Tuesday, September 25, 2012
नीतीश की सियासत का दूसरा चेहरा
इसे राजनीति का अजूबा खेल ही कहेंगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक ओर तो राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग कर रहे हैं और दूसरी तरफ उनकी सरकार किसानों के लिए खुशियां लाने में सक्षम एक कदम उठाने से बच रही है। कई बार हो-हल्ले के बाद भी उसकी नींद नहीं खुल रही। विशेष राज्य की मांग पर केंद्र की राजनीति गरमाने को तैयार बैठे नीतीश कुमार को इसी मुद्दे पर अन्य दलों के साथ ही उनकी सहयोगी भाजपा के भी कुछ नेता आड़े हाथों ले रहे हैं। जिलों में यह मुद्दा खूब उठ रहा है।
नीतीश सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में घोषणा की कि गन्ने से इथेनॉल बनाने के लिए कंपनियों को बिहार आमंत्रित किया जाएगा। गन्ना बिहार की एक मुख्य फसल है और लाखों लोगों के जीवनयापन का साधन भी। शुरूआत में कई बड़ी कंपनियों ने इसमें रुचि भी दिखाई। तब कहा गया था कि इससे बिहार की किस्मत बदल जाएगी। इस बात में दम भी था, क्योंकि ऐसा होने से बिहार चीनी और इथेनॉल के उत्पादन में अग्रणी राज्य बन जाता, लेकिन सरकार की इस पूरी कवायद में केंद्र सरकार की एक नीति ने पेंच फंसा दिया। उसके मुताबिक गन्ने से इथेनॉल नहीं बनाया जा सकता। नतीजतन, बड़ी कंपनियों ने अपने हाथ खींच लिए। जाहिर है, यह बिहार और वहां के लोगों के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन बिहार के किसी भी राजनीतिक दल ने केंद्र सरकार से यह नियम बदलने की मांग नहीं की और न आंदोलन किया। बिहार के विकास की बात करने वाले नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की ओर से भी ज्यादा कुछ नहीं कहा गया। अब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन की बात कर रहे हैं। हालांकि बिहार बंटवारे को दस साल से ज्यादा हो गए और बंटवारे के व़क्त से ही विशेष पैकेज और विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग राजनीतिक दल करते रहे हैं। गौर करने की बात यह है कि जब राज्य का बंटवारा हुआ था, तब केंद्र में एनडीए और बिहार में राजद का शासन था, लेकिन तब एनडीए ने बिहार को न तो विशेष पैकेज दिया और न ही विशेष राज्य का दर्जा। जब एनडीए की सरकार गई, तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार और बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार सत्ता में आई। अब नीतीश कुमार विशेष पैकेज और विशेष दर्जे की मांग कर रहे हैं और बाकायदा इसके लिए हस्ताक्षर अभियान और आंदोलन तक छेड़ दिया गया है। सवा करोड़ बिहारियों के हस्ताक्षर प्रधानमंत्री तक पहुंचाने की कवायद की गई। जनता दल के नेता बीते 13 जुलाई को दिल्ली के जंतर-मंतर पर पहुंचे। विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर पार्टी का हस्ताक्षर अभियान महीनों से चल रहा था। जंतर-मंतर पर जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने केंद्र सरकार पर बिहार के खिलाफ साजिश करने की बात कही, भेदभाव करने का आरोप लगाया। शरद यादव ने केंद्र सरकार से चेतावनी के लहजे में कहा कि अगर बिहार पिछड़ा रहेगा तो पूरा देश पिछड़ जाएगा। बहरहाल, इस हस्ताक्षर अभियान और विशेष राज्य के दर्जे की मांग के पीछे की कहानी क्या है? आखिर नीतीश कुमार को विशेष पैकेज की याद अपने दूसरे कार्यकाल में इतनी शिद्दत के साथ क्यों आ रही है? दरअसल, नीतीश कुमार अपने पहले कार्यकाल में सड़क और कानून व्यवस्था