Thursday, July 26, 2012

पवार का रूठना और मान जाना...

केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बगल वाली सीट पर रक्षामंत्री एके एंटनी को बैठाए जाने से खफा केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की कांग्रेस से नाराजगी दूर हो गई है। सहमति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की समन्वय समिति के गठन पर बनी है। मामला ऊपर से बेशक शांत हो गया हो लेकिन कुछ सवाल उत्तर तलाश रहे हैं। सवाल है कि पवार ने आखिर इतना बड़ा कदम केवल नंबर दो की हैसियत पाने के लिए किया? नंबर दो की हैसियत नहीं मिलना कांग्रेस और एनसीपी के बीच दरार का एक कारण हो सकता है पर पवार जैसे मंझे हुए राजनेता ऐसे दिखावटी पद पाने के लिए इतना कठोर फैसला नहीं ले सकते। पवार ने ऐसा कदम उठाकर एक तीर से तीन शिकार करने की कोशिश की। पवार ने यह संदेश देने का प्रयास किया कि दोबारा सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस राजनीतिक तौर पर उलझी हुई दिख रही है। यही नहीं पवार अपने फायदे के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी के बीच सत्ता संतुलन को फिर से परिभाषित करना चाहते थे। उनकी चाहत अगले विधानसभा चुनाव में अपने भतीजे को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने की है। इसके साथ ही पवार लोकसभा चुनाव में एनसीपी के लिए अधिक लोकसभा सीटें चाहते हैं, ताकि चुनाव के बाद कांग्रेस को समर्थन के बदले में कीमत वसूली जा सके। पवार यह भलीभांति जानते हैं कि अभी कांग्रेस अंदरूनी तौर पर उलझी हुई है और वह सहयोगियों को नाराज नहीं करना चाहेगी, ऐसे में अपनी शर्तें मनवाना आसान है। तीसरा कारण है, राहुल गांधी का कांग्रेस और सरकार में बड़ी जिम्मेदारी निभाने का संकेत देना। पवार ने अपने फायदे का यह सही वक्त समझा। संभावना है कि जल्द ही मंत्रिमंडल में फेरबदल होने वाला है। राकांपा सुप्रिया सुले को मंत्रिमंडल में शामिल कराने के लिए दबाव बनाए रखना चाहती है, वैसे भी उसके कोटे की मंत्री अगाथा संगमा त्यागपत्र सौंप चुकी हैं। पवार को जानने वाले मानते हैं कि उन्होंने सही समय पर वार करने की अपनी राजनीतिक शैली का बखूबी प्रयोग किया है। राहुल की ताजपोशी की जल्दबाजी में कांग्रेस के लिए यह संभव नहीं था कि उन्हें नाराज कर अपनी समस्या बढ़ाती। तृणमूल कांग्रेस वैसे ही उसके लिए बड़ा सिरदर्द साबित होती रही है। कांग्रेस ने भी संकट हल करने में इसीलिये जल्दी दिखाई है, सोनिया के दखल की भी यही वजह है। दरअसल, कांग्रेस ने स्पष्ट कह दिया है कि 2014 के आम चुनाव में उसके अभियान की कमान राहुल संभालेंगे। तय है कि अगर कांग्रेस को बहुमत वाले गठबंधन का नेतृत्व करने का मौका मिलेगा तो राहुल प्रधानमंत्री होंगे। पवार के लिए स्थिति साफ है, वे या तो खुद को बदल लें या अलग हो जाएं। उनकी असहजता में हैरान होने वाली कोई बात नहीं, सोनिया और मनमोहन पवार को मनाने की कोशिश सिर्फ इस कारण से कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें बदलाव पर सभी सहयोगियों की मुहर की जरूरत है, न कि इसलिए कि पवार एक बेहतरीन नेता हैं। पिछले आठ वर्षों से कांग्रेस ने सहयोगियों की कीमत पर अपनी ताकत बढ़ाने की पूरी कोशिश की है। सहयोगी दलों को कैबिनेट में दोयम दर्जा दिया। पवार जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तब वर्तमान कैबिनेट के अधिकांश सदस्य एमएलए की हैसियत भी नहीं रखते होंगे। उन्हें कृषि मंत्रालय जैसे अप्रिय दायित्व दिया गया। सहयोगी दलों को सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी नहीं दी गयी। सारे राज्यपाल कांग्रेस की पसंद के हैं। पवार न तो इस बात को भूले हैं कि 2004 में विधायकों की संख्या अधिक होने के बावजूद उन्हें महाराष्ट्र में कांग्रेसी मुख्यमंत्री स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। पवार ने यह कदम अभी क्यों उठाया, इसका एक और जवाब है। इस कदम के लिए वक्त का चुनाव मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के व्यापक विश्लेषण के बाद किया गया है। जब तक कांग्रेस चुनाव में वोट हासिल कर रही थी, तब तक सहयोगियों ने अपने सम्मान के साथ समझौता किया। लेकिन अब जब यह तय हो चुका है कि कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है तो दूसरे विकल्पों और ठिकानों की तलाश शुरू हो गयी है। इस हलचल का पहला असर महाराष्ट्र में महसूस किया जाएगा। कोई भी इसे सार्वजनिक तौर पर नहीं कहेगा, लेकिन शिवसेना और कांग्रेस दोनों इस बात को लेकर चिंतित हैं कि पवार अगले चुनाव में भाजपा के साथ परोक्ष या अपरोक्ष गठबंधन कर सकते हैं। इस बदलाव का घातक पहलू यह है कि शिवसेना और कांग्रेस कभी सहयोगी नहीं हो सकते। इसी संभावना को देखते हुए सेना पारिवारिक कलह को खत्म करने के लिए तेजी से कदम बढ़ा रही है. क्या पवार ने इसके परिणामों पर विचार किया है? या यह केवल दिखावा है, जिसका समाधान हो जाएगा? पवार जैसे अनुभवी राजनेता बिना सोचे-विचारे कोई खतरा नहीं उठाते हैं. वे हवा का रुख भांप लेते हैं। ममता बनजी भी जल्दी चुनाव चाहती हैं और वे अकेले लड़ेंगी. मुलायम सिंह अपनी पार्टी को 2013 के लिए तैयार रहने का संदेश दे रहे हैं। धीरे-धीरे यूपीए टोली बिखर रही है। लेकिन शरद पवार की नाराजगी की अन्य वजहों पर कई अटकलें लग रही हैं। कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में 26 हजार करोड़ के सिंचाई घोटाले और महाराष्ट्र सदन के निर्माण में एक हजार करोड़ के कथित घोटाले की आंच से बचने के लिए यूपीए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा में सिंचाई घोटाले को लेकर एक श्वेतपत्र भी पेश किया गया था। इसी पत्र में बीते 10 सालों में सिंचाई के नाम पर खर्च हुए 70 हजार करोड़ रुपये में से 26 हजार करोड़ रुपये के हिसाब-किताब न होने की बात कही गई है। पिछले कई सालों से महाराष्ट्र का जल संपदा मंत्रालय एनसीपी के कोटे के मंत्रियों के पास रहा है। इसके अतिरिक्त यूपीए के लिए समन्वय समिति का न होना, लवासा हिल स्टेशन प्रोजेक्ट को पर्यावरण मंत्रालय से हरी झंडी न मिलना, स्पोर्ट्स बिल में उनकी राय का अजय माकन द्वारा नजरअंदाज ठहराया जाना, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मतभेद, खाद्य सुरक्षा कानून, स्कूटर्स इंडिया के विनिवेश का प्रफुल्ल पटेल का प्रस्ताव खारिज किए जाने जैसी वजहें पवार और प्रफुल्ल पटेल की नाराजगी की वजह के तौर पर गिनाई जा रही हैं। एक तबके का यह भी आंकलन है कि पवार की नाराजगी की चार अहम वजहें हो सकती हैं। इनमें पहला-प्रणब मुखर्जी के इस्तीफा देने के बाद पवार की निगाहें रक्षा, वित्त, विदेश या गृह मंत्रालय पर टिकी हैं। दूसरा-जूनियर नेता सुशील कुमार शिंदे को लोकसभा में नेता, सदन बनाए जाने की संभावना। तीसरा-भरोसेमंद सहयोगी होने की वजह से अच्छे मंत्रालय और फैसलों में ज्यादा भागीदारी। चौथा-कांग्रेस की अपने बूते पर फैसले लेने की आदत, राज्यपालों, बैंक निदेशकों की नियुक्ति में सहयोगी पार्टियों को नजरअंदाज करना शामिल है। राजनीतिक प्रेक्षकों का एक अन्य वर्ग कांग्रेस और एनसीपी के बीच मतभेद के लिए चार कारण गिनाता है। इनमें पहला कारण-तारिक अनवर को राज्यसभा का उपसभापति बनाया जाना, राज्यपाल की नियुक्ति पर फैसले में शामिल किया जाना। दूसरा-यूपीए के सहयोगी दलों के बीच को-आॅर्डिनेशन मेकैनिज्म बनाया जाना। तीसरा-कांग्रेस और एनसीपी की महाराष्ट्र ईकाई के बीच ज्यादा सहयोग और समन्वय और चौथा-कैबिनेट में नंबर दो की कुर्सी, भले ही सार्वजनिक तौर पर एनसीपी ने इससे इंकार किया हो।

