Thursday, April 19, 2012

अग्नि-5: पीठ ठोकने का वक्त

खुशियों का दिन है। हमारे देश ने अपनी सबसे शक्तिशाली अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया है जो पूरी तरह से सफल रहा है। पांच सौ किमी तक मार कर सकने वाली ये मिसाइल परमाणु क्षमता से लैस है। इसका अर्थ ये है कि इस मिसाइल के साथ हमारे पास पहली बार बीजिंग और शंघाई तक मार करने की क्षमता हो गई है। अमेरिका को छोड़कर अब हम आधे यूरोप तक मार सकते हैं। इस सफल प्रक्षेपण से हमारा देश इंटरकांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल क्लब में शामिल हो गया है जिसमें अब तक अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन ही शामिल थे। बेशक, यह बड़ी उपलब्धि है। अपने परंपरागत दुश्मन पाकिस्तान के साथ ही पड़ोसी चीन जिस तरह से अपनी सैन्य तैयारियां पुख्ता कर रहा है, इस तरह की उपलब्धियां जरूरी भी हो गई हैं। भारत के समक्ष चुनौतियां बढ़ रही हैं। सीमा पर जिस तरह से आक्रामक रूप से चीन अपनी गतिविधियों और तैयारियों को अंजाम दे रहा है, उसे देखते हुए भारत भी चुप नहीं बैठ सकता। 1962 से अब तक परिस्थितियां बदल चुकी हैं। वर्तमान में जहां भारत का रक्षा बजट 40 अरब डॉलर के करीब है, वहीं चीन का इससे चार गुना अधिक है। सेना का अंतर भी चीन के पक्ष में बढ़ता जा रहा है। 1962 के युद्ध से अनसुलझा सीमा विवाद पचास साल पुराना हो गया है और अब इसको लेकर तकरार बढ़ने लगी है। भू राजनैतिक समीकरणों में परिवर्तन आ चुका है। चीन के साथ ही पाकिस्तान में हमारा परमाणु संपन्न पड़ोसी है। दोनों देशों से विवादों की लंबी सूची है। जंगों का अतीत है। पाकिस्तान को हम युद्ध में चार बार धूल चटा चुके हैं तो चीन से एक बार हारे भी हैं। सबसे ज्यादा चिंताएं एशिया में चीन के बढ़ते आक्रामक रुख से हैं। दोनों पक्षों के बीच विवादित सीमा, हिंद महासागर और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लगातार बढ़ती चीनी गतिविधियां हमारे लिए चिंता का सबब हैं। हालांकि हम यह मानकर बैठने से नहीं हिचकते कि दोनों पक्षों के बीच बड़े सशस्त्र संघर्ष की उम्मीद नहीं है लेकिन इस सवाल का जवाब भी नहीं बताते कि चीन इतनी तैयारियां कर क्यों रहा है। अमेरिकी खुफिया अधिकारियों ने दावा किया है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन के आक्रामक तेवर को देखते हुए भारत उसके खिलाफ अपनी सेना को मजबूत करने की योजना बना रहा है। यद्यपि भारत-चीन की विवादित सीमा पर फिलहाल शांति है। उसके बावजूद भारत-चीन दिन प्रतिदिन बढ़ती सैन्य ताकत को लेकर चिंतित हैं। यही वजह है कि वह अपनी सैन्य क्षमताओं में इजाफा कर रहा है। कुछ दिन पूर्व अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन की वर्षिक रिपोर्ट से भी चिंताएं बढ़ी थीं जिसमें कहा गया था कि चीन ने भारतीय सीमा पर अत्याधुनिक हथियारों से लैस सीएसएस- 5 मीडियम रेंज बैलिस्टिक मिसाइलें (एमआरबीएम) तैनात कर रखी हैं। इससे दोनो देशों के बीच आपसी संबंधों में तनाव बढ़ सकता है। परमाणु क्षमता से लैस इस मिसाइल को चीन में डीएफ-21 के नाम से जाना जाता है। यह मिसाइल सन 1991 से चीन की सैन्य सेवा में है। इसकी लंबाई 10.7 मीटर तथा व्यास 1.4 मीटर है। इसकी मारक क्षमता 1700 से 3000 किलोमीटर है। इस मिसाइल की गति 10 मैक है। इसमें ठोस ईंधन का इस्तेमाल किया गया