Thursday, January 24, 2019

करतारपुर पर खुशी, और चिंताएं

लाखों-करो़ड़ों सिखों की आस्था का केंद्र करतारपुर सियासत की सरगरमियों की वजह बना है। पाकिस्तान चाहता है कि भारत के सिख सीधे आएं और एेतिहासिक गुरुद्वारे के दर्शन करें। भारत का रुख सकारात्मक है, रास्ते की रुकावटें हटना शुरू भी हो गई हैं। गुरुद्वारे के लिए गलियारा बनने लगा है। लेकिन, क्या सब.कुछ इतना अच्छा और आसान है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के तेवर बताते हैं कि कहीं कुछ डर है। हम कहीं धार्मिक पहल के बहाने रक्षा मोर्चे पर मात देने की साजिश से तो रूबरू नहीं होने जा रहे हैं। उल्लास के माहौल में चिंताओं के भी रंग हैं। भारत सरकार के लिए मुश्किल भी है कि वह सिखों के इस प्रमुख गुरुद्वारे के दर्शन में बाधा नहीं बन सकती। इसके पीछे भारतीय जनता पार्टी की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दबाव है। संघ को लगता है कि सकारात्मक कदम उठाकर 1984 के दंगों में कांग्रेसी चोट से आहत सिखों का दिल जीता जा सकता है। एेसे में जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं, दिल जीतने की यह कवायद बड़ी चुनावी कामयाबी की वजह भी बन सकती है।
करतारपुर कॉरिडोर बनाने की घोषणा भारत और पाकिस्तान दोनों ने की है। ये कॉरिडोर पाकिस्तान के करतारपुर और भारत के गुरदासपुर के मान गांव को जोड़ेगा। सिखों के पहले गुरु गुरुनानक देव की कर्मस्थली है करतारपुर, यहीं नानक देव ने अंतिम सांसें ली थीं। माना जाता है कि जिस स्थान पर गुरु नानक देव की मृत्यु हुई थी, गुरुद्वारा उसी स्थान पर है। दूर से ही दिख जाने वाले इस गुरुद्वारे का निर्माण 1920-29 के बीच महाराज पटियाला महाराज सरदार भूपिंदर सिंह ने कराया, खर्च हुए एक लाख 35 हजार छह सौ रुपये। वर्ष 1995 में पाकिस्तान सरकार ने इसके कुछ हिस्सों का पुनर्निर्माण कराया। भारतीय सीमा से महज तीन किलोमीटर दूर स्थित इस गुरुद्वारे को टेलीस्कोप से देखने की व्यवस्था भारत ने कर रखी है। बहरहाल, प्रस्तावित कॉरिडोर का मकसद सिख श्रद्धालुओं के लिए गुरुनानक देव की पवित्र धरती तक पहुंच और आवाजाही आसान बनाना है। पाकिस्तान की घोषणा है कि कॉरिडोर बनने के बाद श्रद्धालु बिना वीजा गुरुद्वारे के दर्शन कर सकेंगे। भारत और पाकिस्तान, दोनों की तरफ से कॉरिडोर के लिए समारोहपूर्वक प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। करतारपुर गुरुद्वारे पर भारतीय सिख जाएं और अरदास कर सकें, इसके लिए पहल अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने की थी। 1998 में यह मसला पाकिस्तान सरकार के समक्ष उठा, लेकिन परमाणु परीक्षण के बाद पैदा परिस्थितियों की वजह से अधर में लटक गया। साल 2000 में पाकिस्‍तान ने भारत से आने वाले सिख श्रद्धालुओं को बॉर्डर पर एक पुल बनाकर वीजा फ्री एंट्री देने का फैसला किया था। साल 2017 में भारत की संसदीस समिति ने कहा कि आपसी संबंध इतने बिगड़ चुके हैं कि किसी भी तरह का कॉरीडोर संभव नहीं है। और मामला वहीं थम गया।
