Tuesday, July 30, 2013

तेलंगाना पर कांग्रेस का राजनीतिक दांव

लम्बे समय के हंगामे, खून-खराबे और राजनीतिक दांव-पेच के दौर का असर हुआ है और पृथक तेलंगाना राज्य को मंजूरी दे दी गई है। जिस दिन यह अस्तित्व में आएगा, देश का यह 29 वां राज्य होगा। हालांकि पहली नजर में यह राजनीतिक पैंतरा ही है क्योंकि राज्य के अस्तित्व में आने के लिए अभी तमाम औपचारिकताएं होना बाकी हैं। सबसे पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल इसे मंजूरी देगा। यह प्रक्रिया अगले दिन ही पूरी कर लिये जाने का इरादा जाहिर कर दिया गया है। इसके लिए कैबिनेट के विशेष बैठक बुलाई गई है। इसके बाद फिर राज्य विधानसभा और संसद से प्रस्ताव पास होगा। इसके बाद अध्यादेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होंगे। जिस तरह की संभावनाएं जतायी जा रही हैं, कांग्रेस इस पूरी प्रक्रिया को अगले चार-पांच महीने में पूरी करने का मन बना रही है क्योंकि इससे उसे राजनीतिक लाभ तय है। यही समझाकर उसने मुद्दे पर विरोध की अगुवाई संभाल रहे आंध्र प्रदेश के नेताओं को शांत बैठाया है। फिर क्या वजह हैं जो यूपीए के घटक दलों में विचार के लिए मुद्दा लाया गया है और इसी दिन कांग्रेस कार्यसमिति ने मंजूरी दे दी। इस फैसले की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैं। राहुल जल्दबाजी में यह फैसला कराने के इच्छुक थे क्योंकि उन्हें तेलंगाना में राजनीति अपनी पार्टी के अनुकूल बनने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। लेकिन पार्टी में इस पर आम सहमति नहीं, उसके एक तबके को लगता है कि राहुल गांधी पार्टी के एक बड़े वर्ग के आकलन को दरकिनार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के कई नेता अलग राज्य बनाए जाने के खिलाफ हैं। पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद जहां राहुल की हां-हां में इसे हवा दे रहे हैं, वहीं दिग्विजय सिंह, सुशील कुमार शिंदे, आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नरसिम्हन और मुख्यमंत्री किरन कुमार खिलाफ हैं। पीएम के खिलाफ होने के पीछे सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट हैं। देश की अंदरूनी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार इन एजेंसियों को लगता है कि तेलंगाना बनाने को लेकर सरकार का फैसला बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि यह इलाका नक्सल गतिविधियों का केंद्र बन जाएगा। देश के कई नक्सल नेता तेलंगाना क्षेत्र के करीमनगर जैसे जिलों से आते हैं। दरअसल, यह मुद्दा कांग्रेस के गले में फंसने लगा था। हालांकि इसके विरोधी भी कम नहीं थे और जिस तरह से इस्तीफों का दौर चला, उससे लगने लगा था कि कांग्रेस फैसला टाल सकती है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तक ने जिस तरह दबाव बनाने के लिए सुर अलापे, उससे इस संभावना को बल मिला था। नेतृत्व समझ रहा था कि आंध्र प्रदेश में यह मुद्दा एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की तरह है। राज्य बनाने या न बनाने, दोनों स्थितियों में हालात उसके प्रतिकूल होने लगे थे। आंध्र प्रदेश की लगभग 42 प्रतिशत आबादी तेलंगाना क्षेत्र में रहती है और बाकी रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में। राजनीतिक तौर पर नया राज्य बनाने का निर्णय उसके हित में था क्योंकि तेलंगाना में उसका मुकाबला अकेली तेलंगाना राष्ट्र समिति से है