Sunday, August 11, 2013

आजाद देश के महात्मा

हम आजाद हैं, क्योंकि हम एक थे। न हिंदू थे और न मुसलमान, सिर्फ भारतीय। एकता का ही असर था कि ब्रतानिया हुकूमत से आजादी हासिल कर पाए लेकिन आजाद क्या हुए, बेलगाम हो गए। भारतीय से हिंदू, मुसलमान और सिख, ईसाई हो गए। लड़ते हैं, झगड़ते हैं। आजादी की इस 67 वीं सालगिरह पर मनन का वक्त है, आत्म चिंतन की जरूरत है। महात्मा के हम अनुयायी क्यों उन्हीं की दी हुई शिक्षाएं भूल रहे हैं। गांधीजी नहीं चाहते थे कि हम लड़ें, इसके बजाए हमेशा भाईचारे से रहें। पश्चिम बंगाल में हिंदू-मुस्लिम दंगे उन्होंने अकेले अपने प्रयासों से ही शांत करा दिए। पंद्रह अगस्त 1947, पूरा देश आजादी के जश्न में मशगूल था लेकिन महात्मा दु:खी थे, उन्हें जैसे लग नहीं रहा था कि यह जश्न मनाने का वक्त है। पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभभाई पटेल का आमंत्रण ठुकराकर वह दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर कलकत्ता के नोआखाली क्षेत्र में हिंदू-मुस्लिमों के बीच सौहार्द बनाने में प्राण-प्रण से जुटे थे। उनके बेकल मन ने मजबूर किया कि वह आजादी की वर्षगांठ अनशन पर रहकर मनाएंगे। वह मानते थे कि संपूर्ण आजादी तब ही है जबकि जाति-धर्म का भेद न हो और भाईचारा कायम रहे। देनी पड़ सकती है जान भी आजादी से कुछ सप्ताह पहले की बात है। नेहरूजी और सरदार पटेल ने गांधीजी के पास दूत भेजा, जो आधी रात को वहां पहुंचा। गांधीजी ने पहले उसे भोजन कराया और फिर पत्र खोलकर देखा। उसमें लिखा था-बापू, आप राष्ट्रपिता हैं। 15 अगस्त 1947 पहला स्वाधीनता दिवस होगा। हम चाहते हैं कि आप दिल्ली आकर हमें अपना आशीर्वाद दें। महात्मा नाराजगी छिपा न सके। बोले, कितनी मूर्खतापूर्ण बात है। बंगाल जल रहा है। हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे की हत्याएं कर रहे हैं और मैं कलकत्ता के अंधकार में उनकी मर्मान्तक चीखें सुन रहा हूं तब मैं कैसे दिल में रोशनी लेकर दिल्ली जा सकता हूं। शांति कायम करने के लिए मुझे यहीं रहना होगा और जरूरत पड़ी तो सौहार्द और शांति सुनिश्चित करने के लिए जान भी देनी होगी। नेहरू-पटेल को ‘उपहार’ दूत को विदा करने के लिए वह बाहर निकले और एक पेड़ के नीचे खडेÞ थे कि तभी एक सूखा पत्ता शाख से टूटकर गिरा। गांधीजी ने उसे उठाया और हथेली पर रखकर कहा-‘मेरे मित्र, तुम दिल्ली लौट रहे हो। नेहरू और पटेल को मैं क्या उपहार दे सकता हूं, मेरे पास न सत्ता है और न सम्पत्ति। पहले स्वतंत्रता दिवस पर मेरे उपहार के रूप में यह सूखा पत्ता उन्हें दे देना। ,दूत की आंखें सजल हो गर्इं। गांधीजी परिहास के साथ बोले- ‘भगवान कितना दयालु है। वह नहीं चाहता कि गांधी सूखा पत्ता भेजे इसलिए उसने इसे गीला कर दिया। यह खुशी से दमक रहा है। अपने आंसुओं से भीगे इस पत्ते को उपहार के रूप में ले जाओ।, सत्ता से सावधान रहो आजादी के दिन गांधीजी का आशीर्वाद लेने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार के मंत्री भी मिलने आए। गांधी जी ने उनसे कहा-‘विनम्र बनो, सत्ता से सावधान रहो। सत्ता भ्रष्ट करती है। याद रखिए, आप भारत के गरीब गांवों की सेवा करने के लिए पदासीन हैं।, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द कायम करने के लिए गांधीजी गांव-गांव घूमे। हिंदुओं और मुसलमानों से शांति बनाए रखने की अपील की और शपथ दिलाई कि वे एक-दूसरे की हत्याएं नहीं करेंगे। वह हर गांव में यह देखने के लिए कुछ दिन रुकते थे कि जो वचन उन्होंने दिलाया है, उसका पालन हो रहा है या नहीं। बच्चों ने सिखाया बड़ों को पाठ उसी दौरान एक गांव में गांधीजी ने हिंदुओं और मुस्लिमों से सामूहिक प्रार्थना के लिए झोपड़ियों से बाहर आने का आह्वान किया। लेकिन इसका असर नहीं हुआ। आधे घंटे तक इंतजार के बाद उन्होंने साथ लाई गेंद दिखाकर बच्चों से कहा, आपके माता-पिता एक-दूसरे से डरते हैं लेकिन तुम्हें कैसा डर। तुम तो निर्दोष हो, भगवान के बच्चे हो। बच्चे खेलने लगे तो उन्होंने ग्रामीणों से कहा- तुम ऐसा साहस चाहते हो तो अपने बच्चों से प्रेरणा लो। वह एक-दूसरे से नहीं डरते। मेरे साथ आधे घंटे तक खेले। मेहरबानी करके उनसे कुछ सीखो। इन शब्दों का जादू सा असर हुआ। देखते-देखते वहां बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई और उन्होंने शपथ ली कि वे एक-दूसरे की हत्या नहीं करेंगे। किसी को बताना मत, दंगा हो जाएगा एक गांव में प्रार्थना सभा के दौरान एक मुस्लिम व्यक्ति ने गांधीजी का गला पकड़ लिया। हमले से वह नीचे गिर पड़े। उन्होंने कुरान की एक सुंदर उक्ति कही, जिसे सुनकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा और अपराध बोध से कहने लगा- ‘मुझे खेद है। मैं गुनाह कर रहा था। मैं आपकी रक्षा करने के लिए आपके साथ रहने के लिए तैयार हूं। मुझे कोई भी काम दीजिए।, गांधीजी ने उससे कहा कि तुम सिर्फ एक काम करो। जब तुम घर वापस जाओ तो किसी से भी नहीं कहना कि तुमने मेरे साथ क्या किया। नहीं तो हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाएगा। मुझे और खुद को भूल जाओ। आदमी पश्चाताप करता हुआ चला गया। महात्मा गांधी के भगीरथ प्रयासों से नोआखाली में शांति स्थापित हो गई। आत्महत्या की सोची थी मैंने अपनी आत्मकथा में ’चोरी और प्रायश्चित, शीर्षक के तहत राष्ट्रपिता ने लिखा है, एक रिश्तेदार से सिगरेट की लत गई। पैसे तो होते नहीं थे इसलिये ढूंढकर उसके ठूंठ पीने लगा लेकिन जैसे यह पराधीनता थी, मुझे अखरने लगी। दु:ख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम ऊब गए और आत्महत्या कर फैसला कर डाला! पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन देगा? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है। हम जंगल में जाकर धतूरे के बीज ले आए। सुनसान जगह की तलाश की लेकिन जहर खाने की हिम्मत नहीं हुई । अगर तुरंत मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक बीज खाने की हिम्मत ही न हुई। मौत से डरा और तय किया कि रामजी के मंदिर में दर्शन करके शांत हो जाएं और आत्महत्या करने की बात भूल जाएं। मैं समझ पाया कि मन में आत्महत्या का विचार लाना कितना आसान है और सचमुच आत्महत्या करना कितना मुश्किल। आत्महत्या के इस विचार का नतीजा ये हुआ कि हम दोनों की सिगरेट चुरा कर पीने की और नौकरों की जेब से पैसे चुरा कर सिगरेट फूंकने की आदत जाती रही। बड़े होकर सिगरेट पीने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। (गांधी जी की आत्मकथा ‘द स्टोरी आफ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ, प्रस्तुति: अनिल दीक्षित)

