Sunday, August 31, 2014

ताकती न रह जाए काशी...

बनारस की कला का दुनिया में डंका है, और कलाकारों का सबसे प्रिय विषय गंगा है। कोई उसे अपनी बदहाली पर रोता दिखाता है तो पौराणिक महत्व को इंगित करता है। रंगों की इस दुनिया में गंगा बिकती है। काशी 24 घंटे जीती है, उल्लास से भरी है, अपने जीवंत लोगों से उसमें हर पल जिंदगी दौड़ती है। किसी और शहर से उलट इस शहर के तमाम हृदयस्थल हैं, गलियां हों या गंगा के घाट या ढेरों मोहल्ले, सब जीना सिखाते हैं। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के नाम से चर्चित हरिश्चंद्र घाट पर जाइये तो वो देखेंगे जो सिर्फ इसी शहर में हो सकता है, कि श्मशान पर भी लोग शाम काटने पहुंच जाया करते हैं। कहते हैं कि काशी में मरने पर मोक्ष मिलता है, इसीलिये जीवन के अंतिम दिन काटने के लिए पहुंचने वालों की संख्या भी यहां अच्छी-खासी होती है। हम यह भी नहीं भूल सकते कि नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी इकाइयां प्रदेश सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। दिल्ली से आया पैसा फिर कहीं जेबों में न पहुंच जाए और काशी ताकती रह जाए, कलियुग है ये।
वाराणसी यूं तो हर दिल में है, सदियों से चर्चा का विषय है। नरेंद्र मोदी ने चुनाव लड़ा तो काशी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छा गई। मोदी जीते और अब देश के पीएम हैं, सो कर्ज उन्हें उतारना है और वो उपक्रम शुरू कर चुके हैं। जापानी शहर क्योटो की तर्ज पर उन्होंने ऐतिहासिक शहर के कायाकल्प की तैयारी की है। मैंने भी कई दफा अपने भीतर काशी को जीया है, महसूस किया है। मेरे जैसे तमाम होंगे जिनकी नजर में काशी जैसा दूसरा शहर कोई नहीं। काशी की ही तरह आध्यात्मिक शहर क्योटो ने निस्संदेह उन्नति की है, बुलेट ट्रेन से लेकर कोई अत्याधुनिक सुविधा ऐसी नहीं जो इस शहर को हासिल न हो। काशी की ही तरह क्योटो भी आध्यात्मिक शहर है, यहां कई प्राचीन विशाल मंदिर हैं, यह जापान में बौद्ध धर्म का केंद्र है और अहमियत इतनी है कि यह 11वीं शताब्दी में यह जापान की राजधानी रहा है। जापान को काशी की विरासत के संरक्षण, आधुनिकीकरण, कला, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करना है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में काशी की मूल छवि को क्षति पहुंचने की भी खासी आशंकाएं हैं क्योंकि काशी और क्योटो में कई अंतर हैं जो तस्वीर के बदलने में बाधक हो सकते हैं। काशी गंगा का शहर है लेकिन बाढ़ उसे बरसात के मौसम में हर साल डराती है। गंगाजल नदी की सीमा लांघकर सामनेघाट के आसपास के बड़े भूभाग को चपेट में ले लेता है, यही नजारे शहर में अन्य तमाम स्थानों पर भी आम होते हैं। बरसाती जल की निकासी के भी पुख्ता इंतजामात नहीं हैं क्योटा इससे उलट पर्वतीय तलहटी में है और वहां इस तरह की कोई समस्या नहीं है। क्योटो का विस्तार अनियमित नहीं जबकि काशी ने बेतरतीब ढंग से विस्तार पाया है। शहर अपनी आबादी का बोझ तो सह ही रहा है, बिहार जैसे निर्धन पड़ोसी राज्य से भी यहां अच्छी-खासी संख्या में लोगों का पलायन हुआ है। नतीजतन, गंगा के डूब क्षेत्र में भी अनाधिकृत कॉलोनियां बसा ली गई हैं।