दुरस्त करने के नाम पर दूसरी बार सत्ता पा गए। विकास के नाम पर बिहार में सिर्फ सड़कें बनीं। जाहिर तौर पर उनमें से ज्यादातर सड़कें केंद्रीय योजनाओं के अंतर्गत बनी थीं। बिजली आज भी पटना को छोड़कर बिहार के बाकी जिलों के लिए दूर की कौड़ी बनी हुई है। जिस निवेश की बात नीतीश कुमार कर रहे हैं, वह असल में सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। जहां कहीं भी छोटे-मोटे उद्योग लगाए जा रहे हैं, वहां भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर जन विरोध का सामना करना पड़ रहा है। मुजफ्फरपुर और फारबिसगंज में यही हुआ। फारबिसगंज में तो एक कारखाने का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस फायरिंग तक की गई। दरअसल बाढ़, बिजली, विकास, अपराध और भ्रष्टाचार से हारी हुई नीतीश सरकार अब अगले चुनावों (लोकसभा और विधानसभा) की तैयारी में जुट गई है और इसके लिए विशेष पैकेज, विशेष राज्य के दर्जे से अच्छा मुद्दा और क्या हो सकता था। असल में यह एक भावनात्मक मुद्दा है, जिसके सहारे जनता को बरगलाया जा सकता है। खुद कुछ न कर पाने की स्थिति में सीधे-सीधे केंद्र सरकार पर आरोप लगाया जा सकता है। यह कहकर कि केंद्र सरकार ने विशेष पैकेज के तहत पैसा नहीं दिया। अब इसे क्या कहा जाएगा, एक ओर तो बिहार सरकार केंद्र से पैसा पाने के लिए विशेष पैकेज मांग रही है, वहीं दूसरी ओर अपने विधायकों का वेतन-भत्ता कई गुना बढ़ा चुकी है। सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार बिहार के कृषि आधारित उद्योगों के विकास पर ध्यान देने के बजाय जनता का ध्यान विशेष पैकेज और विशेष राज्य की ओर क्यों खींचना चाहते हैं?
Thursday, September 20, 2012
ममता बनर्जी के ये तेवर...
टेलीफोन टैपिंग का आरोप लगाकर तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने सिद्ध कर दिया है कि वह केंद्रीय सत्ता पर काबिज संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अगुवा कांग्रेस पर प्रहार का कोई मौका नहीं छोड़ रहीं। सरकार के अब तक के कार्यकाल में कई बार समस्या का सबब बनीं पश्चिम बंगाल की यह तेजतर्रार मुख्यमंत्री जैसे पूरी शिद्दत से यह बताने में जुटी हैं कि केंद्र सरकार से उनका सम्बन्ध विच्छेद हो चुका है और हर बार की तरह वह सौदेबाजी के मूड में नहीं हैं। वह पूरे दम से जुटी रहीं जब तक उम्मीद थी कि केंद्र से अपने राज्य के लिए भारी-भरकम पैकेज ले पाएंगी। तमाम उम्मीदें पूरी न होने पर उन्होंने नाराजगी की राह अपना ली थी। सरकार में रहते हुए भी उसे नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देने की रणनीति के तहत कुछ माह पूर्व जब प्रधानमंत्री कोलकाता गए तो विमानतल पहुंच कर उनका स्वागत करने का सामान्य शिष्टाचार भी उन्होंने नहीं निभाया। मकसद जुझारू नेता की अपनी छवि को और मजबूत करने का था। हालांकि तस्वीर का दूसरा रुख भी है जिसमें ममता के सामने धर्मसंकट नजर आ रहा है। कांग्रेस ने काफी-कुछ सोच-समझकर दांव खेला है लेकिन तृणमूल हो या अन्य प्रादेशिक दल, उनके विकल्प सीमित हैं। ममता ने पहले भी भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया था और उनका यह प्रयोग असफल हो गया था। आज वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं तो क्या फिर भाजपा के साथ गठबंधन का खतरा उठा सकती हैं? यह भी ध्यान रखना होगा कि अपनी पार्टी के भीतर उनकी जो मनमानी चल रही है, वह लम्बे समय तक कायम नहीं रह