है। अधिक उन्नत किस्म की इन मिसाइलों की तैनाती का सीधा मतलब यह है कि भारत के प्रमुख शहर जैसे कोलकाता, नई दिल्ली, चंडीगढ़ आदि इसकी मारक जद में होंगे। यह मिसाइल 600 किलोग्राम वजन का परमाणु विस्फोटक अपने साथ ले जाने में सक्षम है जो किसी शहर के विध्वंस के लिए काफी है। सीएसएस-5 को चाइना चैंगफैंग मैकेनिक्म एंड इलेक्ट्रॉनिक्स टेक्नॉलाजी एकेडमी ने बनाया है। इसका इस्तेमाल स्पेस लांचर के तौर पर भी किया जा रहा है। चीन इन मिसाइलों को अत्यंत कम समय में भारत की सीमा पर ले जाने की पूरी तैयारी भी कर चुका है। इसके लिए उसने भारतीय सीमा के नजदीक विभिन्न प्रकार के रेल व सड़क नेटवर्क बना लिए हैं। चीनी सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने इससे पहले भारतीय सीमा पर सीएसएस-2, आइएमबीएम मिसाइलें तैनात कर रखीं थीं। पाकिस्तान तो भारत का सिरदर्द है ही। वहां सेना का दखल इतना ज्यादा है कि भारत से शांति चाहने वाले राजनेता अपना मुंह तक नहीं खोल पाते। पाकिस्तान में तीन मुख्य खिलाड़ी हैं- निर्वाचित सांसदों की प्रतिनिधि कार्यपालिका, उच्च न्यायपालिका और सर्वशक्तिमान सेना, जो पाकिस्तान में पिछले 55 वर्षो से ड्राइवर की सीट पर बैठी हुई है। राष्ट्रपति पद से परवेज मुशर्रफ की विदाई के बाद पाकिस्तान नागरिक शासन को उलटने का प्रयास करता रहा है। राजनीतिक सत्ता और सेना की इसी खींचतान में वहां भारत विरोधी माहौल बनाया जाता है और हमेशा डर रहता है कि कब भारत के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई की हालत पैदा हो जाए। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में पेश एक प्रस्ताव पर श्रीलंका सरकार के खिलाफ वोट देकर भारत एक और पड़ोसी की नाराजगी मोल ले चुका है। वर्ष 2011 में अफगानिस्तान में भारत की सक्रियता बढ़ी है लेकिन वह काबुल में अपनी सेनाएं या रक्षा उपकरण इसलिए नहीं भेजना चाहता क्योंकि वह पाकिस्तान को उकसाना नहीं चाहता। बांग्लादेश भी खतरे के संकेत दे रहा है। वहां भीतरी समस्याएं हैं। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का वहां दखल बढ़ रहा है। पूर्वोत्तर के आतंकवादियों को शह मिल रही है। नेपाल से भी इसी तरह की समस्याएं सामने हैं। अग्नि के सफल प्रक्षेपण से दुश्मनों को यह संकेत तो निश्चित ही मिलेगा कि भारत को कमजोर समझना उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हो सकती है।

Tuesday, April 17, 2012

मुस्लिम परस्ती की राह पर अखिलेश

मुस्लिमों के मोर्चे पर उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार आगे बढ़ रही है। पहले मुस्लिमों को मंत्रिमंडल में पर्याप्त स्थान दिया गया, और अब ट्रांसफर-पोस्टिंग में उन्हें अहमियत मिल रही है। अल्पसंख्यक कल्याण के भरपूर वायदे कर चुनावी समर फतह करने वाली समाजवादी पार्टी बेशक दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी के आरोपों से झटके में हो लेकिन उसके कदम बेहद सधे हुए हैं। मुस्लिमों को हर जगह प्राथमिकता मिल रही है। आतंकवादी कहकर गिरफ्तार किए गए मुस्लिम युवकों की रिहाई के कदमों से सबसे ज्यादा विवाद है। अफसरशाही में इस वर्ग का वर्चस्व बढ़ रहा है। विपक्षी दल चाहें इसे तुष्टिकरण की राजनीति कहें लेकिन सरकार निश्चिंत हैं, लगातार उठ रहे कदम इसी निश्चिंतता का उदाहरण हैं। प्रदेश में नए हालात में राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। आईएएस संवर्ग में मुस्लिम अधिकारियों का प्रतिशत अनुमानत: तीन तथा 1200के पीसीएस संवर्ग में लगभग चार प्रतिशत है। फिलहाल ब्यूरोक्रेसी के सबसे उच्च पद पर मुस्लिम वर्ग के वरिष्ठ अधिकारी जावेद उस्मानी मुख्य सचिव के रूप में कार्यरत हैं। मुख्यमंत्री के एक विशेष सचिव भी मुस्लिम हैं। इसी प्रकार कामरान रिजवी, माजिद अली, इफ्तखारउद्दीन आदि कई अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर तैनात हैं। पुलिस विभाग में भी जावीद अहमद, जावेद अख्तर और रिजवान अहमद जैसे तमाम अधिकारियों का नाम शामिल है जो महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं। प्रदेश विधानसभा में इस बार 69 मुसलमान प्रत्याशी जीते हैं। यह संख्या पिछली बार (55) से ज्यादा है बल्कि अब तक का रिकॉर्ड है। अनुपात के रूप में कुल विधायकों में से 17.12 प्रतिशत विधायक मुसलमान हैं। इनमें से 43 विधायक समाजवादी पार्टी के, 16 बसपा के, 3 पीस पार्टी के, 2 कौमी एकता दल के, 4 कांग्रेस के और एक विधायक इत्तेहाद-उल-मिल्लत का है। इस संबंध में सरकार का तर्क है कि चूंकि मुस्लिम विधायकों की संख्या ज्यादा है इसलिये मंत्री पद ज्यादा दिए गए हैं। सपा में जीतकर आए मुस्लिम विधायकों में से आजम खां, अहमद हसन और डॉ. वकार अहमद शाह को कैबिनेट स्तर का मंत्री बनाया गया जबकि सात मुस्लिम विधायकों को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है। इतना कुछ करने के बाद भी मुस्लिमों की ओर से अन्य लालबत्तियों से नवाजे जाने की मांग सरकार को परेशान कर रही है। फिलहाल बसपा मुखिया मायावती के विधान परिषद की सदस्यता से इस्तीफा देने के कारण रिक्त सीट पर सपा किसी मुसलमान को टिकट देगी, इसकी सभावना है। आरोप यह भी है कि राज्य सरकार सहायता और विकास जैसे मामलों में धर्म जाति के नाम पर भेदभाव कर रही है। मुस्लिम लड़कियों को एकमुश्त रकम देने की सरकार ने घोषणा की है जबकि अन्य अल्पसंख्यक वर्ग और हिन्दुओं की लड़कियों को इसमें शामिल नहीं किया गया। मुख्य सचिव जावेद उस्मानी वित्तीय प्रबंधन के विशेषज्ञ समझे जाते हैं। इसी तरह हाई स्कूल पास और शादी योग्य मुस्लिम लड़कियों की अनुमानित संख्या पूरे प्रदेश में लगभग 50 लाख होगी। प्रति बच्ची 30 हजार के हिसाब से यह खर्च लगभग 1500 करोड़ के आसपास होगा। इस तरह सरकार को एक वर्ष में इन सभी मदों पर खर्च के लिए लगभग 6180 करोड़ रूपए का इंतजाम करना पड़ेगा और अगर सरकार के पूरे कार्यकाल के मद्देनजर देखें तो उसे लगभग 309 अरब रूपए इन वायदों को पूरा करने के लिए जुटाने पड़ेंगे। वैसे अखिलेश का यह कहना गलत नहीं है कि जब पत्थरों पर खर्च करने के लिए सरकार हजारों करोड़ जुटा सकती है, तो रचनात्मक और जनहित के कामों पर खर्च करने के लिए धन आखिर क्यों नहीं उपलब्ध होगा। एक और विवादित कदम के तहत सरकार ने आतंकी घटनाओं और आतंकी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में जेलों में बंद बेगुनाह मुस्लिम आरोपियों को छुड़ाने की पहल शुरू की है। सपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में आतंकवाद के नाम पर जेलों में बंद मुस्लिम नौजवानों को रिहा करने की घोषणा अपने चुनावी घोषणापत्र में की थी। गौरतलब है कि 2007 में फैजाबाद, लखनऊ, वाराणसी में हुए बम धमाके, गंगाघाट और संकटमोचन मंदिर वाराणसी, छाया