे जाने हैं। पाकिस्तान को सबक तब सीमा के साथ ही घाटी से भी मिलेगा। भाजपा जिस रास्ते पर चल रही है, उसमें जम्मू ही नहीं, पूरे कश्मीर में भी गंभीरता से चुनाव लड़ना शामिल है। जिस राज्य में कोई प्रधानमंत्री साल में एक भी न जाता रहा हो, वहां मोदी पीएम बनने के बाद चार बार हो आए हैं। उनका हर दौरा चर्चा में आया है, कामयाब रहा है।
कश्मीर मुद्दा हर राजनीतिक पार्टी के गले की फांस रहा है। भाजपा इस मामले में खुद को अलग बताती है और वादा करती रही है कि सत्ता मिलते ही वह इसका समाधान करेगी। इस समय हालांकि वह अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर चुप है लेकिन पहले इसकी समाप्ति के लिए खासे अभियान चला चुकी है। यह अनुच्छेद राज्य को अन्य राज्यों से अलग करते हुए विशेष अधिकार प्रदान करता है। भाजपा मानती है कि घाटी से अगर यह अनुच्छेद हटा दिया जाए तो कुछ दिन के असंतोष के बाद समस्या हल हो जाएगी। बाहर के लोग आकर बसने लगेंगे तो वो इलाके भी रोशन हो जाएंगे जहां से अलगाव के झण्डे उठते हैं। अन्य राज्यों की तरह जम्मू एवं कश्मीर भी निवेश आकर्षित कर पाएगा जिससे समूल विकास सुनिश्चित हो सकेगा।  इसी क्रम में पार्टी की योजना पर्यटन के विकास की है। जम्मू कश्मीर देश का एक ऐसा राज्य है जहां पर्यटन की काफी संभावनाएं हैं। इससे न सिर्फ रोजगार पैदा होगा बल्कि देश के अन्य नागरिकों के लिए भी कश्मीर के दरवाजे खुलेंगे। वह भली-भांति जानती है कि कश्मीर के लोग अपने लिए बनाई गई नीतियों से संतुष्ट नहीं हो पाते क्योंकि वह पर्याप्त प्रचार-प्रसार के अभाव में उन्हें समझ ही नहीं पाते। केंद्र की नीतियों को राज्यों की सरकारें अपने व्यक्तिगत हितों की वजह से पूरी तरह  क्रियान्वित ही नहीं होने देतीं। इसी वजह से उसने ठानी है कि केंद्र कश्मीरियों के उत्थान के लिए जो भी नीति बनाएगा, उसके बारे में वह कश्मीरियों को भली-भांति समझाएगी। उन्हें महसूस कराएगी कि यह योजना उत्थान और कल्याण के लिए बनी है। आतंकवाद की मार झेल रहे कश्मीर के अवाम में सेना को लेकर भी असंतोष है। समय-समय पर वहां के मुख्यमंत्री भी सेना को प्राप्त विशेष अधिकारों की समाप्ति की मांग करते रहे हैं। मोदी समझ रहे हैं कि चुनौती लोगों में सेना और नई दिल्ली के प्रति सम्मान और भरोसा पैदा करने की भी है इसीलिये वह बार-बार दौरा कर रहे हैं। उन्होंने भरोसा कायम भी किया है। वह समझा रहे हैं कि देश में जिस तरह बदलाव की बयार बह रही है, उससे कश्मीर को वंचित नहीं रहना है। कश्मीर में एक समस्या आतंकवाद में कुछ प्रतिशत युवाओं की संलिप्तता भी है। कश्मीर में बेरोजगारी मुख्य समस्या है। रोजगार के अभाव में आतंकवादी समूह बड़ी संख्या में युवकों को गुमराह करके पूरे राज्य को आतंकवाद की आग में झोंके हुए हैं। इसके लिए भाजपा रोजगार के ढेरों मौके मुहैया कराने की योजना बना रही है। मोदी के एजेंडे में कश्मीरी पंडितों की वापसी भी है। उन्हें लग रहा है कि मूल निवासियों के घर लौटने से राजनीतिक रूप से उसे फायदा है। इससे न केवल उसका वोट प्रतिशत बढ़ेगा बल्कि समर्थकों का एक बड़ा समूह भी हासिल हो जाएगा। दरअसल, उग्रवाद का प्रभाव जिन लोगों पर सबसे ज्यादा पड़ा है, वो कश्मीरी पंडित ही हैं। घाटी में बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित अपने घरों से विस्थापित हुए हैं। कश्मीरी पंडितों ने मोदी के समर्थन का यह कहते हुए ऐलान किया है कि उन्हें घर वापसी के लिए मार्ग सुगम करना होगा। ऐसा होता है आतंकवादियों के हौसले भी कमजोर होंगे।