सकती। दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह से अपमानित किया, क्या वे उसे भूल गए होंगे? उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा एफडीआई के विरोध में नहीं हैं। पश्चिम बंगाल की जो आर्थिक दुरावस्था है, क्या उद्योग जगत से पूरी तरह नाता तोड़कर तृणमूल सरकार सचमुच स्थिति को सुधार सकती है? कुल मिलाकर ममता बनर्जी पांच साल मुख्यमंत्री तो बनी रह सकती हैं, वे पार्टी के भीतर असंतुष्टों को दबा सकती हैं, लेकिन क्या वे एक सफल और परिवर्तनशील नेतृत्व दे पाएंगी? यह सवाल उन्हें भी परेशान कर रहे हैं। समर्थन वापसी की घोषणा के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों से प्रधानमंत्री की मुलाकात की घोषणा की, उससे यह संदेह पुख्ता हुआ कि ममता के केंद्रीय मंत्री उनसे अलग भी जा सकते हैं। मध्यावधि चुनाव के लिए मन मजबूत कर रही कांग्रेस की योजना ममता से नाखुश इन्हीं केंद्रीय मंत्रियों का चुनाव में प्रयोग करने की भी है, लेकिन तभी जबकि यह फिलहाल ममता के विरुद्ध बगावत का मन न बना पाएं। इस समय ये समर्थन के लिए राजी होते हैं, तो सरकार के लिए सोने में सुहागा।
Tuesday, September 18, 2012
विदेशी निवेश पर खिंचे पाले
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ताबड़तोड़ फैसलों से आर्थिक सुधारों की गाड़ी ने तो रफ्तार पकड़ ली है लेकिन आम आदमी जहां का तहां खड़ा रह गया है। राजनीतिक मोर्चे पर यूपीए सरकार की मुश्किलें और बढ़ती नजर आ रही हैं। कोयला घोटाले पर हंगामे से त्रस्त कांग्रेस का विदेशी निवेश का यह कार्ड डीजल मूल्य वृद्धि और रसोई गैस राशनिंग जैसे जनविरोधी फैसलों के विरोध पर भारी पड़ रहा है। सवाल यह है कि जब पूरा देश इनके खिलाफ खड़ा है, वहीं अन्य दलों के साथ ही कांग्रेस की कुछ अपनी राज्य सरकारें भी विरोध में सुर बुलंद कर रही हैं।
कोयला घोटाले का भूत यूपीए सरकार को जमकर डरा रहा था। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की अग्रणीभूमिका में पूरा विपक्ष सरकार को आड़े हाथों ले रहा था। घोटाले दर घोटालों से घिरी इस सरकार ने ऐसे में डीजल मूल्यवृद्धि और गैस राशनिंग का निर्णय लिया। डीजल का मूल्य बढ़ना सीधे महंगाई बढ़ाने का सबब बनता है और गैस राशनिंग से आम जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। उधर विपक्षी दलों के लिए यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने जा रहा है। लगने लगा था कि सरकार बड़े संकट में फंसने की ओर है, तभी विदेशी निवेश का निर्णय ले लिया गया। सरकार की मंशा विरोधों की भीड़ में विदेशी निवेश को शांतिपूर्ण ढंग से लागू कराने की थी। लेकिन अब सियासी बवंडर शुरू हो चुका है। विपक्षी दलों के साथ ही यूपीए की घटक तृणमूल कांग्रेस और सहयोगी समाजवादी पार्टी ताल ठोंक रही है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो समर्थन वापसी की धमकी देते हुए सरकार को फैसले वापस लेने के लिए 72 घंटे का अल्टीमेटम दिया है। समाजवादी पार्टी भी नाराज है। क्या महंगाई और एफडीआई के चक्कर में मनमोहन सरकार ही चली जाएगी? क्या दो दिन में दो तूफानी फैसलों के भंवर में खुद यूपीए सरकार फंसने वाली है? क्या इन्हीं फैसलों के कारण पड़ेगी यूपीए में आखिरी दरार? ममता और मुलायम के तेवर सख्त हैं लेकिन मनमोहन आश्वस्त! महंगाई और एफडीआई को लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार से ममता बनर्जी हैं बेहद खफा। मुलायम ने हर बार सत्ता का साथ दिया है तो बंगाल