Friday, August 2, 2013

राजनीति के फेर में फॉर्मूला-वन

उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा स्थित बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट में फॉर्मूला-वन रेस खेल जगत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति के फेर में फंस रही है। फिलहाल 2014 के कैलेण्डर से ये गायब हुई है। आयोजक कम्पनी ने भरोसा जताया है कि 2015 से यह नियमित हो जाएगी लेकिन रफ्तार की दौड़ के महारथियों का एक पूरा गुट विरोध पर उतारू है और नहीं चाहता कि भारत को इसकी मेजबानी मिले। अगले दस साल में करीब 90 हजार करोड़ का व्यवसाय और 15 लाख से ज्यादा रोजगार देने की सम्भावना वाली इस रेस में बाधा आई तो देश को बड़ा झटका लगेगा। जो विकल्प तलाशे जा रहे हैं, न वह टिकाऊ हैं, न ही फॉर्मूला-वन की तरह लाभदायक। भारतीय बेशक, फॉर्मूला-वन रेसों के बारे में जानते हों लेकिन उन्होंने अपने देश में इसका आनंद पहली बार 2011 में लिया। फॉर्मूला रेसिंग में न सिर्फ देश-विदेश की लेटेस्ट और ट्रेंडी स्पोर्ट्स कार देखने को मिलती हैं बल्कि माइकल शूमाकर, निको रोजबर्ग, राफ शूमाकर जैसे नामचीन सितारे भी भाग लेने आते हैं। पहली दफा आयोजित ग्रांप्री बड़ी उपलब्धि थी। रफ्तार के खेल से हर साल करोड़ों डॉलर कमाई कराने वाली इस रेस ने उम्मीदें जगा दीं। लेकिन फॉर्मूला-वन के प्रमुख बर्नी एकलस्टन ने यह कहकर झटका दिया है कि भारत में अगले साल फर्राटा रेस होने की सम्भावना नहीं है। बर्नी की नजर में इसकी वजह सियासी हैं। पर राजनीति है क्या? दरअसल, इस रेस में भाग लेने वाली कम्पनियों में से कुछ की रुचि भारत से ज्यादा अन्य देशों में है, जिनमें रूस सबसे आगे है। 2014 के सत्र में 22 रेसों के आयोजन की बात हो रही है लेकिन फॉर्मूला-वन टीमें 20 रेसों तक ही टिकी रहना चाहती हैं। रूस के साथ ही आस्ट्रिया में अगले वर्ष एफ वन रेस कराने को लेकर भी काफी होड़ है। ऐसे में दो साल पहले एफ वन में पदार्पण करने वाले भारत को ही बाहर करने के लिए आसान शिकार माना जा रहा है। लेकिन रेस में एक साल की भी बाधा आने से तमाम नुकसान हैं। बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट ग्रेटर नोएडा में अंतरराष्ट्रीय स्तर के यमुना एक्सप्रेस-वे के पास बना है जिसने आगरा से नोएडा की दूरी घटाकर ढाई-तीन घंटे के आसपास कर दी है। फिलहाल वहां रेसिंग ट्रैक ही मुख्य है लेकिन योजना के मुताबिक आने वाले समय में यह तमाम अन्य विशेषताओं से परिपूर्ण होगा। ख्वाब तो वहां सपनों का शहर बनाने के भी हैं। रियल एस्टेट सेक्टर ने वहां बड़ी-बड़ी योजनाएं प्लान कर रखी हैं, पर तमाम प्रयासों के बावजूद हम विदेशी निवेश को आकर्षित करने में नाकाम रहे हैं। उत्तर प्रदेश ने खुद भी प्रयास किए, आगरा