अब सवाल यह है कि मोदी और उनकी पार्टी इन वादों-इरादों को अंजाम तक पहुंचाने में कितनी सफल रहने वाली है? घाटी में सब-कुछ वहां के लोगों पर निर्भर नहीं है बल्कि पाकिस्तान जैसी बाहरी शक्तियां भी प्रभावी हैं। मोदी की योजना पहले एक मोर्चे पर फतेह हासिल करने की है। राजनीतिक रूप से सशक्त होने के बाद वह यह कहने में सफल हो जाएंगे कि उन्हें घाटी के लोगों का समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान को सीमा पर कमजोर सिद्ध करना भी उनकी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा है। इसीलिये सीमा पर फायरिंग शुरू होने के बाद उन्होंने तत्काल टिप्पणी नहीं की ताकि यह संकेत जाए कि वह पाकिस्तानी हरकतों को टिप्पणी के काबिल भी नहीं समझ रहे। सेना सशक्त है और जवान खुद इसका जवाब देने में सक्षम हैं। इसी का असर है कि पाकिस्तान को तेवर कड़े करने पड़े, संसद में भारत के विरुद्ध निंंदा प्रस्ताव भी उसने इसीलिये पारित किया ताकि भारत पर दबाव बढ़े और मोदी सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह सीमा पर हमलावर न रहकर, रक्षात्मक हो जाए। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी संकेत चले जाएं कि मोदी सरकार का रुख पाकिस्तान के प्रति खासा आक्रामक है। पाकिस्तान को कमजोर दोस्त साबित करने से घाटी के लोगों पर मनोवैज्ञानिक असर होगा, वह मानने लगेंगे कि पाकिस्तान से बेहतर भारत के साथ रहना है। राजनीतिक रणनीति की बात करें तो भाजपा की तैयारी इस बार पूरे राज्य में अपने प्रत्याशी खड़े करने की है। आतंकवाद का सर्वाधिक शिकार श्रीनगर में भी वह मैदान में होगी, यह दीगर है कि यहां पार्टी का चेहरा कोई मुस्लिम होगा। पार्टी की योजना अन्य कई सीटों पर भी मुस्लिम प्रत्याशी खड़े करने की है। कोशिश तो सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस और मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी  के नेताओं से पाला बदलवाने की भी है। मोदी कश्मीर मिशन खुद देख रहे हैं, सारी योजनाएं उनकी अपनी है। इसलिये पार्टी को उम्मीद कामयाबी की है।

Saturday, October 18, 2014

शिक्षा में पिछड़तीं मुस्लिम लड़कियां

कहते हैं कि तुमने एक मर्द को पढ़ाया तो सिर्फ एक व्यक्ति को पढ़ाया पर यदि किसी औरत को पढ़ाया तो एक खानदान और एक नस्ल को पढ़ा दिया। दुर्भाग्य है कि यह कहावत जिस मुस्लिम समाज में सुनी-सुनाई जाती है, वह खुद बालिका शिक्षा के प्रति सर्वाधिक लापरवाह है। देश में बालिका शिक्षा की दर 40 प्रतिशत है, वहीं सौ में से मात्र 11 मुस्लिम बालिकाओं को ही उच्च शिक्षा मिल पा रही है। शहरी क्षेत्रों में 4.3 और ग्रामीण इलाकों में 2.26 फीसदी लड़कियां ही स्कूल जाती हैं। सच्चर समिति की रिपोर्ट में जो आंकड़े दिए गए हैं, यह उससे उलट हैं। यह आंकड़े गैरसरकारी संगठन के हैं।
