Saturday, December 20, 2014

पाकिस्तानी हुकूमत की मुश्किलें

सपोले सांप बन जाएं और सपेरे को ही डंसने लगें तो चिंता की बात है। पाकिस्तान ने जो बोया, वो काटा। ऊपर से, समूची दुनिया का दुर्भाग्य यह है कि वो अब भी दोगलापन नहीं छोड़ रहा। आतंकवाद की नकेल कसने के लिए जो उपक्रम करता प्रतीत हो रहा है, वह कभी सार्थक नतीजे नहीं दे सकता। अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठानों से जुड़ी एक अहम एजेंसी के संकेत हैं कि आतंकवादियों पर लगाम कसने की पाकिस्तानी कोशिश भारत जैसे मुल्कों के लिए मुश्किल का सबब बनेगी। यह आतंकी भारत जैसे देशों में गड़बड़ी फैलाने में झोंक दिए जाएंगे, तब तक उन्हें नेपाल आदि अस्थाई ठिकानों पर रोका जाएगा। हालांकि माना यह भी जा रहा है कि पाकिस्तान उग्रवादी संगठनों की जड़ें हिलाने की कोई भी कोशिश करेगा भी नहीं, नवाज शरीफ ने जो भी कुछ कहा है, वह अंतर्राष्ट्रीय जगत को दिखाने के लिए कहा है।
पाकिस्तान का हाल किसी से छिपा नहीं है। यहां सियासी सत्ता है, नवाज शरीफ निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्रपति की नियुक्ति है। सदन हैं, लब्बोलुआब यह है कि यहां ऊपरी तौर पर एक मुकम्मल लोकतंत्र है पर वास्तविक तस्वीर इसके बिल्कुल उलट है। सेना का यहां बरसों से वर्चस्व है, सेनाध्यक्ष की ताकत और प्रभाव राजनीतिक नेतृत्व से ज्यादा होता है। सेना के बारे में कहा जाता है कि वह जो चाहे करे, किसी की बिसात नहीं कि उसे टोक भी पाए। हाल ही में नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के दौरान नवाज शरीफ ने कोशिश की थी कि सेना पर राजनीतिक नियंत्रण कायम कर लें। अपने विश्वस्त जनरल को जिम्मेदारी भी दी लेकिन कुछ ही दिन बाद स्थितियां सामने आने लगी हैं। नए सेनाध्यक्ष भी सैन्य तंत्र की बैठकों में नवाज के विरुद्ध खुलकर बोलने लगे हैं। संवेदनशील क्षेत्रों के निरीक्षण में वह राजनेताओं की हिस्सेदारी को वह हतोत्साहित करने लगे हैं। पेशावर हमले के बाद प्रधानमंत्री नवाज शरीफ उन्हें साथ ले जाने के लिए बमुश्किल तैयार कर पाए। दूसरी मुश्किल है पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटरसर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई)। एजेंसी आतंकवादियों को न केवल पालती-पोसती है बल्कि उन्हें जन्म भी देती है। आतंक के क्षेत्र में युवकों की भर्ती को उसका प्रोत्साहन रहता है। मंशा होती है दुश्मन देशों में अपने नापाक मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाना। एजेंसी ने तमाम आतंकवादी संगठनों को भी पुष्पित-पल्लवित होने में मदद की है। सवाल यह है कि वह खुद के खड़े किए आतंकियों को क्यों मारेगी या मारने देगी? पेशावर की घटना के बाद जिस तरह के संकेत आए हैं, उनसे पता चलता है कि आतंकियों की योजना आईएसआई की शह पर सेना को सबक सिखाने की थी। यह बताना था कि सेना बेवजह आतंकवादियों को निशाना बंद करे।