जबकि बाकी के राज्य में वह तीन मजबूत पार्टियों से मुकाबिल है। अलग राज्य बनने पर चाहे समिति को राजनीतिक लाभ मिले लेकिन केंद्र से मंजूरी दिलाने का श्रेय उसे भी मिलना तय ही है। तेलंगाना में वह हार बर्दाश्त कर भी लेती लेकिन शेष क्षेत्र में प्रभावशाली होकर उभरी जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस ने सिरदर्द बढ़ा रखा है। आज स्वीकृति देने वाली कांग्रेस इस मुद्दे पर कई बार पलटी मार चुकी है। याद कीजिए, 1971 में तेलंगाना प्रजा समिति ने तेलंगाना क्षेत्र से 10 लोकसभा सीटें जीतकर मुद्दा उभारा था, तब कांग्रेस ने पल्ला झटक लिया था। लेकिन 2004 में चंद्रशेखर राव ने आंदोलन का बिगुल बजा रखा था, तब वह उनके साथ हो गई और राव को मंत्री पद से नवाज दिया। माना गया कि तेलंगाना पर कांग्रेस अब अनुकूल रुख अपना रही है लेकिन यह दोस्ती भी ज्यादा नहीं चली और दो साल बाद ही वह सार्वजनिक रूप से अलग राज्य पर अपनी हिचकिचाहट दिखाने लगी। इस पर राव ने कांग्रेस ने रिश्ता तोड़ लिया। न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग की वो रिपोर्ट भी उसने ठण्डे बस्ते में डाल दी जिसमें राज्य को लेकर कई विकल्प सुझाए गए थे। नए राज्य गठन में मुश्किलें भी आना तय है। आंध्र प्रदेश की सम्पत्ति को बांटना आसान नहीं है। राज्य के 45 प्रतिशत जंगल तेलंगाना इलाके में हैं और देश के 20 फीसदी से ज्यादा कोयला भण्डार भी। कांग्रेस के लिए तात्कालिक लाभ भाजपा के पैर बांधना भी है जो राव से दोस्ती करके आंध्र प्रदेश में खाता खोलने के लिए तैयारी कर रही थी। चुनावी तालमेल की रूपरेखा तय करने के लिए भाजपा राव के नजदीकियों से कई दौर की वार्ता कर चुकी थी और अंतिम फैसला उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह को करना था। नई परिस्थिति में यह समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, यह तय है।

Wednesday, July 24, 2013

अब तो अपने 'रूपे' का इंतजार...

भारतीय अर्थ जगत में एक बदलाव दस्तक दे रहा है। आसार अच्छे हैं। इस परिवर्तन के तहत जल्द ही माइस्त्रो, वीजा, मास्टर, अमेरिकन एक्सप्रेस और साइरस कार्ड के दिन लदने वाले हैं, उनकी जगह लेगा भारतीय कार्ड रूपे। सितम्बर से यह भारतीय कार्ड विदेशी समकक्ष कार्डों को खदेड़ने में सफल होने लगेगा। वित्तीय तंत्र के लिए यह अच्छा संकेत होगा। प्रतिदिन करीब तीन हजार करोड़ रुपये जो लेन-देने के दौरान दुनिया में सर्वाधिक प्रचलित इन कार्डों को चलाने वाली प्रतिष्ठित विदेशी कम्पनियों के खाते में फंस जाते हैं, वह रूपे (Ru-pay) के जरिए भारत में ही रहेंगे और भारतीय मुद्रा तंत्र को मजबूती देंगे। आपके पास डेबिट या क्रेडिट कार्ड वीजा का होगा या मास्टर या माइस्त्रो या फिर साइरस का। अमेरिकन एक्सप्रेस भी प्रचलित ब्रांड है। असल में, यह दुनियाभर में प्रचलित इलेक्ट्रॉनिक मुद्रा कार्ड हैं। ये कार्ड विदेशी भुगतान प्रणाली पर चलते हैं। इनका दुनियाभर की भुगतान प्रणाली पर एकछत्र राज है। आसान शब्दों में कहें तो दुनिया के ज्यादातर देशों की बैंकें भारी-भरकम राशि देकर इन कार्ड कम्पनियों से करार करती हैं। इससे वीजा जैसे कार्डों के जरिए आर्थिक लेन-देन इलेक्ट्रॉनिक रूप में होने लगता है। व्यावहारिक रूप में यह प्लास्टिक कार्ड इलेक्ट्रॉनिक चेक की भांति कार्य करता है, इसके जरिए शाखा में बगैर जाए आप अपना धन खाते से निकाल सकते हैं। कार्डों का उपयोग कुछ देशों में इतना व्यापक हो चुका