बेशक, शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है। शिक्षित कौमों ने ही हमेशा तरक्की की है। किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्व दे रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। भारत में, खासकर मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है। आंकड़े साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी बहुत अच्छी तस्वीर पेश नहीं कर पाई थी, जिसमें बताया गया था कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में औसतन साढ़े तीन प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों के स्कूल जाने का जिक्र था। नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्राथमिक स्तर यानी पांचवीं तक की कक्षाओं में 1.483 करोड़ मुस्लिम बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, यह संख्या प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में दाखिला लेने वाले कुल 13.438 करोड़ बच्चों की 11.03 फीसदी है जो वर्ष 2007-08 में 10.49 फीसदी थी और 2006-07 में 9.39 प्रतिशत। इन कक्षाओं में पढ़ रहे कुल मुस्लिम छात्रों में 48.93 फीसदी लड़कियां शामिल हैं। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में भी मुस्लिम बच्चों की तादाद में इजाफा हुआ तो है लेकिन इतना नहीं जो संतोष पैदा करता हो। काबिले गौर यह भी है कि उच्च प्राथमिक विद्यालय में लड़कियों की संख्या मुस्लिम छात्रों की तादाद की 50.03 फीसदी है, जबकि सभी वर्ग की लड़कियों के उच्च प्राथमिक कक्षा में कुल दाखिले महज 47.58 फीसदी हैं। यह रिपोर्ट देश के 35 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों के 633 जिलों के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त स्कूलों से एकत्रित जानकारी पर आधारित है। रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 64 साल तक की हिंदू महिलाओं (46.1 फीसदी) के मुकाबले केवल 25.2 फीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोजगार के क्षेत्र में हैं। अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है और वह अपनी मर्जी से अपने ऊपर एक भी पैसा खर्च नहीं कर पातीं। लड़कों की शिक्षा के बारे में मुस्लिम अभिभावकों का तर्क होता है कि पढ़-लिख लेने से कौन सी उन्हें सरकारी नौकरी मिल जानी है। फिर पढ़ाई पर क्यों पैसा बर्बाद किया जाए? बच्चों को किसी काम में डाल दो, सीख लेंगे तो जिंदगी में कमा-खा लेंगे। वहीं लड़कियों के मामले में कहा जाता है कि ससुराल में चूल्हा-चौका ही तो संभालना है इसलिए बेहतर है कि लड़कियां सिलाई-कढ़ाई और घर का कामकाज सीख लें। ससुराल में यह तो नहीं सुनना पड़ेगा कि मां ने कुछ सिखाया नहीं। कारणों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए धार्मिक कारण काफी हद तक जिम्मेदार हैं जो  खुद-ब-खुद गढ़ लिये गए हैं। धर्म कहता है कि पिता और पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी वो खुद भी है। वह खुद शादी भी कर सकती है हालांकि माता-पिता की सहमति को शुभ माना गया है। इसके अतिरिक्त भी कई सुविधा-अधिकार उन्हें हासिल हैं जो इस बात के गवाह हैं कि उनके अनपढ़ रहने या पिछड़ेपन के लिए इस्लाम कतई जिम्मेदार नहीं है। इसके बावजूद, उनकी हालत यदि संतोषजनक नहीं है तो इसके लिए पुरुष सत्तावादी समाज है, जो हर धर्म में है। इसी की वजह से वह उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इस तस्वीर का दूसरा रुख भी है जो उम्मीदें पैदा करता है। मुस्लिम महिलाओं के आगे बढ़ने की यह कहानियां बस्तियों से हटकर हैं। फातिमा बी जहां हमारे देश की पहली महिला न्यायाधीश थीं, नजमा हेपतुल्ला नरेंद्र मोदी कैबिनेट में अहम जिम्मेदारी संभाल रही हैं, वहीं तमाम अन्य क्षेत्रों में भी महिलाएं अपनी योग्यता का परिचय दे रही हैं। तुर्की जैसे आधुनिक देश में ही नहीं बल्कि कट्टरपंथी समझे जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश सरीखे देशों में भी महिलाओं को प्रधानमंत्री तक बनने का मौका मिला है। यह वाकई एक खुशनुमा अहसास है कि मजहब के ठेकेदारों की तमाम बंदिशों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं राजनीति के साथ खेल, व्यापार उद्योग, कला, साहित्य, रक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। अल्पसंख्यक मामलों की केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला कहती हैं कि मुस्लिम लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ाना मोदी सरकार के एजेंडे में है क्योंकि सभी वर्गों का एकसाथ विकास ही देश के संपूर्ण विकास में मददगार सिद्ध हो सकता है। बेशक, यह सही सोच है। ऐसे समय में जब सभी वर्गों-धर्मों की लड़कियां आगे बढ़ रही हैं, हम मुस्लिम लड़कियों के साथ अन्याय नहीं कर सकते। मलाला यूसुफजई को मिला नोबेल अवार्ड प्रेरित कर रहा है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के इस हिस्से के बारे में भी सोचें और कुछ करें। मोदी सरकार यदि सकारात्मक सोच रही है, तो यह स्वागतयोग्य है।

Monday, October 13, 2014

अलगाववादियों में हताशा के दिन...

पहले बाढ़ और फिर पाकिस्तानी सेना की फायरिंग के बाद जम्मू-कश्मीर एक बार फिर सुर्खियों में है। लेकिन इस दफा मामला बेहद गंभीर और संगीन है। इंटेलीजेंस ब्यूरो तक पहुंची एक रिपोर्ट के मुताबिक, श्रीनगर में बीते दिनों ईद की नमाज के बाद भड़की हिंसा के दौरान प्रदर्शनकारियों ने इराक के खतरनाक आतंकी संगठन आईएसआईएस का झंडा लहराया था। 
शुरुआती रिपोर्टों में बताया गया है कि यह पाकिस्तानी शह पर हो रहा है। सीमा पर पाकिस्तान ने जब सिरदर्द बनना शुरू किया तो यह तत्व घाटी में अंदर सिर उठाने लगे। कोशिशें हुर्इं कि भारत की सेना सीमा और अंदर, दोनों मोर्चों पर मुश्किल में फंस जाए। कुछ जगह भारत विरोधी नारे लगाकर भी माहौल बिगाड़ने की कोशिशें की गर्इं। हालांकि इन तत्वों को भारतीय सेना की ताकत का अंदाजा था इसलिये सारे कुकृत्य चोरी-छिपे और अंदरूनी इलाकों में हुए। कश्मीर घाटी में सुरक्षाबलों के सामने अक्सर पथराव की भी घटनाएं होती हैं बल्कि यह घटनाएं ही एक समस्या नहीं है बल्कि उन्हें प्रदर्शनों के दौरान गालियों, भड़काऊ नारेबाजी और दीवारों पर लिखे देश विरोधी नारों से भी जूझना पड़ता है। कई बार सुरक्षाबल भारत विरोधी नारे लिखने वालों को मुंहतोड़ जवाब देते हैं और नारों को संपादित कर अपने राष्ट्र प्रेम का प्रतीक बना देते हैं। पिछले दिन एक उदाहरण सामने आया था, जिसमें कुछ राष्ट्र विरोधी तत्वों ने नौहट्टा के मुख्य चौक पर यह नारा लिखा- गो इंडिया गो लेकिन सुरक्षाबलों ने इस नारे को संपादित कर वहां- गुड इंडिया गुड लिख दिया। नौहट्टा और बारामूला के ओल्ड ब्रिज क्षेत्र में अक्सर घंटों तक चलते रहने वाले पथराव के दौरान पत्थर फेंकने वालों और सुरक्षाबलों के बीच तीखा वाकयुद्ध भी होता है।