सवाल यह है कि नवाज शरीफ इन परिस्थितियों में अपने ऐलान को धरातल तक कैसे पहुंचाएंगे क्योंकि आईएसआई का मजबूत तंत्र उन्हें ऐसा करने से रोकने की हरसंभव कोशिश करेगा। फिर, अगर वह सफल रहे भी तो इस्लामाबाद की गलियों तक पहुंच गए इन आतंकवादियों को कैसे काबू किया जाएगा? वह इन्हें मारने के बजाए समझाने का नाटक कराएंगे, बाद में धीरे से उन्हें भारत जैसे दुश्मन देशों में गड़बड़ी फैलाने के लिए भेज दिया जाएगा। नवाज शरीफ के लिए तीसरी समस्या न्याय पालिका है जो पूर्ववर्तियों की तरह उन्हें भी खासा परेशान कर रही है। अब बिल्कुल ताजा मामला मुंबई हमले के मास्टरमाइंड जकीउर रहमान लखवी का है। एक तरफ नवाज ताल ठोंक रहे थे, दूसरी तरह इस्लामाबाद की एक अदालत लखवी को छोड़ने की रूपरेखा बनाने में जुटी थी। विशेष बात यह है कि वकीलों की हड़ताल के बावजूद न्यायालय ने मामले की सुनवाई की। नवाज को भी खबरों से इस जमानत की जानकारी हुई। इस घटना से विश्वभर में यह संकेत गया कि नवाज के दावे नाटकमात्र थे और पाकिस्तान आतंकवाद को लेकर कतई गंभीर नहीं है। वहां भी अभियोजन अफसरों पर सरकारी नियंत्रण है और उनकी नियुक्ति सरकार ही करती है, फिर भी इन अधिकारियों ने मामला नवाज के संज्ञान में लाने की जरूरत भी नहीं समझी। हालांकि बाद में लोकलिहाज से लखवी को जेल में ही रोकने का निर्णय किया गया लेकिन यह पूरा घटनाक्रम सबसे ज्यादा भारत के लिए मुश्किलों का संकेत दे रहा है। रिपोर्ट बता रही हैं कि नेपाल में राजनीतिक मजबूती न आने की वजह से भारत पर उग्रवाद का खतरा गहरा रहा है। पाकिस्तान की योजना नेपाल के रास्ते उत्तर प्रदेश में सिख उग्रवादियों को भेजने की है। पाकिस्तान उत्तर प्रदेश को ट्रांजिट रूट के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है जिसके लिए भारत-नेपाल की 550 किमी लम्बी खुली सीमा मददगार साबित हो रही है। इन आतंकियों को तराई के इलाकों में शरण दिलाई जाती है और फिर, इन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में भेजे जाने की योजना है। पाकिस्तान की साजिश इस लिहाज से भी खतरनाक है कि सिख और मुस्लिम आतंकवादी संगठन एक साथ काम कर रहे हैं। नेपाल स्थित पाक दूतावास इन आतंकियों को हरसंभव मदद दे रहा है। सिद्धार्थनगर के बढनी बॉर्डर से सिख आतंकवादी माखन सिंह उर्फ दयाल की गिरफ्तारी से पाकिस्तान के मंसूबों का खुलासा हो चुका है। पाकिस्तान बब्बर खालसा पर दांव लगा रहा है। माखन दर्जनों सिख युवकों को आतंकी गतिविधियों की ट्रेनिंग दिलाकर नेपाल के रास्ते भारत भेज चुका है। उसके काठमांडू में सक्रिय आईएसआई एजेंटों से अच्छे सम्बन्ध हैं। नेपाल में वह अपनी गतिविधियों को पाकिस्तानी दूतावास के संरक्षण में अंजाम दे रहा था। सिद्धार्थनगर और महराजगंज जिले से अब तक एक दर्जन से दुर्दांत सिख आतंकी पकड़े जा चुके हैं।  इन गिरफ्तार लोगों में अधिकतर की पहचान जैश-ए-मोहम्मद और अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के सदस्य के रूप में की जा चुकी है। 

Saturday, December 13, 2014

दर्द का इलाज भी तो कीजिए...