टाकीज गोरखपुर में विस्फोट तथा अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि और रामपुर सीआरपीएफ मुख्यालय पर आतंकी हमले हो चुके हैं। इन धमाकों के बाद पुलिस और एटीएस ने कई संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार किया था। मामला इतना बढ़ा था, यूपी में आकर गैर राज्यों की एटीएस और खुफिया पुलिस अपने यहां हुए बड़े अपराधों से जुड़े लोगों को यहां से गिरफ्तार कर चुकी है। इस संदर्भ में प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों और जेल अधिक्षकों से सूची मांगी गई है। सूची आने के बाद आगे की कार्रवाई शुरू की जाएगी। विपक्षी दल कहते हैं कि राज्य सरकार का यह कदम काफी खतरनाक है। जिन लोगों को रिहा कराने की बात सरकार कर रही है उनके पास से डेटोनेटर और विस्फोटक बरामद किए गए थे और उनके ऊपर हूजी, सिमी, लश्करे-ए-तैय्यबा और आईएसआई जैसे संगठन से जुड़े होने का आरोप है। सन 2007 में बसपा की सरकार में यूपी की कचहरियों लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद में हुए धमाकों के आरोप में आजमगढ़ से तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद को यूपी एसटीएफ ने आपराधिक शैली में अपहरण किया जिसके तमाम गवाह मौजूद हैं। ऐसे में सरकार के कदम के आलोचकों की बातों में दम नजर आता है।

Sunday, April 15, 2012

'अफगान डिप्लोमेसी' का इम्तिहान

अफगानिस्तान फिर शिकार हुआ है। पाकिस्तान से पले-बढ़े आतंकवाद पर अमेरिका के प्रहार ने रंग दिखाया है। कोशिश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान से ध्यान हटाने की है, बोरिया-बिस्तर बांधकर जाने को तैयार अमेरिका को इस तरह घेरने की है कि वह अपनी रणनीति को फेल होते न देख पाए और फिर से पाकिस्तान की शरण में जाकर अफगान डिप्लोमेसी को सफल बनाने के लिए मदद मांगने को मजबूर हो जाए। 15 अप्रैल 2012 को श्रृंखलाबद्ध हमलों से पूरा अफगानिस्तान बुरी तरह थर्रा गया। हमले तालिबान ने किए। तालिबान के बारे में कहा जाता है कि वह पाकिस्तान की कोख से पैदा संगठन है जिसका वित्त पोषण करने के साथ ही वह उसकी मुश्किलें आसान भी करता है। हाफिज सईद पर अमेरिका ने इनाम रखा और पाकिस्तान जिस तरह से उसे अमेरिका की कैद से बचाने में हदें लांघने लगा तो यह शक और पुख्ता हुआ। हाफिज तालिबान का मास्टरमाइंड माना जाता है, वह पीछे से उसकी मदद का पाकिस्तानी जरिया है। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर हमले के बाद बाद तालिबान फिर सिर उठाते हुए दिखाई पड़ रहा है। हमलों के पीछे तालिबान की मंशा यह जताने की थी कि वह अपनी इच्छा अनुसार किसी भी बख्तरबंद स्थान पर हमला करने मे सक्षम है। दहशत फैलाने का मकसद तो इसके साथ पूरा हो ही रहा था। अमेरिका पर दबाव बढ़ा है कि वह सिद्ध करे कि अफगान रणनीति में उसे कामयाबी मिली है। जिन इलाकों की सुरक्षा का वह दावा कर रहा है, वहां अब भी असंतोष है, लड़ाई चल रही है। पाकिस्तान आतंकवाद की गिरफ्त में है। तालिबान को उसके समर्थन की वजहें हैं। तालिबान वहां कट्टपंथियों का शासन चाहता है, अफगानिस्तान में मदद के बदले वह उससे अपने वतन में शांति मांग सकता है। नाटो की एक खुफिया रिपोर्ट सिद्ध कर ही चुकी है कि पाकिस्तानी सेना तालिबान की चोरी-छिपे मदद करती है। रिपोर्ट के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय टुकड़ियों के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान देश पर नियंत्रण करने को तैयार है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को तालिबान के वरिष्ठ नेताओं के ठिकानों और उनकी गतिविधियों के बारे में पता है। आईएसआई विदेशी सैनिकों पर हमलों में तालिबान की मदद कर रही है। नाटो का यह गोपनीय दस्तावेज 4000 से अधिक पकड़े गए तालिबान बंदियों, अल कायदा और दूसरे विदेशी लड़ाकों के साथ 27,000 पूछताछों पर आधारित है। हैरतअंगेज बात यह है कि वरिष्ठ तालिबान नेता नियमित रूप से आईएसआई एजेंटों से मिलते हैं जो उन्हें रणनीति पर सलाह देते हैं और पाकिस्तान सरकार की चिंताओं की जानकारी देते हैं। भारत के लिए यह दोहरी समस्या है। वह अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में मदद कर रहा है। हमलों से उस पर दबाव बनेगा कि अगर तालिबान का शासन दोबारा आता है तो उसकी यह सारी कवायद बेकार चली जाएगी। और अगर पाकिस्तान की भूमिका बढ़ती है तो यह उसके लिए मात होगी। पाकिस्तान के पूर्वी मोर्चे पर भारत के लिए एक साथ कई मुसीबतें खड़ी हो सकती हैं। तालिबान ऐसी चट्टान है जिसका कोई विभाजन नहीं है बल्कि तालिबान की अलग-अलग कई धड़े हैं जिनमें प्रतिस्पर्धा है। अफगानी समाज का कोई भी चेहरा आधुनिक राष्ट्र राज्य के निर्माण का हिस्सा नहीं रहा है। कबायली स्वभाव से बेहद खूंखार हैं। अलग-अलग इलाकों में कबायली और पख्तूनी सरदारों में प्रतिशोध की भावना हैं। हक्कानी और दूसरे गिरोह एक-दूसरे के खिलाफ खडे़ हैं। अलग-अलग इलाकों में मादक पदार्थों या हथियारों की तस्करी हो, यह गिरोह अपना वर्चस्व स्थापित करने में एक-दूसरे की मदद करते हैं। अलग-अलग देशों की खुफिया एजेसिंयों ने जियो और जीने दो की नीति लेकर इनके साथ समझौता भी किया हुआ है। तालिबान ने धमक इसलिये भी दिखाई है कि वह आम जनता की नजर में इन खूंखार सरदारों से बेहतर है।

Saturday, April 7, 2012

'ट्रेनिंग टूर' पर पाक के भावी पीएम

पाकिस्तानी पॉलीटिक्स का नया पन्ना इस बार वही दिल्ली लिखने को तैयार है जो इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द साबित की जाती रही है। राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के पुत्र बिलावल भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सत्तारूढ़ गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी से मुलाकात करने जा रहे हैं। अपने-अपने देश में बिलावल और राहुल को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाता है। पिता के साथ भारत दौरा बिलावल की राजनीतिक पारी का रिहर्सल है। 24 वर्षीय बिलावल का नाम भारतीय प्रधानमंत्री आवास पर 8 अप्रैल को होने वाले भोज के अतिथियों की सूची में दर्ज है। उम्मीद जताई जा रही है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी उपस्थित रहेंगे और दोनों युवा नेता आपस में बातचीत करेंगे। इस्लामाबाद और नई दिल्ली के बीच कटुता किस स्तर तक है, यह बताने की जरूरत नहीं। भारत में नई दिल्ली स्थित 10, जनपथ और पाकिस्तान के इस्लामाबाद में राष्ट्रपति भवन सत्ता के केंद्र हैं। दस जनपथ भारत में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की प्रमुख पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी का आवास है तो पाक राष्ट्रपति भवन जरदारी का। सोनिया और जरदारी दोनों ने