यह तत्व यह भूल जाते हैं कि  भारतीय सेना के आत्मविश्वास और राष्ट्रप्रेम की दुनियाभर में मिसालें दी जाती हैं। कुछ मुट्ठीभर युवक इन नारों से न तो सुरक्षाबलों को डरा सकते हैं और न स्थानीय लोगों को। असल में, कश्मीर बाढ़ के दिनों में आतंकवादी गिरोहों के व्यवहार से कश्मीर घाटी की आम जनता को बहुत निराशा हुई है। जब सेना के जवान कश्मीरियों को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे थे, उस समय पाकिस्तान का गुणगान करने वाले आतंकी संगठन घरों या आश्रय स्थलों में छिपे बैठे थे। उन्हें अपनी जान ही प्यारी थी, घाटी की आवाम के जान और माल की इन्हें कोई चिंता न थी। उन आतंकी गिरोहों का मनोबल बनाए रखने के लिए भी पाकिस्तान के लिए सीमा पर हलचल करना लाजिमी हो गया था। यदि पाकिस्तान की इस कार्रवाई से सचमुच घाटी के आतंकियों में आशा जगती है, तो समझ लीजिए कि उसी अनुपात में देश की बाकी जनता के मन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर उपजे हुए विश्वास और आशा में कमी आ जाएगी। यह साधारण मनोवैज्ञानिक स्थिति पाकिस्तान की सरकार समझती ही होगी। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा पर की जा रही हरकतों को समझना ज्यादा आसान हो जाएगा। लेकिन केवल समझ मात्र लेने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि उसका उत्तर भी तलाशना होगा। ऐसा उत्तर जो सीमा पर शत्रु देश को दिया जाए और देश के भीतर उन लोगों को, जो शत्रु द्वारा किए जा रहे आक्रमण को भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं।

Sunday, October 12, 2014

बड़ी मुश्किलों में पाकिस्तान

पाकिस्तान आंतरिक मुश्किलों में बुरी तरह घिर चुका है। हर मोर्चे पर बुरे हाल हैं। आर्थिक तंत्र मजबूत नहीं रहा, महज कुछ साल में इस पड़ोसी देश का निर्यात सवा दस से महज चौथाई प्रतिशत तक गिर गया है। सैन्य तंत्र भी ढह रहा है। तमाम सैन्य इकाइयां कई-कई माह तक वेतन के लाले झेलती हैं। भारी-भरकम विदेशी कर्ज के सहारे वह कितने दिन चल पाएगा, यह देखना बाकी है। यह भी आशंका है कि राजनीतिक सत्ता का कुछ माह में पतन हो जाए। हालांकि भारत के लिए पाकिस्तान के पतन की स्थिति भी अच्छी नहीं होगी क्योंकि वहां अगली सत्ता उग्रवादियों की होगी या फिर, तानाशाहों की।
आतंकवाद का जिस तरह से पाकिस्तान में प्रसार हुआ है, वैसा शायद किसी देश में नहीं हुआ होगा। कभी स्वात घाटी तक जो उग्रवादी सत्ता चलाते थे, कराची का व्यापारिक ताना-बाना ढेर कर रहे थे, वो आज इस्लामाबाद में बे-खौफ घूमते हैं, उद्योगपतियों-व्यापारियों से चौथ वसूला करते हैं। बंदूकें वहां छिपकर नहीं रखी जातीं बल्कि किसी भी कमर में बेल्ट में अटकी नजर आ जाती हैं। गोलियां चलना वहां आम बात है। ऐसा नहीं कि राजधानी में पुलिस तंत्र गायब हो लेकिन वह मात्र लकीर पीट रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि पिछले 10 साल में यहां दो सौ पुलिसकर्मी आतंकी हमलों में मारे गए। जब राजधानी का हाल यह हो तो बाकी देश कैसा होगा, बताने की जरूरत नहीं दिखती।   