Saturday, July 21, 2012

राज-उद्धव के इर्द-गिर्द सियासत

महाराष्ट्र की राजनीति करवट ले रही है। जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उससे लगता है कि अगले चुनाव में कांग्रेस का मुकाबला भाजपा की सहयोगी शिवसेना के और ताकतवर रूप से होने जा रहा है। उद्धव ठाकरे की बीमारी इस करवट का जरिया बनी है। उद्धव और उनके चचेरे भाई राज ठाकरे में नजदीकियों से इन दिनों राज्य में शिव सेना और साल 2006 में इससे अलग हुई महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के जमीनी कार्यकतार्ओं के हलकों में खुशी की लहर दौड़ गई है। दोनों भाइयों में दोस्ती हुई तो राज्य की राजनीति पर बड़ा असर पड़ना तय है। बीमारी के दिनों में राज ठाकरे ने उद्धव से कई मुलाकातें कीं, यहां तक कि वह उद्धव को वह अपनी गाड़ी में बाल ठाकरे के आवास मातोश्री भी छोड़ने गए। यह बड़ी बात है, एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले दोनों भाइयों में दोबारा पनपे प्रेम का राजनीतिक समीकरणों पर असर पड़ना तय है। शिवसेना महाराष्ट्र की बड़ी राजनीतिक पार्टी है, जो सत्ता में रही है। भारतीय जनता पार्टी उसकी गठबंधन सहयोगी है। कट्टरपंथी हिंदुत्व समर्थक नेता बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव को बढ़ावा दिए जाने से 2006 में भतीजे राज नाराज हो गए और उन्होंने नए राजनीतिक दल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर लिया था। इसके बाद राज का वर्चस्व बढ़ता गया। इसका कारण उनका उद्धव की तुलना में ज्यादा उग्र और लोकप्रिय होना था। उत्तर भारतीयों को बाहर निकलने की चेतावनी जैसे विवादित कदमों से महाराष्ट्र के मूल निवासियों में उनका जनाधार तेजी से बढ़ा और परिणाम भुगता शिवसेना ने। कांग्रेस ने उसे कई क्षेत्रों में शिकस्त दी, वजह बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ही। इस पार्टी के जनाधार में वृद्धि वहां ज्यादा हुई जहां शिवसेना का प्रभाव था। चुनावों में शिवसेना के कई गढ़ ढह गए। हालात यहां तक पहुंच गए कि छोटी बहन की भूमिका अदा करती रही भाजपा का जलवा बढ़ने लगा। तमाम कार्यकर्ता शिवसेना से नाउम्मीद हुए और राज की नीतियों के विरोधी भाजपी के समर्थक बन गए। एक अनुमान के अनुसार, हर चुनावों में शिवसेना का कट्टर समर्थक रहा उत्तर भारतीयों का बड़ा प्रतिशत भाजपा के पाले में चला गया। राज्य में इस समय बड़े पैमाने पर संभावना जताई जा रही है कि अब दोनों भाइयों में सुलह सफाई हो गई है और शायद अब वो दिन दूर नहीं जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना शिव सेना में वापस लौट जाए। कम से कम दोनों पार्टियों के जमीनी कार्यकतार्ओं के बीच उम्मीद की किरण तो जाग ही उठी है। हालांकि दोनों दल के कार्यकतार्ओं में दूरियां उतनी थी नहीं, जितनी राजनीति सिद्ध कर रही थी। इसकी वजह दोनों के मूल में हिंदुत्व और शिवसेना थी। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना में जो कार्यकर्ता बने, वह दरअसल पुराने शिवसैनिक ही थे। राज्य के लगभग हर क्षेत्र से दोनों पार्टियों के लोग संकेत देते थे थे कि उनका आपसी मतभेद कभी दुश्मनी में नहीं बदल सकता और ये कि वो चाहते हैं कि दोनों पार्टियाँ फिर से एक हो जाएं। लेकिन अब, जबकि छह साल में पहली बार ठाकरे परिवार में मेल-मिलाप होता दिखाई देता है तो ये मुमकिन लगता है कि दोनों पार्टियाँ भी आपस में मिल जाएं. दूसरे शब्दों में नव निर्माण सेना शिव सेना में फिर से वापस चली जाए। हालांकि स्पष्ट नतीजा शायद अभी न मिले लेकिन दोनों पार्टियों का फिर से मिल जाना इतना आसान नहीं होगा। वैसे भी इन संभावनाओं के बीच शिव सेना के प्रवक्ता संजय राउत ने कहा भी कि ठाकरे भाइयों की आपसी मुलाकातें निजी स्तर की हैं। अगर एक भाई बीमार हो तो दूसरा भाई उसे देखने जरूर आएगा। इसका मतलब ये नहीं कि दोनों पार्टियों का आपसी मिलाप भी हो जाएगा। इसका राजनीतिक अर्थ निकालना अभी जल्दबाजी होगी। शिवसेना में फूट से पहले राज ठाकरे बाल ठाकरे के बाद सबसे ज्यादा लोकप्रिय और शक्तिशाली नेता थे और उन्हें उम्मीद थी कि बाल ठाकरे उन्हें अपना उत्तराधिकारी चुनेंगे लेकिन जब 2006 में उन्होंने अपने भतीजे को नजरअंदाज करके पार्टी का नेतृत्व अपने बेटे उद्धव के हवाले किया तो वो पार्टी से अलग हो गए। पिछले छह साल में राज ठाकरे ने अपनी पार्टी को राज्य भर में स्थापित कर दिया है। चुनावी सफलताओं के कारण अब राज्य में उनकी पार्टी को संजीदगी से लिया जाता है. दूसरी तरफ शिव सेना के समर्थकों को अपनी तरफ खींच कर उन्होंने अपने भाई और चाचा की पार्टी को कमजोर करने का भी काम किया है। राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि अगर राज ठाकरे शिवसेना में लौटेंगे तो इसकी कीमत भी चाहेंगे। सवाल यह है कि क्या उद्धव और चाचा बाल ठाकरे उन्हें वो पद देने के लिए तैयार होंगे जिसके न मिलने पर वो पार्टी से अलग हुए थे। या फिर उन्हें उद्धव की बराबरी का कोई दर्जा दिया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो राज उद्धव को लोकप्रियता में काफी पीछे छोड़ देंगे। क्या उद्धव ये सियासी खुदकुशी करने को तैयार होंगे। दूसरी तरफ शिव सेना के नेतागण इस बात को जानते हैं कि राज ठाकरे की वापसी से 2014 के आम चुनाव और उसी साल होने वाले विधानसभा के चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त फायदा होगा। अब देखना है दोनों भाइयों की दोबारा दोस्ती का सफर ठाकरे परिवार तक ही सीमित रहता है या फिर राजनीति में अपना रंग लाता है। हालांकि शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कार्यकतार्ओं के साथ ही कांग्रेस से आजिज आ चुकी राज्य की जनता को उम्मीद तो एकता की ही है।

