Saturday, August 23, 2014

कामयाबी के नए एपिसोड

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़ी ताकत कहलाकर खुद को गौरवान्वित करने वाले भारत का यह दूसरा चेहरा है, जो उसे रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेक्टर की महाशक्तियों में एक सिद्ध कर रहा है। हम बहुत आगे हैं और हमारे साथ सफर शुरू करने वाले ब्राजील, स्वीडन जैसे देश पीछे छूट रहे हैं। कॉल सेंटर या छोटे स्तर के प्रोजेक्ट चलाने वालीं भारतीय कम्पनियां उच्चस्तरीय गुणवत्ता  की उपलब्धियां हासिल कर रही हैं। सेमी कंडक्टर डिजाइन, विमानन, वाहन उद्योग, नेटवर्क और चिकित्सा उपकरण क्षेत्र की भारतीय कम्पनियां दुनिया में ब्रांड बनी हैं। यही वजह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुद के रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर बनाने का फैसला करना पड़ा है। कामयाबी की कहानियां यहीं तक नहीं हैं, कंज्यूमर इलेक्ट्रानिक उपकरणों के चर्चित ब्रांड पाम-प्री स्मार्टफोन और अमेजॉन किंडल के भीतर भारत में डिजाइन किए गए कलपुर्जे लग रहे हैं। इंटेल ने अपना भारत में डिजाइन किया है। 
टेक्नोलॉजी वर्ल्ड में भारत जाना-पहचाना नाम है। यह वो देश है जिससे प्रतिस्पर्धी विदेशी कम्पनियां डर रही हैं। चीन जहां कम कीमत के उत्पादों से बाजार पर काबिज होने के प्रयास में है, भारत टिकाऊपन में उसे टक्कर दे रहा है। भारत की बढ़ती हैसियत का नतीजा है कि आईबीएम जैसी कम्पनी ने यहां एक लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया, जो उसके लिए सर्वाधिक परिष्कृत उपकरण तैयार किया करते हैं। मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्मार्ट सिटी के लिए सिस्को आधुनिकतम तथा पूर्ण कारगर नेटर्वकिंग प्रौद्योगिकी विकसित कर चुकी है। एडोब, कैडेंस, आॅरेकल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी ज्यादातर बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनियां मुख्यधारा के उत्पादों का निर्माण कर रही हैं, वहीं कभी फिलिप्स का अंग रही एनएक्सपी हार्डवेयर बाजार में बड़ा नाम है। इसके अतिरिक्त, बहुराष्ट्रीय भारतीय कम्पनियों का वैश्विक बाजारों की ओर बढ़ना भी समान रूप से खासा मायने रखता है, जैसे टाटा की सस्ती नैनो कार यूरोप में प्रवेश कर चुकी है और रेवा न्यूयॉर्क में कारखाना शुरू करने वाली है ताकि अमेरिकी बाजार को बिजली से चलने वाली कारों की आपूर्ति हो सके। कुछ कमियां भी हैं, हम अमेरिका की सिलिकॉन वैली की तरह शुरुआती तौर पर उद्यमशील नहीं हैं। इस मामले में चीन भी हमसे काफी आगे है, जहां कई नए सिरे से शुरू होने वाले उद्यम (स्टार्ट-अप कम्पनियां) सरकार से मिलने वाली ढेर सारी रियायतों का भरपूर लाभ उठा रही हैं। हालांकि स्थितियां बदल रही हैं। देशकी कई स्टार्ट अप यूनिट्स स्मार्ट हैं और उनमें बहुत-कुछ पाने की भूख है। ऐसी कई कम्पनियां सिलीकॉन वैली स्थित अपने कारोबारी सहयोगियों से भी अच्छा