है कि इसने चेक की जगह ले ली है। अन्य देशों की तरह भारत में भी इंटरनेट बैंकिंग, आनलाइन कर भुगतान, क्रेडिट एवं डेबिट कार्डों का प्रयोग, इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा प्रणाली, राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (एनईएफटी), के साथ ही तत्काल सकल भुगतान प्रणाली आदि को आधुनिक बना दिया है। इससे कार्यकुशलता आई, कार्य किफायती हुआ, भुगतान प्रणालियों में पारदर्शिता आई और विश्वसनीयता भी बढ़ गई। आधुनिकीकरण के इसी दौर में मजबूरी में ही सही, पर विदेशी कम्पनियों के कार्डों का वर्चस्व स्थापित हो गया। एक अनुमान के अनुसार, दुनिया के करीब 43 प्रतिशत आनलाइन भुगतानों का माध्यम मास्टर कार्ड है। इसी तरह वीजा कार्ड का अच्छा-खासा बाजार है। एक्सिस बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में दो करोड़ 30 लाख से ज्यादा वीजा क्रेडिट कार्ड हैं जबकि 30 करोड़ के आसपास एटीएम कार्ड यानि डेबिट कार्ड धारक। समस्या यह नहीं कि यह कार्ड विदेशी हैं, बल्कि यह है कि हमारे वित्तीय लेन-देन का लगभग आधे से ज्यादा तंत्र इन्हीं कार्डों पर आश्रित हो गया है। हालांकि मुश्किलें भी कम नहीं। उदाहरण से समझें कि यदि आपने किसी वस्तु के लिए आनलाइन पेमेंट किया या कोई बिल अदा किया। तकनीकी कारणों से पेमेंट फेल हो गया लेकिन राशि आपके खाते से कट गई तो जितने दिन राशि आपके खाते में वापस नहीं आएगी, उसमें इन कार्ड कम्पनियों का भी फायदा है। एक तो अंतरणों की संख्या एक से बढ़कर दो हो जाएगी। ऊपर से, पेमेंट के लम्बित होने के वक्त का ब्याज भी जेब में जाएगा। चूंकि सेवाएं लेना बैंकों की मजबूरी है इसलिये यह कम्पनी अपनी शर्तों पर ही काम किया करती हैं। सेवा शुल्क भी इतना ज्यादा है कि बैंकें एटीएम स्थापना के बाद अन्य शुल्क लगाकर इस खर्च की भरपाई किया करती हैं। ऐसे में आवश्यकता थी कि किसी न किसी तरह विदेशी कार्डों का आधिपत्य समाप्त या बेहद कम कर दिया जाए। यही आवश्यकता रूपे कार्ड की जननी बन गई। एशिया की आर्थिक महाशक्ति चीन पहले ही यूनियन पे आॅफ चाइना के नाम से विदेशी कार्डों का विकल्प तलाश चुकी थी। वर्ष 2009 में भारतीय रिजर्व बैंक की पहल पर भारतीय बैंक संघ ने गैर-लाभकारी भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम बनाया और निगम ने अप्रैल 2011 में रूपे को विकसित किया। अगले ही माह महाराष्ट्र में शहरी सहकारी क्षेत्र के गोपनीथ पाटिल पर्तिक जनता सहकारी बैंक के माध्यम से पहला रूपे कार्ड लांच हो गया। इसके बाद काशी-गोमती संयुक्त ग्रामीण बैंक ने यह कार्ड जारी किया। निगम इस समय सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों को जोड़ने की कवायद में जुटा है, इनमें बैंक आॅफ इंडिया पहला बैंक है जिसने रूपे को स्वीकार किया है। इन बैंकों ने वित्तीय समावेशन के तहत जोड़े गए ग्राहकों को यह कार्ड जारी किया। यह कार्ड अभी सीमित सेवाएं दे रहा है, लेकिन बाद में इसे क्रेडिट कार्ड के रूप में भी जारी किया जाएगा। योजना के मुताबिक, सितम्बर में व्यावसायिक तौर पर जारी होने के बाद यह कार्ड वीजा और मास्टर कार्ड जैसी वैश्विक भुगतान प्रणाली की जगह ले लेगा। इसके लिए देशभर की करीब आठ लाख आॅटोमेटिक टेलर मशीन (एटीएम) में बदलाव होगा। बदलाव की यह प्रक्रिया हालांकि शुरू हो चुकी है, अभी तक करीब पौने दो लाख मशीनों में यह बदलाव किया जा चुका है। इस माह के अंत तक यह संख्या पांच लाख पहुंच जाएगी। इसके