Thursday, March 29, 2012

न्यायपालिका पर लगाम का मकसद...

केंद्र सरकार की मंशा क्या है? राजनेताओं के भ्रष्टाचार पर लगाम कस पाने में सक्षम लोकपाल से बचती है और न्यायपालिका पर चाबुक चलाने में जरा भी देरी नहीं लगाती। लोकसभा ने न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक पारित किया तो सबसे पहला सवाल यही उठा कि सरकार न्यायाधीशों को टिप्पणी करने से क्यों रोकना चाह रही है। यह सही है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का प्रवेश हुआ है, लेकिन फिर भी तमाम मौकों पर उसने पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका के स्तर से संविधान उल्लंघन रोका है, आम आदमी को न्याय प्रदान किया है। नए विधेयक में केस की सुनवाई के दौरान जजों को टिप्पणियां करने से रोकने का प्रावधान है। लेकिन यह कैसे संभव है और इसका तो बेहद खराब असर हो सकता है। सुनवाई के दौरान यह टिप्पणियां ही न्यायिक प्रणाली में निर्णय प्रक्रिया का एक हिस्सा होती हैं। इनके माध्यम से जज विचाराधीन प्रकरण के उस पहलू के छिपे हुए पहलू को ध्यान में लाते हैं। गुरुवार का ही उदाहरण लीजिए, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फांसी रोकने के लिए राज्य सरकार के प्रयासों पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की। इस टिप्पणी का असर होगा, निचली अदालतों को मार्गदर्शन मिलेगा और संबंधित पक्ष जान पाएंगे कि उनका रास्ता ठीक है या गलत। इस तरह की टिप्पणी नहीं होगी तो न्याय देने और लेने वाले यानि दोनों पक्षों को रास्ता कौन दिखाएगा। इस प्रावधान को जजों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह प्रावधान जज को मूक निर्णयकर्ता बना देगा। वकील जिरह करेंगे और जज उन्हें चुपचाप सुनता जाएगा और जिरह खत्म होने के बाद निर्णय देकर मामला समाप्त कर देगा। वकीलों को यह नहीं पता लगेगा कि जज ने उनकी दलीलों को कितना समझा है? जज के सवालों और टिप्पणियों से उन्हें यह आभास हो जाता है कि उन्हें आगे किस तरह से तर्क रखने चाहिए? हालांकि यह भी सही है कि ये टिप्पणियां निर्णय का भाग नहीं होतीं और न ही इनमें निर्देश निहित होता है लेकिन इनके मायने बड़े होते हैं। समाज से जुड़े मामलों पर जजों की प्रतिक्रिया जरूरी सिद्ध होती है। नए वकीलों को इनसे मार्गदर्शन मिलता है। आजादी के बाद से अब तक यदि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका ही सबसे बेहतर माना जाएगा। इसीलिये यह प्रतिबंध न तो मुकदमे की पार्टियों के लिए उचित माना जा रहा है, न ही व्यवस्था के लिए। विधेयक के पीछे वजह हैं। लोकपाल पर हीलाहवाली से जलालत झेल रही सरकार नहीं चाहती कि मुकदमों की सुनवाई करते हुए जज कोई ऐसी टिप्पणी करें, जिनसे उसकी स्थिति असहज हो। सरकार भारतीय खाद्य निगम के भण्डारों में लाखों टन अनाज के सड़ने पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार लगने के बाद से ही गंभीर होने लगी थी। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले ने उसे और चिंतित कर दिया। अदालतों की टिप्पणियां इतनी तीखी हुईं और अखबारों की सुर्खियां बन गईं कि सरकार को लगने लगा कि आम जनता में गलत संदेश रोकने के लिए विधेयक पारित होना चाहिये। हालांकि तस्वीर का दूसरा रुख भी है, जिसमें न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का घुन लगता नजर आ रहा है। सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन तक स्वीकार कर चुके हैं कि न्याय के मंदिरों में भ्रष्टाचार पहुंचा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के मामले में हम अब शीर्ष 200 देशों में हैं। समस्या यह है कि जिस तेजी से न्याय मिलना चाहिए, वह लोगों को नहीं मिल पाता। यहीं से भ्रष्टाचार की शुरूआत होती है। देश में आबादी के अनुसार न्यायालय नहीं हैं। अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कई करोड़ पहुंच चुकी है। देरी से बचने के लिए पैसा चलने लगा है। पैसा पहुंचते ही भ्रष्टाचार करने के अन्य रास्तों की तलाश होने लगी है, लोग न्याय खरीदने लगे हैं। अदालती मामलों के निपटारे में पांच साल लगाना तो सामान्य-सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो पाना, आम लोगों के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं। विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो भ्रष्टाचार अपनी जगह बनाएगा ही... सरकार को फैसले करने से पहले यह भी सोचना चाहिये। देश में मुकदमों की संख्या को देखते हुए यह सोचने का सही वक्त है कि न्यायालयों की संख्या कैसे जल्दी से जल्दी बढ़ाई जाए। यह सच है कि अचानक कुछ भी नहीं किया जा सकता पर आज देश की हर तहसील में प्राथमिक न्यायलय तो स्थापित किये ही जा सकते हैं। इनको स्थापित करने में जो खर्च सरकार का होगा वह कुल मुकदमों पर बोझ कम कर बहुत सारे मानव दिवसों की बचत करा देगा। देश के मानव संसाधनों को ठीक ढंग से उपयोग करना आज प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि जब तक हम अपने संसाधनों को सही दिशा में नहीं लगाएंगे तो कोई भी लक्ष्य नहीं सध पाएगा। जरूरत सही दिशा में सोचने की है, महज बला टालभर देने से काम नहीं चलने वाला।

Wednesday, March 28, 2012

जाग जाइये, ये खतरे की घंटी है...

