बनारस की कला का दुनिया में डंका है, और कलाकारों का सबसे प्रिय विषय गंगा है। कोई उसे अपनी बदहाली पर रोता दिखाता है तो पौराणिक महत्व को इंगित करता है। रंगों की इस दुनिया में गंगा बिकती है। काशी 24 घंटे जीती है, उल्लास से भरी है, अपने जीवंत लोगों से उसमें हर पल जिंदगी दौड़ती है। किसी और शहर से उलट इस शहर के तमाम हृदयस्थल हैं, गलियां हों या गंगा के घाट या ढेरों मोहल्ले, सब जीना सिखाते हैं। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के नाम से चर्चित हरिश्चंद्र घाट पर जाइये तो वो देखेंगे जो सिर्फ इसी शहर में हो सकता है, कि श्मशान पर भी लोग शाम काटने पहुंच जाया करते हैं। कहते हैं कि काशी में मरने पर मोक्ष मिलता है, इसीलिये जीवन के अंतिम दिन काटने के लिए पहुंचने वालों की संख्या भी यहां अच्छी-खासी होती है। हम यह भी नहीं भूल सकते कि नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी इकाइयां प्रदेश सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। दिल्ली से आया पैसा फिर कहीं जेबों में न पहुंच जाए और काशी ताकती रह जाए, कलियुग है ये।
लेकिन बनारस की तस्वीर-तकदीर बदलने की बातों के दौरान हम यह नहीं भूल सकते कि उत्तर प्रदेश सरकार के बगैर किसी भी सपने के साकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शहर उन्नत तब होगा जब 24 घंटे अबाध विद्युत आपूर्ति मयस्सर हो जाएगी और यह जिम्मा प्रदेश सरकार को उठाना है। मोदी के सांसद बनने के बाद से यह शहर विद्युत वितरण में जबर्दस्त सौतेलापन सहन कर रहा है। लेकिन राजनीतिक मतभेद से इतर, हम यह भी नहीं भूल सकते कि राज्य में बिजली का संकट भी कम नहीं। नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी तमाम इकाइयां भी सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। ऐसे में डर यह रहेगा कि दिल्ली से आया पैसा कहीं शासन-सत्ता और स्थानीय अफसरों के गठजोड़ की जेब में न चला जाए। हम पुरानी योजनाओं की समीक्षा किए बगैर हम कैसे नई योजनाओं से अपेक्षाएं लगा सकते हैं। अब जापान की ही बात करें तो उसके सहयोग से यमुना शुद्धिकरण योजना प्रारंभ हुई थी पर स्थितियां बदली नहीं, नदी पर अब भी प्रदूषण की मार है बल्कि पहले से अधिक है। जापान सहयोग कर सकता है, रोडमैप बनाकर तकनीक दे सकता है। लेकिन तमाम बिंदु और भी हैं जिनकी अनदेखी सपने के साकार होने में बाधक बन सकती है।
वाराणसी यूं तो हर दिल में है, सदियों से चर्चा का विषय है। नरेंद्र मोदी ने चुनाव लड़ा तो काशी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छा गई। मोदी जीते और अब देश के पीएम हैं, सो कर्ज उन्हें उतारना है और वो उपक्रम शुरू कर चुके हैं। जापानी शहर क्योटो की तर्ज पर उन्होंने ऐतिहासिक शहर के कायाकल्प की तैयारी की है। मैंने भी कई दफा अपने भीतर काशी को जीया है, महसूस किया है। मेरे जैसे तमाम होंगे जिनकी नजर में काशी जैसा दूसरा शहर कोई नहीं। काशी की ही तरह आध्यात्मिक शहर क्योटो ने निस्संदेह उन्नति की है, बुलेट ट्रेन से लेकर कोई अत्याधुनिक सुविधा ऐसी नहीं जो इस शहर को हासिल न हो। काशी की ही तरह क्योटो भी आध्यात्मिक शहर है, यहां कई प्राचीन विशाल मंदिर हैं, यह जापान में बौद्ध धर्म का केंद्र है और अहमियत इतनी है कि यह 11वीं शताब्दी में यह जापान की राजधानी रहा है। जापान को काशी की विरासत के संरक्षण, आधुनिकीकरण, कला, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करना है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में काशी की मूल छवि को क्षति पहुंचने की भी खासी आशंकाएं हैं क्योंकि काशी और क्योटो में कई अंतर हैं जो तस्वीर के बदलने में बाधक हो सकते हैं। काशी गंगा का शहर है लेकिन बाढ़ उसे बरसात के मौसम में हर साल डराती है। गंगाजल नदी की सीमा लांघकर सामनेघाट के आसपास के बड़े भूभाग को चपेट में ले लेता है, यही नजारे शहर में अन्य तमाम स्थानों पर भी आम होते हैं। बरसाती जल की निकासी के भी पुख्ता इंतजामात नहीं हैं क्योटा इससे उलट पर्वतीय तलहटी में है और वहां इस तरह की कोई समस्या नहीं है। क्योटो का विस्तार अनियमित नहीं जबकि काशी ने बेतरतीब ढंग से विस्तार पाया है। शहर अपनी आबादी का बोझ तो सह ही रहा है, बिहार जैसे निर्धन पड़ोसी राज्य से भी यहां अच्छी-खासी संख्या में लोगों का पलायन हुआ है। नतीजतन, गंगा के डूब क्षेत्र में भी अनाधिकृत कॉलोनियां बसा ली गई हैं।