कामकाज कर रही हैं। यह इकाइयां बेशक, बड़ी उपलब्धियां हासिल नहीं कर रहीं किंतु ज्यादातर उन समस्याओं को सुलझाने में सफल रही हैं जिन्हें अब तक अमेरिकी कम्पनियां तक सुलझा नहीं पाई हैं। इन्हीं में से एकनेचुरा कम्पनी वनस्पति तेल से आॅफसेट प्रिंटर इंक बना रही है जो पूरी तरह वातावरण में घुलनशील (बायो डिग्रेडेबल) है। आॅफसेट प्रिंटिंग उद्योग हर साल 10 लाख टन पेट्रोलियम उत्पादों का दोहन करते हुए पांच लाख टन कार्बनिक यौगिकों का धुआं छोड़ता है।
आईआईटी दिल्ली से पोषित यह कम्पनी ऐसी स्याही बना रही है जो किसी भी प्रकार का वाष्पशील कार्बनिक यौगिक उत्सर्जित नहीं करती, इस स्याही को आसानी से धोया जा सकता है। बड़े पैमाने पर उत्पादन से इस स्याही की उत्पादन लागत बहुत कम हो जाती है। भविष्य की बात करें तो यह कम्पनी भविष्य में करोड़ों डॉलर के वैश्विक कारोबार में सफल होगी। आउट-आॅफ-होम विज्ञापन कम्पनी लाइवमीडिया ने करीब पांच करोड़ लोगों को देखने के लिए 2200 जगहों पर 4500 विज्ञापन स्क्रीन्स लगाए हैं। अमेरिकी तर्ज पर चलने वाली यह स्क्रीन्स दरअसल, एक दुर्लभ कारनामा हैं। ऐसे किसी नेटवर्क के जरिए पैसा कमाना मुश्किल है लेकिन इस गुत्थी को सुलझाते हुए कम्पनी ने रोचक वीडियो कंटेंट बनाए हैं जो सीएनएन की खबरों या डिज्नी चैनल के मनोरंजक कार्यक्रमों से बेहतर हैं। कम्पनी इन स्क्रीन्स पर लोगों को गेम्स, क्विज, वर्ग पहेली और एनिमेशन फिल्में दिखाती है। लाइवमीडिया ने इस काम में महारथ हासिल कर ली है। बेल लैब्स ने एक कंटेंट मैनेजमेंट एंड राइटिंग सिस्टम तैयार किया है जिसके जरिए वह मोबाइल फोन ग्राहकों को अच्छी गुणवत्ता के वीडियो और इंटरेक्टिव कंटेंट को मौजूदा नेटवर्क पर उपलब्ध कराती है। इसी तरह की बड़ी सफलताओं की वजह से कई अमेरिकी वेंचर कैपिटल कम्पनियों को भारत में अपनी शाखाएं खोलनी पड़ी हैं। लेकिन कम्पनियां भारत की अपनी वेंचर कैपिटल कम्पनियों की कमी के कारण इस क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर गतिविधियां नहीं कर पा रही हैं। यदि इन कम्पनियों की उपस्थिति हो जाए तो स्टार्ट-अप्स कम्पनियां बड़ी आसानी से सिलीकॉन वैली में प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं।  एक अच्छा संकेत और भी है। नई कम्पनियों के संस्थापक आम तौर पर ऊंची रैंक और अधेड़ उम्र के अनुभवी एक्जीक्यूटिव्स हैं जो बहुत बूढ़ा होने से पहले कुछ असरदार काम कर दिखाने की चाहत के साथ ही खासा पैसा भी कमाने की इच्छा के साथ मैदान में उतरे हैं। यहां हजारों की तादाद में आरएंडडी वर्कर हैं जो खासा कीमती अनुभव हासिल कर रहे हैं। यह भी चौंकाने वाली बात है कि अमेरिकी स्टार्ट अप्स की तुलना में भारतीय स्टार्ट अप्स का यह परिदृश्य बहुत कम समय में अस्तित्व में आया है। ऐसे हालात में जरूरत सरकारी प्रोत्साहन की है, इन कम्पनियों की नजरें भारत की नई सरकार पर टिकी हुई हैं।

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