क्योटो में पुरातन इमारतों और आध्यात्मिक स्थलों का बखूबी संरक्षण हुआ है लेकिन काशी में संरक्षण तो दूर, यह स्थल अवैध कब्जों की मार बर्दाश्त कर रहे हैं। गंगा घाट भी अतिक्रमण के चलते अपना पुरातन स्वरूप खो रहे हैं। जापान ने न केवल पुराना क्योटो संरक्षित किया बल्कि नया शहर भी बसाया जो स्मार्ट सिटी की सारी खूबियों से भरपूर है। बनारस में यह असंभव नजर आता है क्योंकि योजनाबद्ध विकास के तहत अगर नया शहर बसाने की कोशिश की जाएगी तो निवेश जुटा पाना मुश्किल होगा। अवैध कब्जे करने वालों से यदि हम नियमित रूप से अत्याधुनिक सुविधा युक्त महंगे आवास खरीदने की बात करेंगे तो यह हास्यास्पद ही कहलाएगा। क्योटो में समृद्ध जापानी फिल्म उद्योग है, सूचना प्रौद्योगिकी की इकाइयां हैं। दूसरी तरफ काशी में भोजपुरी फिल्मों के दर्शक तो बहुत हैं लेकिन उद्योग यहां विकसित नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी हब उस उत्तर प्रदेश सरकार को विकसित करना होगा जो अपनी राजधानी लखनऊ और ताजनगरी आगरा में तमाम प्रयासों में मुंह की खा चुकी है। उसके आमंत्रणों पर कंपनियां आती तो हैं लेकिन इकाई स्थापना की बात आते ही कन्नी काट जाती हैं। हां, क्योटो की तरह कला का केंद्र बनारस भी है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने देश को कई नामी-गिरामी कलाकार दिए हैं, घाटों पर जाकर देखिए तो पाएंगे कि कला का यहां माहौल भी है। जापानी शहर की तरह यहां पर्यटकों की भी अच्छी-खासी आवाजाही है। काशी विश्वनाथ, संकटमोचक हनुमान मंदिर, काल भैरव, संत रविदास मठ समेत तमाम धार्मिक स्थल हैं जो हर साल लाखों पर्यटकों के बनारस आने का जरिया बनते हैं। यह भी तय है कि क्योटो की तर्ज पर विकास के बाद पर्यटकों की संख्या में और भी वृद्धि हो जाएगी। एक प्लस प्वाइंट यह भी है कि यहां अपना बाबतपुर हवाई अड्डा है और ट्रेन कनेक्टिविटी भी अच्छी-खासी है। पास ही स्थित मुगलसराय देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है। क्योटो की कामयाबी में एक पन्ना इसी ट्रेन नेटवर्क कनेक्टिविटी के कारण जुड़ा है।
लेकिन बनारस की तस्वीर-तकदीर बदलने की बातों के दौरान हम यह नहीं भूल सकते कि उत्तर प्रदेश सरकार के बगैर किसी भी सपने के साकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शहर उन्नत तब होगा जब 24 घंटे अबाध विद्युत आपूर्ति मयस्सर हो जाएगी और यह जिम्मा प्रदेश सरकार को उठाना है। मोदी के सांसद बनने के बाद से यह शहर विद्युत वितरण में जबर्दस्त सौतेलापन सहन कर रहा है। लेकिन राजनीतिक मतभेद से इतर, हम यह भी नहीं भूल सकते कि राज्य में बिजली का संकट भी कम नहीं। नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी तमाम इकाइयां भी सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। ऐसे में डर यह रहेगा कि दिल्ली से आया पैसा कहीं शासन-सत्ता और स्थानीय अफसरों के गठजोड़ की जेब में न चला जाए। हम पुरानी योजनाओं की समीक्षा किए बगैर हम कैसे नई योजनाओं से अपेक्षाएं लगा सकते हैं। अब जापान की ही बात करें तो उसके सहयोग से यमुना शुद्धिकरण योजना प्रारंभ हुई थी पर स्थितियां बदली नहीं, नदी पर अब भी प्रदूषण की मार है बल्कि पहले से अधिक है। जापान सहयोग कर सकता है, रोडमैप बनाकर तकनीक दे सकता है। लेकिन तमाम बिंदु और भी हैं जिनकी अनदेखी सपने के साकार होने में बाधक बन सकती है।

Saturday, August 23, 2014

कामयाबी के नए एपिसोड

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़ी ताकत कहलाकर खुद को गौरवान्वित करने वाले भारत का यह दूसरा चेहरा है, जो उसे रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेक्टर की महाशक्तियों में एक सिद्ध कर रहा है। हम बहुत आगे हैं और हमारे साथ सफर शुरू करने वाले ब्राजील, स्वीडन जैसे देश पीछे छूट रहे हैं। कॉल सेंटर या छोटे स्तर के प्रोजेक्ट चलाने वालीं भारतीय कम्पनियां उच्चस्तरीय गुणवत्ता  की उपलब्धियां हासिल कर रही हैं। सेमी कंडक्टर डिजाइन, विमानन, वाहन उद्योग, नेटवर्क और चिकित्सा उपकरण क्षेत्र की भारतीय कम्पनियां दुनिया में ब्रांड बनी हैं। यही वजह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुद के रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर बनाने का फैसला करना पड़ा है। कामयाबी की कहानियां यहीं तक नहीं हैं, कंज्यूमर इलेक्ट्रानिक उपकरणों के चर्चित ब्रांड पाम-प्री स्मार्टफोन और अमेजॉन किंडल के भीतर भारत में डिजाइन किए गए कलपुर्जे लग रहे हैं। इंटेल ने अपना भारत में डिजाइन किया है। 