सिखों को लगता है कि अब उनके आराध्य के परम पवित्र गुरुद्वारे के आसानी से दर्शन की बेला आ गई है। लेकिन सब-कुछ इतना सीधा और सरल नहीं। पाकिस्तान की सुस्ती से निश्चिंत भारत की चिंताएं उसकी व्यग्रता ने बढ़ाई हैं। सरकार को डर है कि लंबे अरसे तक आतंकवाद की तपिश झेल चुके पंजाब में पाकिस्तान कहीं फिर आग न लगा दे। इस खौफ का अंदेशा भारत के सधे कदमों से लगता है। भारत सरकार ने करतारपुर कॉरिडोर के शिलान्यास समारोह में अपने दो मंत्रियों हरसिमरत कौर बादल और हरदीप पुरी को भेजा लेकिन पूरी निगरानी भी जारी रखी। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर नकारात्मक संदेश न जाने देने के लिए प्रतिनिधित्व का निर्णय हुआ। सरकार खालिस्तान सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) समर्थकों की 2019 में गुरुनानक की 550वीं जयंती के मौके पर पाकिस्तान में होने वाले सम्मेलन की योजना पर भी करीबी नजर बनाए हुए है। सम्मेलन में सदस्य अलग खालिस्तान बनाने की मांग करेंगे। सिख तीर्थयात्रियों को पाकिस्तान जिस उदारता के साथ वीजा दे रहा है, उससे सरकार को डर है कि भारत से जाने वाला सिख जत्था इस सम्मेलन में शामिल हो सकता है। इसके अलावा करतारपुर गलियारा तीर्थयात्रियों के लिए वीजा फ्री भी रहेगा, यह घोषणा भी भारत को सुकूनभरी कम, चिंताभरी ज्यादा लग रही है। उसे लग रहा है कि हर मोर्चे पर बेशर्मी से अडिग रहकर भारत की परेशानी बढ़ाते रहने वाला यह पड़ोसी इतना उदार कैसे हो गया। एेतिहासिक गुरुद्वारे में जिस तरह खालिस्तान समर्थक अपने बैनर लगाते रहे हैं, यह भी चिंता की एक कड़ी है। शुरुआत में ही पाकिस्तान ने अपनी मंशा जाहिर भी कर दी जब शांति का प्रतीक माने जा रहे इस कार्यक्रम में खालिस्तान समर्थक गोपाल चावला भी मौजूद रहा। उसने पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर बाजवा से मुलाकात भी की। 
संकेत तो यहां तक हैं कि बाजवा से मुलाकात के बाद भारत सरकार पंजाब के कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की गुपचुप निगरानी करा रही है। उसे लग रहा है कि अपने सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह की मनाही के बावजूद सिद्धू के जाने की कोई एेसा वजह है जिसका पता लगाने की जरूरत है। कहीं सिद्धू के तार पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी से तो नहीं जुड़ रहे या अनजाने में उन्हें मोहरा बनाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा। गोपाल चावला को सरकार पाकिस्तानी योजना का प्रमुख मोहरा मान रही है। इसके कारण भी हैं। चावला की वजह से ही पाकिस्तान ने साखी पर भारतीय अधिकारियों को पंजा साहिब गुरुद्वारे में जाने से रोक दिया था। इससे दो दिन पहले भी अफसरों को वाघा बॉर्डर पहुंचे सिख श्रद्धालुओं से मिलने से रोका गया था। वाघा भारतीय सीमा खत्म होने के बाद पाकिस्तान का पहला रेलवे स्टेशन है। पाकिस्तान स्थित भारतीय दूतावास के यह अधिकारी हर साल की तरह भारतीय श्रद्धालुओं से मिलना चाह रहे थे ताकि उन्हें वहां किसी तरह की दिक्कत न हो और विषम परिस्थिति में मदद कर सकें। खालसा पंथ के 320 वें जन्म दिवस के मौके पर वैशाखी के दिन 1800 सिख श्रद्धालु पाकिस्तान में तीर्थ स्थल पर पहुंचे थे। भारतीय श्रद्धालुओं की यह तीर्थयात्रा भारत और पाकिस्तान के बीच धार्मिक यात्राओं के लिए हुए समझौते के तहत होती है। पाकिस्तान के भारत विरोधी अभियान के तहत सिख आतंकियों ने गुरुद्वारा पंजा साहिब के परिक्रमा के दौरान सिख जनमत संग्रह 2020 के पोस्टर भी लगाए थे। चिंताओं की यह वजह हैं कि भारत को असहज होने के बावजूद आगे बढ़ना पड़ रहा है। 