कोई सात-आठ साल पहले की बात है, जीवन से त्रस्त महिला आत्महत्या के लिए घर से निकली और कुछ दूर स्थित रेल पटरियों पर पहुंच गई। कुछ दूरी पर ट्रेन थी, दिमाग तेजी से चला, बच्चों के चेहरे सामने घूमने लगे। निर्णायक पल में मन  मोह में पड़ गया, सोच बैठा कि नहीं करनी आत्महत्या पर हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे। शरीर को पीछे खींचा लेकिन साड़ी फंस गई और ट्रेन की चपेट में आकर दोनों पैर कट गए। दुर्भाग्य टूट पड़ा था। टांगें तो गई ही थीं, साथ ही में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत आत्महत्या के प्रयास का मुकदमा और दर्ज हो गया। कुछ समय बाद पति की मृत्यु हो गई। दोनों बच्चों का जिम्मा उसके सिर आ गया। उधर मुकदमे में पैरवी नहीं हो पायी, तारीख-दर-तारीख के बाद 40 वर्षीय यह महिला जेल चली गई। छह माह से जेल में है, और एक बच्चा राजकीय शिशु सदन में है तो दूसरा मोटर मैकेनिक के साथ काम करके किसी तरह जीवन काट रहा है। मां की रिहाई में अभी छह माह का समय बाकी है।
गोरखपुर की ये आपदा का पहाड़ टूट पड़ने सरीखी घटना थी। दुर्भाग्य से, ऐसी घटनाओं की संख्या अच्छी-खासी है। कानून-व्यवस्था के लिए गैरजरूरी सिद्ध हो रहे कानूनों को खत्म करने की तैयारी कर रही केंद्र सरकार ने धारा 309 को निष्प्रभावी करने का निर्णय किया है। बेशक, ऐसा होना चाहिये क्योंकि यह सरासर मानवता के खिलाफ धारा है। आत्महत्या का प्रयास उन्हीं हालात में किया जाता है जब किसी के लिए जिंदगी नरक बन जाए और ऐेसे हालात के मारे किसी व्यक्ति को खुदकुशी की कोशिश में नाकाम रहने पर जेल में डाल देना न तो न्यायोचित है और न ही समझदारी भरा कदम। केंद्र सरकार के स्तर पर लंबे समय से विचाराधीन इस फैसले की लाभ-हानि को समझने के लिए धारा 309 के इतिहास को जानना जरूरी है। ब्रिटिश काल में बनी भारतीय दंड संहिता में धारा 309 को शामिल कर आत्महत्या के प्रयास को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया था। सन 1863 में ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी सुविधा के अनुसार दंड संहिता बनाई थी, जिसमें आत्महत्या को अपराध के दायरे में शामिल करने के पीछे साम्राज्यवादी नीति और भारतीय समाज की विशिष्ट सामाजिक दशा थी। उस वक्त ग्रामीण आबादी बहुल भारतीय समाज में पारिवारिक कलह के ऊंचे ग्राफ के चलते आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक थी। सत्ता ने समस्या के मनोवैज्ञानिक निराकरण के बजाए इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया। इसके पीछे मंशा और भी थी। ब्रिटिश सरकार ने यह प्रावधान अपने अत्याचारों को कानून की आड़ में छिपाने के लिए किया था। तमाम उदाहरण बताते हैं कि ब्रिटिश सत्ता के जुल्म का शिकार होने पर पीड़ित की मौत को आत्महत्या में तब्दील कर दिया जाता था जबकि जिंदा बचने पर पीड़ित को आत्महत्या के प्रयास का दोषी ठहराकर उसकी आवाज को दबा दिया जाता था। इस बीच 1947 में देश आजाद हुआ, जल्दबाजी में आजादी के बाद भी धारा 309 और अन्य तमाम प्रावधान देश के कानून में बदस्तूर शामिल रहे। हालांकि समय-समय पर इन्हें हटाने की मांग उठती रही, सबसे पहले विधि आयोग ने 1961 में इस धारा को हटाने की सिफारिश की।
जनता पार्टी सरकार के कार्यकाल (1977) में इस संस्तुति को स्वीकार कर संसद में संशोधन विधेयक लाया गया। राज्यसभा की मंजूरी के पश्चात यह लोकसभा से पारित हो पाता इससे पहले ही सरकार गिर गई और यह विधेयक भी ठंडे बस्ते में चला गया। उसके बाद भी कई बार विधि आयोग ने ऐसी संस्तुतियां कीं। अब जाकर मोदी सरकार ने व्यर्थ के कानूनी प्रावधानों को हटाने की पहल के तहत धारा 309 का भविष्य तय किया। अठारह राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों से सहमति मिलने के बाद गृह मंत्रालय ने इस धारा को आईपीसी से डिलीट किया। आत्महत्या को अपराध बनाने वाले कानून के आलोचकों का कहना है, कोशिश के लिए दंड देना क्रूरता और अनुचित है क्योंकि इससे परेशानी में फंसे शख्स को दोहरा दंड मिलता है। यह शख्स पहले से ही काफी दुखी होता है और इसी दुख की वजह से वह अपनी जिंदगी खत्म करना चाहता है। धारा के समर्थक यह कहते थे कि आत्महत्या की कोशिश को दंड के दायरे में लाना मानव जीवन की गरिमा बचाने की कोशिश है। मानव जीवन राज्य के लिए भी अनमोल है और इसे नष्ट करने की कोशिश की अनदेखी नहीं की जा सकती। बहरहाल, सरकार राहत दे चुकी है लेकिन सतर्क कदमों की जरूरत अब भी है। हमें समाज में पारिवारिक हिंसा और कलह के चढ़ते ग्राफ की हकीकत को ध्यान में रखना होगा। इस स्थिति में खुदकुशी की कोशिश के मामले बढ़ने की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। स्कूली बच्चे भी पारिवारिक दबाव का सामना न कर पाने पर आत्महत्या की कोशिश करते हैं, इन्हें रोकने के लिए स्कूलों और कॉलेजों के साथ पारिवारिक परामर्श केंद्रों का जाल बनाने की जरूरत है। इसके साथ ही मानसिक रोग निराकरण केंद्रों पर काउंसलिंग की सुविधा भी बढ़ानी होगी। यह कदम यदि समय रहते उठा लिये गए तो सरकार का निर्णय सुकून देने वाला सिद्ध हो सकता है। इस दिशा में जो भी कुछ करना है, वह सरकार के साथ ही इस दिशा में कार्यरत गैरसरकारी संगठनों की जिम्मेदारी है और वह इससे कतई मुंह नहीं मोड़ सकते।

Saturday, December 6, 2014

ओवैसी से डरे हैं आजम खां...