तहत प्रत्येक एटीएम को रूपे गेटवे कार्ड के लिए सॉफ्टवेयर से लैस किया जा रहा है, फिर इनमें वीजा, मास्टर, साइरस या माइस्त्रो कार्ड के साथ ही रूपे कार्ड का इस्तेमाल भी संभव होगा। हालांकि बैंकों और उनके ग्राहकों के लिए कार्ड में बदलाव की पूरी प्रक्रिया बेहद खर्चीली साबित हो रही है। बैंक प्रत्येक नए कार्ड पर 45 रुपये के आसपास खर्च कर रहे हैं। कुछ बैंक विभिन्न लाभकारी योजनाओं में निवेश करने वाले ग्राहकों के लिए यह राशि अपनी जेब से अदा कर रहे हैं तो कुछ की योजना ग्राहकों से वसूल करने की है। दीर्घकालिक लाभ हासिल होने की पक्की संभावना के चलते यह सौदा न बैंकों के लिए घाटे का है और न उसके ग्राहकों के लिए। एटीएम संचालन में सुविधा बढ़ोत्तरी और विभिन्न शुल्कों में कटौती यह दर्द कम करने वाली है।

Thursday, July 18, 2013

दबंग मंत्रियों से डर गई 'दबंग पार्टी'

तकरीबन डेढ़ साल के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार में तीसरा विस्तार हुआ है। देखने से यह आम विस्तार नजर आता है, कि कोई मुख्यमंत्री अपने कामकाज में हाथ बटाने के लिए मंत्रियों की संख्या में वृद्धि करे परंतु इसके निहितार्थ और भी हैं। एक बात तो बिल्कुल साफ हो चुकी है कि प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी भीतर असंतोष की आशंका से डरी-सहमी है वरना छह वरिष्ठ मंत्रियों को गंभीर शिकायतों के कारण हटाने का फैसला अंतिम समय में वापस न लिया गया होता। कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव, ब्रह्मशंकर त्रिपाठी, बलराम यादव, अंबिका चौधरी, ओमप्रकाश सिंह और मनोज पारस के विरुद्ध गंभीर प्रकृति की शिकायतें हैं। दबंगई स्तर तक की शिकायतें न केवल आम जनता ने की है, बल्कि मंत्रियों के जिलों के सपा कार्यकर्ता भी मुखर हुए हैं। इन्हें हटाकर नए मंत्री बनाने की योजना थी लेकिन यह हुआ नहीं। नेतृत्व विरोध की संभावना से डर गया। यही वजह रही कि लखनऊ में ही रहने के निर्देश के बावजूद दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी के दामाद उमर खां, शाकिर अली, राजा भैया और शिवाकांत ओझा मंत्री नहीं बन पाए। कहने का आशय यह है कि दबंग छवि की पार्टी अपने ही पाले-पोसे नेताओं से डर गई। राजनीतिक तौर पर आकलन करें तो मंत्रिपरिषद में विस्तार से पूर्वी उत्तर प्रदेश में अच्छी-खासी संख्या में मौजूद भूमिहारों को संतुष्ट करने का प्रयास किया गया है। पहले इस जाति के चार लोगों को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया, फिर राजीव राय को घोसी से लोकसभा का टिकट मिला और अब नारद राय को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। भूमिहार पूर्व की 10 लोकसभा सीटों को प्रभावित करते है और विधानसभा की 40 से ज्यादा सीटों को। फेरबदल में एक नाम अमेठी के गौरीगंज क्षेत्र से विधायक गायत्री प्रजापति का भी है। गायत्री का अपना कोई बड़ा राजनीतिक वजूद नहीं सिवाए इसके, कि वो उस अमेठी की गौरीगंज विधानसभा सीट से अखिलेश की समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां से कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी सांसद हैं। राहुल और उनकी कांग्रेस अध्यक्ष मां सोनिया गांधी के विरुद्ध समाजवादी पार्टी ने प्रत्याशी न खड़े करने के संकेत दिए थे। लेकिन मामला बाद में तब फंस गया जब कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्री प्रदेश दौरे में कह गए कि सपा के प्रभाव वाली