Wednesday, July 18, 2012

अच्छा, तो हम चलते हैं...

'बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता' जिंदादिली की नई परिभाषा गढ़ने वाला हिन्दी सिनेमा के आनंद यानि राजेश खन्ना का निधन हो गया। जीवंतता से हर चरित्र को जीने वाले राजेश का फिल्म आनंद में रोल किसे याद नहीं होगा, हषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक फिल्म में कैंसर (लिम्फोसकोर्मा आफ इंटेस्टाइन) पीड़ित किरदार को जिस ढंग से उन्होंने जिया, वह भावी पीढ़ी के कलाकारों के लिए एक नजीर बन गया। किसी जमाने में करोडों जवां दिलों की धड़कन रहे हिन्दी फिल्मों के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना ने अभिनय के अलावा फिल्म निर्माता और नेता के रूप में भी लोकप्रियता हासिल की। अभिनेता के रूप में उनके लोकप्रियता का यह आलम था कि बडेÞ-बडेÞ स्टार उनकी चमक के सामने फीके पड़ गए थे। वह बॉलीवुड के संभवतया पहले ऐसे अभिनेता थे जिन्हें देखने के लिए लोगों की कतारें लग जाती थीं। वह सिनेमा में जो रोल अदा करते, प्रशसंक उसे अपने जीवन में निभाने लगते। उनकी हेयर स्टाइल हजारों-लाखों प्रशसंकों ने कॉपी की और खुद को राजेश खन्ना समझने लगे थे। रोमांस के राजेश खन्ना शहंशाह थे और लड़कियां राजेश नहीं मिले तो उनकी सफेद कार को ही चूमकर गुलाबी कर देती थी। खून से कई लड़कियों ने उन्हें हजारों खत लिखे। फोटो से शादी कर ली। जांघ पर काका के नाम का टैटू बना लिया। काका की आंख मिचमिचाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा लड़कियों के दिल को घायल कर देती थी। उनके अभिनय के कायल लोग उदाहरण देते थे कि एक गोला खींचकर उसमें अभिनय कराना हो तो राजेश खन्ना के अलावा कोई यह कारनामा करके नहीं दिखा सकता। तमाम गानों में उन्होंने अपनी यह प्रतिभा दिखाई भी। राजेश खन्ना आज के अभिनेताओं की तरह स्टार पुत्र नहीं थे, बल्कि जमीन से जुड़े हुए कलाकार थे। आज के माहौल में जैसे टैलेंट हंट कामयाब हो रहे हैं। तमाम युवक-युवतियां टैलेंट हंट के जरिए फिल्म उद्योग में जगह बनाने में सफल हो रहे हैं, राजेश इस रास्ते से पहुंचने वाले संभवतया पहले अभिनेता थे जिन्होंने प्रसिद्धि की बुलंदियों को छुआ। इसीलिये उन्हें ज्यादा सराहा गया। करीब एक दशक तक सुपर स्टार रहे राजेश खन्ना की फिल्मों का इतना जबर्दस्त क्रेज था कि युवक और युवतियां टिकटों की एडवांस बुकिंग के लिए लंबी लाइनों में घंटों बिताकर भी मानसिक रूप से थकते नहीं थे। जिन लोगों ने राजेश खन्ना की दीवानगी का आलम देखा है, वे बताते हैं कि शाहरुख की लोकप्रियता में पांच का गुणा कर दीजिए, इतनी प्रसिद्धि थी राजेश खन्ना की। खन्ना ने जो लहर पैदा की थी, वो कोई और सितारा आज तक पैदा नहीं कर पाया। महान अभिनेता को श्रद्धासुमन।