आतंकवादी संगठनों का इतना जबर्दस्त जलवा है कि तालिबान ने खुलकर कह दिया है कि उसका लक्ष्य परमाणु हथियारों के साथ पाकिस्तान पर कब्जा करना है। कराची के मेहरान नौसैनिक अड्डे पर तालिबान बड़ा हमला कर ही चुका है। पाकिस्तान परमाणु क्षमता वाला अकेला मुसलमान देश है और तालिबान का इरादा हथियारों को नष्ट करने का नहीं बल्कि उन पर कब्जा करने का है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से ही लग जाता है कि सैन्य अड्डे पर मुट्ठीभर आतंकियों का साथ देने वाले पाकिस्तानी सेना के तालिबान समर्थक अफसर थे। रक्षा विशेषज्ञों का आंकलन है कि पाकिस्तानी नौसेना, वायुसेना और थलसेना, तीनों में तालिबान की घुसपैठ हो चुकी है।
पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसे हालात हैं, तालिबान की धमकी एक डरावनी हकीकत में न बदल जाए क्योंकि पर्दे के पीछे से पाक में असल सत्ता चला रही पाक सेना आतंकियों के मुकाबले पस्त दिख रही है। आम पाकिस्तानी न तो अब पाक फौज पर विश्वास करता है और न ही देश के राजनीतिज्ञों पर। संघीय सरकार प्रतीकात्मक रह गई है। बलूचिस्तान में चल रहे अलगाववादी आंदोलन ने भी मामला बिगाड़ा है।  भारत की मानिंद पाकिस्तान में अभी तक राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज नहीं है क्योंकि जिन चार समुदायों-सिंधी, बलूची, पंजाबी और पठानों ने पाकिस्तान की स्थापना की, वे आज भी खुद को सिंधी, बलूची, पंजाबी और पठान मानते हैं। इनमें अपना स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की भावना बलवती होती जा रही है। मोहाजिर आज भी मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाए हैं और स्वयं को शोषित-उपेक्षित अनुभव कर रहे हैं। कराची, हैदराबाद, सिंध में जहां बड़ी संख्या में मोहाजिर हैं और वे अपने लिए अलग राज्य चाहते हैं। यह भी पाकिस्तान के एक और विभाजन का बड़ा कारण बन सकता है। पाकिस्तान की करीब आधी आबादी उग्रवाद, गरीबी और बेरोजगारी की वजह से गंभीर मानसिक रोगों का शिकार है। मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में गिरावट के कारण लोगों की सहनशीलता कम हुई है और लोग हिंसक भी हुए हैं। उनमें असुरक्षा की भावना से ग्रस्त घर गई है। उग्रवाद, अराजकता और आत्मघाती हमलों की वजह से पाकिस्तान के लोगों की जिंदगी बेहद खराब हो चुकी है। रही-सही कसर कीमतों में बढ़ोत्तरी और बेरोजगारी ने पूरी कर दी है। अर्थव्यवस्था बुरी तरह से विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से मिलने वाली सहायता पर निर्भर है। कीमतें आसमान छू रही हैं, बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर है और युवाओं की आबादी का बड़ा हिस्सा नौकरी की तलाश में देश छोड़ने की फिराक में है। कहा तो यहां तक जाने लगा है कि इस देश की आर्थिक स्थिति ऐसे ही बिगड़ती गई तो उसका भी सोवियत संघ और यूगोस्लाविया की तरह विघटन हो जाएगा। इतिहास पर नजर डालें तो मोहम्मद अली जिन्ना ने जब पाकिस्तान की बागडोर संभाली थी, तब आर्थिक स्थिति खराब नहीं थी। यह स्थिति खराब तब हुई जब उसने अपना रक्षा बजट बढ़ाया। भारत विरोध ही उसका एकमात्र एजेंडा हो गया। औद्योगिक विकास ठप हो गया। कृषि क्षेत्र में विकास अवश्य