मैनपुरी सीट हो या कन्नौज या इटावा, कांग्रेस अपने प्रत्याशी जरूर उतारेगी। यह बात सपा के गले नहीं उतर पा रही। राजनीतिक तौर पर भाजपा के विरुद्ध वोटों को एकजुट करने और निजी तौर पर भलमनसाहत की उसकी पहल का कांग्रेस ने जिस तरह से जवाब दिया, वह मुलायम सिंह यादव जैसे कद्दावर नेता को रास नहीं आ रहा है। विधानसभा चुनाव में सपा का जैसा जबर्दस्त प्रदर्शन रहा है और महंगाई समेत कई संगीन समस्याओं में कांग्रेस फंसी है, उससे कोई वजह थी ही नहीं कि सपा कांग्रेस के आला नेताओं को वॉकओवर देने के लिए मजबूर होती। गायत्री को मंत्री पद देकर सपा ने अमेठी में अपनी सक्रियता बढ़ाने का संकेत दिया है। मंत्री के रूप में लखनऊ में प्रतिनिधित्व होने पर जिले के पार्टी संगठनों में ऊर्जा का संचार होता है और अफसरों में भी सक्रियता नजर आती है। नतीजतन, पार्टी के पक्ष में हवा बनती है। विवादित नेता रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्रिपरिषद में दोबारा न लेने का फैसला निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है हालांकि जिस डीएसपी हत्याकांड की वजह से उन्हें पहले हटाया गया था, उसमें सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसी भी उनकी भूमिका ढूंढ नहीं पाई है। विस्तार में आगरा जैसे प्रदेश के महत्वपूर्ण जिले को निराशा हाथ लगी है। उम्मीद की जा रही थी कि विस्तार में मंत्रिपरिषद में आगरा का प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है। ताजा विस्तार के बाद प्रदेश की जनता अब हालात में बदलाव की ज्यादा उम्मीदें करेगी। अखिलेश यादव की सरकार बनने के बाद प्रदेश का हाल कुछ सुधरा था लेकिन धीरे-धीरे व्यवस्थाएं बिगड़ने लगीं। कानून व्यवस्था पर अंगुलियां तो उठी हीं, अन्य सरकारी विभागों की सक्रियता भी कहीं-कहीं कम हो गई। विकास का पहिया थम सा गया है। औद्योगिकीकरण में वृद्धि की संभावनाएं भी धूमिल होने लगी हैं। मंत्रियों की पूरी फौज तैयार होने के बाद उम्मीद की जानी चाहिये कि तस्वीर बदलने जा रही है। उत्तर प्रदेश को अपने युवा मुख्यमंत्री से काफी आशाएं हैं।

आकलनः दबंग मंत्रियों से डर गई 'दबंग पार्टी'

तकरीबन डेढ़ साल के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार में तीसरा विस्तार हुआ है। देखने से यह आम विस्तार नजर आता है, कि कोई मुख्यमंत्री अपने कामकाज में हाथ बटाने के लिए मंत्रियों की संख्या में वृद्धि करे परंतु इसके निहितार्थ और भी हैं। एक बात तो बिल्कुल साफ हो चुकी है कि प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी भीतर असंतोष की आशंका से डरी-सहमी है वरना छह वरिष्ठ मंत्रियों को गंभीर शिकायतों के कारण हटाने का फैसला अंतिम समय में वापस न लिया गया होता। कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव, ब्रह्मशंकर त्रिपाठी, बलराम यादव, अंबिका चौधरी, ओमप्रकाश सिंह और मनोज पारस के विरुद्ध गंभीर प्रकृति की शिकायतें हैं। दबंगई स्तर तक की शिकायतें न केवल आम जनता ने की है, बल्कि मंत्रियों के जिलों के सपा कार्यकर्ता भी मुखर हुए हैं। इन्हें हटाकर नए मंत्री बनाने की योजना थी लेकिन यह हुआ नहीं। नेतृत्व विरोध की संभावना से डर गया। यही वजह रही कि लखनऊ में ही रहने के निर्देश के बावजूद दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी के दामाद उमर खां, शाकिर अली, राजा भैया और शिवाकांत ओझा मंत्री नहीं बन पाए। कहने का आशय यह है कि दबंग छवि की