टेक्नोलॉजी वर्ल्ड में भारत जाना-पहचाना नाम है। यह वो देश है जिससे प्रतिस्पर्धी विदेशी कम्पनियां डर रही हैं। चीन जहां कम कीमत के उत्पादों से बाजार पर काबिज होने के प्रयास में है, भारत टिकाऊपन में उसे टक्कर दे रहा है। भारत की बढ़ती हैसियत का नतीजा है कि आईबीएम जैसी कम्पनी ने यहां एक लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया, जो उसके लिए सर्वाधिक परिष्कृत उपकरण तैयार किया करते हैं। मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्मार्ट सिटी के लिए सिस्को आधुनिकतम तथा पूर्ण कारगर नेटर्वकिंग प्रौद्योगिकी विकसित कर चुकी है। एडोब, कैडेंस, आॅरेकल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी ज्यादातर बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनियां मुख्यधारा के उत्पादों का निर्माण कर रही हैं, वहीं कभी फिलिप्स का अंग रही एनएक्सपी हार्डवेयर बाजार में बड़ा नाम है। इसके अतिरिक्त, बहुराष्ट्रीय भारतीय कम्पनियों का वैश्विक बाजारों की ओर बढ़ना भी समान रूप से खासा मायने रखता है, जैसे टाटा की सस्ती नैनो कार यूरोप में प्रवेश कर चुकी है और रेवा न्यूयॉर्क में कारखाना शुरू करने वाली है ताकि अमेरिकी बाजार को बिजली से चलने वाली कारों की आपूर्ति हो सके। कुछ कमियां भी हैं, हम अमेरिका की सिलिकॉन वैली की तरह शुरुआती तौर पर उद्यमशील नहीं हैं। इस मामले में चीन भी हमसे काफी आगे है, जहां कई नए सिरे से शुरू होने वाले उद्यम (स्टार्ट-अप कम्पनियां) सरकार से मिलने वाली ढेर सारी रियायतों का भरपूर लाभ उठा रही हैं। हालांकि स्थितियां बदल रही हैं। देशकी कई स्टार्ट अप यूनिट्स स्मार्ट हैं और उनमें बहुत-कुछ पाने की भूख है। ऐसी कई कम्पनियां सिलीकॉन वैली स्थित अपने कारोबारी सहयोगियों से भी अच्छा कामकाज कर रही हैं। यह इकाइयां बेशक, बड़ी उपलब्धियां हासिल नहीं कर रहीं किंतु ज्यादातर उन समस्याओं को सुलझाने में सफल रही हैं जिन्हें अब तक अमेरिकी कम्पनियां तक सुलझा नहीं पाई हैं। इन्हीं में से एकनेचुरा कम्पनी वनस्पति तेल से आॅफसेट प्रिंटर इंक बना रही है जो पूरी तरह वातावरण में घुलनशील (बायो डिग्रेडेबल) है। आॅफसेट प्रिंटिंग उद्योग हर साल 10 लाख टन पेट्रोलियम उत्पादों का दोहन करते हुए पांच लाख टन कार्बनिक यौगिकों का धुआं छोड़ता है।
आईआईटी दिल्ली से पोषित यह कम्पनी ऐसी स्याही बना रही है जो किसी भी प्रकार का वाष्पशील कार्बनिक यौगिक उत्सर्जित नहीं करती, इस स्याही को आसानी से धोया जा सकता है। बड़े पैमाने पर उत्पादन से इस स्याही की उत्पादन लागत बहुत कम हो जाती है। भविष्य की बात करें तो यह कम्पनी भविष्य में करोड़ों डॉलर के वैश्विक कारोबार में सफल होगी। आउट-आॅफ-होम विज्ञापन कम्पनी लाइवमीडिया ने करीब पांच करोड़ लोगों को देखने के लिए 2200 जगहों पर 4500 विज्ञापन स्क्रीन्स लगाए हैं। अमेरिकी तर्ज पर चलने वाली यह स्क्रीन्स दरअसल, एक दुर्लभ कारनामा हैं। ऐसे किसी नेटवर्क के जरिए पैसा कमाना मुश्किल है लेकिन इस गुत्थी को सुलझाते हुए कम्पनी ने रोचक वीडियो कंटेंट बनाए हैं जो सीएनएन की खबरों या डिज्नी चैनल के मनोरंजक कार्यक्रमों से बेहतर हैं। कम्पनी इन स्क्रीन्स पर लोगों को गेम्स, क्विज, वर्ग पहेली और एनिमेशन फिल्में दिखाती है। लाइवमीडिया ने इस काम में महारथ हासिल कर ली है। बेल