चुनौतियों से रूबरू इमरान

पाकिस्तान विस्फोट के मुहाने पर है। चीन के बढ़ते कर्ज और अमेरिका के हाथ खींचने के बाद आर्थिक मोर्चे पर बदहाली बढ़ी है। ढांचा ढह रहा है। सुधार के शुरुआती संकेतों से उत्साहित नए प्रधानमंत्री इमरान खान का भारत विरोधी सुर पकड़ना बेवजह नहीं है। अच्छा होने-करने के लिए उत्साह से लबरेज इमरान मानने लगे हैं कि कुछ भी काबू में आना मुश्किल है और अवाम को फुसलाने के लिए भारत विरोध का पारंपरिक एजेंडा ही कारगर है। असल में, भारत में सशक्त सरकार ने भी हौसले पस्त किए हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे मुंह की खानी पड़ रही है। 

पाकिस्तान की चर्चा का यह वक्त अचानक नहीं आ गया। सत्तासीन होने के बाद इमरान खान ने जो सकारात्मक संकेत दिए थे, करतारपुर कॉरिडोर खोलने की घोषणा जैसे कुछ सकारात्मक कदम उठाए भी थे, उससे यह उम्मीद जगने लगी थी कि वह अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अलग हैं और कुछ अच्छा करना चाहते हैं। उनके मुख से भारत से दोस्ती के लिए कुछ अच्छी बातें भी हुई थीं। लेकिन उनके तेवर पलटने लगे। अभिनेता नसीरुद्धीन शाह की असुरक्षा की चिंताओं पर हां में हां मिलाने के साथ ही उन्होंने जता दिया कि पाकिस्तान में चीजें नहीं बदलेंगी अपितु भारत विरोध का पुराना एजेंडा ही चलेगा।इमरान चौतरफा चुनौतियों से रूबरू हैं। आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका ने हाथ खींचना शुरू कर दिया है। तमाम प्रयासों और स्पष्टीकरण के बावजूद अमेरिका मान नहीं रहा। आतंकवाद के मददगार के रूप में कुख्याति अमेरिका के साथ रिश्ते में फांस बन गई है। उधर, चीन हर तरह की मदद के लिए आतुर रहकर खुद पर निर्भरता बढ़ा रहा है। हाफिज सईद के मुद्दे पर अमेरिका रुष्ट है लेकिन चीन मददगार। सेना की कठपुतली इमरान चाहकर भी हाफिज सईद का विरोध नहीं कर सकते क्योंकि उसे सेना का संरक्षण है। सईद के खुलेआम विचरण से दुनिया में देश की ख्याति मलिन होती है।
इसके साथ ही, आंतरिक हालात भी परेशानी का सबब हैं। सिंध और बलूचिस्तान के बाद खैबर पख्तूनवा और वजीरिस्तान ने भी अलग देश की मांग पर बवाल मचा रखा है। इमरान के पीएम बनने के बाद पख्तूनियों के 27 वर्षीय नेता मंजूर पश्तीन ने कई दिन तक लगातार आंदोलन छेड़ा। वह लाखों पख्तूनियों के एकछत्र नेता हैं और उनकी आवाज पर बवंडर उठ जाया करता है। समस्या विकराल है क्योंकि पाकिस्तानी सेना में पख्तूनियों की संख्या 25 फीसदी से ज्यादा है और सेना में बगावत का खतरा है। पाकिस्‍तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और गिलगित-बाल्टिस्तान में भारत से बातचीत शुरू करने की मांग को लेकर आंदोलन तेजी पकड़े हुए है। मांग क्षेत्र से सेना हटाए जाने की भी है। जम्मू कश्मीर में अशांति के अपने आरोपों पर पाकिस्तान दृढ़ नहीं हो पाता क्योंकि पीओके में उसके विरुद्ध बगावत के सुर बात कमजोर कर देते हैं। बलूचिस्तान में भी अलगाववादी आंदोलन तेज हैं। आरोप है कि इस राज्य को पाकिस्तान ने जबरन हथिया रखा है। बलूचियों को चिंता है कि चीन के आर्थिक गलियारे के बाद उनका शोषण बढ़ जाएगा और उन्हें दबाने के लिए चीन और पाकिस्तान मिलकर कहर बरपाएंगे। बलूचिस्तान में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं, यहां