उत्तर प्रदेश की सियासत के सबसे विवादित नेताओं में एक मोहम्मद आजम खां अगर  अचानक ताजमहल की कमाई पर वक्फ बोर्ड के दावे को दम देते हैं तो इसके मायने क्या हैं? ताज को वक्फ सम्पत्ति बताकर उन्होंने तूफान से पहले शांत पड़ी मुस्लिम सियासत में कंकड़ फेंका है। यह कुछ दिन बाद की तैयारियां हैं, जब देश का सबसे विवादित दल मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन (एमआईएम) राज्य विधानसभा के चुनावों के लिए कमर कस रहा होगा।असदुद्दीन उवैसी की यह पार्टी कई जिलों में अपनी इकाइयां गठित करने के लिए प्रयासरत है। असल में, मोहम्मद आजम खां इस समय ओवैसी के आगमन की खबरों से भयाक्रांत हैं।
संभव है कि असदुद्दीन उवैसी को ज्यादा लोग न जानते हों, लेकिन अपने राज्य आंध्र प्रदेश और आसपास की मुस्लिम सियासत में वह भूकम्प की मानिंद हैं। उन्हीं की शैली के उनके छोटे भाई अकबरुद्दीन हिंदुस्तान को खुलेआम चुनौती देते हैं। मुंबई हमले को जायज ठहराते हैं। मुंबई हमले के दोषी पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को बच्चा बताते हैं और भी बहुत-कुछ बोलते हैं जिसका उल्लेख करना नीति और नैतिकता के हिसाब से उचित नहीं। करीब दो साल पहले 24 दिसम्बर, 2012 को आदिलाबाद के कौमी जलसे में अकबरुद्दीन ओवैसी ने जो-कुछ भी बोला, उससे हंगामा बरप गया। अकबरुद्दीन विधायक हैं और असदुद्दीन ओवैसी एमआईएम अध्यक्ष और हैदराबाद से लोकसभा सांसद हैं। एमआईएम की शुरुआत अकबरुद्दीन के पिता सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने की थी और अब उनकी राजनीतिक विरासत को उनके दोनों बेटे संभाल रहे हैं। लोगों को भड़काना या फिर समूचे हिंदुस्तान को चुनौती देने जैसा बयान अकबरुद्दीन की राजनीति का हिस्सा रहा, लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि न तो तत्कालीन केंद्र सरकार और न ही आंध्र प्रदेश सरकार ने कोई कार्रवाई की। दरअसल, उन्हें बखेड़े का डर था इसीलिये जब खूब बखिया उधड़ी तो कार्रवाई की औपचारिकता निभा ली गई। सुल्तान से इतर, उनके दोनों बेटों की योजना पार्टी के देश के अन्य हिस्सों में विस्तार की है। वह चाहते हैं कि एमआईएम सियासी ताकत बने और मुसलमानों का पूरा वोट उनके हिस्से में आ जाए। विस्तारवादी योजना की शुरुआत भी अच्छी हुई, जब महाराष्ट्र में उनकी पार्टी को दो विधानसभा सीटें प्राप्त हुर्इं। कई सीटों पर एमआईएम पहले तीन स्थानों पर रही।  वह भी जब, जबकि उसकी तैयारियां भी आधी-अधूरी थीं। भाजपा और शिवसेना के तमाम प्रत्याशी जीत के लिए तरस गए होते, यदि एमआईएम मैदान में नहीं होती क्योंकि उसने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के थोक में मुस्लिम वोट काटे। इससे उवैसी बंधुओं में उत्साह का संचार हुआ और उन्होंने उत्तर प्रदेश की तरफ रुख करने का फैसला कर लिया। मुस्लिमों की अच्छी-खासी आबादी वाले आजमगढ़ जैसे जिलों में उन्होंने कार्यकर्ताओं की भर्ती कर ली है। असदुद्दीन ने आजमगढ़ के गांव को गोद लेने का ऐलान किया है जहां से सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव सांसद हैं। आगरा में भी सुगबुगाहट है। धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले दलों से नाराज कार्यकर्ता एमआईएम के स्थानीय कर्ता-धर्ताओं से संपर्क साधने लगे हैं। इसी तरह मुसलिमीन देश की राजधानी दिल्ली में भी अपने पंख फैलाने की तैयारी कर रही है, जहां उसका सांगठनिक ढांचा तैयार है। वह उन सीटों की पहचान करने में लगी है, जहां से उसकी जीत सुनिश्चित हो सकती है।
ताज महल पर शिगूफेबाजी की वजह भी यही है। वरना करीब नौ साल पहले भी यह मुद्दा उठा है, तब उसकी कमाई पर उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने दावा किया था। ताज महल को अपनी मिल्कियत बताया था, तब से मामला सुप्रीम कोर्ट में है। थोड़ी हैरानी होती है, कोई सालभर पहले ही खां ने कहा था कि बाबरी मस्जिद के बजाय कोई भीड़ अगर ताज महल को ध्वस्त करने के लिए निकलती तो वह खुद उसका नेतृत्व करते क्योंकि ताज महल जनता के पैसे के दुरुपयोग का नमूना है और शाहजहां को कोई हक नहीं था कि वह अपनी प्रेमिका की याद के लिए जनता के करोड़ों रुपये लुटा देते। फिर भी आजम खां बेशक, यह मुद्दा उठाकर सक्रिय नहीं हुए। लेकिन कट्टरपंथी समूह इस मुद्दे को लपकने का मन बना चुके हैं। यह वो कट्टरपंथी हैं जो विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं और एमआईएम की दस्तक से बेचैन हैं। वह चाहते हैं कि उवैसी रुक जाएं। अटकलें यह हैं कि लव जिहाद के बाद ताजमहल को चुनावी आग में झोंकने की व्यूह रचना की जा रही है। भारतीय राजनीति में ऐसी शोशेबाजी कोई नयी नहीं है बल्कि तमाम बार इनके इस्तेमाल से कामयाबी हासिल की गई है। अभी उत्तर प्रदेश चुनावों में काफी समय बाकी है। एमआईएम अगर अभी से तैयारी में जुटेगी तो तमाम सूरमाओं की सियासी जमीन खिसक सकती है। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (समान विचारधारा के महागठबंधन के बाद संभावित नाम समाजवादी जनता दल), बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का मुस्लिम वोट उनसे बिदक सकता है। दूसरी तरफ, यानी भगवा खेमे की बात करें तो वहां भी पूरे जोरों पर तैयारियां हैं। लव जिहाद के मुद्दे को जिस तरह से तूल दिया गया, उससे यही संकेत मिल रहा है। धार्मिक आधार ताज महल को कसने पर उधर से भी प्रतिक्रिया हो सकती है क्योंकि एक प्रभावशाली समूह अरसे से ताज महल को तेजो महालय बताकर विवादित करने की कोशिश में है। यह मसला फिर जोर पकड़ेगा, इसकी संभावनाएं पुख्ता हो रही हैं। इसके बावजूद, अच्छी बात यह है कि मुसलमानों का बड़ा तबका ताज महल को विवादित करने के मसले पर कुपित-क्रोधित है। आगरा में आजम के बयान की प्रतिक्रिया में एकजुटता से कहा गया है कि ताज महल देश और दुनिया की एक बेमिसाल और अनमोल धरोहर है। कमाई पर हक से भी असहमति जताई गई है क्योंकि वक्फ के नियंत्रण में जो इमारतें हैं, उनका बुरा हाल किसी से छिपा नहीं है। फिर ताज से हुई कमाई आगरा के विकास में भी लगाई जा रही है।