Monday, July 16, 2012

क्रिकेट की बहाली से उम्मीदें

भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट के सम्बन्ध फिर पटरी पर आ रहे हैं। दोनों देशों की क्रिकेट टीमें अगले साल आमने-सामने होंगी। यह सीमाओं से परे क्रिकेट के करोड़ों दीवानों के लिए अच्छी खबर है, हालांकि क्रिकेट को दोनों देशों के बीच दोस्ती का जरिया बनाने की हिमायत करने वालों की संख्या भी अच्छी-खासी है। नवम्बर 2008 में मुम्बई हमले के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में आए तनाव के कारण उनके बीच क्रिकेट संबध भी लगभग खत्म हो गए थे। बेशक, पाकिस्तान में शांति हमारे देश की सेहत के लिए भी अच्छी है और द्विपक्षीय दोस्ताना रिश्तों की हिमायत हर आम पाकिस्तान या हिंदुस्तान करता है। लेकिन सवाल यह है कि यह स्थायी मित्रता किस प्रकार कायम हो। दोनों देशों के बीच सरहदें खोल दिए जाने का क्रम जारी है। आज जो नियंत्रण रेखा है, उसे दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा मान लिया जाए, यह सुझाव बारम्बार सामने आता है। व्यापार, क्रिकेट और फिल्मों के आदान-प्रदान जारी हैं। सैकड़ों पाकिस्तानी और भारतीय सीमा पार कर एक देश से दूसरे देश में आ-जा रहे हैं। सरकारी प्रतिनिधिमंडलों के दौरे जारी हैं, लेकिन कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय में जब कुछ बात बनी थी तो पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों ने भारतीय संसद पर हमला कर दिया। नतीजा यह हुआ कि दोनों देशों के सम्बन्ध बिगड़ गए। फिर वही स्थिति हो गई, जो 1997 के पूर्व थी। डा. मनमोहन सिंह की सरकार ने भी वाजपेयी की नीति को जारी रखा। मौजूदा क्रिकेट कूटनीति की चर्चा में विश्लेषकों का मानना है कि मैत्रीपूर्ण वातावरण तैयार करने का उद्देश्य वास्तविक महत्व से कहीं बड़ा है। हाल ही में दोनों देशों ने नए सिरे से वातार्लाप की पूरी प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा की है, आतंकी अबू जिंदाल के प्रकरण से थोड़ा तनाव आया है लेकिन कुल-मिलाकर वर्तमान में दोनों देशों का संबंध शांति के दौर में हैं। इसलिये लोगों का विचार है कि भारत-पाक नेताओं के बीच मुलाकात, वार्ता के विषय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह इस बात का द्योतक है कि दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय वार्ता विधिवत बहाल हो गयी है और दोनों देशों के नेताओं की एक-दूसरे के यहां न आने की स्थिति समाप्त हो रही है। मार्च महीने में तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यात्राओं का रुका क्रम शुरू किया है। हालांकि विश्लेषकों का एक वर्ग यह भी कहता रहा है कि क्रिकेट ने मैत्रीपूर्ण वातावरण तैयार करने में भूमिका निभायी है, पर भारत-पाक गतिरोध का सच्चा समाधान समान लक्ष्य के आधार पर दोनों के अथक प्रयासों पर निर्भर करता है। दोनों देश बेकाबू फौजी टक्करों को सहने में असमर्थ हैं, और तो और लम्बे अरसे की दुश्मनी से दोनों देशों के अर्थतंत्र को भारी नुकसान पहुंचा है। यह देखना भी जरूरी है कि भारत-पाक के बीच कटुता दसियों सालों से चली आ रही है, यह दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक शिकायत, राजनीतिक एवं धार्मिक दुश्मनी और वास्तविक हितों के अंतर्विरोध से जुड़ी हुई है। ऐसे में मात्र क्रिकेट सम्बन्ध बहाली से ज्यादा उम्मीदें करना बेमानी सिद्ध हो सकता है।

Saturday, July 14, 2012

अंसारी के रास्ते कांग्रेस के कई निशाने

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके वर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी एक बार फिर उपराष्ट्रपति पद के चुनाव मैदान में होंगे। जिस तरह के संकेत हैं, उससे उनकी राह मुश्किल नहीं लगती। भारतीय जनता पार्टी के भीतर प्रत्याशी उतारने पर सहमति नहीं बन पा रही और राष्ट्रपति पद के चुनाव में जिस तरह से समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाईटेड, बहुजन समाज पार्टी जैसे दल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के साथ खड़े हैं, जीत में मुश्किल आने की कोई आशंका नहीं दिखाई देती। सपा और बसपा ने उनके अब तक के कार्यकाल पर संतोष जताते हुए समर्थन का ऐलान भी कर दिया है। वैसे, कांग्रेस ने इस एक तीर से कई निशाने साधे हैं। उसकी रणनीति के केंद्र में 2012 के आम चुनाव और अल्पसंख्यक मत हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मिला सबक उसे मुस्लिम प्रत्याशी के रास्ते पर ले आया है। हामिद अंसारी को पहले राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने पर विचार किया गया था लेकिन घटक दलों से आई विरोध की आवाज के बाद इरादा टाल दिया गया। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि राष्ट्रपति पद पर किसी तरह की बाधा आए, इसलिये प्रणब मुखर्जी को मैदान में उतारा गया। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने विरोध किया था और उप राष्ट्रपति के चुनाव में वह अंसारी का भी विरोध करने की घोषणा कर चुकी है लेकिन सोनिया का मकसद यह संकेत देना था कि वह मजबूरी में किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति पद तक नहीं पहुंचाना चाहतीं। तृणमूल सुप्रीमो ममता की पहली पसंद गोपाल कृष्ण गांधी हैं और अगर वह नहीं मानते तो कृष्णा बोस को मैदान में उतारने का मन बना रही हैं। अभी तक ममता और कांग्रेस के बीच उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर कोई बात नहीं हुई है। ममता इस बात से नाराज हैं कि प्रधानमंत्री ने इस मसले पर पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता प्रकाश करात से बात जबकि पश्चिम बंगाल में वह इस पार्टी की राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं। तृणमूल राज्य में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है। माकपा को इस तरह की अहमियत देना ममता को राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचा सकता है। अगले लोकसभा चुनावों में माकपा इस अहमियत को तृणमूल के विरुद्ध प्रयोग भी कर सकती है। ममता बनर्जी हामिद अंसारी से भी नाराज हैं। पिछले साल दिसंबर महीने में राज्यसभा में लोकपाल बिल पर जब चर्चा हो रही थी तब उपराष्ट्रपति अंसारी ने अचानक ही राज्यसभा स्थगित कर दी थी और ममता की तरफ से पेश संशोधन गिर गया था। ममता को यह अपनी राजनीतिक हार महसूस हुई थी और उनके सांसदों ने इसका जमकर विरोध किया था। ममता का सवाल है कि एक ही शख्स दो बार उपराष्ट्रपति क्यों बनेगा? कांग्रेस ने हामिद अंसारी को मैदान में उतारकर अपने कई हित साधे हैं। अंसारी के रूप में वह अपना अल्पसंख्यकों का हितैषी वाला चेहरा सामने रखना चाहती है। अंसारी को बतौर भारतीय राजदूत लंबा अनुभव है और वे स्कॉलर हैं। ऐसे सुशिक्षित व्यक्ति को आगे कर वह अल्पसंख्यकों में अपनी पैठ बढ़ाना चाहती है। ममता की असहमति के बाद प्रणब मुखर्जी के पक्ष में माहौल बनाने में कांग्रेस ने काफी मेहनत की है और अगर उपराष्ट्रपति के लिए कांग्रेस ऐसा कोई नाम देती, जिस पर उसके सहयोगी दलों को ऐतराज होता तो इसका असर राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ सकता था इसलिए इसे 'सेफ कार्ड' के रूप में भी देखा जा रहा है। इस बात की पूरी संभावना है कि हामिद अंसारी के नाम पर गैर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी सहमत हो सकते हैं, क्योंकि ?अंसारी का विरोध करके ये दल अपनी धर्मनिरपेक्ष की छवि पर आंच आने देना नहीं चाहेंगे। एक मकसद अपने घटक दलों में किसी तरह का टकराव टालना भी है। इसके साथ ही वामपंथी दल भी साथ आ सकते हैं क्योंकि पिछली बार अंसारी का नाम सामने आने पर इन्हीं दलों ने समर्थन किया था। वाम दल और अन्य गैर राजग दलों का समर्थन होने से अंसारी की राह बहुत आसान हो जाएगी। अगर बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और वामपंथी दलों की बात की जाए तो मुस्लिम का नाम आने पर उनकी मजबूरी साफ नजर आ जाती है। मुस्लिम मतों के लिए कांग्रेस के साथ ही इन्हीं दलों में सबसे ज्यादा जोर-आजमाइश चलती रहती है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में बहुमत हासिल करने में सफल रही सपा किसी भी सूरत में अंसारी के विरोध का कदम उठा ही नहीं सकती थी। राष्ट्रपति के चुनाव में उसने कांग्रेस से दोस्ती जिन स्वार्थों से की है, उनके पूरा होने में बाधा का जोखिम सपा नहीं उठा सकती। उसे चुनावी वादे पूरे करने हैं ताकि अगले लोकसभा चुनावों में वह फिर जनता के सामने जा सके और इन वादों को पूरा करने के लिए धन की जरूरत केंद्र सरकार पूरा करने की हामी भर चुकी है। वहीं भाजपा इस मुद्दे पर लचीला रुख अपनाए हुए है। राजग का नेतृत्व करने वाली भाजपा की तरफ से इस तरह का कोई संकेत नहीं मिला है कि पार्टी सात अगस्त को होने वाले चुनाव में उतरेगी या विपक्ष की किसी पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन करेगी, जैसा इसने राष्ट्रपति चुनाव में किया हैै। अंसारी के पीछे बहुमत को देखते हुए वह किसी तरह की कवायद से बचने का मन बना रही है। इसके साथ ही संगमा के प्रचार में उसकी मेहनत पर नकारात्मक असर पड़ने का भी डर है। हालांकि पार्टी का एक धड़ा प्रत्याशी उतारने के पक्ष में है ताकि जनता तक संकेत न जाए कि कांग्रेस के प्रत्याशी को वॉकओवर दिया गया है।