लैब्स ने एक कंटेंट मैनेजमेंट एंड राइटिंग सिस्टम तैयार किया है जिसके जरिए वह मोबाइल फोन ग्राहकों को अच्छी गुणवत्ता के वीडियो और इंटरेक्टिव कंटेंट को मौजूदा नेटवर्क पर उपलब्ध कराती है। इसी तरह की बड़ी सफलताओं की वजह से कई अमेरिकी वेंचर कैपिटल कम्पनियों को भारत में अपनी शाखाएं खोलनी पड़ी हैं। लेकिन कम्पनियां भारत की अपनी वेंचर कैपिटल कम्पनियों की कमी के कारण इस क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर गतिविधियां नहीं कर पा रही हैं। यदि इन कम्पनियों की उपस्थिति हो जाए तो स्टार्ट-अप्स कम्पनियां बड़ी आसानी से सिलीकॉन वैली में प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं।  एक अच्छा संकेत और भी है। नई कम्पनियों के संस्थापक आम तौर पर ऊंची रैंक और अधेड़ उम्र के अनुभवी एक्जीक्यूटिव्स हैं जो बहुत बूढ़ा होने से पहले कुछ असरदार काम कर दिखाने की चाहत के साथ ही खासा पैसा भी कमाने की इच्छा के साथ मैदान में उतरे हैं। यहां हजारों की तादाद में आरएंडडी वर्कर हैं जो खासा कीमती अनुभव हासिल कर रहे हैं। यह भी चौंकाने वाली बात है कि अमेरिकी स्टार्ट अप्स की तुलना में भारतीय स्टार्ट अप्स का यह परिदृश्य बहुत कम समय में अस्तित्व में आया है। ऐसे हालात में जरूरत सरकारी प्रोत्साहन की है, इन कम्पनियों की नजरें भारत की नई सरकार पर टिकी हुई हैं।

Friday, August 1, 2014

हवाओं के खिलाफ जंग

सिविल सेवा परीक्षा हंगामे का सबब है। देश की इस सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में हुए बदलाव के विरुद्ध आंदोलन का दौर जारी है।विरोध परीक्षा पैटर्न के बदलाव का है, यह कहकर कि हिंदी भाषी छात्र-छात्राओं का चयन मुश्किल हो गया है और अब अंग्रेजी का दबदबा है। दलील दी जा रही है कि सिविल सेवा परीक्षा के इस बार के अंतिम नतीजे में महज दो-तीन फीसदी गैर-अंग्रेजी भाषी छात्र पास हो पाए। बदलाव की हिमायत भी हुई है, समर्थकों का कहना है कि प्रशासन में अंग्रेजी का प्रयोग अहम है, और देश-दुनिया में अंग्रेजी का जितना उपयोग बढ़ा है, उससे बच पाना कतई संभव नहीं। यह रोशनी से भागने का यत्न है। वर्ष 2011 में सिविल सेवा परीक्षा के दोनों स्तरों प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा के प्रारूप में बदलाव किया गया। इसके तहत प्रारंभिक परीक्षा में सभी अभ्यर्थियों को दो पेपर देने हैं, एक सामान्य अध्ययन और दूसरा है सीसैट यानि सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट। सीसैट फिलहाल विवाद की जड़ में है। छात्रों का कहना है कि नए बदलाव से प्रारंभिक परीक्षा में ही उन्हें बाहर करने की साजिश की गई है। असल में, दूसरा पेपर रखा ही इसलिये गया था कि परीक्षा केवल रट लेने वालों की कामयाबी का रास्ता बन गई थी। इसके जरिए ये जानने की कोशिश की गई कि अभ्यर्थी कितनी जल्दी, कितना सही और कितने अच्छे तरीके से निर्णय ले सकता है जो एक प्रशासनिक अफसर के लिए आवश्यक गुण हैं। तय है कि इसका असर हुआ और तमाम वो छात्र सफलता से वंचित होने लगे जो महज रटे-रटाए उत्तरों के जरिए परीक्षा भेद लेते थे। एक समस्या और है। छात्रों की शिकायत है कि परीक्षा के हिंदी प्रश्नपत्र में अंग्रेजी प्रश्नपत्र का गूगल से अनुवाद कर दिया जाता है जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और वह सही उत्तर देने पर भी फेल हो जाते हैं। जहां तक अंग्रेजी को हटाने की मांग है, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। आज के वक्त में अंग्रेजी के बगैर किसी प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक कर पाना नितांत असंभव है। हम कैसे ऐसे अफसर पैदा कर सकते हैं जो बदलते जमाने के साथ कदमताल