ही अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी तय कर लिये हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि राहुल सक्रिय राजनीति करने लगे हैं और बिलावल नाममात्र के लिए सत्तारूढ़ पाकिस्तानी पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष हैं। आक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के रंगीन मिजाज छात्र रह चुके बिलावल की पाकिस्तानी सियासत में सक्रियता बढ़ रही है। राजनयिक प्रेक्षकों के मुताबिक, बिलावल को 2013 के संसदीय चुनाव के लिए तैयार किया जा रहा है। बेनजीर और उनके पिता पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के नाम को भुनाने के लिए पार्टी बिलावल को राजनीतिक मोर्चे पर लाने की योजना को अंजाम दे रही है। बेनजीर की हत्या के बाद बिलावल को 30 दिसंबर 2007 को पीपीपी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। पिछले वर्ष से बिलावल पाकिस्तान की राजनीति में सक्रिय हैं। पिछले दिनों राष्ट्रपति जरदारी के अस्पताल में भर्ती होने के साथ ही बिलावल को पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पार्टी पीपीपी की ओर से अहम बैठकों में बुलाया जाना इस बात का संकेत है कि बिलावल को प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी के भावी प्रत्याशी के तौर पर तैयार किया जा रहा है। प्रधानमंत्री गिलानी कह ही चुके हैं कि बिलावल पाक के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं। प्रधानमंत्री गिलानी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की संसदीय समिति के चेयरमैन रजा रब्बानी जिस तरह से उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा हालात से अवगत करा रहे हैं, उससे पार्टी की इस रणनीति की पुष्टि हुई है। जरदारी के कार्यालय में बिलावल का एक दफ्तर जल्द खुलने की चचार्एं सियासी गलियारों में तेजी से चल रही हैं। हालांकि बिलावल सितंबर 2013 में 25 साल की उम्र हासिल करने के बाद ही पाकिस्तानी असेंबली के लिए चुनाव लड़ सकेंगे, इसलिए तब तक उनके प्रधानमंत्री बनने का सवाल नहीं उठता। पाकिस्तानी असेंबली के चुनाव 2013 में ही तय हैं, माना जा रहा है कि तब तक बिलावल को पीएम के प्रत्याशी के तौर पर एक पूर्ण राजनेता के रूप में ढाला जा सकेगा। सेना की ओर से पूर्व क्रिकेटर और तहरीक- ए -इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान को कठपुतली प्रधानमंत्री के तौर पर आगे बढ़ाने की कोशिशों के बाद बिलावल को एक आपात योजना के तहत आगे लाया गया। इमरान पाक में तालिबान खान के नाम से जाने जाते हैं और तालिबान के प्रति उनकी सहानुभूति जगजाहिर है। चूंकि उनकी छवि एक ईमानदार हस्ती की है इसलिए जनरल कयानी उनकी पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ाकर परदे के पीछे से पाक राजनीति पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने की चाल चल रहे हैं। बिलावल के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं। उन्हें खुद को जिम्मेदार और परंपराओं के साथ आधुनिक विचारों वाला साबित करना है हालांकि उन्होंने पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज भट्टी की हत्या की निंदा कर ऐसा करने की कोशिश की भी है।

Thursday, April 5, 2012

गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता की इंतिहा...