यह देशद्रोह है जनरल, दुश्मन जाग गए तो क्या होगा?
... तो क्या हम सिर्फ सीमाओं पर बड़ी राशि सिर्फ इसलिये खर्च कर रहे हैं क्योंकि परंपरा है? खर्च नहीं करेंगे तो अन्य देश क्या कहेंगे? हजारों-लाखों करोड़ रुपये देने के बाद भी सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह यदि यह कहते हैं कि सेना के टैंकों का गोला-बारूद खत्म हो चुका है। हवाई सुरक्षा के 97 फीसदी उपकरण ताकत खो चुके हैं और पैदल सेना के पास हथियारों तक की कमी है तो क्या खाक कर रही है हमारी सरकार? पैसा कहीं राजनेताओं और अफसरों की जेबों में तो नहीं जा रहा? यह हमारे दुश्मन पाकिस्तान और चीन के लिए अच्छी खबर है और हम सदमे में हैं। सेना का एक अफसर सरकार से लड़ रहा है क्योंकि जन्मतिथि विवाद से खफा है और रक्षामंत्री मामला टालकर खुद को पाक साफ कर रहे हैं क्योंकि बेदाग छवि की बदौलत उन्हें कांग्रेस का आलाकमान राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने की योजना बना रहा है। अपनी-अपनी वजहें हैं पर ठगा जा रहा है देश। यह देशद्रोह है... सरासर देशद्रोह। देश के नेतागण जाग जाइये, ये खतरे की घंटी है वरना आपको देश कभी माफ नहीं कर पाएगा।
जनरल विजय कुमार सिंह की निष्ठाओं पर संदेह करना किसी अपराध से कम नहीं। वीरता के लिए वह परम विशिष्ट सेवा मेडल, अति विशिष्ट सेवा मेडल और युद्ध सेवा मेडल से सम्मानित किए जा चुके हैं। बिरला पब्लिक स्कूल पिलानी में पढ़े सिंह की तीसरी पीढ़ी सेना में है। उनके पिता कर्नल थे और दादा जेसीओ। 31 मार्च 2010 को उन्होंने सेनाध्यक्ष का पद संभाला। कौन नहीं जानता कि किसी भी मुखिया के हाथ में बहुत-कुछ हुआ करता है। और अगर वो मुखिया भारतीय सेना का है तो बात कुछ और ही हो जाती है। वह लगातार काम करते हैं। जन्मतिथि विवाद में पूरा वक्त लगाते हैं ताकि कार्यकाल बढ़ जाए और मात खाने के बाद अचानक बोल उठते हैं कि सेना बहुत कमजोर हो चुकी है। कार्यकाल के 727 दिन बीतने के बाद ही उन्हें यह बोलने की जरूरत क्यों पड़ी? इतने दिन तक वह मात्र सुविधाएं भोगते रहे। जलवे का आनंद लेते रहे और जब जाने के दिन आए तो पूरे सैन्य प्रतिष्ठान की क्षमता पर अंगुली उठा दी। सम्मान का मामला बताते हैं और एक दिन खुद सैनिकों समेत देश का सम्मान एवं सुरक्षा दांव पर लगा देते हैं। वह शायद यह भूल जाते हैं कि सेना यदि है तो सैनिकों के दम-खम की वजह से ही। कठोर अनुशासन और मौका आने पर शहादत, सबसे पहले सैनिकों के ही हिस्से आती है। वह सेनाध्यक्ष की तरह जलवे के भूखे नहीं, अपने घर-परिवार से सैकड़ों किमी दूर रहकर उन्हें सिर्फ देश नजर आता है, उसकी सुरक्षा नजर आती है। जन्मतिथि विवाद में हारने के बाद ही उन्हें घूस का पुराना आफर याद आता है। यह तो कहते हैं कि रक्षामंत्री एके एंटनी को बताया था पर खुद कार्रवाई क्यों नहीं की, यह वो नहीं बताते। सेनाध्यक्ष होने के नाते उन्हें खुद एफआईआर दर्ज करानी चाहिये थी। आसानी से हजम नहीं होता कि कोई सेनाध्यक्ष के कमरे में घुसकर रिश्वत की यह कहते हुए पेशकश कर दे कि ‘सभी लेते हैं, आप भी ले लीजिए। पूरे 14 करोड़ रुपये मिलेंगे।’ यहां एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्यों सेनाध्यक्ष बार-बार मीडिया में जा रहे हैं। वह पत्र लिखकर उसे लीक क्यों कर देते हैं?वो सेना की कमजोरी की इतनी बड़ी बात आसानी से कैसे बोल दे रहे हैं। वीरता और देश के सम्मान के प्रति जो भाव परिवार में आपको घुट्टी के रूप में मिला, उसने अपना रंग क्यों नहीं दिखाया। समय रहते यदि जनरल चेत जाते तो शायद सेना की बदहाली की कहानी से चिंता की लकीरें नहीं उभरतीं। जनरल यह सब क्यों कर रहे हैं, यह तो भविष्य के गर्त में है लेकिन यदि दुश्मनों ने उनकी बात से प्रेरणा लेकर कोई कदम उठाया और हमें मात मिली तो तय है देश उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
दूसरी तरफ, सरकार है और उसके रक्षामंत्री एके एंटनी हैं। जनरल के आरोपों में यदि दम है तो इतना पैसा कहां चला गया? वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने देश के रक्षा बजट में कम बढ़ोत्तरी कहीं इसीलिये तो नहीं कि उन्हें भ्रष्टाचार का आभास था? राष्ट्रपति पद पर इस बार किसी ईसाई नेता की ताजपोशी की तैयारी में सरकार को एंटनी का प्रशासन संकट में डाल रहा है। एंटनी बेदाग छवि के नेता रहे हैं। संसद के साथ उसे बनाने वाली आम जनता भी जनरल के साथ एंटनी से सवाल कर रही है कि क्यों उन्होंने घूस की पेशकश करने वाले सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल पर कार्रवाई नहीं की? उन्होंने अपना माथा क्यों पकड़ा, उसके तमाचे पर कानून का तमाचा क्यों नहीं जड़ दिया? तात्कालिक उपाय यही है कि सेना में यदि कमियां हैं तो उन्हें दूर किया जाए, सेनाध्यक्ष को सार्वजनिक रूप से बोलने के लिए दंड मिले और आंखें मूंदे रक्षामंत्री की विदाई हो। इस बार मामला बड़ा है, घोटालों की मास्टर कही जा रही केंद्र सरकार को इसे किसी अन्य घोटाले की तरह नहीं लेना चाहिये वरना बहुत देर हो जाएगी जिसके लिए देश उन्हें माफ नहीं करेगा। सौभाग्य की बात यह है कि सीमाओं पर फिलहाल कोई संकट नहीं। पाकिस्तान की सत्ता खुद समस्याओं से घिरी है और चीन आक्रामकता के बजाए भारत के विरुद्ध कूटनीति के रास्ते पर चल रहा है।

