Monday, February 12, 2024

भारत रत्न से राजनीतिक बिसात


लंबे समय का इंतजार पूरा हुआ है। अभी तक उपेक्षा की शिकार रहीं राजनीतिक शख्सियतों को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया है। लेकिन यह, इतनी ही बात नहीं। कुछ हफ्तों की दूरी पर खड़े चुनाव की बिसात पर चाल भी है ये। और, आश्चर्यजनक ढंग से गठबंधन की सरकार ने विपक्ष की सारी रणनीतियां ढेर कर दी हैं। असर उत्तर प्रदेश या बिहार तक नहीं, दक्षिण तक है। विपक्ष जैसे हतप्रभ है।

भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जैसे अन्याय के पुराने दौर के साथ ही जैसे विपक्ष को चारों खाने चित्त करने का मोर्चा खोले हुए है। कुछ दिन पहले बिहार से शुरुआत हुई। जन जन के नेता, स्वच्छ छवि के प्रतीक कर्पूरी ठाकुर को शीर्ष सम्मान देने की घोषणा हुई। ठाकुर बिहार से थे। लेकिन वार लगा वहां की सरकार पर। जिस नेता के लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे शिष्य हों, उसे अचानक सम्मानित किए जाने की खबर से जैसे तूफान ला दिया। लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के तो काटो खून नहीं। नीतीश कुमार तो पाला बदलने के मौके के इंतजार में  थे ही, उन्होंने तत्काल स्वागत किया। नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के साथ ही राष्ट्रीय जनता दल की सरकार औंधे मुंह आ गिरी। भाजपा विजेता, उसकी सरकार बन गई।  यह बड़ा झटका था क्योंकि नीतीश विपक्षी इंडी गठबंधन की धुरी थे। धुरी ही घूम कर भाजपा के पाले में आ गिरी। बिहार में समीकरण बदल चुके हैं। एक तरफ विवादों, ईडी जैसी समस्याओं से घिरी राष्ट्रीय जनता दल अकेला मैदान में उतरने से डर रहा है, दूसरी ओर भाजपा के साथ राज्य के ज्यादातर दल खड़े हैं। 

इंडी गठबंधन अभी सदमे से उबरा भी नहीं था, कि कल एक और वज्रपात हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद किसानों के मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न प्रदान करने की सूचना सार्वजनिक की। चौधरी साहब का अलग ही रंग है। उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में वो जाटों के साथ ही किसानों के नायक हैं। उन जैसा नेता किसानों को कोई मिला ही नहीं। और किसानों-जाटों के इस वोट बैंक की बदौलत कोई भी सियासी दल उत्तर प्रदेश के साथ ही हरियाणा में भी अच्छा कमाल दिखा सकता है। और यही हुआ। कमाल ही हुआ, घोषणा के कुछ ही देर बाद चौधरी साहब के प्रपौत्र   और राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष जयंत चौधरी की प्रतिक्रिया आ गई। जयंत भी अब इंडी गठबंधन से बाहर होने की तैयारी में हैं, सबकुछ तय है, बस घोषणा बाकी है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में रालोद का असर काफी है। कई सीटें जाटों की अधिक संख्या होने की वजह से प्रभावित होती रही रही हैं। जयंत चौधरी एनडीए के साथ आ रहे हैं और इससे भाजपा न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को साधेगी, बल्कि हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान सहित उत्तर-मध्य भारत के अलग-अलग हिस्सों में बड़े किसान समुदायों और जाटों के दम और मजबूत होती नजर आएगी। जाटों की संख्या की वजह से उत्तर प्रदेश की 80 में से 27 सीटों पर असर संभावित है।