की अग्निकन्या राजनैतिक सौदेबाजी तक सीमाबद्ध रही है। इसलिए ममता या मुलायम सरकार गिरा देंगे. ऐसे आसार नहीं है। तृणमूल कांग्रेस ने केंद्र सरकार को 72 घंटे का अल्टीमेटम दिया है वहीं उसे समर्थन दे रही बहुजन समाज पार्टी समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने भी कड़ा विरोध किया है। भारतीय जनता पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) ने फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरने का ऐलान करते हुए विरोध कर रहे संप्रग के सहयोगी दलों को सरकार से बाहर आने की चुनौती दे डाली है। यह सरकार के लिए संकट की बात है।
मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की अनुमति के नफे भी हैं और नुकसान भी। नफा यह है कि इससे देश में भारी मात्रा में विदेशी निवेश आएगा। अगले तीन साल में लगभग एक करोड़ रोजगार के अवसर निकलेंगे, किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों के चंगुल से मुक्ति मिलेगी और वह अपनी फसल को सीधे मल्टी ब्रांड रिटेल कंपनियों को अच्छे दामों पर बेच सकेंगे, इस फसल को उन्हें कहीं बेचने नहीं जाना पड़ेगा बल्कि कंपनियां सीधे खेत से उनके उत्पाद को उठा लेंगी. भंडारण की समस्या नहीं रहेगी क्योंकि यह कंपनियां अपने वेयरहाउस बनाएंगी। इससे फसल को सड़ने से बचाया जा सकेगा। अगर नुकसान की बात की जाए तो इसके कई नुकसान भी हैं। मल्टी ब्रांड रिटेल से 30 करोड़ लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इनमें पांच करोड़ जनरल स्टोर या छोटी-मोटी परचून की दुकान चलाने वाले खुदरा कारोबारियों के अलावा आढ़तिये, पल्लेदार, ठेला मजदूर व अन्य लोग शामिल हैं। देश में बहुराष्ट्रीय स्टोर खुलने के बाद इन स्टोरों पर ग्राहकों को रिझाने के लिए अनेक योजनाएं चलाई जाएंगी जिससे छोटी-मोटी दुकान चलाने वालों का धंधा तो चौपट होगा ही साथ ही इससे जुड़े करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। चूंकि मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी निवेश की अनुमति दी गई है इसलिए इन स्टोरों पर नियंत्रण भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही होगा। अत: इनकी सहयोगी भारतीय कंपनियां चाहकर भी अपने देश के नागरिकों के हितों की रक्षा नहीं कर पाएंगी। उधर विमानन क्षेत्र में 49 फीसद एफडीआई की अनुमति मिलने का भी देश के विमानन उद्योग पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार से असर होगा। विमानन क्षेत्र में एफडीआई में भारतीय एयरलाइंस की बहुलांश हिस्सेदारी होने से अधिकतर नियंत्रण भारतीय कंपनियों का ही होगा लेकिन विदेशी कंपनी भी कई मामलों में अपना नियंत्रण रखेगी। इससे कर्मचारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं। विदेशी कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए एक निश्चित् प्रतिशत तय कर सकती हैं। इससे पायलट, केबिन क्रू स्टाफ और ग्राउंड हैंडलिंग स्टाफ में भारतीय कर्मचारियों की संख्या कम होगी। इसके अलावा विमानन क्षेत्र में एफडीआई का फायदा भी होगा। देश के छोटे शहरों में उड़ान शुरू करने के रास्ते खुलेंगे। सभी राज्यों की राजधानियों का आपस में विमान संपर्क हो जाएगा और यात्रियों का कम समय में गंतव्य पर पहुंचने में आसानी होगी। कुल मिलाकर सरकार के लिए संकट की घड़ी है। वैसे मनमोहन सिंह जिस तरह अडिग हैं, उससे लगता है कि कांग्रेस भी चुनाव के लिए कमर कस रही है। इन फैसलों को जरूरी बताकर वह मैदान में होगी।