Tuesday, March 27, 2012

सिर से ऊपर निकलता नक्सलवाद

नक्सलियों ने महाराष्ट्र में केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स के 15 जवानों की हत्या कर दी। केंद्रीय बलों के सहारे समस्या से लड़ रहे देश के लिए यह बड़ी खबर है। इससे पूर्व भी अपने 74 जवान गंवा चुका यह बल मनोबल हारने लगा है, जान उसके सिपाहियों को भी प्यारी जो है। केंद्रीय गृह मंत्रालय योजनाएं बनाकर चुप बैठा है, राज्य हथियार डाल चुके हैं और दूसरी ओर, नक्सलियों की आक्रामकता बढ़ती जा रही है। चिंताजनक यह पहलू भी है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की संख्या बढ़ रही है। समस्याओं की जड़ें गहरी हैं। सरकार तरह-तरह की योजनाएं बनाती जरूर हैं लेकिन कोई कारगर और वास्तविक कल्याणकारी उपाय नहीं किए जाते ताकि आदिवासी और ग्रामीण इलाके के लोगों की मूल समस्याओं का दीर्घकालिक नीतियों के साथ समाधान हो सके।
नक्सलियों का इतिहास बेहद काला है। वह 'जंगल का कानून' चलाते हैं, प्रभावित क्षेत्रों के गांवों में ऐसे आचरण करते हैं कि 'भैंस उनकी ही होगी क्योंकि लाठी उनकी' है। किसे याद नहीं होगी, आदिवासी फ्रांसिस इंदुवार की हत्या। उसका सिर तालिबानी शैली में धड़ से अलग कर दिया गया था। इन्हीं आतंकियों ने 165 मासूम यात्रियों को ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उतारकर मार डाला था। इस तरह की घटनाओं यानि आतंक की लंबी कहानियां हैं। इन क्षेत्रों की समस्याएं और उनके नतीजतन पैदा आतंक की वजह जानने से पहले यह जरूरी है कि नक्सलवादियों की विचारधारा समझी जाए। माओवाद के प्रणेता चीन के नेता कामरेड माओत्से तुंग का कहना था कि सत्ता बंदूक की गोली से प्राप्त होती है। उन्हें जनता की चुनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं था। वह ऐसी अधिनायकवादी व्यवस्था चाहते थे जो बंदूकों से नियंत्रित हो। भारत में नक्सलवाद से जन्मदाता माने जाने वाले चारू मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। इन्हीं वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र पर दबदबा हो गया है जिसे सशस्त्र क्रांति से ही खत्म कर पाना संभव है। इसी विचारधारा की वजह से तमाम प्रयासों के बावजूद समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा। पिछले पांच साल में नक्सलवाद की समस्या भयंकर रूप में पहुंच गई है। कोढ़ में खाज यह है कि आर्थिक विषमता के विरुद्ध खड़ा हुआ यह आंदोलन एक व्यापार का रूप ले चुका है। आंदोलन से ईमानदार लोग दूर हो गए हैं इसीलिये लक्ष्य कहीं खो गया है। दूसरा पक्ष यह भी है कि आंदोलन के भटकने के बावजूद यह आदिवासियों के बीच लोकप्रिय है। इस लोकप्रियता का एक कारण यह है कि कहीं-न-कहीं आदिवासी इस कथित सभ्य समाज से नाराज हैं, उपेक्षित हैं। वे अपने प्राकृतिक जीवन से दूर होते जा रहे हैं और इसके लिए वे प्रशासन और सरकार की नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं इसीलिए नक्सलियों को आश्रय दे रहे हैं। आदिवासी किसी राज्य या क्षेत्र विशेष में नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में फैले हैं। ये कहीं नक्सलवाद से जूझ रहे हैं तो कहीं अलगाववाद की आग में जल रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनका शोषण निरंतर चला आ रहा है। इन्हें नक्सलियों के साए में सुरक्षा महसूस होती है।
एक बार के लिए यह मान भी लिया जाए कि नक्सली शोषक तंत्र के विरुद्ध संघर्ष करते हैं तो क्या यह रेलयात्री या जवान शोषक तंत्र से थे? महाराष्ट्र में मारे गए जवानों में ज्यादातर दूरदराज के क्षेत्रों के थे और हाल ही में तबादले पर यहां पहुंचे थे। यह मासूम थे, समाज विरोधी, कालाबाजारी या शोषणकर्ता नहीं थे। नक्सलवादी गरीबों और मासूमों की हत्या करते हैं और ऊपर से उनके हमदर्द होने का दम भरते हैं। दुकानदारों, मिल मालिकों, पूंजीपतियों से हफ्ता वसूल करते हैं और इसके बाद उन्हें छेड़ते तक नहीं। किस मायने में ये लोग जिहादी आतंकवादियों, डाकुओं या अन्य अपराधियों से भिन्न हैं? गरीबी मिटाने का यह कौन सा मौलिक और अनूठा तरीका है? नक्सलवादी असल में लोकतंत्र को समाप्त कर बंदूक के दम पर एक ऐसी तानाशाही व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं जिसमें किसी को उफ तक करने की आजादी नहीं होगी और सरकारी स्तर पर लापरवाह प्रयास उन्हें यह मौका मुहैया करा रहे हैं। देश में मिजोरम, नगालैंड व मेघालय जैसे छोटे राज्यों में 80 से 93 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। बड़े राज्यों में मध्य प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आठ से 23 प्रतिशत तक आदिवासी हैं। यह भी शत-प्रतिशत सच है कि हर आदिवासी नक्सली नहीं परंतु माओवादियों और सरकारी दमन से घिरे आदिवासी विकल्पहीन हैं। नक्सली सत्ता स्थापित करने के लिए इनको इस्तेमाल कर रहे हैं। क्यों सरकारें इनके कल्याण के लिए ठोस कार्ययोजना नहीं बनाती?... क्योंकि यह मतदाता नहीं हैं और सरकारें मतदाता बनाते हैं यह लोग नहीं।