में कन्फेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज के साथ समिट आयोजित की लेकिन महीनों बाद एक भी विदेशी निवेशक नहीं आया है। फॉर्मूला-वन ने हमारी खूब कमाई कराई है। फॉर्मूला-वन का टिकट महंगा होता है। इसका आकर्षण जिस वर्ग में है, वो अपने वतन से आकर खूब पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहता है। बड़े-बड़े होटलों में रहता है, हवाई यात्राएं करता है और पर्यटन महत्व के आगरा, जयपुर जैसे शहर भी घूमता है। इसके अलावा फॉर्मूला-वन का रेसिंग सर्किट बनाने में करीब दो हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह मात्र इसी रेस में प्रयोग हो सकता है, अन्य खेलों के लिए इसका कोई उपयोग नहीं। जेपी ग्रुप ने सर्किट के लोभ में ही यमुना एक्सप्रेस-वे प्रोजेक्ट हाथ में लिया था। सवाल यह है कि क्या घाटे की स्थिति का असर इस मार्ग के आसपास के विकास पर नहीं पड़ेगा? सरकारी आय की नजर से देखें तो राजस्व की क्षति भी होना तय है। याद कीजिए, फॉर्मूला-वन रेस के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी करने के लिए केंद्रीय खेल मंत्रालय प्रतिवर्ष दस करोड़ रुपये वसूल करता है जो राष्ट्रीय खेल विकास निधि में जमा हो जाता है। इसके अलावा लाखों डॉलर मूल्य की कारें, उनके टायर, उपकरण, तेल जैसी अन्य जरूरी चीजें लाने की एवज में खिलाड़ियों की प्रायोजक कम्पनियां करोड़ों रुपये कस्टम ड्यूटी अदा करती हैं। गत वर्ष केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क विभाग ने छह सौ करोड़ रुपये सुरक्षित धनराशि के रूप में जमा कराए थे। सबसे बड़ा नुकसान तो उन भारतीयों का है, जो रेस के दिनों में अस्थायी व्यवसाय के जरिए कमाई करते हैं। इस रेस का आयोजन बेशक निजी क्षेत्र की कम्पनी करती हो लेकिन जिस कद की यह रेस है, उसके लिए सरकार के भी सक्रिय होने की जरूरत है। खेल जगत में खेल मंत्रालय की सक्रियता बढ़ी है। उसने बेलगाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर भी शिकंजा कसने की कोशिशें शुरू कर दी हैं, जिससे खेलों में पारदर्शिता से इंकार नहीं किया जा सकता। फॉर्मूला-वन रेस के आयोजन ने भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि बना दी है। रेस पर जिस तरह बेशुमार खर्च किया जाता है, उससे आयोजक देश अन्य देशों की कतार से अलग खड़े हो जाते हैं। हालांकि आयोजक जेपी समूह ने वर्ष 2015 से इस रेस के सुचारु आयोजन की प्रतिबद्धता जताई है, पर एक वर्ष का ही सही, यह गतिरोध भारतीय छवि खराब कर सकता है। वैसे बर्नी एकलस्टन के मुताबिक, भारत में 2014 फॉर्मूला वन ग्रांप्री की मेजबानी के भविष्य के बारे में फैसला सितम्बर में विश्व मोटर स्पोर्ट परिषद की बैठक के दौरान होगा, जहां वह रेस संचालक अंतरराष्ट्रीय आटोमोबाइल महासंघ को 2014 का स्थायी कार्यक्रम सौंपेंगे। बर्नी एकलस्टन ही रेस का कैलेण्डर तैयार करते हैं और वही आमतौर पर महासंघ के सामने औपचारिक मंजूरी के लिए पेश करते हैं। फॉर्मूला-वन रेस के लिए 22 जगहों के आवेदन हैं जबकि इस रेस में हिस्सा लेने वाली टीमें चाहती हैं कि 20 से ज्यादा रेस न हों।