क्योटो में पुरातन इमारतों और आध्यात्मिक स्थलों का बखूबी संरक्षण हुआ है लेकिन काशी में संरक्षण तो दूर, यह स्थल अवैध कब्जों की मार बर्दाश्त कर रहे हैं। गंगा घाट भी अतिक्रमण के चलते अपना पुरातन स्वरूप खो रहे हैं। जापान ने न केवल पुराना क्योटो संरक्षित किया बल्कि नया शहर भी बसाया जो स्मार्ट सिटी की सारी खूबियों से भरपूर है। बनारस में यह असंभव नजर आता है क्योंकि योजनाबद्ध विकास के तहत अगर नया शहर बसाने की कोशिश की जाएगी तो निवेश जुटा पाना मुश्किल होगा। अवैध कब्जे करने वालों से यदि हम नियमित रूप से अत्याधुनिक सुविधा युक्त महंगे आवास खरीदने की बात करेंगे तो यह हास्यास्पद ही कहलाएगा। क्योटो में समृद्ध जापानी फिल्म उद्योग है, सूचना प्रौद्योगिकी की इकाइयां हैं। दूसरी तरफ काशी में भोजपुरी फिल्मों के दर्शक तो बहुत हैं लेकिन उद्योग यहां विकसित नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी हब उस उत्तर प्रदेश सरकार को विकसित करना होगा जो अपनी राजधानी लखनऊ और ताजनगरी आगरा में तमाम प्रयासों में मुंह की खा चुकी है। उसके आमंत्रणों पर कंपनियां आती तो हैं लेकिन इकाई स्थापना की बात आते ही कन्नी काट जाती हैं। हां, क्योटो की तरह कला का केंद्र बनारस भी है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने देश को कई नामी-गिरामी कलाकार दिए हैं, घाटों पर जाकर देखिए तो पाएंगे कि कला का यहां माहौल भी है। जापानी शहर की तरह यहां पर्यटकों की भी अच्छी-खासी आवाजाही है। काशी विश्वनाथ, संकटमोचक हनुमान मंदिर, काल भैरव, संत रविदास मठ समेत तमाम धार्मिक स्थल हैं जो हर साल लाखों पर्यटकों के बनारस आने का जरिया बनते हैं। यह भी तय है कि क्योटो की तर्ज पर विकास के बाद पर्यटकों की संख्या में और भी वृद्धि हो जाएगी। एक प्लस प्वाइंट यह भी है कि यहां अपना बाबतपुर हवाई अड्डा है और ट्रेन कनेक्टिविटी भी अच्छी-खासी है। पास ही स्थित मुगलसराय देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है। क्योटो की कामयाबी में एक पन्ना इसी ट्रेन नेटवर्क कनेक्टिविटी के कारण जुड़ा है।लेकिन बनारस की तस्वीर-तकदीर बदलने की बातों के दौरान हम यह नहीं भूल सकते कि उत्तर प्रदेश सरकार के बगैर किसी भी सपने के साकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शहर उन्नत तब होगा जब 24 घंटे अबाध विद्युत आपूर्ति मयस्सर हो जाएगी और यह जिम्मा प्रदेश सरकार को उठाना है। मोदी के सांसद बनने के बाद से यह शहर विद्युत वितरण में जबर्दस्त सौतेलापन सहन कर रहा है। लेकिन राजनीतिक मतभेद से इतर, हम यह भी नहीं भूल सकते कि राज्य में बिजली का संकट भी कम नहीं। नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसी तमाम इकाइयां भी सरकार के नियंत्रण में हैं, वह कैसे अपने आका की मर्जी के बगैर काम कर पाएंगी। ऐसे में डर यह रहेगा कि दिल्ली से आया पैसा कहीं शासन-सत्ता और स्थानीय अफसरों के गठजोड़ की जेब में न चला जाए। हम पुरानी योजनाओं की समीक्षा किए बगैर हम कैसे नई योजनाओं से अपेक्षाएं लगा सकते हैं। अब जापान की ही बात करें तो उसके सहयोग से यमुना शुद्धिकरण योजना प्रारंभ हुई थी पर स्थितियां बदली नहीं, नदी पर अब भी प्रदूषण की मार है बल्कि पहले से अधिक है। जापान सहयोग कर सकता है, रोडमैप बनाकर तकनीक दे सकता है। लेकिन तमाम बिंदु और भी हैं जिनकी अनदेखी सपने के साकार होने में बाधक बन सकती है।
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