Friday, July 13, 2012

ह्विप मुक्त चुनाव से संगमा को उम्मीदें

वोट प्रभावित करने की संभावनाओं को कम करने संबंधी निर्वाचन आयोग के इस स्पष्टीकरण के बाद कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में पार्टियां मतदान के लिए अपने सांसदों और विधायकों के लिए ह्विप जारी नहीं कर सकतीं, भारतीय जनता पार्टी समर्थित प्रत्याशी पीए संगमा के वोटों में वृद्धि की संभावना पैदा की है। संगमा आदिवासी समाज से जुड़े हैं और देश के कई राज्यों में आदिवासी विधायकों की अच्छी-खासी संख्या है, तमाम सांसद भी ऐसे हैं जो या तो खुद आदिवासी हैं या उन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां आदिवासियों की बहुलता है। घटनाक्रम से कांग्रेस में बेचैनी है, प्रश्न यह पैदा हो रहा है कि क्या विधायक या सांसद पाटीर्लाइन से उठकर संगमा के पक्ष में मतदान कर सकते हैं, जवाब उम्मीदों से भरा है। हालांकि संगमा का रास्ता इससे पूरी तरह साफ नहीं हो रहा। राष्ट्रपति पद का चुनाव 19 जुलाई को है। सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी और संगमा दोनों प्रचार में जुटे हैं। प्रणब के चुनाव प्रबंधकों ने जिस तरह तृणमूल कांग्रेस के समर्थन के लिए प्रयास शुरू किए हैं, उसके पीछे निर्वाचन आयोग के इस स्पष्टीकरण को भी वजह माना जा रहा है। रूठी हुईं तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी को मनाने के लिए मुखर्जी खुद भी जोर लगाए हुए हैं। कांग्रेस बेशक सही कह रही है कि उसके प्रत्याशी की जीत तय है लेकिन जीत का अंतर कम न हो, इस कवायद से उसका इंकार लोगों के गले नहीं उतर रहा। संगमा का कद उसके लिए परेशानी का सबब है। संगमा अकेली भारतीय जनता पार्टी से समर्थन प्राप्त प्रत्याशी नहीं हैं बल्कि उनके पीछे आदिवासियों की राजनीति करने वाले छोटे दलों का साथ भी है। अपने प्रभाव वाले मध्य प्रदेश, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासियों की अच्छी-खासी उपस्थिति वाले राज्यों में भाजपा भी प्रयासरत है कि संगमा को अन्य दलों के प्रतिनिधियों के वोट मिल जाएं। मध्य प्रदेश से तो खबरें आने भी लगी हैं कि एनडीए के प्रत्याशी पीए संगमा पर भाजपा के आदिवासी सांसद और विधायक तो एकजुट दिखाई दे रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के आदिवासी सांसद और विधायकों की स्थिति डांवाडोल नजर आ रही है। उधर, छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य हैं, जहां आदिवासी समुदाय से 27 विधायक और चार सांसद हैं। राज्यसभा सांसदों को मिलाकर दो सांसद और हैं। इस तरह सांसद और विधायकों को जनसंख्या के आधार पर राष्ट्रपति के लिए वोटिंग करनी है। सांसदों के वोट की कीमत 708 और विधायकों के वोट की कीमत 108 है। हालांकि छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर ज्यादा प्रभाव नहीं डालने की बात कही जा रही है। छत्तीसगढ़ की चिंगारी को बढ़ती हुई आग के रूप में जरूर देखा जा रहा है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सांसद और विधायक जनता के प्रतिनिधि के रूप में वोटिंग करेंगे। राज्यों में भारत निर्वाचन आयोग सांसद और विधायकों के लिए अलग-अलग मतपत्र भेजेंगे। इसमें गोपनीय तरीके से अपनी पहली और दूसरी पसंद को लेकर वोटिंग होगी। चूंकि कोई भी पार्टी राष्ट्रपति चुनाव के लिए कोई ह्विप जारी नहीं करती है, इस लिहाज से माना जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी विधायकों का दस प्रतिशत वोट भी समाज की मांग पर पीए संगमा के पक्ष में जा सकता है। यदि यह स्थिति पूरे देशभर में हुई, तो राष्ट्रपति चुनाव में नया समीकरण देखने को मिलेगा। छत्तीसगढ़ से भाजपा के राज्यसभा सांसद नंदकुमार साय और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविंद नेताम ने आदिवासी फोरम के बैनर तले इस मांग के जरिए देशभर में समर्थन मांगा है। साय ही आदिवासी जनप्रतिनिधियों को एकजुट करने के अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं। एनडीए उम्मीदवार संगमा के लिए उनकी पुत्री अगाथा संगमा ने बस्तर आकर प्रचार किया और आदिवासियों से समर्थन मांगा है। आदिवासी राष्ट्रपति पर कांग्रेस नेताओं का मिलाजुला बयान आया है और कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता अरविंद नेताम ने पार्टी की परवाह किए बगैर समाज के प्रतिनिधि को समर्थन देने की बात कही है। आदिवासियों के बीच जो माउथ पब्लिसिटी हुई, उसका असर आदिवासी विधायकों पर ज्यादा नजर आ रहा है। प्रदेश के आदिवासी समाज से जुड़े नेता और अफसर इन दिनों आदिवासी राष्ट्रपति की मुहिम में जुटे हुए है और अन्य राज्यों का भी दौरा कर रहे हैं। नेताम के संगमा के पक्ष में बयान देने के बाद कांग्रेस ने सतर्कता बरतनी शुरू कर दी है। प्रभारी महासचिव बीके हरिप्रसाद ने कांग्रेस के सभी सांसदों और विधायकों से कहा है कि वे पार्टी लाइन का अनुपालन करें। ऐसा न करने वालों पर उन्होंने कार्रवाई करने की चेतावनी भी दी है। मध्य प्रदेश में यह जैसे सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस में शक्ति परीक्षण का बड़ा मौका है। भाजपा अपनी सत्ता का इस्तेमाल करके अन्य दलों के विधायकों को रिझा रही है, ताकि वह संगमा का पक्ष लें। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कांतिलाल भूरिया खुद भी आदिवासी हैं इसलिये उन्हें भाजपा के प्रयासों का असर कम करने की मुहिम पर तैनात किया गया है। राज्य की दर्जनों नगर पालिकाएं और सैकड़ों नगर पंचायतें आदिवासी बहुल हैं। कांग्रेस आला कमान ने भूरिया के आदिवासी होने के कारण ही उन्हें प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी है ताकि पार्टी को आदिवासियों का खोया समर्थन फिर मिल सके। मप्र में आदिवासियों की काफी बड़ी आबादी है जिसके थोक समर्थन के बूते कांग्रेस करीब 4 दशकों तक सूबे की सत्ता पर कब्जा जमाती रही है। कांग्रेस को ज्यादातर चुनाव जिताते रहे आदिवासी वर्ग का बड़ा हिस्सा करीब एक दशक पहले उससे छिटक चुका है। भाजपा इस पर सतर्क निगाह रखे हुए है।