रणनीति भी है ये
रिटेल कारोबार के क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी पर कांग्रेस की एक रणनीति राज्यों के गले फंसने लगी है। वह उन राज्यों में इसे कारगर ढंग से लागू करने को तैयार है जहां उसकी सरकारें हैं। मकसद साफ है, फैसले से राज्यों में विदेशी निवेश बढ़ा और रोजगार के अवसरों में कमी की अटकलें निराधार सिद्ध हुईं तो वह हमलावर हो जाएगी। इसके बाद उसे चुनावों में अपने फैसले को न्यायसंगत ठहराने के तर्क मिल जाएंगे। देश के गैर-कांग्रेस शासित राज्यों के ज्यादातर मुख्यमंत्रियों ने इस पर अपना रुख साफ करते हुए, इसे अपने-अपने राज्यों में लागू न करने का फैसला सुना दिया है। त्रिपुरा और मिजोरम भी फैसले के खिलाफ हैं। दक्षिण भारत के बड़े राज्य भी विदेशी किराना के फैसले के विरोध में खड़े हैं। केरल ने भी लागू करने से साफ इंकार किया है। इसका मतलब हुआ कि भाजपा-एनडीए शासित बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गोवा, गुजरात और झारखंड के साथ साथ उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओड़िशा जैसे राज्य रिटेल में विदेशी निवेश के फैसले से फिलहाल दूर रहेंगे। ऐसे में कांग्रेस की उम्मीदें अपने राज्यों में टिकी हैं। हरियाणा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, असम, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, महाराष्ट्र, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और नागालैंड जैसे राज्य रिटेल में एफडीआई के पक्ष में हैं। इन राज्यों के साथ ही दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में सबसे ज्यादा विदेशी किराना स्टोर खुलने की उम्मीद है। यदि इन राज्यों में विदेशी निवेश आने लगा और सरकार का फैसला सही साबित हुआ तो अन्य राज्य कटघरे में आ जाएंगे और कांग्रेस को इसका विशेष फायदा होगा, तब अन्य राज्यों पर इसे अपनाने का दबाव आएगा। किसी नीतिगत फैसले पर गेंद को विपक्षी पाले में फेंकने और तमाशा देखने की लम्बी परम्परा रही है। जब केंद्र की नीतियों पर राज्यों का विरोध हो, तो इससे बचने का अच्छा तरीका होता है कि फैसले को मानने न मानने का अधिकार राज्यों पर छोड़ दें। इससे आप कुछ देर के लिए सुरक्षित जगह पा लेते हैं। मौजूदा फैसलों पर भी केंद्र सरकार ने राज्यों से यही कहा है कि यदि राज्य सरकारें यह सोचती हैं कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आने और देश में बड़े-बड़े विदेशी किराना स्टोर खुलने से देश के करोड़ों छोटे व्यापारी प्रभावित होंगे, तो वे इसे अपने राज्यों में अनुमति न दें और फिर एक बड़ी विदेशी पूंजी से वंचित रहें। अन्य दलों की तरह कांग्रेस को भी आम चुनाव दिखाई देने लगे हैं। इसीलिये उसने पहले डीजल मूल्य वृद्धि और रसोई गैस सिलेण्डर की राशनिंग का निर्णय किया, ताकि कोयला घोटाले से ध्यान हटे और फिर विदेशी निवेश को स्वीकृति देकर मूल्यवृद्धि से भी ध्यान हटाने का कारगर प्रयास किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सख्त तेवर भी इन्हीं तैयारियों का एक रूप हैं।
Sunday, September 16, 2012
आधे बरस का कामकाज
उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 15 मार्च, 2012 को जब सत्ता संभाली थी, तब प्रदेश की जनता और खासतौर से युवाओं को उम्मीदें चरम पर थीं। तब अखिलेश ने कहा था कि चुनाव में जनता से किए गए सभी वादे पूरे किए जाएंगे और छह महीने बाद भी इस मामले में खासे गंभीर हैं। उसी वक्त उनके पिता और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी कहा था कि अखिलेश को छह माह का समय दिया जाना चाहिए। बेशक, पिछली सरकार की तरह तंत्र ठप नहीं है और सरकार काम करती नजर आ रही है। मुख्यमंत्री सक्रिय हैं, बार-बार ढर्रे से उतर चुकी चीजों पर मेहनत करते नजर आते हैं। कन्या विद्याधन, बेरोजगारी भत्ता, किसानों की कर्ज माफी, किसानों से मुकदमे वापस लेने और छात्रों को लैपटॉप एवं टैबलेट देने की योजनाएं अंजाम तक पहुंचीं या पहुंच रही हैं। सरकार बनने के साथ ही अखिलेश के सामने चुनौती थी कि सूबे में कानून-व्यवस्था का राज स्थापित किया जाए लेकिन उनके कार्यकर्ताओं पर ही उत्पात फैलाने के आरोप लग रहे हैं। सपाइयों के इसी रवैये को देखते हुए मुलायम को खुद आगे आकर उन्हें अनुशासन में रहने की नसीहत देनी पड़ी।
घोषणाएं पूरी करने में आगे
यह सच है कि सरकार को मतदाताओं ने पांच साल के लिए पांच साल के लिए चुना है और अभी महज छह माह हुए हैं। इतना कार्यकाल किसी भी सरकार के कामकाज के आकलन के लिए उपयुक्त समय नहीं होता और उत्तर प्रदेश सरीखे बड़ी आबादी वाले राज्य की सरकार के लिए तो और भी नहीं। वैसे भी राज्य सरकार यह कहती रही है कि उसे विरासत में कुछ भी ठीक नहीं मिला। हर मोर्चे पर खामियों और समस्याओं से उसका सामना हुआ है। फिर भी उम्मीद की जाती है कि इन छह महीनों में राज्य सरकार खुद को और साथ ही अपने प्रशासन को ढर्रे पर लाने में सक्षम हो गई होगी। समीक्षा होनी चाहिये क्योंकि अखिलेश सरकार ने स्थितियों को ठीक करने के लिए छह माह का समय मांगा था। बेशक, इन छह महीनों में सपा सरकार ने तमाम चुनावी वादे पूरे किए हैं जो उसने अपने घोषणापत्र में किए थे। बेरोजगारी भत्ते का वितरण शुरू हो गया है और लैपटॉप बांटे जाने वाले हैं। इसके लिए जिलों से आंकड़े मुख्यालय को प्राप्त हो गए हैं। सरकार इस अवधि में यह सिद्ध करने में कामयाब रही है कि वह अपनी चुनावी घोषणाएं पूरी करने के प्रति गंभीर है। अन्य दलों के नेताओं से उलट मुख्यमंत्री खुद बार-बार घोषणाओं को भूलते नहीं, बल्कि उन पर हुए कार्य की समीक्षा करते हैं। विकास की योजनाओं को भी मुख्यमंत्री कार्यालय से तुरंत एप्रूवल दे दिया जाता है।
किसानों के हित में निर्णय
उत्तर प्रदेश सरकार ने खुद को किसान हितैषी सिद्ध करने की कोशिशें की हैं। इसी क्रम में उनके कर्ज माफ करने, भूमि अधिग्रहण के मामलों में दर्ज मुकदमों की वापसी, गन्ना बकाये के भुगतान के साथ ही पर्याप्त पानी-बिजली की घोषणाएं हुई हैं। किसानों की बिजली के लिए फीडर से अलग लाइन बिछाने की भी योजना है। मुख्यमंत्री ने खुद कर्जदार किसानों की वसूली प्रमाण जारी (आरसी) नहीं करने का भरोसा दिया है। यमुना एक्सप्रेस वे पर किसानों की सुविधा के लिए सर्विस लेन बनाने के लिए जेपी ग्रुप को निर्देशित किया गया है हालांकि सम्बन्धित किसानों ने हाल ही में आंदोलन शुरू किया है। ग्रामीण क्षेत्रों और किसानों के विकास के लिए राज्य सरकार ने कुछ योजनाएं भी घोषित की हैं।
स्वास्थ्य क्षेत्र में पहल
हाल ही में सरकारी चिकित्सालयों को 200 एम्बुलेंस मिली हैं जबकि नवम्बर तक 1000 और एम्बुलेंस दी जाएंगी। नयी एंबुलेंस सेवा विशेषकर गर्भवती महिलाओं के लिए होगी। गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को यह सुविधा मुफ्त दी जाएगी। सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने पर 35 रुपये की फीस माफ कर दी गई है। छह साल से सोलह साल तक सरकारी स्कूल और कालेज जाने वाली लड़कियों के मुफ्त इलाज की भी घोषणा की गई। सीएम के अनुसार, सरकार ने जनता की सुविधा के लिए टोल प्री नंबर शुरू किये जिस पर 5721 शिकायतें मिली हैं और इनमें 4622 का निस्तारण भी हो गया। सभी विकास खंडों में स्वास्थ्य सेवा में सुधार किया जा रहा है। पचास महिला अस्पतालों की क्षमता बढ़ेगी जिसके तहत चिकित्सालयों में सौ अतिरिक्त बेड की व्यवस्था की जाएगी।