किसानों के ही एक और प्रिय एसएम स्वामीनाथन को भारत रत्न की घोषणा से भी भाजपा किसानों में पैंठ बढ़ाती दिखती है। हालांकि स्वामीनाथन का लाभ राजनीतिक कम, इस बात से ज्यादा है कि भाजपा को यह श्रेय मिल रहा है कि वह उपेक्षित शख्सियतों की सुधि लेती है।  निशाना एक और भी साधा गया है। कांग्रेस के होने के बावजूद कांग्रेस से ही उपेक्षित दक्षिण भारतीय नेता पीवी नरसिम्हा राव को भारत रत्न देने से भाजपा को यह आरोप असत्य साबित करने में मदद मिलेगी कि वह दक्षिण के साथ सौतेला व्यवहार करती है। इसी दांव से पिछले दिनों कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने दिल्ली में धरना देकर भाजपा का घेराव किया है। को दक्षिण भारत में कितना सियासी फायदा होगा, यह तो चुनाव परिणाम बताएंगे। लेकिन यह तय है कि जिस तरह से आर्थिक सुधारों के लिए नरसिम्हा राव ने देश के विकास में बड़ा योगदान दिया, आर्थिक सशक्तिकरण में उनका योगदान सर्वविदित है, कांग्रेस का दुर्भाग्य कि वह इसका श्रेय नहीं ले पाती। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भाजपा अपना विस्तार कर रही है, उसमें पीवी नरसिम्हा राव को दिए जाने वाले भारत रत्न की घोषणा से लाभ मिल सकता है। दोनों राज्यों में भाजपा राजनीतिक गठबंधन के लिए मशक्कत कर रही है।

Monday, May 29, 2023

हिंदी पत्रकारिता: चुनौतियों में फंसी उम्मीदें


कलम के सिपाही, लोकतंत्र के रक्षक और, न जाने क्या-क्या... पत्रकार पर शायद इस समय सबसे बड़ी जिम्मेदारी है या मानी जाती है। घर के सामने सरकारी नल से बहता पानी, बेरोजगारी के कारण लुटती जवानी, और सामाजिक समस्याएं हों या राजनीतिक, सब का हल जैसे पत्रकार को ही करना है। और, इतने बोझ तले दबा जा रहा है, कुचला जा रहा है। उम्मीदें चुनौतियों में फंसी हैं।

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इसी दिन साल 1826 में हिंदी भाषा का पहला अखबार 'उदन्त मार्तण्ड' प्रकाशित होना शुरू हुआ था। बहुत समय गुजर गया। पत्रकारिता ने तमाम अग्नि परीक्षा दीं, अपना दायित्व निभाया और कभी-कभी चूक भी गई। दौर आते रहे जाते रहे, पर पत्रकार वहीं अविचल खड़ा रहा। समाज में सम्मान की खातिर मैदान में डटा रहा। आजादी की लड़ाई से लेकर अब तक, ना जाने कितनी कसौटियों पर उसे कसा गया। वेतन के नाम पर मामूली रकम से जीवन निर्वाह का यह संघर्ष वाकई बहुत कठिन था। 

लेकिन आज का दौर सबसे अलग है। शायद सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण। सीधा और संगीन आरोप है कि कलम अब निष्पक्ष नहीं रही। छोटी से लेकर बड़ी रकम में बिकती है।  गंभीरतम आरोप ये भी है कि बड़े मीडिया घराने सौदे करके बैठे हैं, कलम बंधुआ सी है। हालांकि आरोप तो पत्रकार के जीवन का अभिन्न अंग भी हैं, लेकिन जब सब कुछ सामने दिखने भी लगे तो, बात कष्टप्रद हो जाती है। सबसे बड़ी चुनौती जो घुन की तरह मीडिया को लील रही है, वो फर्जी पत्रकारों की वजह से आई है। हालत इतनी खराब है कि अपराधी किसी असली या नकली चैनल का माइक पकड़ लेते हैं या फिर आईकार्ड। और फिर क्या होता है, ये बताने की जरूरत नहीं। मीडिया जगत में आपाधापी सी है। नकली पत्रकारों की वजह से असली बताने से भी बचने लगे हैं कि वो पत्रकार हैं।

सबसे खास बात यह है कि युवा पीढ़ी के मेधावी लोग जो मीडिया में अपना करियर बनाना चाहते थे, उनका मोहभंग हो चुका है। उसका नतीजा है कि दोयम दर्जे का वो युवा, जिसके पास न विचार हैं, न ज्ञान, वो घुसा चला रहा है। पत्रकारिता बौद्धिक पेशा है। बिन बुद्धि पत्रकारिता जैसे बिना स्याही की कलम। अब क्योंकि विज्ञान और तकनीक का चरम है, इसलिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर ऐसे बुद्धि भ्रष्ट लोग अर्थ का अनर्थ कर दे रहे हैं। और, खामियाजा पत्रकारिता की विश्वसनीयता भोग रही है। इलेक्ट्रॉनिक चैनल पर इतनी आपाधापी है कि खबरों की सत्यता कभी-कभी शक के दायरे में आ जाती है, अखबार जो लिखते हैं, उन लाइनों में सच का दबा गला साफ नजर आ जाता है। न्यूज़ पर व्यूज हावी हैं।