Thursday, July 12, 2012

अमेरिकी अर्थव्यवस्था के खराब संकेत

ऊपर से चमक-दमक रहे अमेरिका का यह दूसरा चेहरा है। दुनिया की महाशक्ति के बेहद संपन्न प्रांत कैलिफोर्निया के तीसरे शहर सां बनार्डीनो की परिषद ने खुद को दीवालिया घोषित किया है और आर्थिक संरक्षण की मांग की है। यह संकेत है कि यह विकसित देश धीरे-धीरे आर्थिक मंदी की चपेट में आ रहा है। नगर निकायों के पास धन का अभाव है, वेतन देने के लिए धन के लाले पड़े हुए हैं। खतरनाक बात यह भी है कि देश के कम से कम सात शहर आने वाले कुछ हफ्तों में बनार्डीनो की राह पकड़ते नजर आ रहे हैं। अमेरिका में मंदी के यह संकेत दुनियाभर के लिए बड़ी बेचैनी का कारण बन सकते हैं। अमेरिका के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने हाल ही में अर्थव्यवस्था में वृद्धि के अपने पूवार्नुमान को 2.1 से घटाकर 2 प्रतिशत कर दिया था। इसके बाद अर्थव्यवस्था को लेकर लगातार नकारात्मक खबरें आ रही हैं। अमेरिका में बेरोजगारी भत्तों के दावों में पिछले हफ्ते 24,000 तक की कमी आई है और इस तरह बेरोजगारी भत्तों के दावों की संख्या 398,000 हो गई है। अप्रैल के शुरूआत से लेकर अब तक ऐसा पहली बार हुआ है, जब यह आंकड़ा 400,000 से नीचे आया है। ऐसा नहीं कि इसका अर्थ बेरोजगारी में कमी है बल्कि युवाओं में निराशा के चलते यह हो रहा है जो मान रहे हैं कि बेरोजगारी भत्ता मिल पाना मुश्किल हो रहा है। कई परिषदों ने इस भत्ते के भुगतान की प्रक्रिया रोक दी है। इस बात का समर्थन करने वाले अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जून में मात्र 18,000 नौकरियों की बढ़ोतरी हुई। इसके कारण बेरोजगारी की दर 9.2 प्रतिशत बनी रही। इस तरह लगभग 1.40 करोड़ लोग अभी भी बेरोजगार बने हुए हैं। ऊपरी तौर पर अमेरिका में मंदी दो साल पहले ही खत्म हो चुकी है, लेकिन मंदी के दौरान नौकरियां गवाने वाले 84 लाख लोगों को रोजगार दिलाने के लिहाज से आर्थिक वृद्धि बहुत कमजोर बनी हुई है। वैश्विक मंदी के जनक अमेरिका में बेरोजगारी के आंकड़े पिछले 26 वर्ष के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच चुके हैं। खुद अमेरिकी श्रम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि इस वर्ष जून महीने में सबसे कम नौकरियाँ गईं लेकिन जहां तक पूरे वर्ष का सवाल है 1983 के बाद से देश में बेरोजगारी की दर सबसे ऊँचे स्तर पर है। पिछले साल अगस्त में बेरोजगारी की दर 9.7 प्रतिशत ऊपर पहुँच चुकी थी। जून 1983 के बाद से यह बेरोजगारी का सबसे ऊंचा स्तर रहा है। इन आंकड़ों ने देश की आर्थिक स्थिति सुधारने की गति काफी धीमी होने का संकेत दिया है। पिछले वर्ष के अगस्त महीने से लेकर अब तक देश में 2 लाख 16 हजार नौकरियां जा चुकी हैं। अगस्त 2011 में बेरोजगारी में गिरावट कम रहने के बावजूद मई-जून 2012 में यह आंकड़ा अनुमान से अधिक 49000 था। न्यूयार्क के रोचेस्टर में मैनिंग एंड नैपियर के वरिष्ठ अर्थशास्त्री जैक बाउर के मुताबिक कि देश की अर्थव्यवस्था एक ऐसे रोगी के समान है, जिसकी हालत में सुधार तो हो रहा है लेकिन वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुई है। आर्थिक मंदी जून के आसपास ही खत्म हो चुकी है, लेकिन हालात सामान्य होने में अभी लंबा वक्त लगेगा। इस वर्ष जनवरी से बेरोजगारी के आँकड़े लगातार गिर रहे हैं पर स्थिति सामान्य होने की प्रक्रिया धीमी है। मंदी की शुरूआत के बाद से देश में 69 लाख नौकरियां खत्म हुई हैं। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार अब तक 787 अरब डॉलर का राहत पैकेज जारी कर चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय शेयर बाजार एनवाईएसई यूरोनेक्स्ट का सर्वे भी मंदी के संकेतों का समर्थन करता है। इस सर्वे में 10 कंपनी प्रमुखों में से नौ यानि 90 फीसदी का कहना है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और उनमें से कई विकास अवसरों के लिए भारत समेत अन्य उभरते देशों की ओर देख रहे हैं। सर्वे के मुताबिक दिलचस्प बात यह है कि वर्ष 2007 में केवल एक फीसदी मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) ने यह माना था कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब है, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा बढ़कर 29 फीसदी हो गया था। इस साल सर्वे में 24 देशों के 23 उद्योगों के 284 कंपनी प्रमुखों को शामिल किया। इन कंपनियों का कुल बाजार पूंजीकरण 1500 अरब डॉलर का है। अधिकतर सीईओ ने कहा कि वे अपनी कंपनी के विकास के लिए वे उभरते बाजारों की ओर देख रहे हैं। करीब 40 प्रतिशत कंपनी प्रमुखों ने कहा कि उनके कारोबार के लिहाज से भारत एक महत्वपूर्ण देश है। आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि यूरोजोन के संकट ने अटलांटिक के आर-पार आर्थिक सम्बंधों के कारण अमेरिकी की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। यूरोपीय संघ अमेरिका के वस्तु एवं सेवाओं के निर्यात में करीब पांचवें हिस्से का योगदान करता है। पिछले दो साल में अमेरिका से यूरोप को होने वाले निर्यात में अमेरिका से दुनिया के अन्य हिस्सों को होने वाले निर्यात की तुलना में अधिक तेजी दिखी है। इसके साथ ही यूरोप में मांग घटने से दूसरी अर्थव्यवस्थाओं में भी विकास धीमा हुआ हुआ है, जिसके कारण अमेरिकी उत्पादों के लिए भी विदेशी मांग में कमी आई है। व्यापार के अलावा यूरोप की वित्तीय समस्या का असर भी अमेरिका के वित्तीय बाजारों पर दिखा है। हालांकि अमेरिकी वित्तीय कम्पनियों और मौद्रिक बाजारों ने यूरोप के जोखिम से बचाव की व्यवस्था कर ली, लेकिन संक्रमण का जोखिम बना हुआ है।