Monday, March 26, 2012

'पहरेदारों' से असुरक्षित सेना

सीमाओं की अहमियत क्या है, ये सैनिकों से ज्यादा कोई नहीं जानता। लेकिन जब एक लेफ्टिनेंट जनरल सेनाध्यक्ष के पास आफर लेकर जाता है तो पता चलता है कि हालात कितने खराब हो रहे हैं, सीमाएं कैसे लांघी जा रही हैं। जब हर जगह भ्रष्टाचार पर अंगुली उठ सकती है तो सेना पर क्यों नहीं, हम उस पर बड़ी राशि खर्च किया करते हैं। वर्ष 2012-13 के लिए प्रस्तावित आम बजट में रक्षा क्षेत्र के लिए कुल 1,93407 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। पिछले साल की तुलना में यह 17 फीसदी ज्यादा है। अपना 'पेट काटकर' हम सैन्य क्षेत्र पर व्यय कर रहे हैं तो क्यों न उठाएं सवाल? आम आदमी की खून-पसीने की कमाई से जब पुराने-जर्जर हथियार खरीदे जाते हैं, तो शक पैदा होता ही है। देश और इसके लिए जान देने वाले पैदल सैनिकों के कल्याण के लिए कुछ न करने वाला हमारा सत्ता प्रतिष्ठान, यदि साजो-सामान पर ही ध्यान केंद्रित करता है तो सवाल उठता है क्यों?
देश के सैन्य इतिहास में सबसे पहले 80 लाख रुपये का जीप घोटाला 1948 में हुआ था। बोफोर्स, बराक मिसाइल, कारगिल ताबूत, राशन घोटाला, वायुसेना भूमि घोटाला, आदर्श हाउसिंग और फिर फ्लाइंग क्लब घोटाला... फिर तो जैसे झड़ी सी लगी है। अब सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने खुलासा किया है कि एक लॉबिस्ट ने उन्हें भारतीय कंपनी की खराब क्वॉलिटी की 600 गाड़ियों को ज्यादा कीमत पर खरीदने की मंजूरी देने के लिए 14 करोड़ रुपये रिश्वत की पेशकश की थी। एक गाड़ी की कीमत 15 लाख के करीब है। वह गाड़ियां जिन पर चलकर सैन्य अमले को देश चलाना था, हम जिनके लिए पूरी कीमत अदा कर रहे थे, उन गाड़ियों को पुराना खरीदने की कोशिश थी यह। हमारी सेना विश्व की सबसे तेज़, सबसे चुस्त, बहादुर और देश के प्रति विश्वसनीय सेनाओं में शुमार है। सामरिक इतिहास बताता है कि हमारी सेना ने वो लड़ाइयां भी अपने जज्बे से जीत लीं जो दुश्मन के अत्याधुनिक शस्त्रों से भी नहीं जीत पाए। भ्रष्टाचार ने कई प्रतिष्ठानों को ढेर कर दिया और यह घुन सेना तक पहुंच रहा है तो चिंताएं बड़ी हैं। कई रक्षा सौदों को कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है। सोवियत संघ टूटने के बाद रूस बडे पैमाने पर अपने हथियार बेच या किराए पर दे रहा है जिसके सबसे बड़े खरीददार हम हैं। हम उससे पुराने विमानवाहक जहाज, पनडुब्बियां, हेलीकॉप्टर, तोपें, मिसाइलें आदि खरीद रहे हैं। बाजार में प्रतिस्पर्धी क्वालिटी लेकर खड़े हैं। रूस से खरीदे गए रक्षा सामान की भारत की रक्षा के लिए वास्तविक उपयोगिता और औचित्य को विशेषज्ञ नकारते रहे हैं। दुनिया के बाजार में नए जमाने के अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार है, फिर क्यों? 