हुआ, किन्तु वो भी इतना नहीं था कि वह पूरे देश के वित्तीय हाल को संभाल सके। आर्थिक स्थिति के कारण ही पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में भेदभाव बढ़ता गया, सत्ता का केंद्र चूंकि पश्चिमी पाकिस्तान में था इसलिए पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बंगलादेश बन गया। विभाजन की मांग कर रहे गुटों-संगठनों की धमक इतनी है कि यह देश दोबारा बंट जाए तो बड़ी बात नहीं। लेकिन पूरी स्थितियों में भारत को राहत का अनुभव नहीं करना चाहिये क्योंकि आतंकवादियों के हाथ में सत्ता आने पर वह भारत का सिरदर्द बढ़ाएंगे। इसलिये केंद्र सरकार को सतर्क कदम उठाने की जरूरत है। उसे अमेरिका जैसे उन देशों के साथ समन्वय बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिये जो आतंकवाद के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं। आतंकवाद पर लगाम के बाद ही भारत का सिरदर्द कम हो सकेगा।

Thursday, October 2, 2014

डिजिटल इंडिया का सपना

स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार डिजिटल इंडिया मिशन पर जोर लगाने की तैयारियों में जुटी है। यह सामयिक है और भारत के लिए जरूरी भी। दरअसल, हम तकनीक की नई दुनिया में बहुत आगे पहुंच चुके हैं। तकनीक की दुनिया के नए उभरे इस देश में जहां 18 साल में मोबाइल कनेक्शन शून्य से साढ़े 87 करोड़ तक पहुंच गए हैं, जो अमेरिका और चीन के बाद इंटरनेट की तीसरी सबसे बड़ी आबादी है, जिसमें लगभग 90 करोड़ फोन कनेक्शनों में 97 फीसद मोबाइल हैं, गूगल की 13 सदस्यीय मैनेजमेंट टीम में से जिस देश के चार नागरिक शुमार हैं, जिसके 100 अरब डॉलर के आईटी-बीपीओ उद्योग का 70 फीसदी व्यापार निर्यात आधारित है।अब तस्वीर  का दूसरा रुख देखिए, जो सिद्ध कर रहा है कि भारतीय भी अपने देश को तकनीक महाशक्ति बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे।
इस रुख को स्पष्ट करने के लिए मैं पांच ऐसे व्यक्तियों का उदाहरण दे रहा हूं, जो अपने क्षेत्रों के महारथी हैं लेकिन अब देशहित में जुटे हैं। पहला व्यक्ति नंदन नीलेकणि ने नामी कंपनी इंफोसिस के ऐशो-आराम छोड़कर लगभग सवा अरब लोगों को डिजिटल पहचान पत्र जारी करने के प्रोजेक्ट में लगा था। दूसरा, हर महीने डिजिटल दुनिया में सर्च कर रहे 100 अरब लोगों को उसके बेहतर नतीजे दिलाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है। नाम है-बेन गोम्स।  तीसरी एक युवती है जिसने दुनिया की सबसे लोकप्रिय मानी जाने वाली सोशल नेटर्वकिंग कम्पनी के लिए प्रमुख फीचर बनाए। रुचि सांघवी आज नेटर्वकिंग साइट्स के लिए बड़ा नाम है। चौथा, रिकिन गांधी नामक भारतीय तकनीकी और सामाजिक संस्थाओं को साथ लाकर किसानों के फायदे के लिए काम दिन-रात एक कर रहा है और पांचवें संजीव बिखचंदानी लगभग 30 लाख लोगों को नौकरी खोजने में मददगार हैं। नीलेकणि ने बंगलोर में एक सॉफ्टवेयर कम्पनी से करियर शुरू किया और 28 साल जब वह पीक पर थे तो देश के लिए काम करने में उतर आए। नंदन की शुरू की हुई उस कम्पनी और उसकी जैसी कई अन्य कम्पनियों ने भारत के आईटी-बीपीओ उद्योग को 2014 में 150 अरब डॉलर से ज्यादा का कर दिया। सिलिकन वैली में बंगलोर के मूल निवासी बेन गोम्स भी खासे चर्चित हैं। कभी ब्रिटिश कम्पनी जेडएक्स स्पेक्ट्रम कम्यूटर के साथ घर में जोड़-तोड़ करने वाले बेन आज दुनिया की सबसे बड़ी वेब सर्च कंपनी में हैं। आप गूगल में कुछ खोजने के लिए टाइप करते हैं तो उसमें अपने-आप दिखने वाले सुझाव गोम्स की ही वजह से हैं। इसी तरह की उपलब्धियां भरी कहानी है पुणे की 23 वर्षीय रुचि सांघवी की। उन्होंने नई कम्पनी से काम शुरू किया, यह कम्पनी कॉलेज जाने वालों के लिए डेटिंग सर्विस जैसी लगती थी।