पार्टी अपने ही पाले-पोसे नेताओं से डर गई। राजनीतिक तौर पर आकलन करें तो मंत्रिपरिषद में विस्तार से पूर्वी उत्तर प्रदेश में अच्छी-खासी संख्या में मौजूद भूमिहारों को संतुष्ट करने का प्रयास किया गया है। पहले इस जाति के चार लोगों को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया, फिर राजीव राय को घोसी से लोकसभा का टिकट मिला और अब नारद राय को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। भूमिहार पूर्व की 10 लोकसभा सीटों को प्रभावित करते है और विधानसभा की 40 से ज्यादा सीटों को। फेरबदल में एक नाम अमेठी के गौरीगंज क्षेत्र से विधायक गायत्री प्रजापति का भी है। गायत्री का अपना कोई बड़ा राजनीतिक वजूद नहीं सिवाए इसके, कि वो उस अमेठी की गौरीगंज विधानसभा सीट से अखिलेश की समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां से कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी सांसद हैं। राहुल और उनकी कांग्रेस अध्यक्ष मां सोनिया गांधी के विरुद्ध समाजवादी पार्टी ने प्रत्याशी न खड़े करने के संकेत दिए थे। लेकिन मामला बाद में तब फंस गया जब कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्री प्रदेश दौरे में कह गए कि सपा के प्रभाव वाली मैनपुरी सीट हो या कन्नौज या इटावा, कांग्रेस अपने प्रत्याशी जरूर उतारेगी। यह बात सपा के गले नहीं उतर पा रही। राजनीतिक तौर पर भाजपा के विरुद्ध वोटों को एकजुट करने और निजी तौर पर भलमनसाहत की उसकी पहल का कांग्रेस ने जिस तरह से जवाब दिया, वह मुलायम सिंह यादव जैसे कद्दावर नेता को रास नहीं आ रहा है। विधानसभा चुनाव में सपा का जैसा जबर्दस्त प्रदर्शन रहा है और महंगाई समेत कई संगीन समस्याओं में कांग्रेस फंसी है, उससे कोई वजह थी ही नहीं कि सपा कांग्रेस के आला नेताओं को वॉकओवर देने के लिए मजबूर होती। गायत्री को मंत्री पद देकर सपा ने अमेठी में अपनी सक्रियता बढ़ाने का संकेत दिया है। मंत्री के रूप में लखनऊ में प्रतिनिधित्व होने पर जिले के पार्टी संगठनों में ऊर्जा का संचार होता है और अफसरों में भी सक्रियता नजर आती है। नतीजतन, पार्टी के पक्ष में हवा बनती है। विवादित नेता रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्रिपरिषद में दोबारा न लेने का फैसला निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है हालांकि जिस डीएसपी हत्याकांड की वजह से उन्हें पहले हटाया गया था, उसमें सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसी भी उनकी भूमिका ढूंढ नहीं पाई है। विस्तार में आगरा जैसे प्रदेश के महत्वपूर्ण जिले को निराशा हाथ लगी है। उम्मीद की जा रही थी कि विस्तार में मंत्रिपरिषद में आगरा का प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है। ताजा विस्तार के बाद प्रदेश की जनता अब हालात में बदलाव की ज्यादा उम्मीदें करेगी। अखिलेश यादव की सरकार बनने के बाद प्रदेश का हाल कुछ सुधरा था लेकिन धीरे-धीरे व्यवस्थाएं बिगड़ने लगीं। कानून व्यवस्था पर अंगुलियां तो उठी हीं, अन्य सरकारी विभागों की सक्रियता भी कहीं-कहीं कम हो गई। विकास का पहिया थम सा गया है। औद्योगिकीकरण में वृद्धि की संभावनाएं भी धूमिल होने लगी हैं। मंत्रियों की पूरी फौज तैयार होने के बाद उम्मीद की जानी चाहिये कि तस्वीर बदलने जा रही है। उत्तर प्रदेश को अपने युवा मुख्यमंत्री से काफी आशाएं हैं।

Monday, July 15, 2013

फिर तो जनहित में भी लड़ने से बचेंगे नेता...