कार्रवाई से कड़े संकेत
उत्तर प्रदेश सरकार ने लोक निर्माण विभाग, सिंचाई तथा सहकारिता विभागों के करीब 60 अभियंताओं और अधिकारियों को राज्य की पूर्ववर्ती मायावती सरकार के कार्यकाल में विभिन्न विकास परियोजनाओं में अनियमितता बरतने के आरोप में निलम्बित किया है।,पूर्ववर्ती मायावती सरकार के कार्यकाल में लखनऊ में बनवाए गए कांशीराम स्मारक, इको पार्क, भीमराव अम्बेडकर स्मारक पार्क, बौद्ध विहार शांति उपवन के निर्माण में अनियमितता के आरोप में राजकीय निर्माण निगम के अफसरों पर भी गाज गिरी है। इसके पीछे सरकार की मंशा भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़े कदमों का संकेत देना था हालांकि निलंबन पश्चात की कार्रवाई फिलहाल बेहद मंद गति से चल रही है।
पूरे देश के लिए उदाहरण
अखिलेश सरकार ने एक ऐसा फैसला किया, जिसे पूरे देश में लागू करने की मांग उठी। इसके तहत ऐसे बुजुर्ग माता-पिता का उनके बच्चों को जीवनभर भरण-पोषण करना होगा जिन्होंने अपनी संपत्ति अपने बच्चों के नाम कर दी है। यदि बच्चे एसा नहीं करते हैं या अपने मां- बाप को बेघर करते हैं तो माता- पिता के पास अपनी संपत्ति वापस लेने का पूरा अधिकार है।
आगरा के लिए घोषणाएं
मुख्यमंत्री 10 सितम्बर को जब पहली बार आगरा आए तो लोगों की तमाम उम्मीदें पूरी की। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की पैरवी के साथ ही आधारभूत सुविधाएं- सड़क, सफाई और पेयजल के लिए कार्य योजनाओं को शीघ्र पूरी करने की घोषणाएं की। आगरा के जूता-चमड़ा, मोटर-जनरेटर और पर्यटन उद्योग के हित में फैसले करने का भी भरोसा दिलाया। उन्होंने कहा कि आगरा में विद्युत आपूर्ति की स्थिति की समीक्षा कर उसमें और सुधार किया जाएगा। निजी कंपनी टोरंट से करार की समीक्षा होगी। ड्रेनेज-सीवरेज और यमुना में प्रदूषण रोकने की योजनाओं को भी वह प्राथमिकता के आधार पर देखेंगे। नालों का पानी ट्रीटमेंट के बाद ही यमुना में डाला जाए, इसके लिए उन्होंने मंडलायुक्त को निर्देशित किया। आगरा में विश्व स्तरीय पर्यटन सुविधाओं के लिए 140 करोड़ की योजनाएं तैयार हुई हैं।
अधूरे पड़े बड़े वायदे
मुख्यमंत्री ने बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के ड्रीम प्रोजेक्ट, स्मारकों, पार्कों को नहीं तोड़ने की बात की थी लेकिन कहा था कि उनमें खाली पड़े स्थानों पर अस्पताल और स्कूल बनवाएंगे। छह माह के कार्यकाल में उनके स्तर से इसका अभी तक कोई ‘ब्ल्यू प्रिंट’ तक तैयार नहीं कराया गया है। सपा ने वायदा किया था कि सरकार बनते ही भ्रष्टाचारियों को जेल भेजा जाएगा। भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयोग का गठन किया जाएगा लेकिन सरकार ने अभी तक यह वायदा पूरा नहीं किया है। सीएम मानते हैं कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) में हुए घोटाले से राज्य की छवि खराब हुई है पर दोषियों के विरुद्ध राज्य सरकार का रवैया कड़ा नहीं माना जा रहा। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवा से जुड़े कर्मचारियों की कमी है।
मंत्री बने सिरदर्द
अखिलेश सरकार के लिए सिरदर्द उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी ही बन रहे हैं। नजदीकी मंत्रियों ने अखिलेश से ऐसे फैसलों की घोषणा कराई, जो फजीहत के बाद बदलने पड़े। मुख्यमंत्री के चाचा और प्रदेश के लोकनिर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने पिछली सरकार के समय निठारी जैसे कांड के लिए कहा था, 'बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं घटती रहती हैं।' शिवपाल ने हाल ही में छोटे-छोटे भ्रष्टाचार की हिमायत कर डाली थी। वरिष्ठ मंत्री आजम खां न जाने कब, सरकार के विरुद्ध ही बोलने लगें, कोई नहीं जानता। शिवपाल ने मायावती के बंगले में सरकारी धन के इस्तेमाल का आरोप लगाया लेकिन सरकार अगले दिन इसकी जांच कराने से पलट गई। इसके बाद शिवपाल ने पूर्व सहकारिता मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य पर घोटाले का आरोप लगाया गया लेकिन जब मौर्य ने पलटवार किया तो शिवपाल कन्नी काटते नजर आए। आजम भी शिवपाल से पीछे नहीं रहे। नगर आयुक्त की नियुक्ति के मामले को लेकर उन्होंने विभाग का कामकाज ही छोड़ दिया। रूठे आजम को मनाने के लिए सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी। उसी तरह कई बार आजम ने अपनी हठ के आगे सरकार को झुकाया। हाल ही में कोलकाता में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने इस पर नाराजगी जाहिर की थी और इशारों ही इशारों में समझा दिया था कि वह यह बर्दाश्त नहीं करने वाले।
कानून व्यवस्था पर अंगुलियां
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती चरमराई कानून व्यवस्था को दुरुस्त कर साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर नियंत्रण करना है। छह महीने के कार्यकाल के अंदर साम्प्रदायिक हिंसा की पांच घटनाएं हो चुकी हैं। इसके अलावा असम हिंसा के विरोध में उपद्रवियों ने पुलिस प्रशासन से बेखौफ होकर राजधानी लखनऊ के साथ कानपुर और इलाहाबाद में पार्कों और सैकड़ों वाहनों में तोड़फोड़ और आगजनी की। आलोचक कहते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा की हर घटना के बाद मुख्यमंत्री ने कार्रवाई के नाम पर केवल संबंधित जिलों के जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक का स्थानांतरण कर दिया। किसी हिंसाग्रस्त जगह का उन्होंने दौरा भी नहीं किया।
बाहुबलियों को संरक्षण का आरोप
राष्ट्रपति बनने से पहले प्रणब मुखर्जी की लखनऊ यात्रा से पहले एक भोज काफी चर्चित हुआ था जिसमें बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी और विजय मिश्रा भी शामिल हुए थे जबकि कारावास की सजा काट रहे दोनों ही अपराधियों को जेल से बाहर सिर्फ विधानसभा में भाग लेने तक की ही इजाजत है। यही नहीं, कई वर्षों तक जेल में रहे रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया प्रदेश के जेलमंत्री हैं। कवयित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे अमरमणि त्रिपाठी को जेल में सुविधाएं मुहैया कराने के भी आरोप इस समय जोरदारी से लग रहे हैं। बताते हैं कि काफी दिनों से वह हर दोपहर जेल से बाहर विचरण करने जा रहे हैं। पुलिस महकमा उन्हें इलाज के बहाने बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर ले जाता है। मेडिकल कॉलेज में त्रिपाठी को एक प्राइवेट लक्जरी रूम मिला हुआ है। यहां वह लोगों की समस्याएं हल करते हैं।
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