53 हजार करोड़ रुपए के किराए पर 10 वर्ष के लिए एक पुरानी परमाणु-चालित पनडुब्बी हमने रूस से खरीदी है, एडमिरल गोर्शकोव नामक पुराने विमानवाहक जहाज का सौदा करीब 12 हजार चार सौ करोड़ रुपए में हुआ है, जिसे भारतीय नौसेना ने ‘आईएनएस विक्रमादित्य’ नाम दिया है। गोर्शकोव इतना जर्जर है कि रूस अपनी गोदी में करीब तीन साल से उसकी मरम्मत कर रहा है। वर्ष 2007 में अमेरिका से हेलीकॉप्टर और एक पुराना जहाज 450 करोड़ रुपए में खरीदा गया था। हमारे पास रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन जैसे विश्व स्तरीय शोध संस्थान हैं, फिर क्यों हम पुराने हथियार और सैन्य सामान खरीदते हैं? हाल ही में जब हमारी सरकार ने फ्रांस से करीब 54 हजार करोड़ के 26 लड़ाकू विमान सौदे को अंतिम रूप दिया। इसमें एक विमान की लागत करीब 429 करोड़ रुपए होगी। 'राफाल' विमान बनाने वाली फ्रांस की डसॉल्ट कंपनी को इससे जीवनदान मिल गया।कंपनी ने इस विमान को 1986 से बनाना शुरू किया था लेकिन अभी तक एक भी विमान देश से बाहर नहीं बेच पाई थी। भारत से यह सौदा नहीं हुआ होता तो डसाल्ट कंपनी को अपना कारखाना बंद करना पड़ता।
यह सौदे राजनीतिक अहमियत भी रखते हैं। फ्रांस से सौदा नहीं हुआ होता तो वहां के दक्षिणपंथी निकोलस सरकोजी मुंह छिपाने को मजबूर हो जाते। सर्वे में खुलासा हुआ था कि इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ गई है। फ्रांस में मई में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। डील के बाद इस क्षेत्र के अमेरिका जैसे खिलाड़ी बौखला गए थे। इस बेहद बड़े सौदे की प्रतिस्पर्धा में यूरोप के चार देशों ब्रिटेन, जर्मनी, स्पेन और इटली ने मिलकर निविदा लगाई थी और निर्णय के बाद उन्होंने राजनयिक स्तर पर इसे बदलवाने की कोशिश की। अमेरिका की बोइंग और लॉकहीड मार्टिन कंपनियों के प्रस्ताव ठुकराए गए। रूस और स्वीडन की कंपनियां भी इस सौदे के लिए बेहद लालायित थीं। जब इतनी बड़ी कम्पनियां होड़ में हों, देश के राजनीतिक समीकरण बन-बिगड़ रहे हों तो पैसा अपना रंग दिखाएगा ही। देश के आमजन का सेना पर खूब भरोसा है, वो निश्चिंत हैं कि पड़ोसी देशों की स्थितियों पर नेता चौकन्ने हों या नहीं लेकिन सेना की मुस्तैदी पूरी है। सेना हमारे साथ भावनात्मक रूप से जुड़ी है, एक दोस्त सेना। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जो हो रहा है, वह उसे निराश कर रहा है। गड़बड़ियों की यह कहानियां इशारा कर रही हैं कि स्थिति अब पहले जैसी नहीं है। कहीं कुछ बहुत ही गंभीर चल रहा है जो देश के लिए अहितकर है। दुखद ये है कि सेना से संबंधित अधिकांश भ्रष्टाचार और अपराध उच्चाधिकारियों के स्तर पर हो रहा है। छोटे पदों पर काम करने वाले अनुशासन के नाम पर हर तरह की सख्ती भुगत रहे हैं। साफ होने लगा है कि भारतीय सेना में वो लोग भी प्रवेश कर चुके हैं जिन्होंने देश की सुरक्षा के लिए वर्दी नहीं पहनी है। सेनाध्यक्ष का जान-बूझकर जन्मतिथि विवाद पैदा करने का आरोप भी सच लगने लगा है। जनरल के साथ अन्याय हुआ है, वह 'डर्टी ट्रिक डिपार्टमेंट' के निशाने पर हैं। हमें यह समझ लेना चाहिये कि भ्रष्ट के पास दौलत होती है और ईमानदार के पास मूल्य होते हैं। जनरल सिंह यही साबित कर रहे हैं।