बतौर ट्रेनी इंजीनियर करियर शुरू करने वालीं रुचि फेसबुक में प्रिंसिपल प्रॉडक्ट मैनेजर और उसकी न्यूज फीड सेक्शन हेड रहीं। महज 29 साल की उम्र में नौकरी छोड़ने के बाद रुचि ने नई कंपनी शुरू की और सिलिकन वैली में सहयोगियों को अपने साथ ले लिया। बाद में इस कम्पनी का ड्रॉपबॉक्स ने अधिग्रहण कर लिया। ड्रॉपबॉक्स इंटरनेट से जुड़ी वो जगह है जहां आप अहम दस्तावेज और तस्वीरें रख सकते हैं। इतनी ही धमक रिकिन गांधी की जिन्होंने अंतरिक्ष यात्री बनने का सपना महज चंद कदम की दूरी पर ही छोड़ दिया। उन्होंने अमेरिका छोड़ा, भारत आए और किसानों के साथ काम करने के लिए डिजिटल वीडियो का इस्तेमाल किया ताकि उन किसानों की जिÞंदगी बेहतर की जा सके जो तकनीक से दूर हैं और पिछड़े हैं। स्थानीय तौर पर पर बना ये वीडियो ग्रामीण भारत के लिए साधारण अविष्कार है क्योंकि वहां इंटरनेट की पहुंच नहीं है लेकिन मोबाइल जरूर पैठ कर रहा है। संजीव बिखचंदानी की कहानी कुछ अलग और प्रेरणादायी है। दिल्ली के संजीव ने बहुराष्ट्रीय कम्पनी की नौकरी छोड़ी और करीब एक दशक तक बिना वेतन संघर्ष किया। वर्ष 1997 में उन्होंने नौकरी खोजने के लिए वेबसाइट बनाई तो उसे लोगों के बीच ऐसी लोकप्रियता मिली कि आज वह भारत के प्रमुख वेब बिजनेस के मालिक हैं। करियर पत्रिकाओं से  उन्हें इस वेबसाइट को शुरू करने की प्रेरणा मिली जिनमें उनके मित्र नौकरियां खोजा करते थे। यह वो दौरथा जब समूचे देश में इंटरनेट  प्रयोग करने वालों की संख्या महज 15 हजार थी जो आज लगभग साढ़े सात करोड़ है और हर साल 30 फीसदी की गति से बढ़ रही है। चेन्नई के राम श्रीराम ने नेटस्केप में तब काम किया जब वह कम उत्पादों वाली कम्पनी थी। श्रीराम ने उसे छोड़कर जंगली डॉट कॉम शुरू की, फिर उसे जेफ बेजोस को लगभग साढ़े 18 करोड़ डॉलर में बेच दिया। वह आज भी गूगल के बोर्ड में हैं जिसकी लीडरशिप टीम के 13 में पांच सदस्य भारतीय मूल के हैं। ऐसे उदाहरणों वाले देश में मोदी सरकार के डिजिटल इंडिया प्रोग्राम की कामयाबी ज्यादा मुश्किल नजर नहीं आ रही। इस प्रोग्राम की बड़े पैमाने पर लॉन्चिंग मोदी सरकार का अगला एजेंडा है। अगले महीने सरकार इस कार्यक्रम औपचारिक शुरुआत करने का मन बना रही है। मोदी ने अपनी टीम से इनोवेटिव और नए आइडियाज के साथ शुरुआत करने के लिए कहा है। फिलहाल, जिस आइडिया को संभावित लॉन्चिंग कार्यक्रम के लिए चुना गया है, वह है मोदी का देश के एक हजार पंचायतों के मुखियाओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से बात करना और उन्हें इंटरनेट का महत्व समझाना। विश्व की शीर्ष आईटी कम्पनी आईबीएम ने इसमें काफी रुचि दिखाई है और इस मिशन में सरकार के साथ जुड़ने को लेकर आगे और बातचीत हो सकती है। मोदी फेसबुक को सक्रिय सहयोगी बनाने की कोशिश कर रहे हैं।