सेना के साथ यह क्या हो रहा है, पहले सेनाध्यक्ष का जन्मतिथि का विवाद उठा, फिर ट्रकों की आपूर्ति के आर्डर के एवज में रिश्वत की पेशकश सार्वजनिक हुई और अब तो इतना बड़ा बवंडर मचा है कि सेना की दो टुकड़ियां दिल्ली तक पहुंच गईं। मूवमेंट की खबर तो इस तरह से पेश किया गया कि जैसे दिल्ली का तख्ता पलटने की तैयारियां थीं। क्यों हो रहा है ये सब। सेना की छवि खराब करने की साजिश तो नहीं ये। सेना को अस्त्रों-शस्त्रों की आपूर्ति में खेल खेलने वाले तो देश के सम्मान से खिलवाड़ नहीं कर रहे और लोकतंत्र का अघोषित चौथा स्तंभ उसके हाथों में खिलौना तो नहीं बन रहा। डर बड़ा है और गैर-वाजिब नहीं। एक बार सेना की प्रतिष्ठा धूमिल हुई तो उसके बहुत नुकसान भुगतेंगे हम। सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने जब जन्मतिथि विवाद उठाया तो लगा कि एक जनरल अपने लिए लड़ रहा है। इसमें गलत कुछ भी नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा तब भी कुछ अऩियमित नहीं था, देश की अदालत अपने एक नागरिक के अधिकारों की बात सुन रही थीं। कोर्ट से राहत न मिलने के बाद जनरल इस मुद्दे पर तो शांत हो गए लेकिन सेना को ट्रकों की आपूर्ति करने वाली कंपनी के एजेंट की उन्हें रिश्वत की पेशकश को सार्वजनिक करके नई चर्चाएं छेड़ दीं। सेना में इस तरह के भ्रष्टाचार के मामले पहले भी उजागर हुए हैं। एक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल का नाम सामने आने से विवाद तूल पकड़ गया। पहली बात यह थी कि सेनाध्यक्ष के पास मामले में कार्रवाई के अधिकार थे, फिर यह बात उन्होंने कार्यकाल के अंतिम दिनों में ही क्यों उजागर की। दूसरी यह कि रक्षामंत्री ने चुप्पी क्यों साधे रखी। यहां भी बात बढ़ गई क्योंकि रक्षामंत्री एके एंटनी बेदाग करियर वाले राजनेता माने जाते हैं और देश के राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस उनके नाम पर विचार कर रही थी। विवादों का इतना बड़ा तूफान उठा कि कुछ ऐसे तत्व भी सक्रिय होने लगे जिनका लक्ष्य कुछ और है। जनरल का कमजोर होना सेना के मनोबल पर असर डालता है। रक्षामंत्री ढुलमुल हैं तो सियासत में उनके विरोधियों के लिए यह फायदा उठाने वाली बात है। सैनिकों का मनोबल गिरना और जनरल के मुंह से निकली बात से यह सिद्ध हो जाना कि सेना के पास अधिकारों की कमी है, पाकिस्तान और चीन जैसे दुश्मनों के लिए बेहद राहत भरी बात है। हम सिर्फ इसलिये चैन की सांस ले सकते हैं कि पाकिस्तान अपने भीतरी झंझटों में फंसा है। चीन में भी इसी वक्त तख्ता पलट की योजना की अटकलें लग रही हैं, इंटरनेट पर शिकंजा कसा गया है यानि चीन भी चैन में नहीं है। सोने पर सुहागा अमेरिका की आतंकी हाफिज सईद पर इनाम की घोषणा से हो गया, पाकिस्तान के समक्ष इससे नई मुश्किल जो पैदा हो गई। ये पड़ोसी तो तमाम और मुश्किलों में भी फंसा हुआ है। प्रधानमंत्री गिलानी कोर्ट की अवमानना के मामले से परेशान हैं और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के समक्ष सेना आए दिन मुश्किलें खड़ी करती रहती है। लेकिन नई खबर ज्यादा दुखदेय है। हालांकि सरकार को बताए बिना सैनिक टुकड़ियों के दिल्ली कूच करने की रिपोर्ट को सेना और सरकार ने एक सुर में खारिज कर दिया है, जनरल