Saturday, March 24, 2012

कोयले से काला कोयला घोटाला

केंद्र की सत्ता पर आसीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में एक और घोटाला सामने आया है। घोटाले-दर-घोटाले खुल रहे हैं। जैसे हद शब्द भी अपनी हदें पार कर रहा है। ऐसे में जब विपक्षी दल चीख-चीखकर गठबंधन सरकार को भ्रष्ट सरकार की संज्ञा देते हैं, उसे घोटालों की सरकार बताते हैं तो आम आदमी आसानी से भरोसा कर लेता है। उसे समाजसेवी अन्ना हजारे टीम के अहम सदस्य अरविंद केजरीवाल की यह बात भी ठीक ही लगती है कि यह भ्रष्ट सरकार है इसीलिए उसने संसद में लोकपाल विधेयक पारित नहीं कराया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल एक मजबूत हथियार है इसीलिए सरकार उसे पारित नहीं होने दे रही। 79 साल के ईमानदार छवि के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को बेईमान कहते लोगों को वह सुनता है। उनके स्वच्छ इतिहास को उसका दिमाग को मान लेता है लेकिन मन नहीं मानता। ... और ऐसा हो भी क्यों न? संप्रग-2 के अब तक के कार्यकाल में आएदिन घोटाले खुल रहे हैं। दूरसंचार क्षेत्र में टूजी लाइसेंस आवण्टन घपला हो या भारतीय ओलंपिक संघ के चेयरमैन और कांग्रेसी सांसद सुरेश कलमाड़ी का रचा राष्ट्रमंडल खेल घोटाला या फिर खूब चर्चित रहा आदर्श सोसाइटी घोटाला... या अब खुला 10.67 लाख करोड़ रुपये का कोयला खानों के आवंटन में घपला हो।
केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने 2009 में दोबारा राजकाज संभाला तो कई राजनीतिक विश्लेषकों ने उसकी वापसी के लिए पिछले कार्यकाल के दौरान सरकार के किए कुछ अच्छे कार्यों को श्रेय दिया था। सियासत को जानने-समझने वाले लोगों ने कहा था कि रोजगार गारंटी से लेकर सूचना का अधिकार कानून तक, कुछ ऐसे काम संप्रग की पहली सरकार ने किए जिससे लोगों को काफी फायदा हुआ है और इसका इनाम जनता ने अपने वोटों के जरिए कांग्रेस और उसकी सहयोगी दलों को दिया। लेकिन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) रिपोर्ट में संप्रग सरकार द्वारा 2004 और 2009 के बीच 155 कोयला ब्लॉक के बिना बोली के आवंटन से राजकोष को 10.67 लाख करोड के नुकसान का अनुमान लगाया गया है यानि घपलेबाजी पिछली सरकार के कार्यकाल में भी हुई थी। इन आवंटनों में बाजार की कीमतों के आधार पर आवंटियों को 6.31 लाख करोड रुपये का अप्रत्याशित लाभ हुआ, जिसमें 3.37 लाख करोड सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और 2.94 लाख करोड रुपये निजी क्षेत्र की कंपनियों की जेब में चले गए। यह सच है कि कोयला प्राकृतिक संसाधन है लेकिन इसी तर्क के आधार पर इसे निजी कंपनियों को औने-पौने दामों पर तोहफे में नहीं दिया जा सकता।
बात सिर्फ कॉमनवेल्थ, 2जी स्पेक्ट्रम या फिर नए खुले घोटाले की ही नहीं है, आज देश में जितने भी घोटाले हो रहे हैं, उन सभी में बाड़ के खेत खाने वाली बात ही साबित हो रही है। सरकारी धन के दुरुपयोग के खिलाफ कैग की भूमिका को लेकर सरकार के नुमाइंदे भले ही उस पर निशाना साधने में जुटे हों, लेकिन यह संवैधानिक संस्था अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही है और आज देश की आम जनता को भी कैग की अहमियत और उसके कामकाज की जानकारी हो गई है। कैग पर सवाल खड़े करने के बजाए बेहतर यह होता कि सरकार ऐसी संस्थाओं को और मजबूत करने पर ध्यान देती, लेकिन जब तक बाड़ के खेत खाने के सवाल का कोई सही हल नहीं निकलेगा, हालात में सुधार की गुंजाइश कम ही नजर आती है। यह देश के लिए ठीक नहीं। कहते हैं कि जब हद होती है तो बगावत होती है। कहीं जनता जग गई तो क्या होगा, अंदाज लगा पाना ज्यादा मुश्किल नहीं।