करने वाला न हो, जिसे त्वरित और उचित निर्णय लेने की समझ न हो। प्राथमिक शिक्षा के माध्यम पर आए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को याद कीजिए, जिसमें कहा गया था कि अंग्रेजी भी शिक्षा का अनिवार्य अंग होनी चाहिये। आज के समय में अंग्रेजी की महत्ता की अनदेखी नहीं की जा सकती है। मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार के लिए दर दर की ठोकरें खाने से अच्छा है कि उस भाषा में शिक्षा प्रदान की जाए जो आगे चलकर छात्रों को रोजगार प्रदान कराने में सहायता प्रदान करे। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट तौर पर स्कूली शिक्षा के माध्यम को तय करने का अधिकार स्कूलों को देते हुए कहा कि राज्य सरकारें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। सरकारें भाषाई अल्पसंख्यक शिक्षक संस्थानों में क्षेत्रीय भाषाओं को थोप नहीं सकतीं। यह फैसला 90 के दशक में कर्नाटक सरकार के स्तर से पहली से चौथी कक्षा तक की शिक्षा का जरिया अनिवार्य रूप से मातृभाषा कन्नड़ किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका के संदर्भ में था। कर्नाटक में स्कूलों की मान्यता प्राप्त करने के लिए मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य शर्त बना दी गई थी। इसके साथ ही उन स्कूलों की मान्यता रद्द की गई जो ऐसा नहीं करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की, छात्रों पर उनकी मातृभाषा थोपना गलत है। बच्चे किस माध्यम में पढ़ेंगे, यह फैसला अभिभावकों पर छोड़ दिया जाए और इसमें राज्य दखलंदाजी न करे। बेशक, वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन चुकी है और मातृभाषा में शिक्षा या प्रतियोगी परीक्षाओं में उसे महत्व देने की अनिवार्यता कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। हमें आधुनिक विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है तो अंग्रेजी का विरोध छोड़ना होगा। हमें तरक्की हासिल करनी है तो यह अंग्रेजी को दरकिनार करने से नहीं होगी। राजनीतिज्ञों के एक समूह ने जिस तरह से सिविल सेवा परीक्षा को लेकर आंदोलनरत छात्रों का समर्थन किया है, उससे लगता है कि सियासी दखलंदाजी परीक्षा पैटर्न में बदलाव के लिए दबाव बना रही है। यह बदकिस्मती ही है कि देश का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी को विदेशी भाषा बताते हुए इसके प्रति आज के माहौल में भी पूर्वाग्रह से ग्रसित है। यह वर्ग अपनी भाषा को लेकर प्राय: भावुक रहता है और उसे अपनी जातीय अस्मिता से जोड़कर देखता है। कभी-कभी तो इसे वह राष्ट्रीय अस्मिता से खिलवाड़ भी बताने लगता है। हालांकि वह ये भी जानता हैं कि आज के समय मातृभाषा का अध्ययन भावनात्मक संतोष तो दे सकता है पर रोजी-रोजगार नहीं दिला सकता। राजनीतिक कारणों से इस तथ्य को सीधे-सीधे स्वीकार करने का साहस सियासी दलों और उसके लोगों में नहीं है। उनका यही संशय अक्सर कुछ राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों और सरकारी फैसलों में दिखता रहता है। हम दुनिया की तरफ देखें तो नजर आएगा कि चीन और जापान ने समय से कदमताल किया है। दोनों देश पहले अपनी भाषा को लेकर कुछ ज्यादा जज्बाती थे पर अब उन्हें अंग्रेजी की महत्ता समझ आ गई है। चीन में अंग्रेजी सीखने वालों की बढ़ती तादात इसका सटीक उदाहरण है। वहां के लोग भारत में व्यापार की संभावनाएं देखते हुए हिंदी सीखने से भी नहीं हिचक रहे। समय आ गया है कि भारत में भी मातृभाषा और विदेशी भाषा का भेदभाव समाप्त कर सस्ती और गुणवत्तापूर्ण अंग्रेजी शिक्षा सस्ती और सर्वसुलभ बनाई जाए। यह समय की मांग है। हम लंबे समय तक कूप मंडूक बनकर नहीं रह सकते।