गुलामी काल में महात्मा गांधी का अवज्ञा आंदोलन और सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को अंग्रेजी सरकार जेलों में डालती थी और अब देशी सरकार कई बार किसानों, मजदूरों के हित और कारपोरेट लूट-भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन पर हत्या, लूट और डकैती के फर्जी मुकदमे दर्ज कर जेल भेज दिया करती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उन नेताओं का नुकसान हो सकता है जो सरकारों की साजिश या पुलिस के भ्रष्टाचार का शिकार होते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सख्ती शुरू हुई तो कुछ मुश्किलें भी सामने आएंगी, यह तय है। मुकदमों का डर होगा तो कौन और क्यों लडेगा जनता के हित के लिए? कौन लडेगा किसानों के सवालों को लेकर? कौन लडे़गा मजदूरों के सवालों को लेकर? कौन वंचित आबादी के सवालों पर आंदोलन की पहल करेगा? कौन आदिवासियों के विस्थापन-उत्पीड़न के खिलाफ सामने आएगा? सिंदूर जैसी लड़ाई देश में कैसे और क्यों होगी? सबसे बुरी बात यह हो सकती है कि पुलिस उत्पीड़न, भ्रष्टाचार और कालेधन जैसी बुराइयों के विरुद्ध लड़ाई भी थमने की आशंकाएं बनी हैं। अफसरशाही-बर्बर पुलिस के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाला व्यक्ति जेल की कोठरी में पहुंचते ही चुनाव लड़ने से वंचित हो सकता है तो क्या यह संवैधानिक व्यवस्था के लिए चुनौती की स्थिति नहीं होगी। लोकतंत्र सिर्फ सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मनमोहन सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अमर सिंह, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी जैसे राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना नहीं है जो न कभी जनता के बीच में सही और ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं और न ही आम-आदमी की लड़ाई लड़ते हैं बल्कि एयरकन्डीशंड रूम में बैठ कर राजनीति करते हैं। भारतीय लोकतंत्र में क्या फिर राममनोहर लोहिया, राजनारायण जैसे हस्ती नहीं बल्कि टाटा, बिरला, अंबानी, एफडीआई जैसी कंपनियों से वित्तपोषित लोग चलेंगे। आशंका यह भी है कि कहीं सैयद शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अफजल अंसारी, डीपी यादव, धनंजय सिंह जैसे दागी और आपराधिक राजनीतिज्ञों की श्रेणी में बाबा रामदेव, मेधा पाटकर जैसे लोग भी न खड़े नजर आने लगें। बाबा रामदेव पर कालेधन के खिलाफ आंदोलन में पुलिस ने कई मुकदमे दर्ज किये हैं, अगर उन्हें सजा हो गयी तो वे कभी चुनाव नहीं लड़ सकते। मेधा पाटकर पर पर्यावरण-भूमि आंदोलन में दर्जनों मुकदमे दर्ज हैं। रामदेव-मेधा पाटेकर जैसे देश में हजारों-लाखों लोग हैं जो क्या अपराधी हैं, क्या लोकतंत्र के लिए बाबा रामदेव-मेधा पाटकर जैसे लोग खतरनाक हैं? कई उदाहरणों और तथ्यों-तर्कों पर अगर आप सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तोलेंगे तो पायेंगे