कॉपर, गोल्ड, लीथियम और कई दुर्लभ खनिज पदार्थ मिलते हैं। पाकिस्तान इस इलाके से प्राकृतिक गैस निकालता है लेकिन इस प्रांत को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। यही वजह है कि बलूच लिबरेशन फ्रंट इकनोमिक प्रोजेक्ट्स पर अक्सर हमले करता रहता है। पाकिस्तान ने अपने 15000 सैनिक इन प्रोजेक्टों की रक्षा के लिए लगा रखे हैं। देश की कुल आबादी में बलूचों की संख्या पांच फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह सिंध में आवाजें उठती रही हैं। नई मुश्किल बलूच और सिंधियों का एकजुट आंदोलन है। पाकिस्तान के कुल कर संग्रह में सिंध की हिस्सेदारी 70 फीसदी के आसपास है। सिंध में ही कच्चे तेल और गैस का सर्वाधिक उत्पादन होता है। फिर भी यह पाकिस्तान के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार है। बंटवारे के वक्त सिंध के लोगों ने खुद ही पाकिस्तान में शामिल होने का समर्थन किया था, लेकिन बाद में दमन की वजह से पाकिस्तान से मोहभंग हो गया। इमरान को चूंकि सेना के समर्थन से विजयी प्रधानमंत्री माना जाता है इसलिये आक्रोश ज्यादा है।
पाकिस्तान विस्फोट के मुहाने पर है। चीन के बढ़ते कर्ज और अमेरिका के हाथ खींचने के बाद आर्थिक मोर्चे पर बदहाली बढ़ी है। ढांचा ढह रहा है। सुधार के शुरुआती संकेतों से उत्साहित नए प्रधानमंत्री इमरान खान का भारत विरोधी सुर पकड़ना बेवजह नहीं है। अच्छा होने-करने के लिए उत्साह से लबरेज इमरान मानने लगे हैं कि कुछ भी काबू में आना मुश्किल है और अवाम को फुसलाने के लिए भारत विरोध का पारंपरिक एजेंडा ही कारगर है। असल में, भारत में सशक्त सरकार ने भी हौसले पस्त किए हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे मुंह की खानी पड़ रही है। 
पाकिस्तान की चर्चा का यह वक्त अचानक नहीं आ गया। सत्तासीन होने के बाद इमरान खान ने जो सकारात्मक संकेत दिए थे, करतारपुर कॉरिडोर खोलने की घोषणा जैसे कुछ सकारात्मक कदम उठाए भी थे, उससे यह उम्मीद जगने लगी थी कि वह अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अलग हैं और कुछ अच्छा करना चाहते हैं। उनके मुख से भारत से दोस्ती के लिए कुछ अच्छी बातें भी हुई थीं। लेकिन उनके तेवर पलटने लगे। अभिनेता नसीरुद्धीन शाह की असुरक्षा की चिंताओं पर हां में हां मिलाने के साथ ही उन्होंने जता दिया कि पाकिस्तान में चीजें नहीं बदलेंगी अपितु भारत विरोध का पुराना एजेंडा ही चलेगा।इमरान चौतरफा चुनौतियों से रूबरू हैं। आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका ने हाथ खींचना शुरू कर दिया है। तमाम प्रयासों और स्पष्टीकरण के बावजूद अमेरिका मान नहीं रहा। आतंकवाद के मददगार के रूप में कुख्याति अमेरिका के साथ रिश्ते में फांस बन गई है। उधर, चीन हर तरह की मदद के लिए आतुर रहकर खुद पर निर्भरता बढ़ा रहा है। हाफिज सईद के मुद्दे पर अमेरिका रुष्ट है लेकिन चीन मददगार। सेना की कठपुतली इमरान चाहकर भी हाफिज सईद का विरोध नहीं कर सकते क्योंकि उसे सेना का संरक्षण है। सईद के खुलेआम विचरण से दुनिया में देश की ख्याति मलिन होती है।