घटकों से झटकों से बेजार संप्रग सरकार

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अपने एक घटक द्रमुक के दबाव में श्रीलंका के विरुद्ध मतदान से केंद्र सरकार अभी चैन की सांस ले भी नहीं पाई थी कि फिर मुश्किल में फंस गई। सबब वही ममता बनर्जी हैं जो पिछले दिनों रेल बजट को लेकर आंखें तरेर रही थीं। वह लोकपाल पर अपनी मर्जी चाहती हैं। सरकार के समक्ष समस्या यह है कि समाजसेवी अन्ना हजारे अनशन करने जा रहे हैं, वह इसका जवाब देना चाहती थी कि ममता ने 'वीटो' कर दिया। उधर, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और कृषि मंत्री शरद पवार के सुर बदलने लगे हैं। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव भी जो बोल रहे हैं, कांग्रेस के प्रबंधकों को हित में नजर नहीं आ रहा। मुश्किल दर मुश्किल है।
ममता से कांग्रेस दो-टूक करना चाहती है लेकिन मुश्किल सामने खड़े लोकसभा चुनाव हैं। डर है कि अकेले पश्चिम बंगाल के रणक्षेत्र में उतरना गलत हो सकता है। विधानसभा चुनाव में वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने वालीं ममता उनके लिए वहां फायदे का सौदा हो सकती हैं। हालांकि बंगाल में ममता का प्रेम उतार पर आने लगा है। एक सर्वेक्षण में उजागर हुआ है कि ममता का आएदिन और हर बात पर अड़ना लोगों को पसंद नहीं आ रहा। राजनीतिक जागरूकता में पहले नंबर पर आने वाले राज्य से यदि यह खबरें आ रही हैं तो ममता को फिक्र करनी ही चाहिये। तृणमूल कांग्रेस ने तो ऐसा रवैया अपना लिया है जैसे केंद्र सरकार के संचालन का अधिकार उसके पास ही हो। शर्मनाक स्थिति यह है कि उसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मामलों में तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे अपने घटकों के सामने समर्पण करना पड़ रहा है। तृणमूल कांग्रेस ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के फैसले को रोकने के बाद तीस्ता जल संधि पर अडंÞगा लगाया। फिर रेलवे में सुधार के कदम रोकने पर अड़ गई। भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार रेल मंत्री को रेल बजट पेश करने के कुछ ही घंटों बाद हटाने की घोषणा कर दी गई हो। तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक एवं कुछ अन्य घटक दलों का रवैया पुष्टि करता है कि वे न तो केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा की परवाह कर रहे हैं और न ही राष्ट्रीय हितों की। विलियम शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक 'हैमलेट' के नायक डेनमार्क ने कहा है, 'दयालु बनने के लिए मुझे क्रूर बनना पड़ेगा।' तृणमूल की तुनकमिजाज प्रमुख ममता पर यह बात पूरी तरह लागू होती है, वह हर मुद्दे पर अपनी क्रूरता का प्रदर्शन कर रही हैं। उनके लिए राजनीति का सरोकार केवल अपने राज्य में दम दिखाने के लिए अपने वोटर मात्र पर दया दिखाने से है।
आखिर ममता का उद्देश्य क्या है? क्या वह सरकार को गिराना चाहती हैं? क्या वह अगले आम चुनाव की तारीखें तय करना चाहती हैं? क्या वह यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि उनका स्थान कोई दूसरा दल न ले। रिपोर्ट चाहें कुछ भी कहें लेकिन सिर्फ अपनी बात कहने-सुनने वाली ममता को लगता है कि यदि जल्दी चुनाव होते हैं तो सबसे अधिक लाभ उन्हें ही होगा। उनकी नजर में इसके कारण हैं: पहला, उनका प्रतिद्वंद्वी वाम मोर्चा 2011 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद अभी भी कमजोर है और यदि अभी चुनाव होते हैं तो उन्हें अधिक सीटों पर जीत मिलेगी और वह राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरेंगी। दूसरा, उनका सीधा टकराव कांग्रेस से है। वह 2014 या जब कभी भी लोकसभा के चुनाव हों, अपने सहयोगी के किसी बंधन के बिना चुनाव लड़ना चाहती हैं। वर्तमान में उन्होंने कांग्रेस को राज्य में तृणमूल का पिछलग्गू बना दिया है। अनेक कांग्रेसी नेता तृणमूल में शामिल हुए हैं। वर्तमान में वह कांग्रेस का सुनियोजित ढंग से सफाया कर रही हैं और जो कांग्रेस में बचे-खुचे नेता हैं उनकी उपेक्षा कर रही हैं। तीसरा, ममता के धैर्य खोने का एक कारण यह भी है कि उनकी स्वयं की लोकप्रियता कम हो रही है। वह स्वयं अनेक चुनौतियों का सामना कर रही हैं इसलिए वह जल्दी चुनाव चाहती हैं। वामपंथी सरकार ने उन्हें विरासत में एक दिवालिया राज्य दिया। उनके पास किसी बड़ी विकास योजना को लागू करने के लिए पैसा नहीं है और वह राज्य पर 2.04 लाख करोड़ रुपए के ऋण पर भारी ब्याज दे रही हैं तथा विकास कार्यों के लिए उनके पास केवल 5000 करोड़ रुपए हैं। प्रधानमंत्री उनकी दुविधा को समझते हैं किन्तु केन्द्र ममता की मांगों को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि पंजाब और केरल की भी यही स्थिति है। पश्चिम बंगाल को ब्याज पर छूट दी जाती है तो ऐसी ही छूट उन्हें भी देनी होगी। प्रश्न उठता है कि सरकार कब तक ऐसे चलेगी और कब तक एक के बाद एक संकट का सामना करती रहेगी। यूपीए सरकार को चलाने के लिए एक सहयोगी के रूप में तृणमूल कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु कांग्रेस को स्वार्थी सहयोगी दलों के खतरों से सावधान रहना चाहिए। समय आ गया है कि सरकार यह स्पष्ट करे कि वह सक्षम है। ... और ममता को उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों से सबक लेना चाहिये जहां जनता ने बहुमत से चुनीं अपनी मुख्यमंत्री मायावती को बाहर का रास्ता दिखा दिया। ममता की अस्थिर राजनेता की छवि उन्हें बेशक, नुकसान पहुंचा रही है।