कि जिस फैसले पर मीडिया और आम आदमी खुश हैं, वह मुश्किल का सबब भी बन सकता है। उदाहरण के लिए हम किसान नेता तेवतिया को प्रस्तुत करते हैं। तेवतिया ने मायावती सरकार और रियल एस्टेट माफिया के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था। किसानों की कीमती जमीन औने-पौने भाव में जबरदस्ती लेकर रियल एस्टेट माफिया की किस्मत चमकाने की नीति के खिलाफ आंदोलन किया था। उत्तर प्रदेश की पुलिस ने तेवतिया के किसानों के आंदोलन के खिलाफ बर्बर लाठी-गोली चलायी थी, किसानों के घरों में घुस-घुस कर महिलाओं और बच्चों को पीटा था, जेलों में उठा कर डाला था। पुलिस की इस कार्रवाई का मकसद सिर्फ और सिर्फ रियल एस्टेट के माफिया की योजनाओं को सुरक्षा प्रदान करना था। उत्तर प्रदेश पुलिस ने किसान नेता तेवतिया पर गुंडा एक्ट लगाकर जेल में डाल दिया। करीब दो साल तक जेल में रहकर तेवतिया जेल से तो बाहर आ गये हैं पर उन पर सजा की तलवार लटक रही है। स्थानीय कोर्ट से सजा मिलते ही तेवतिया चुनाव के अयोग्य घोषित हो जायेंगे। क्या तेवतिया जैसे किसान नेता के साथ यह फैसला अन्याय नहीं सिद्ध होगा। अगर कोई शख्सियत सही में आम-जनता की हितैषी है और आम जनता की समस्याओं को लेकर आंदोलन करना चाहती है तो उसके सामने समस्याएं यह आयेंगी कि वह आम जनता की समस्याएं देखे या फिर अपना चुनाव लड़ने के अधिकार को देखे। गणित की भाषा में मान लिया जाये कि बिजली-पानी की समस्या को लेकर कोई नेता आंदोलन करता है और सड़क जामकर यातायात बाधित करता है तब पुलिस जो धारा में मुकदमा दर्ज करेगी, उसमें गिरफ्तारी और सजा सुनिश्चित है। पुलिस सिर्फ विजुअल प्रमाण पर बिजली-पानी की समस्या को लेकर सड़क जाम करने वाले नेता और लोगों को सजा दिला सकती है। पश्चिम बंगाल में टाटा के खिलाफ सिंदूर में जबरदस्त आंदोलन हुआ था। किसानों ने पश्चिम बंगाल की तत्कालीन कम्युनिस्टों की सरकार का उत्पीडन सहा,लाठियां-गोलियां खायीं पर उन्होंने टाटा को निकाल बाहर करके ही दम लिया। लेकिन टाटा को बाहर करने के लिए जिन किसानों ने आंदोलन किया है, उन पर दर्जनों मुकदमे, हत्या, लूट और अत्याचार के दर्ज हैं। आज की तारीख में आप अगर कारपोरेट घरानों के भ्रष्टाचार और किसानों की जमीन की लूट के खिलाफ आंदोलन करते हैं तब पुलिस और प्रशासन मिलकर किसी को भी फर्जी हत्या, डकैती और लूट के मामले दर्ज कर और प्रत्यारोपित गवाहों की गवाही के बल पर सजा दिला कर उसकी राजनीतिक और लोकतांत्रिक जीवन को तहस-नहस कर सकती है। अगर आप अपने काम के सिलसिले में किसी सरकारी दफ्तर जाते हैं और अधिकारी आपका काम नहीं करता है, ऊपर से वह अधिकारी आप से रिश्वत मांगता है इस पर आपकी अधिकारी से नोक-झोंक हो गयी तो यह अपराध सरकारी काम में बाधा डालने का है और इसमें आपको सजा हो जायेगी। मकसद फैसले की आलोचना नहीं है लेकिन आदेश लागू करने से पूर्व सावधानियां बरती जानी होंगी ताकि मामला उलटा न पड़ जाए।