Wednesday, July 11, 2012

सड़कों पर वाहनों का बढ़ता बोझ

देश का कोई भी शहर आज जाम की समस्या से अछूता नहीं। सड़कों पर वाहनों का बोझ बढ़ रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक पृथ्वी इस समय 75 करोड़ वाहनों का भार सह रही है। इसमें हर साल पांच करोड़ नए वाहन जुड़ रहे हैं। भारत की बात करे तो यहां नौ करोड़ से ज्यादा वाहन सड़कों पर हैं। अकेले दिल्ली की सड़कों पर हर दिन एक हजार नये वाहन शामिल हो रहे हैं। आगरा जैसे शहर भी इस मामले में पीछे नहीं जहां प्रतिमाह चार हजार से ज्यादा वाहनों का पंजीकरण होता है। भारत में औसत रूप से प्रत्येक 1,000 व्यक्ति पर 12 कारें हैं। देश के हर हिस्से में निजी वाहनों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। इस संख्या के बढ़ने के लिए काफी हद तक सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की नाकामी भी जिम्मेदार है। इसके अलावा निजी वाहनों की बढ़ती संख्या के लिए एक तबके की बढ़ी आमदनी और आसानी से कारों के लिए मिलने वाले कर्ज भी कम जिम्मेवार नहीं। ऐसा लगता है कि कारों की सवारी करने वाले इस बात से बेखबर हैं कि निजी वाहनों की बढ़ती संख्या किस तरह की मुसीबतों को लेकर आ रही है। वाहनों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है उस गति से सड़कों का निर्माण नहीं हो रहा है। इस वजह से यातायात के क्षेत्र में एक खास तरह का असंतुलन स्पष्ट तौर पर दिख रहा है। सबसे पहले तो यह जानना होगा कि देश में किस रफ्तार से निजी वाहनों की संख्या बढ़ी है। शहरी विकास मंत्रालय के वार्षिक प्रतिवेदन में ऐसी जानकारियां हैं, जो चिंता बढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। इसके मुताबिक, वर्ष 2021 तक एक हजार की आबादी पर दोपहिया वाहनों का औसत बढ़कर 393 और कारों की संख्या 48 हो जाएगी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि महानगरों में अगले पंद्रह सालों में तकरीबन साढ़े पांच करोड़ दोपहिया और तकरीबन साठ लाख कारें होंगी यानि नब्बे के दशक में जितनी गाडिां सड़कों पर दौड़ रही थीं, उससे तकरीबन साढ़े तीन गुना गाड़ियां सड़कों पर दौड़ेंगी। ऐसी स्थिति में सड़कों का क्या हाल होगा, इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि दिल्ली की सड़कों पर हर साल आ जाने वालीं कारें वह हैं जिनका दिल्ली में पंजीकरण है। आसपास के शहरों में पंजीकृत पर दिल्ली में चलने वाली कारों की संख्या इसमें शामिल नहीं है। जिस गति से सड़कों पर वाहनों का दबाव बढ़ रहा है, उस गति से सड़कों का निर्माण या उनका चौड़ीकरण नहीं हो रहा। जाहिर है कि जब सड़कों का क्षेत्रफल नहीं बढ़ेगा और वाहनों की संख्या लगातार बढ़ती जाएगी तो जाम जैसी समस्या तो पैदा होगी ही और इसी समस्या से देश के लगभग सभी शहरों के लोग दो-चार हो रहे हैं। बारिश के बाद तो इन सड़कों का दम ही निकल जाता है। अहम मुद्दा ये भी है कि निजी वाहनों की संख्या बढेगी तो उसी गति से प्रदूषण भी बढ़ेगा जो पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक सिद्ध होगा। निजी वाहनों की संख्या बढ़ने से कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी हो रही है और प्रदूषण काफी तेजी से बढ़ रहा है। एक तरफ तो वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कमी करने का राग अलापा जाता है और दूसरी तरफ कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने वाली वजहों पर लगाम नहीं लगाया जाता है। अभी ही प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। ऐसे में वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या का परिणाम क्या होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। प्रदूषण पर काबू पाने के लिए दिल्ली, आगरा समेत कई शहरों में सीएनजी से गाड़ियों को चलाने का फैसला किया गया। इस फैसले को लागू भी किया गया। इस वजह से शुरुआती दौर में प्रदूषण में कमी तो आई लेकिन निजी वाहनों की संख्या काफी तेजी से बढ़ने की वजह से प्रदूषण का स्तर फिर बढ़ने लगा है। इस बात को दिल्ली के उदाहरण के जरिए ही समझा जा सकता है। दिल्ली में 2000 में वायु प्रदूषण का स्तर 140 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर था। सीएनजी लागू होने के बाद 2005 में यह घटकर सौ माइक्रो ग्राम हो गया पर निजी वाहनों की बढ़ती संख्या की वजह से वायु प्रदूषण का स्तर फिर बढ़कर 155 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर हो गया। यही हाल कमोबेश देश के दूसरे शहरों का भी है। कहना न होगा कि प्रदूषण बढ़ने से कई तरह की बीमारियां भी फैल रही हैं। इसमें भी खास तौर पर श्वांस संबंधी कई बीमारियों की वजह वायु प्रदूषण ही है। इन बीमारियों की जद में हर साल हजारों लोग आ रहे हैं और इस वजह से जान गंवाने वालों की संख्या में भी बढ़ोतरी ही हो रही है। प्रदूषण को बढ़ाने के लिए जाम की समस्या भी कम जिम्मेदार नहीं है। जाम लगने की वजह से सड़क पर चलने वाली गाड़ियों की गति धीमी हो गई है। जितनी देर गाड़ियां जाम में खड़ी रहती हैं उतनी देर ईंधन की खपत बिना वजह के होती है। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में जाम में फंसी रहने वाली गाड़ियों की वजह से हर रोज तकरीबन 1.84 करोड़ रुपए का ईंधन नष्ट हो रहा है। अगर गाड़ियां धीमी गति से चलती हैं तो वे अपेक्षाकृत ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करती हैं। अगर कोई गाड़ी 75 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चलती है तो वह प्रति किलोमीटर 6.4 ग्राम कार्बन मोनोक्साइड का उत्सर्जन करती है। वहीं अगर कोई गाड़ी दस किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चलती है तो वह प्रति किलोमीटर 33 ग्राम कार्बन मोनोक्साइड का उत्सर्जन करती है। आश्चर्यजनक है कि देश के कई शहरों में गाड़ियों की रफ्तार दस किलोमीटर प्रति घंटा से भी कम है। कोलकाता में जब सड़कों पर सबसे ज्यादा भीड़ होती है उस वक्त एक कार की औसत गति सात किलोमीटर प्रति घंटा है। एक अध्ययन में यह बताया गया है कि अगर सड़कों पर वाहनों के दबाव को पांच फीसद कम किया जाए तो इससे गाड़ियां की गति में दस फीसदी की बढ़ोतरी होगी।

Tuesday, July 10, 2012

मर्यादा के पार ठाकरे के शब्द

अपनी कड़वी जुबान के लिए सदैव चर्चा में रहने वाले शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने इस बार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को राजनीतिक रूप से नपुंसक बताया है। ठाकरे ने शब्दों की मर्यादा का पहली बार उल्लंघन नहीं किया है। पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम उनके निशाने पर थे। अपनी पुस्तक में यह कहने पर कि मैं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने वाला मैं नहीं था, ठाकरे ने जुबानी हमला बोला था कि कलाम के इस बयान से उनका ही चीरहरण हुआ है। वे मिसाइल मैन नहीं खोखले कलाम हैं। किसी पर भी टिप्पणी कर देना ठाकरे की आदत में शुमार है। वह बोलते समय सोचते नहीं। कहा जाता है कि वह चर्चा बटोरने के लिए तीखा बोलते हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने वाली शिव सेना का जनाधार सिद्ध होने वाले लोग ठाकरे की इसी शैली को पसंद करते हैं। खुद को कट्टर हिंदू कहने वाला यह बुजुर्ग नेता मतलबपरस्त इतना है कि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं भी भूलने से नहीं हिचकता और राष्ट्रपति चुनाव में अपनी कट्टर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस का समर्थन कर देता है। वैसे तो आज के दौर का कोई भी नेता बदज़ुबानी में किसी से पीछे नहीं है। मुलायम, लालू की हल्की बातों को मीडिया ने अपने फ़ायदे के लिये खूब भुनाया और उसके चटखारों से खूब मजमा जुटाया। मगर क्या मीडिया की हिमायत इनकी छिछली टिप्पणियों को जायज़ ठहरा सकती है? कांग्रेस में भी सत्यव्रत चतुर्वेदी, दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी जैसे महारथियों की भरमार है,जो अपने काम से ज़्यादा ओछी टीका-टिप्पणियों के लिए सुर्खियां बटोरते हैं। वैसे नेताओं को समझना होगा कि सार्वजनिक जीवन में आचार-व्यवहार की मर्यादाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। हल्के शब्द तात्कालिक तौर पर फ़ायदा देते दिखाई ज़रूर देते हैं,लेकिन ये ही शब्द व्यक्तित्व की गुरुता को घटाते भी हैं। "ज़ुबान की फ़िसलन" राजनीति की रपटीली ज़मीन पर बेहद घातक साबित हो सकती है। बड़बोले नेताओं का हश्र देश पहले ही देख चुका है। यह शब्दों की मर्यादा ही है, जो किसी भी नेता के कद को घटाने-बढ़ाने में सहायक होती है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से इस बारे में आज के नेता सीख ले सकते हैं। राजनीति में लंबा समय गुजारने के बावजूद इन नेताओं ने कभी ऎसे शब्द नहीं कहे, जिससे उन्हें या उनकी पार्टी को शर्मिदा होना पड़ा हो। माना कि राजनीति का यह दौर टकराहट भरा है और हरेक राजनीतिक दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगा है, फिर भी एक लक्ष्मण रेखा तो ऎसी होनी ही चाहिए, जिसे लांघने की कोशिश कोई न करे।