हत्यारे के साथ सियासत की दौड़

बेशक, यह राजनीति के अपराधीकरण का उदाहरण नहीं पर शर्मनाक बहुत है। कहते हैं कि अपराधी का कोई धर्म या जाति नहीं होती लेकिन पंजाब में पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना के लिए जिस तरह का दबाव डालना शुरू किया गया है, वह सिद्ध कर रहा है कि राजनीति हद तक गिरकर किसी मुद्दे को वोट के तराजू में तौलने से पीछे नहीं हिचकती। दबाव धर्म के झंडाबरदारों ने डाला है और पर्दे के पीछे वही कांग्रेस है, जिसे कभी यह कहकर कठघरे में खड़ा किया जाता था कि पंजाब में आतंकवाद का पोषण उसी ने किया है। सत्तासीन अकाली दल भी कड़ा कदम उठाने के बजाए नफा-नुकसान सोचकर चुप है और उसी रास्ते पर चल रहा है जिस पर उसे चलाए जाने की कोशिशें हो रही हैं।
राजोआना को फांसी की सजा से बचाने के लिए श्री अकाल तख्त साहिब ने राज्य की अकाली दल गठबंधन सरकार के लिए हुक्मनामा जारी किया है। 31 मार्च 1995 को आतंकवादियों के मानव बम हमले में बेअंत सिंह सहित 17 लोगों की सिविल सचिवालय के बाहर हत्या कर दी गई थी। चंडीगढ़ के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय ने गत मार्च को राजोआना को पटियाला की केन्द्रीय जेल को 31 मार्च को फांसी देने के निर्देश दिए थे। सिख संगठनों की मांग पर धार्मिक संस्था ने कहा है कि सरकार के मुखिया प्रकाश सिंह बादल और शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के अध्यक्ष अवतार सिंह मक्कड़ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलकर सजा को उम्रकैद में बदलवाने के लिए अपील करें। श्री अकाल तख्त साहिब ने राजोआना को 'जिंदा शहीद' और उसके सहयोगी दिलावर सिंह को 'कौमी शहीद' के खिताब से नवाजा है। हुक्म से राज्य में सियासी अफरा-तफरी का माहौल है। बेचैनी के नतीजतन शिरोमणि अकाली दल की कोर कमेटी की बैठक बुलाई गई। सवाल उठता है कि यह सब हो क्यों रहा है? विधानसभा चुनावों में बहुमत से सत्ता में आए गठबंधन को लगता है कि मुद्दा उसे आगामी लोकसभा चुनावों में नुकसान पहुंचा सकता है। विस चुनावों में मात से सन्न विपक्षी कांग्रेस पार्टी को यह फायदे का सौदा लग रहा है। कोई धार्मिक संगठन की नीयत पर अंगुली नहीं उठा रहा। धार्मिक संस्था होने के नाते उस पर यह जिम्मेदारी है कि वह अपने अनुयायी को बचाए। कोई भी धर्म मौत की सजा की हिमायत नहीं करता बल्कि दोषी को सुधरने का मौका देने का पक्षधर होता है। समस्या तब आई जब संस्था के समक्ष मांग उठाने वाले संगठनों की पहचान की गई। इनमें से कुछ संगठन विशुद्ध रूप से कांग्रेस के समर्थक हैं। इस हत्याकांड में राजोआना के अलावा जगतार सिंह हवारा को भी अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी लेकिन बाद में अदालत ने हवारा की याचिका पर सजा को उम्र कैद में बदल दिया था। राजोआना ने अपनी सजा कम करने का अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया था यानि उन्हें अपने अपराध पर अफसोस नहीं और वह सजा कम नहीं कराना चाहते। फिर तो यह हिमायत नहीं होनी चाहिये थी।
यह पहली बार नहीं हो रहा बल्कि एक परंपरा की नींव पड़ने लगी है। संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी को लेकर इस तरह की आवाजें जम्मू-कश्मीर से उठी थीं। राज्य विधानसभा में जमकर हंगामा हुआ। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया था कि अफजल की फांसी से घाटी के हालात और बिगड़ेंगे। उमर अब्दुल्ला इस तरह के बयान देकर उग्र तेवरों के लिए प्रसिद्ध महबूबा मुफ्ती की बराबरी करने में जुटे थे। अफजल के मसले पर उमर अब्दुल्ला ही नहीं, कांग्रेस के नेताओं के भी खयालात कुछ अलग नहीं थे। अफजल को जब फांसी की सजा सुनाई गई, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद उस वक्त जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे और उनका कहना था कि अगर अफजल को फांसी दी गई तो इसकी प्रतिक्रिया घाटी में हो सकती है। एक अन्य मामले में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की सजा माफ करने का प्रस्ताव तमिलनाडु विधानसभा में पास हुआ था। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह दिल्ली के बटला हाऊस मुठभेड़ पर सवाल उठा चुके हैं। दरअसल, सजा में देरी से सारी समस्याएं पैदा हो रही हैं। सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में जल्दबाजी नहीं दिखाती और किसी भी घटना पर कुछ ठोस कदम उठाने के बजाए कोरी बयानबाजी में जुट जाती है। देश की राजधानी में अत्यधिक सुरक्षा से लैस संसद के बाहर हमला होता है लेकिन दोषी अफजल गुरू को अदालत के आदेश के बावजूद आज तक फांसी तक नहीं पहुंच पाता। सरकार को लगता है कि अफजल को फांसी से देश का मुस्लिम नाराज होगा तो ये उसकी सबसे बड़ी भूल है। ये मुस्लिम आबादी की निष्ठा पर सवाल भी खड़े करने वाली है। मुस्लिम समाज समेत देश का हर तबका आज यह मानता है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता है और अगर कोई दोषी है तो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए। राजोआना के मामले में भी आम आदमी यही सोचता है। कोई भी शांतिप्रिय नागरिक चाहें वह किसी भी धर्म या जाति का हो, अपराधी को बचाने की हिमायत नहीं करता। यह सब समझते हैं पर सरकार शायद नहीं समझती।