इसके साथ ही, आंतरिक हालात भी परेशानी का सबब हैं। सिंध और बलूचिस्तान के बाद खैबर पख्तूनवा और वजीरिस्तान ने भी अलग देश की मांग पर बवाल मचा रखा है। इमरान के पीएम बनने के बाद पख्तूनियों के 27 वर्षीय नेता मंजूर पश्तीन ने कई दिन तक लगातार आंदोलन छेड़ा। वह लाखों पख्तूनियों के एकछत्र नेता हैं और उनकी आवाज पर बवंडर उठ जाया करता है। समस्या विकराल है क्योंकि पाकिस्तानी सेना में पख्तूनियों की संख्या 25 फीसदी से ज्यादा है और सेना में बगावत का खतरा है। पाकिस्‍तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और गिलगित-बाल्टिस्तान में भारत से बातचीत शुरू करने की मांग को लेकर आंदोलन तेजी पकड़े हुए है। मांग क्षेत्र से सेना हटाए जाने की भी है। जम्मू कश्मीर में अशांति के अपने आरोपों पर पाकिस्तान दृढ़ नहीं हो पाता क्योंकि पीओके में उसके विरुद्ध बगावत के सुर बात कमजोर कर देते हैं। बलूचिस्तान में भी अलगाववादी आंदोलन तेज हैं। आरोप है कि इस राज्य को पाकिस्तान ने जबरन हथिया रखा है। बलूचियों को चिंता है कि चीन के आर्थिक गलियारे के बाद उनका शोषण बढ़ जाएगा और उन्हें दबाने के लिए चीन और पाकिस्तान मिलकर कहर बरपाएंगे। बलूचिस्तान में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं, यहां कॉपर, गोल्ड, लीथियम और कई दुर्लभ खनिज पदार्थ मिलते हैं। पाकिस्तान इस इलाके से प्राकृतिक गैस निकालता है लेकिन इस प्रांत को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। यही वजह है कि बलूच लिबरेशन फ्रंट इकनोमिक प्रोजेक्ट्स पर अक्सर हमले करता रहता है। पाकिस्तान ने अपने 15000 सैनिक इन प्रोजेक्टों की रक्षा के लिए लगा रखे हैं। देश की कुल आबादी में बलूचों की संख्या पांच फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह सिंध में आवाजें उठती रही हैं। नई मुश्किल बलूच और सिंधियों का एकजुट आंदोलन है। पाकिस्तान के कुल कर संग्रह में सिंध की हिस्सेदारी 70 फीसदी के आसपास है। सिंध में ही कच्चे तेल और गैस का सर्वाधिक उत्पादन होता है। फिर भी यह पाकिस्तान के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार है। बंटवारे के वक्त सिंध के लोगों ने खुद ही पाकिस्तान में शामिल होने का समर्थन किया था, लेकिन बाद में दमन की वजह से पाकिस्तान से मोहभंग हो गया। इमरान को चूंकि सेना के समर्थन से विजयी प्रधानमंत्री माना जाता है इसलिये आक्रोश ज्यादा है।

दलित वोटों पर संघ का फोकस

आम चुनाव 2019 दस्तक दे रहा है। केंद्र की सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी की तैयारियां जारी हैं, उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कमर कस रहा है। पूरा जोर लगाने की रणनीति है। मुख्य ध्यान समाज के सभी वर्गों को जोड़कर चलने में है, यानी दलितों के वोटों पर नजर है। संघ मानकर चल रहा है कि दलितों के एकजुट वोट से न केवल केंद्र की सत्ता के रास्ते उत्तर प्रदेश में संभावित महागठबंधन से टक्कर ली जा सकेगी, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी जीत के समीकरण काफी सरल हो जाएंगे।
गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा के उपचुनावों में गठबंधन की वजह से दलित-मुस्लिम एकता देखने को मिली थी, यह बीजेपी के लिए बड़ी चिंता का विषय है। इसी के बाद दलित सम्बन्धी रणनीति को महत्व देने का निर्णय हुआ है। संघ का समरसता अभियान आने वाले दिनों में तेजी पकड़ेगा। क्योंकि रणनीतिककार मानकर चल रहे हैं कि समरसता अभियान के रास्ते ही हिंदू वोटों में विभाजन को रोका जा सकता है। यह संघ का अपना काम करने का तरीका है, जिससे वह गहरे तक अपनी पैठ बनाता है। आरएसएस की वेबसाइट पर समरसता कार्यक्रम की एक फोटो है, जिसमें बीआर आंबेडकर, ज्योतिबा फुले और गौतम बुद्ध की फोटो लगी है, लिखा है ’समरसता मंत्र के नाद से हम भर देंगे सारा त्रिभुवन।’ संघ प्रमुख मोहन भागवत का नागपुर के एक कार्यक्रम में दिया गया बयान इसी लाइन को मजबूत करता हुआ दिखता है, जिसमें उन्होंने कहा “अयोग्य बातें त्यागनी होंगी। हिंदू धर्म कोई जाति-भेद नहीं मानता, हम सब भाई-भाई हैं। इसे व्यवहार में भी उतारना होगा, संघ यही काम कर रहा है। भेदों के आधार पर व्यवहार, यह विकृति है। समाज को एक सूत्र में बांधने के लिए डॉ. आंबेडकर के बंधुभाव का दृष्टिकोण अपनाना होगा। संघ समतायुक्त, शोषण-मुक्त समाज निर्माण करने का काम कर रहा है. लेकिन यह काम केवल अकेले संघ का नहीं है, सारे समाज को इसमें हाथ बंटाना है।“ सरकार्यवाह सुरेश भैय्याजी जोशी ने कहा- “जाति के आधार पर मनुष्यों का आपस में भेदभाव करना धर्म के मूल तत्वों के खिलाफ है। जातिवाद ने समाज का बड़ा नुकसान किया है, इसलिए हमें इन संकीर्णताओं से ऊपर उठकर देशहित में सोचना चाहिए।“ इसी क्रम में संघ का इरादा छुआछूत के खिलाफ अभियान में तेजी लाने का है। वर्ष की शुरुआत में स्वयंसेवकों ने तेलंगाना प्रांत में दलितों के मान-सम्मान के लिए एक मुहिम चलाई थी, जिसके फलस्वरूप यहां के 200 गांवों में एक श्मशान, मंदिर में सबको प्रवेश एवं होटल में सभी के लिए समान गिलास रखना संभव हुआ है। इसी का असर है कि हाल ही में सम्पन्न राज्य विधानसभा चुनावों में इस क्षेत्र से लगी दो सीटों में भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ गया। राजस्थान में भी संघ ने एक कुंआ, एक श्मशान तथा मंदिर प्रवेश को लेकर काम किया है। दलितों में रुझान बढ़ने का यह भी एक वजह रहा है। इसी क्रम में संघ के निर्देश पर बीजेपी ने अपने सांसदों, विधायकों को डॉ. बीआर आंबेडकर जयंती मनाने के लिए कहा था, इसी क्रम में पुण्यतिथि पर भी स्मरण के सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किए गए। दलितों के यहां जाकर यह बताने के लिए कहा गया कि सरकार उनके कल्याण के लिए क्या-क्या कर रही है। सियासी जानकारों का कहना है कि जिस तरह से बीजेपी ने यह मिथक तोड़ा कि महात्मा गांधी केवल कांग्रेस के नहीं हैं, उसी तरह वह आंबेडकर को लेकर भी काम कर रही है, ताकि दलितों की खैरख्वाह बनने वाली कोई पार्टी आंबेडकर पर अपना एकाधिकार न समझे। राम मंदिर का मुद्दा भी जिंदा रखा जाएगा। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के जरिए भी मंदिर के लिए माहौल बनाने की कोशिश की जाएगी। इसके साथ ही, संघ हर सांसद के कार्यों का भी मूल्यांकन कर रहा है। यह दायित्व संघ के संगठन मंत्रियों को दिया गया था। उनकी रिपोर्ट मिलने के बाद प्रत्याशी चयन में भी संघ की सक्रियता इस दफा पहले से ज्यादा है। अगले चुनाव में किस-किस मौजूदा भाजपा सांसद का टिकट कटेगा, इसका निर्णय इसी रिपोर्ट के आधार पर किया जाना है। इसका पार्टी को लाभ भी है कि वह संभावित असंतोष को यह कहकर टाल पाएगी कि टिकट उसके स्तर से नहीं बल्कि संघ ने काटी है। बहरहाल, तैयारियां तेज हैं। आने वाले दिनों में पार्टी के हर कार्यक्रम में संघ की भागीदारी बढ़ती दिखेगी।