सोशल मीडिया के तौर पर पैदा हुआ नया मीडिया अपेक्षा पर बिल्कुल खरा नहीं उतर रहा। इतने अगंभीर यूट्यूब चैनल हैं कि अच्छे चैनल भीड़ में गुम से हैं। लोग जो चाहे लिख और दिखा रहे हैं। खबर के चीथड़े उड़ रहे हैं, चीत्कार रही हैं खबरें,  खबरों की आत्मा मर रही है साथ में पत्रकारिता भी बुरे हाल में है, शायद अपनी उम्र के सबसे बुरे दौर में।

तो फिर उम्मीद कहां है। निराशा के इस दौर में उम्मीद की किरण कहीं दिखाई देती भी है या नहीं। बेशक, यह दुनिया उम्मीद पर कायम है। कुछ कोपलें अभी भी उग रही हैं, राख के ढेर में कहीं-कहीं चिंगारी अब भी दिखती है, कुछ बूढ़ी हड्डियां अभी भी जोर मारती दिखती हैं। यानी, सवेरा होने की पूरी उम्मीद है। आइए इसी उम्मीद के साथ पत्रकारिता दिवस मनाते हैं। आप सभी को हिंदी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

Wednesday, February 8, 2023

भूकंप का मंडराता खतरा

 आजकल तुर्किये और सीरिया में महाविनाशकारी भूकंप की खबरें डरा रही हैं। तस्वीरें बता रही हैं कि हालात कितने भयावह हैं। हजारों लोग हताहत हुए हैं। और, दुर्भाग्य और हमारी गलतियों के नतीजतन, हम भी सुरक्षित नहीं। भारत भी भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। देश का लगभग 59 प्रतिशत हिस्सा अलग-अलग तीव्रता के भूकंपों के प्रति संवेदनशील है। आठ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में खतरा सर्वाधिक है।

भूकंप आता क्यों है। धरती के भीतर सात प्लेट्स होती हैं जो लगातार घूमती रहती हैं। जब ये प्लेटें किसी जगह पर आपस में टकराती हैं, तो वहां फॉल्ट लाइन जोन बन जाता है और सतह के कोने मुड़ जाते हैं। इससे वहां दबाव बनता है और प्लेट्स टूटने लगती हैं। इस टूटन से अंदर की एनर्जी बाहर आने का रास्ता खोजती है, जिसकी वजह से धरती हिलती है, यही भूकंप है। रिक्टर स्केल पर 2.0 से कम तीव्रता वाले भूकंप को माइक्रो कैटेगरी में रखा जाता है और यह भूकंप महसूस नहीं किए जाते। रिक्टर स्केल पर माइक्रो कैटेगरी के 8,000 भूकंप दुनियाभर में रोजाना दर्ज किए जाते हैं। इसी तरह 2.0 से 2.9 तीव्रता वाले भूकंप को माइनर कैटेगरी में रखा जाता है। ऐसे 1,000 भूकंप प्रतिदिन आते हैं इसे भी सामान्य तौर पर हम महसूस नहीं करते। वेरी लाइट कैटेगरी के भूकंप 3.0 से 3.9 तीव्रता वाले होते हैं, जो एक साल में 49,000 बार दर्ज किए जाते हैं। इन्हें महसूस तो किया जाता है लेकिन शायद ही इनसे कोई नुकसान पहुंचता है।
लाइट कैटेगरी के भूकंप 4.0 से 4.9 तीव्रता वाले होते हैं जो पूरी दुनिया में एक साल में करीब 6,200 बार रिक्टर स्केल पर दर्ज किए जाते हैं। इन झटकों को महसूस किया जाता है और इनसे घर के सामान हिलते नजर आते हैं। हालांकि इनसे न के बराबर ही नुकसान होता है। केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार, देश में भूकंपों के रिकॉर्ड किए गए इतिहास को देखते हुए, भारत की कुल भूमि का 59% हिस्सा अलग-अलग भूकंपों के लिए प्रवण है। भूकंपीय क्षेत्र मानचित्र के अनुसार, कुल क्षेत्र को चार भूकंपीय क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया था। जोन 5 वह क्षेत्र है जहां सबसे तीव्र भूकंप आते हैं, जबकि सबसे कम तीव्र भूकंप जोन 2 में आते हैं। देश का लगभग 11% क्षेत्र जोन 5 में, 18% क्षेत्र जोन 4 में, 30% क्षेत्र जोन 3 में और शेष क्षेत्र जोन 2 में आता है। जोन 5 में शहरों और कस्बों वाले राज्य और केंद्रशासित प्रदेश गुजरात, हिमाचल प्रदेश, बिहार, असम, मणिपुर, नागालैंड, जम्मू और कश्मीर और अंडमान और निकोबार हैं। नेशनल सेंटर फॉर सीस्मोलॉजी देश में और आसपास भूकंप की निगरानी के लिए नोडल सरकारी एजेंसी है। देश भर में, राष्ट्रीय भूकंपीय नेटवर्क है, जिसमें 115 वेधशालाएं हैं जो भूकंपीय गतिविधियों पर नज़र रखती हैं। मध्य हिमालयी क्षेत्र दुनिया में सबसे भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्रों में से एक है। 1905 में, हिमाचल का कांगड़ा एक बड़े भूकंप से प्रभावित हुआ था। 1934 में, बिहार-नेपाल भूकंप आया था, जिसकी तीव्रता 8.2 मापी गई थी और इसमें 10,000 लोग मारे गए थे। 1991 में, उत्तरकाशी में 6.8 तीव्रता के भूकंप में 800 से अधिक लोग मारे गए थे। 2005 में, कश्मीर में 7.6 तीव्रता के भूकंप के बाद इस क्षेत्र में 80,000 लोग मारे गए थे। 700 से अधिक वर्षों से इस क्षेत्र में विवर्तनिक तनाव रहा है जो अभी या 200 वर्षों के बाद जारी हो सकता है, जैसा कि 2016 में अध्ययनों से संकेत मिलता है। इसका मध्य हिमालय पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ेगा। यह भूकंप इंडो-ऑस्ट्रेलियाई और एशियाई टेक्टोनिक प्लेटों के बीच टक्कर है, जिन्होंने पिछले पांच करोड़ वर्षों में हिमालय के पहाड़ों का निर्माण किया है।

Monday, January 9, 2023

कॉमन सिविल कोड: बवंडर की आहट

 

NEWS NEXT INDIA

समान नागरिक संहिता यानी कॉमन सिविल कोड फिर चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने संहिता के लिए कमेटी गठन के राज्यों के कदम को संविधान सम्मत माना है। कमेटियों के खिलाफ याचिका खारिज करने के शीर्ष कोर्ट के निर्णय से राजनीतिक बवंडर मचना तय है। भाजपा जहां 2024 के चुनावों में नैया पार करने का सपना देखेगी और विरोधी दलों के लिए यह गैर-भाजपा मतों के ध्रुवीकरण का रास्ता होगा। गैर हिंदू सभी मतों पर फोकस के लिए संहिता का विरोध जरूरी होगा, वही भाजपा इसके सहारे हिंदुओं को एकजुट करने का यत्न करती नजर आएगी। कॉमन सिविल कोड पर उत्तराखंड और गुजरात ने कमेटी गठन किया है। 

उत्तराखंड में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज इंदिरा प्रकाश देसाई अगुवाई कर रही हैं और उत्तराखंड में हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश। सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि राज्यों की बनाई कमेटियां संविधान सम्मत हैं। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि कमेटियों के गठन में गलत कुछ नहीं है। कमेटियों को चुनौती नहीं दी जा सकती। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य की मानता है। लेकिन बात इतनी-सी नहीं है, बल्कि इसके बड़े निहितार्थ और राजनीतिक मायने हैं। भाजपा के लिए एजेंडे का एक बिंदु नहीं अपितु पूरा एजेंडा ही है। वह अपने 2019 के चुनाव घोषणापत्र में इसे शामिल कर चुकी है। खबरें तो यहां तक हैं कि विधेयक बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है।

सरकार मानती है कि समान संहिता लागू करने से देश की अदालतों पर लगातार बढ़ते मुकदमों के बोझ को हल्का करने में मदद मिलेगी। अंतरधार्मिक विवाह और उनसे उत्पन्न संतानों और पारिवारिक विवादों से जुड़े मुकदमे घटेंगे। मुकदमों की संख्या में 20 से 25 फीसदी की कमी आ सकती है क्योंकि दीवानी अदालतों में चल रहे धार्मिक मुकदमे खुद समाप्त हो जाएंगे क्योंकि समान कानून भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) सभी पर समान रूप से लागू होगा। अभी तक हिंदू कानून वेद पुराण, स्मृति आदि के आधार पर तो मुस्लिम पर्सनल लॉ कुरान, सुन्नत, इज्मा, कयास और हदीस के आधार पर हैं। इसी तरह ईसाइयों का कानून बाइबल, पुराने अनुभव, तर्क और रूढ़ियों के आधार पर, जबकि पारसियों का कानून उनके पवित्र धार्मिक ग्रंथ जेंद अवेस्ता पर आधारित है। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायियों को सनातन धर्म से जुड़ा माना जाता है जिसके कारण इसके लिए एक समान कानून है जिसमे इनका एक से ज्यादा शादी करना गैर कानूनी माना गया है।

समान नागरिक संहिता विरोधियों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का तर्क है कि अगर सबके लिए समान कानून लागू कर दिया गया तो उनके अधिकारों का हनन होगा। मुसलमानों को एक से अधिक शादियां करने और बीवी को तलाक देने का हक नहीं होगा। वह अपनी शरीयत के हिसाब से जायदाद का बंटवारा नहीं कर सकेंगे। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी कहता आया है। 

अंत में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर बात। संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान निर्माण के वक्त कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। इस तरह, संविधान के मसौदे में आर्टिकल 35 को अंगीकृत संविधान के आर्टिकल 44 के रूप में शामिल कर दिया गया और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। शायद वो समय अभी भी न आया हो, पर बवाल तो आने वाला है, ऐसा प्रतीत हो रहा है।


Monday, October 10, 2022

समाजवाद के पुरोधा की विदाई


मुलायम सिंह यादव नहीं रहे। एक योद्धा की विदाई हुई है, एक युग खत्म हुआ है और समाजवादी राजनीति का पूरा अध्याय जैसे विराम पा गया है। सबसे ज्यादा क्षति उत्तर प्रदेश को हुई है। मुलायम राज्य की राजनीति के वो स्तंभ थे जिस पर मायावती की जातीय राजनीति के प्रहार और भाजपा के वज्र प्रहार भी बेअसर थे। मुलायम के रूप में देश ने एक पुरोधा खोया है। निश्चित तौर पर इसका असर राजनीतिक परिदृष्य पर पड़ेगा।पहलवानी और राजनीति, दोनों में चरखा दांव के इस महारथी की कमी बहुत खलने वाली है।

नेताजी के उपनाम से विख्यात मुलायम सिंह यादव की ऐसी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहींं थी कि उन्हें देश हाथोंहाथ लेता। बल्कि पूरी मेहनत से उन्होंने खुद को स्थापित और सिद्ध किया। शौक से पहलवान एक युवा पहले शिक्षक बनता है और भावी पीढ़ी का शिल्पकार बनने लग जाता है। फिर एक दिन राजनीति में आता है और अपनी जगह बनाता है। छा जाता है। मुलायम सिंह ने अपने जीवन में जो काम किया, पूरी रुचि से किया, दम से किया और खुद को साबित भी किया। जब पहलवान थे, तो कहा जाता था कि अगर उनका हाथ अपने प्रतिद्वंद्वी की कमर तक पहुंच जाता था तो चाहे वो कितना ही लम्बा-तगड़ा हो, उसकी मजाल नहीं थी कि अपने-आप को उनकी गिरफ्त से छुड़ा ले। उनका चरखा दांव प्रसिद्ध था जिससे वह बिना अपने हाथों का इस्तेमाल किए हुए पहलवान को चारों खाने चित कर देते थे। मुलायम सिंह यादव के चचेरे भाई रामगोपाल यादव ने एक बार बताया था, अखाड़े में जब मुलायम की कुश्ती अपने अंतिम चरण में होती थी तो हम अपनी आंखें बंद कर लिया करते थे। आंखें तभी खुलतीं जब भीड़ से आवाज़ आती थी, 'हो गई, हो गई' और हमें लग जाता था कि हमारे भाई ने सामने के पहलवान को पटक दिया है।

और यही चरखा दांव उनकी सियासत की भी पहचान बन गया। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के लिए अजित सिंह को अंतिम समय में मात देना उनका पहला बड़ा दांव था। सोशलिस्ट पार्टी से लेकर जनता दल और अंतत: समाजवादी पार्टी तक, मुलायम सिंह हर बार खुद को दूसरे से भारी साबित करते रहे। राम मंदिर आंदोलन के दिन याद कीजिए। 90 के दशक की शुरुआत में बीजेपी का सितारा बुलंदी पर था। कल्याण सिंह पूर्ण बहुमत के साथ विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। लेकिन तभी रामभक्तों ने छह दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी, तब राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय को आश्वस्त कर चुकी थी बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा। नतीजतन, बीजेपी की सरकार गिर गई। कल्याण सिंह ने त्यागपत्र दे दिया। अब सबसे बड़ा सवाल यह था कि भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से कैसे रोका जाए। तब सबसे बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम हुआ। मुलायम सिंह और बसपा सुप्रीमो कांशीराम की मुलाकात हुई। दो विपरीत विचारधाराओं की पार्टियों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की गठबंधन सरकार बन गई। कम उम्र की यह सरकार गठबंधन की राजनीति के एक दौर के रास्ते खोल गए। आज यदि 2024 के आम चुनावों में भी गठबंधन सरकार की कोशिशें हो रही हैं, तो वो उसी शुरुआत का नतीजा हैं। असल में, यह गठबंधन साबित करता है कि विचारधाराओं और आधार मतों के विरोधाभास के बावजूद दल आपस में मिल सकते हैं। 

मुलायम सिंह का दमखम इस देश की सियासत में कई बार साबित हुआ है। ये नेताजी का राजनीतिक प्रबंधन का ही था कि वर्ष 2012 में उन्होंने कन्नौज से अपनी पुत्रवधु डिम्पल यादव की जीत को निर्विरोध जितवा दिया। किसी भी राजनीतिक दल ने उनके ख़िलाफ़ उम्मीदवार खड़ा नहीं किया, यहां तक कि उनकी धुर विरोधी मायावती ने भी नहीं। ये मात्र संयोग नहीं था कि बीजेपी ने डिंपल के विरुद्ध अपने उम्मीदवार के रूप में जगदेव यादव को चुना था लेकिन वो अपना पर्चा भरने के लिए समय से ही नहीं पहुंच पाए। मुलायम अब नहीं हैं। लेकिन वो चले गए हैं, वह सोचने और महसूस करने में लंबा वक्त लगेगा। वो अपने व्यक्तित्व और अंदाज की वजह से सियासत में हर वक्त छाए रहे। शुरुआती दौर में जब मुलायम साइकिल पर घूम-घूम कर पार्टी के लिए प्रचार किया करते थे। और अब, यानी पिछले कुछ अरसे से जब वो घर में रहकर सियासत नियंत्रित करते थे, उनकी लगातार सक्रियता बहुत याद आने वाली है। मुलायम के प्रशंसक सभी दलों में हैं। और, जो सभी दिलों में होते हैं, वो कभी भुलाए नहीं जा सकते।

Saturday, April 23, 2022

कॉमन सिविल कोड: बड़े बदलाव की बड़ी तैयारी में देश

गृहमंत्री अमित शाह ने भाजपा शासित राज्यों में समान संहिता लागू करने की घोषणा की है। यूपी तैयार है। कॉमन सिविल कोड में सब समान। सरल शब्दों में समझिए- भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून, चाहें वो नागरिक किसी भी धर्म या जाति का हो। शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून। देश में फिलहाल मुस्लिम, ईसाई, और पारसी का अलग पर्सनल लॉ लागू है। हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख और जैन आते हैं। 

संविधान में समान नागरिक संहिता कानून का प्रावधान पहले से है, अनुच्छेद 44 के तहत ये राज्य की जिम्मेदारी है। लेकिन ये आज तक देश में लागू नहीं हो सका है...  इसकी वजह है तुष्टिकरण। विशेष रूप से, कई क्षेत्रों में बहुसंख्यक हुए जा रहे मुसलमानों को विशेष दर्जा, सबसे ऊपर दिखाने का मकसद। मुस्लिम कानून में बहुविवाह एक पति-चार पत्नी की छूट है, लेकिन अन्य धर्मो पर एक पति-एक पत्नी का कठोर नियम लागू है, बांझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी दूसरा विवाह अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में सात वर्ष की सजा का प्रावधान है। तीन तलाक अवैध होने के बावजूद तलाक-ए-हसन आज भी मान्य है और इनमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है, केवल तीन माह इंतजार करना है, पर अन्य धर्मो में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है। मुसलमानों में प्रचलित तलाक की न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है, इसीलिए 11-12 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है, जबकि अन्य धर्मो में लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष है। मुस्लिम कानून में उत्तराधिकार की व्यवस्था जटिल है। पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य धर्मो में भी विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून जटिल हैं। विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं। 

इसके लाभ भी बहुत हैं। नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू करने से देश को सैकड़ों कानूनों से मुक्ति मिलेगी। अलग-अलग धर्म के लिए लागू अलग-अलग कानूनों से सबके मन में हीनभावना पैदा होती है। एक पति-एक पत्नी की अवधारणा सभी पर समान रूप से लागू होगी और बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ सभी भारतीयों को समान रूप से मिलेगा। न्यायालय के माध्यम से विवाह विच्छेद का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा। पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री को एक-समान अधिकार प्राप्त होगा और संपत्ति को लेकर धर्म, जाति, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी। विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा। वसीयत, दान, बंटवारा, गोद इत्यादि के संबंध में सभी भारतीयों पर एक समान कानून लागू होगा। जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से अनावश्यक मुकदमेबाजी खत्म होगी और न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा। मूलभूत धार्मिक अधिकार जैसे पूजा-प्रार्थना, व्रत या रोजा रखने तथा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या धार्मिक स्कूल खोलने, धार्मिक शिक्षा का प्रचार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा।

विशेष बात है कि 2017 के सायरा बानो केस में सुप्रीम कोर्ट भी कॉमन सिविल कोड न होने पर नाराज़गी जता चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, हम भारत सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करे। हम आशा एवं अपेक्षा करते हैं कि वैश्विक पटल पर और इस्लामिक देशों में शरीयत में हुए सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाया जाएगा। ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम से सबके लिए एक कानून लागू किया जा सकता है तो भारत के पीछे रहने का कोई कारण नहीं है। वर्ष 2019 में जोस पाउलो केस में सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि समान नागरिक संहिता को लेकर सरकार की तरफ से अब तक कोई प्रयास नहीं किया गया। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में गोवा का उदाहरण दिया और कहा कि 1956 में हिंदू लॉ बनने के 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। इसका अर्थ- सुप्रीम कोर्ट से भी अड़ंगे की संभावना नहीं है।

यानी बदलाव दस्तक दे रहा है। हालांकि एक बाधा आ सकती है। अनुच्छेद 44 में राज्य के लिए समान व्यवहार की वकालत की गई है, वहीं अनुच्छेद 12 में 'राज्य' यानी केंद्र और राज्य की सरकार है। इसके लिए केंद्र सरकार को संसद की शरण मे जाना पड़ सकता है, राज्यों के इस अधिकार पर बहस-चुनौतियां होना तय है। फिर भी आगाज़ अच्छा लग रहा है। आइए, समान नागरिक संहिता का स्वागत करने के लिए तैयारी करते हैं।

Thursday, July 8, 2021

भय-आतंक के नए दौर में अफगानिस्तान

कोरोना से खौफजदां दुनिया में अफगानिस्तान ने भय के नए अंधकार में धकेल दिया है। अमेरिकी सेना के जैसे भागने की-सी मुद्रा के बाद पूरा देश आतंक के साये में है। तालिबान का साम्राज्य कायम हो रहा है। अब सवाल यह है कि हम भारतीय कितने चिंतित हों, हों या नहीं। क्योंकि तालिबान के साथ पाकिस्तानी उम्मीदों का उदय हो रहा है। हालांकि कूटनीति चरम पर है। ईरान, कतर और रूस के साथ भारतीय विदेशमंत्री की बैठकें संकेत दे रही हैं कि पाकिस्तान के लिए सब-कुछ इतना आसान नहीं। भारत भी तालिबान के साथ कुछ सकारात्मक रिश्ते बना सकता है। कहते हैं कि महाभारत काल में अफगानिस्तान के गांधार, जो वर्तमान समय में कंधार है, की राजकुमारी का विवाह हस्तिनापुर (वर्तमान दिल्ली) के राजा धृतराष्ट्र से हुआ था। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध पारंपरिक रूप से मज़बूत और दोस्ताना रहे हैं।1980 के दशक में भारत-अफगान संबंधों को एक नई पहचान मिली, लेकिन 1990 के अफगान-गृहयुद्ध और वहां तालिबान के सत्ता में आ जाने के बाद से दोनों देशों के संबंध कमज़ोर होते चले गए। इन संबंधों को एक बार फिर तब मजबूती मिली, जब 2001 में तालिबान सत्ता से बाहर हो गया और इसके बाद, अफगानिस्तान के लिए भारत मानवीय और पुनर्निर्माण सहायता का सबसे बड़ा क्षेत्रीय सहयोगी बन गया। भारत वहां 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है जो अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में चल रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र भी भारत बड़ा सहयोगी है। ढेरों काम हैं, अंतरिक्ष में सेटेलाइट नेटवर्क के साथ ही काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना, अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए नानगरहर प्रांत में कम लागत पर घरों का निर्माण, बामयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति नेटवर्क और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्निक के निर्माण में भी भारत की मदद है। कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए काम शुरू होने वाला है। रूस के प्रभाव के दिनों को छोड़ दें तो इस देश ने हमेशा हमारे लिए मुश्किलें खड़ी की हैं। कबीलों में बंटे इस देश में कट्टरता का चरम रहा है। तालिबान की आएदिन नरसंहार की रणनीतियों ने पूरे देश की नाक में दम कर दिया था। अब फिर परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। भारतीयों के लिए जैसे संकट का समय है। हाल यह है कि काबुल स्थित भारतीय दूतावास के अभेद्य दुर्ग में डरे-सहमे भारतीयों की आवाजाही दिन-रात चल रही है। लोग घर लौट रहे हैं। बगराम में 20 साल पुराने सैन्य बेस से रात के अंधेरे में अचानक अमेरिकी सैनिकों का चला जाना तो जैसे आतंक के चक्रवात की वजह बना है। आशंका के अनुरूप अफगानिस्तानी सेना न केवल कमजोर पड़ रही है बल्कि दो सौ सैनिकों के पड़ोसी देश भाग जाने की खबरें हैं। अफगानिस्‍तान से अमेरिकी सेनाओं के जाने से खुश पाकिस्‍तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने तालिबान के शासन की ओर इशारा करते हुए कहा है कि इस इलाके में अब बहुत गंभीर बदलाव होंगे। इसमें भारत 'सबसे बड़ा लूजर' साबित होने जा रहा है। अफगानिस्‍तान में जिस तरह के बदलाव होने जा रहे हैं, उससे खुद अमेरिका को भी बहुत नुकसान होगा। ऐसे में भारत का सक्रिय होना लाजिमी है। विदेशमंत्री एस. जयशंकर का अचानक उस ईरान पहुंचना जो तालिबान पर सर्वाधिक प्रभाव रखना दर्शाता है कि भारत तेजी से सक्रिय हुआ भी है। कतर और रूस से भी विदेशमंत्री की वार्ताएं हुई हैं। ईरान के राष्‍ट्रपति चुने गए इब्राहिम रईसी के साथ भी मुलाकात करने वाले किसी भी देश के पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने चाबहार परियोजना पर भी बात की है। ईरान का रुख सकारात्मक भी रहा है। इसी मुलाकात के बाद अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता का एक दौर हुआ है। हालांकि पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों से चलते भारत की राह इतनी आसान नहीं दिखती। आने वाले समय में हम खतरे की खबरें पढ़ेंगे और सुनेंगे, यह आशंका निर्मूल नहीं लगती।