सिंह इसे बेहद मूर्खतापूर्ण बता रहे हैं लेकिन बात खत्म नहीं हो पा रही। इसे एक नजर में खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि यह देश में ताकतवर जगहों पर बैठे खतरनाक तत्वों की साजिश भर है। यह तत्व अब देश की सेना के सम्मान से खेल रहे हैं। फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर इसे काफी शेयर किया जा रहा है। मीडिया ने कैसे यह लिख दिया कि असंतुष्ट आर्मी चीफ ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए सेना की टुकड़ियों को दिल्ली की ओर कूच कराया था। क्या सेना प्रमुख नहीं जानते थे कि 26 जनवरी के मद्देनजर देश की राजधानी में सेना की तमाम टुकड़ियां पहले से हैं। हिसार और आगरा की टुकड़ियां हिंडन या पालम पहुंच रही थीं और यह दोनों ही स्थान सत्ता के सभी प्रमुख केंद्रों के पास नहीं हैं। टुकड़ियां रक्षा सचिव के सक्रिय होने से पहले ही रुक गई थीं, न कि किसी राजा की सेना की तरह विरोधी राजा के दुर्ग के रास्ते में थीं। और तो और... हमारे देश का सत्ता प्रतिष्ठान किसी एक व्यक्ति में निहित नहीं है यानि तख्ता पलट कह देने भर से नहीं हो सकता। जो भी देशप्रेमी है, वह इस खबर से खुश नहीं हो सकता। यह तत्व रक्षा संस्थानों और सरकार के बीच अविश्वास को गहरी खाई में तब्दील करना चाहते हैं। एक ऐसे देश में जहां रक्षा प्रतिष्ठानों पर नागरिकों की चुनी सरकार की सत्ता सुप्रीम है, यह खेल खेला ही नहीं जा सकता। मीडिया इतना गैरजिम्मेदाराना कैसे हो सकता है कि इतने संवेदनशील मुद्दे को इस तरह पेश करे जैसे यह बहुत असामान्य हो। आर्मी और सरकार के बीच विवाद ऐसे स्तर पर पहुंच गया हो, जहां कोई हल मुमकिन नहीं और आर्मी लगभग तख्तापलट के लिए डरा रही है। यह चिंता का विषय है कि क्यों राष्ट्रविरोधी तत्वों ने एक रूटीन अभ्यास को इस तरह पेश किया? दरअसल, अयोग्य सिविल अधिकारियों के लिए यही चिंता का मूल कारण होना चाहिए। सरकार सचमुच गंभीर है तो पूरे प्रकरण को सनसनीखेज बनाने के जिम्मेदार शरारती तत्वों से निपटना उसकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। एक और जो दुर्भाग्यपूर्ण बात सामने आई है जिसमें यह दावा किया जा रहा है कि इस पूरे प्रकरण के पीछे केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री है जो अपने नजदीकी रिश्तेदार के जरिए रक्षा से जुड़े सामानों की खरीद-फरोख्त करने वाली लॉबी से जुड़े हैं। ब्रिटिश अखबार 'द संडे गार्जियन' ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि मंत्री को लगा कि तख्तापलट की आशंका से राजनीतिक बिरादरी आर्मी चीफ के खिलाफ हो जाएगी। उन्हें लगा कि आर्मी चीफ से तनावपूर्ण रिश्ते को देखते हुए प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री खबर पर टिप्पणी नहीं करेंगे और जनरल के विरुद्ध माहौल ज्यादा गर्मा जाएगा परंतु दोनों नेताओं के साथ ही विपक्ष का भी मैदान में आ जाना, उनके लिए झटका साबित हुआ है। हाल के घटनाक्रमों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि हथियारों के सौदागरों का जाल काफी फैला हुआ है। बात भ्रष्टाचार से आगे बढ़ रही है। राष्ट्रभक्त और कर्तव्यनिष्ठ सेना के बारे में बोला जाना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा।