Sunday, June 29, 2014

नदियां जोड़ने में लाभ-हानि

आने वाले हैं बरसात के वो दिन, जब नदियां पानी से लबालब होंगी, सीमा संकुचित होने की वजह से तबाही मचाएंगी। और हम कुछ नहीं कर पाएंगे, मन मसोसकर रह जाएंगे। केंद्र सरकार चाहती है कि यह हालात पैदा न हों और इसके लिए वह नदी जोड़ो परियोजना पर जोर लगाने का मन बना रही है। बड़ी परियोजना है पर यह कामयाब रहेगी, इसमें संदेह है। इससे सालभर भरी रहने वाली नदियां खाली रह सकती हैं, राज्यों के बीच जल को लेकर विवाद बढ़ सकते हैं। परियोजना पूरी होने पर बिहार जैसे कुछ राज्यों को खूब फायदा होगा, यह लगभग तय है। नदी जोड़ो परियोजना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का ड्रीम प्रोजेक्ट कही जाती है। नरेंद्र मोदी जब गुजरात के सीएम थे तब उन्होंने इसे वहां लागू किया। गुजरात में नर्मदा और साबरमती नदियों को जोड़ने से न केवल सूखे खेतों को पानी मिला बल्कि गर्मी के दिनों में सूख जाने वाली साबरमती में सालभर पानी रहने लगा। पहले मानसून के दिनों में भी जब तक धरोई बांध नहीं भर जाता था साबरमती को पानी नहीं मिलता था। अब राजस्थान सीमा तक की सभी नदियों में पानी पहुंच रहा है। अहमदाबाद शहर को पीने का पानी मयस्सर है और जलाशय भी रीचार्ज हो रहे हैं। परियोजना समर्थक कहते हैं कि नदी का पानी बाढ़ के दिनों में बहकर सागर में चला जाए, इससे अच्छा तो उसे सही दिशा देकर लाभ उठाना है। गुजरात में जो नदियां जल के लिए तरसती थीं, आज लबालब रहती हैं। नर्मदा में बढ़ जाने पर अतिरिक्त पानी नहर के माध्यम से आगे ले जाकर अन्य नदियों में डालने का विकल्प है। बिहार में कोसी नदी तांडव मचाती है। हजारों लोग हर साल अपना आशियाना छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। बिहार में भी नदियां जुड़ी होतीं तो शायद कोसी की तबाही से बचा जा सकता था। गुजरात में खेती और किसानों को नदियों के जोड़ने का बहुत लाभ मिल रहा है। कुएं और ट्यूबवेल रीचार्ज होते हैं। उत्तर गुजरात का जिला बनासकांठा सूखा पीड़ित था मगर अब वहां भी खुशहाली का आलम है। नर्मदा परियोजना से मध्य और उत्तर गुजरात की 23 नदियों को लाभ हुआ है। दक्षिण गुजरात में प्रदेश के कुल पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा है जबकि उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र विस्तार, पंचमहल आदि क्षेत्र में 30 प्रतिशत। दक्षिण गुजरात की नदियां बारहमासी नदियां हैं जबकि दूसरे भागों की नदियां गर्मी में सूख जाती थीं। अब बारहमासी नदियों का पानी नहरों के जरिए सूखी नदियों में डाला जाता है। इससे क्षेत्र के तालाब भी भर जाते हैं। समर्थकों का मत है कि नदी जोड़ो अभियान पूरे देश के लिए अच्छा है और इसका जितना लाभ हम ले सकते हैं, उतना लेना चाहिए। इससे बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बचा जा सकेगा और सूखी खेती को पानी दिया जा सकेगा। यह योजना खुशहाली लाने वाली योजना है। हालांकि इसका विरोध भी कम नहीं। वह यह कहकर विरोध करते हैं कि नदियों को जोड़ना खेती, बिजली आपूर्ति तथा सूखे से बचने में मददगार नहीं हो सकता। नदियों की जैविक विविधता का अपना महत्व है। नदियां जीवित हैं, उनका एक जीवन होता है। नदी केवल पानी नहीं होती, उसका अपना एक जींस होता है, चरित्र होता है, प्रवाह होता है। उस प्रवाह में हर नदी के भू-सांस्कृतिक क्षेत्र की मिट्टी, तापक्रम, पंचतत्व शामिल रहते हैं जिससे उसका जीवन बढ़ता है। उसमें कोई दखल दिया जाता है तो नदी का चरित्र और जीवन बदल जाता है। ऐसे में नदियां खत्म होने लगती हैं, दूषित होने लगती हैं। जल पुरुष कहे जाने वाले पर्यावरणविद् राजेंद्र सिंह कहते हैं कि गंगा जब गोमुख से निकलती है तो वह उसका बाल्यकाल होता है, भैरों घाटी से नीचे आती है तो किशोरावस्था प्राप्त करती है, उत्तरकाशी पहुंचते हुए युवावस्था में उछल-कूद करती है। जो लोग नदियों के इस चरित्र के साथ आत्मसात नहीं होते, उसमें नहीं रमते, वे नदियों के जीवन को बिना समझे कह देते हैं कि नदी जोड़ से बाढ़ और सूखा मिट जाएगा। विरोधियों का कहना है कि नदियों को जोड़ने से किसी भी नदी का पानी दूसरी जगह नहीं पहुंच सकता। नदियों की ऊंचाई और नीचाई होती है। यह माना जाना गलत है कि कोसी नदी में बाढ़ का आना नदी जोड़ने से रुक सकता था। कोसी बांध का रखरखाव होता और समय पर निगरानी की जाती तो इस विपदा से बचा जा सकता था। इस बांध ने टूटकर लाखों लोगों को बेघर कर दिया। नदी जोड़ने का सीधा मतलब है भ्रष्टाचार और प्रदूषण को जोड़ना। वर्ष 1934 के बाद तटबंध टूटने से कोसी नदी जिस मार्ग से बही, वह मानवीय दखल का ही नतीजा था। नदी के प्रवाह को बदला गया है और जब नदी को अपने पुराने दिन याद आए तो नदी ने फिर वही अपना रास्ता ले लिया। इसकी वजह से बहाव क्षेत्र में बस गए लाखों लोग उजड़ गए। बहरहाल, समर्थकों की संख्या ज्यादा है और केंद्र सरकार के स्तर से हुए प्राथमिक अध्ययन के नतीजे भी सकारात्मक हैं। फिर भी तमाम प्रश्न हैं जिनका जवाब ढूंढा जाना चाहिये। सवाल यह हैं कि इस परियोजना से अशुद्ध नदियां प्रदूषण का नया समंदर तो नहीं पैदा कर देंगी? कितना प्रदूषण बढ़ेगा? नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में क्या बाधा आएंगी? प्रकृति से छेड़छाड़ के तर्कों का जवाब भी तलाशना होगा। जरा सी गलती हमें भयंकर विनाश की ओर ले जा सकती है।

Saturday, June 21, 2014

कच्चे तेल के जाल से निकलें कैसे

इराक में भीषण गृहयुद्ध का दौर है, पूरी दुनिया भय के साए में है क्योंकि तेल बाजार उछाल लेने जा रहा है। खौफ यह है कि कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी। अकेले भारत का तेल आयात बिल 20 हजार करोड़ रुपये बढ़ जाएगा। अब यह कहना कि भारत समेत समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था कच्चे तेल पर आधारित हो चुकी है, बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं होगा। मशीनीकरण के आधुनिक युग में लगभग सभी उत्पादन ऊर्जा आधारित है और अधिकतर देशों में ऊर्जा का स्रोत पेट्रोलियम पदार्थ ही हैं। सिगरेट लाइटर से सुपरसोनिक हवाई जहाज और अंतरिक्षयान तक, लगभग सभी उपकरणों में र्इंधन के रूप में पेट्रोलियम पदार्थ का ही उपयोग होता है। सवाल है कि निर्भरता बढ़ाने के बजाए विकल्प क्यों नहीं ढूंढ रहे। विकल्पों की महज औपचारिकता जो हम निभा रहे हैं, वो हमें एक बुरे दौर की तरफ तेजी से धकेल रही है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है, मांग और आपूर्ति का समीकरण ही किसी भी वस्तु के मूल्य को प्रभावित करता है। दुनिया के लगभग सभी देश अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से रखने के लिए कच्चे तेल पर निर्भर हैं लेकिन इसकी मांग में लगातार जिस अनुपात में इजाफा हो रहा है, उस अनुपात में आपूर्ति में इजाफा न होना तेल-मूल्यों की लपटों को गगनचुम्बी बना रहा है। इराक में युद्ध के दौरान तेल की कीमतों के 120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचने की आशंकाएं गहरा रही हैं। 2008 के बाद के उस वक्त को छोड़ दें, जब अमेरिका जैसी अर्थव्यवस्थाएं मंदी की चपेट में थीं और तेल मूल्य गिरकर 30 डॉलर पहुंच रहे थे, तेल मूल्यों में हमेशा वृद्धि का ही क्रम चलता रहता है। तेल इतिहास कहता है कि इस आग पर दीर्घकाल के लिए निजात पाना संभव नहीं इसलिए तेल की मांग पर अंकुश लगाना ही होगा और इसके लिए वैकल्पिक उपायों पर ध्यान देना जरूरी होगा। तमाम उपाय हैं जिनमें प्राकृतिक गैस पेट्रोलियम का अच्छा विकल्प साबित हो सकती है लेकिन इनके भंडार भी 21वीं शताब्दी के अंत तक ही समाप्त हो जाएंगे। वर्तमान में पूरी दुनिया की एक-तिहाई बिजली का उत्पादन प्राकृतिक गैस से ही किया जाता है। प्राकृतिक गैस अधिकांशत: मीथेन है और सर्वाधिक साफ-सुथरा जीवाश्मीय र्इंधन है। यह कोयले की तुलना में मात्र 40 और पेट्रोलियम की तुलना में मात्र 25 फीसदी ग्रीनहाउस गैसों का ही उत्सर्जन करती है। पेट्रोल की तुलना में अधिक पर्यावरण हितैषी र्इंधन होने की वजह से इसका प्रयोग अधिक से अधिक आॅटोमोबाइल में कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस अथवा हाइड्रोजन फ्यूल सेलों को पावर करने के लिए किया जा रहा है। इसके साथ ही परमाणु ऊर्जा का लगातार प्रयोग बढ़ रहा है। 32 देशों के 440 रिएक्टर दुनिया की 16 फीसदी बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। न्यूक्लियर कचरे का निस्तारण करना अपने-आप में एक बड़ी समस्या है, फिर भी भारत समेत कई देश सक्रियता से आगे बढ़े हैं। इसके बाद आता है अक्षय ऊर्जा का विकल्प। चीनियों और रोमनों ने लगभग 2000 वर्ष वाटरमिलों का प्रयोग किया था। पनबिजली इस समय पुनर्नवीकृत ऊर्जा का सबसे प्रचलित प्रकार है जिससे दुनिया की लगभग 20 फीसदी बिजली का उत्पादन किया जाता है। कम प्रदूषण पैदा करने वाले पुनर्नवीकृत ऊर्जा स्रोतों से दीर्घावधि में ऊर्जा की समस्या का व्यावहारिक हल खोजा जा सकता है। सूर्य भी ऊर्जा का अक्षय स्रोत है, जिसे ठीक से प्रयोग करने की तकनीक विकसित हो जाए तो हमारी ऊर्जा समस्या का पुख्ता हल निकल सकता है। आज सौर ऊर्जा का प्रयोग कई तरीके से किया जा रहा है। ऊष्मीय सौर ऊर्जा में सूर्य की रोशनी से छतों पर लगे सौर पैनलों से घरेलू प्रयोग के लिए पानी को गर्म किया जाता है, जबकि सूर्य की रोशनी को फोटोवोल्टेइक सेलों के प्रयोग से बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। इसमें सेमीकंडक्टरों का प्रयोग फोटानों को बिजली में परिवर्तित करने में किया जाता है। वृहद स्तर पर प्रयोग के लिए फोटोवोल्टेइक सेल काफी महंगे होते हैं, फिर भी दूरदराज के इलाकों में बिजली सप्लाई के लिए इनका प्रयोग किया जा रहा है। सोलर पैनलों का प्रयोग अब स्पेसक्राफ्ट, सोलर कारों और हवाई जहाजों में भी किया जाने लगा है। इस क्षेत्र में तकनीकी तरक्की हो जाए तो सस्ते फोटोवोल्टेइक सेल का उत्पादन संभव हो सकता है, जिससे 2020 तक न्यूक्लियर ऊर्जा से ज्यादा सौर ऊर्जा का उत्पादन संभव हो सकेगा। यहां सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब तेल के कुएं सूख जाएंगे तो हमारे वाहन कैसे सड़कों पर दौड़ेंगे? आंतरिक दहन इंजन के आविष्कार के समय से ही जैव र्इंधन के बारे में दुनिया को जानकारी है। भारत समेत दुनियाभर में करोड़ों कारें इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल से चलती हैं। यूरोप में जैव र्इंधन का उत्पादन बेजीटेबल के प्रयोग से किया जाता है। सोया तेल का प्रयोग हवाई जहाजों को उड़ाने में किया जा सकता है। प्रयोग में आने वाली तकनीकी परेशानियों को दूर कर लिया जाए तो हाइड्रोजन फ्यूल सेलों में भविष्य की संभावनाएं निहित हैं। यह फ्यूल सेल एक प्रकार की बैटरी होते हैं जिन्हें लगातार रिफिल किया जा सकता है। इसमें हाइड्रोजन, आॅक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया करके बिजली और जल का उत्पादन करते हैं। यह र्इंधन जलाने से कहीं ज्यादा पर्यावरण हितैषी तरीका है, क्योंकि इसमें ऊष्मा का क्षरण काफी कम होता है। लेकिन यह केवल कारों के लिए ही उपयोगी नहीं है बल्कि हाइड्रोजन का प्रयोग पावर स्टेशनों, इलेक्ट्रॉनिक और पोटेर्बुल गैजेट्स में भी किया जा सकता है। छोटे फ्यूल सेल एक दिन निश्चित रूप से बड़ी बैटरियों को बेकार कर देंगे। फ्यूल सेल प्राकृतिक गैस, मिथेनॉल और कोयले का भी प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन इनके साथ एक समस्या कार्बन-डाई-आॅक्साइड के उत्पादन की है। हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए जल को अपने अवयवों में तोड़ा जाता है, जिसके लिए बिजली का उपयोग किया जाता है। यह बिजली जीवाश्मीय र्इंधन से ही पैदा की जाती है। एक विकल्प ज्वारीय ऊर्जा का भी है जिसका सर्वाधिक उपयोग नॉर्वे कर रहा है। हम पवन ऊर्जा पर शोध के लिए बड़ी राशि खर्च कर रहे हैं। जरूरत विकल्प तलाशने का क्रम तेज करने की है, अन्यथा हम न केवल महंगाई के दौर से अक्सर गुजरते रहेंगे बल्कि प्रदूषण भी रुलाता रहेगा।

Sunday, June 15, 2014

भारत की डीप ब्ल्यू नेवी

वाकई यह देश के लिए गौरवपूर्ण क्षण था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य को राष्ट्र को समर्पित किया। भारतीय नौसेना अब अत्याधुनिक साधनों से संपन्न हो रही है। पाकिस्तान को छोड़िए, अब वह चीन को चुनौती देने में सक्षम है। वह अब डीप ब्ल्यू नेवी यानी गहरे पानी की ताकत बनने जा रही है। तय है कि इससे चीन और पाकिस्तान के हलक सूख रहे हैं। लगभग 7516 किमी लंबी समुद्र तटीय सरहद की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रही भारतीय नौसेना के पास आईएनएस विक्रमादित्य का होना बड़ी बात है। करीब पांच हजार टन के जंगी विमान वाहक यानि क्राफ्ट कैरियर में तमाम विशेषताएं हैं। विक्रमादित्य की सतह फुटबाल के तीन ग्राउंड के बराबर है और यह 21 मंजिला पोत एक छोटे शहर के रूप में समुद्र की सतह पर दिखता है। 284 मीटर लम्बे युद्ध पोतक पर नौसेना के मिग-29 युद्ध पोत के साथ ही कोमोव 31 और कोमोव 28 पनडुब्बी रोधी युद्धक एवं समुद्री निगरानी हेलीकाप्टर तैनात हैं। मिग-29 की रेंज सात सौ नॉटिकल मील है और बीच में र्इंधन भरकर इसे 19 सौ नॉटिकल मील तक बढ़ाया जा सकता है। इस पर पोत रोधी मिसाइल के अलावा हवा से हवा में मार करने वाले मिसाइल एवं निर्देशित बम एवं रॉकेट तैनात हैं। ऐसे में पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन का सतर्क होना लाजिमी है। बेचैनी इसलिये भी है कि भारत इस समय छोटे-बड़े 47 युद्धपोत तैयार कर रहा है। उसे लग रहा है कि भारत की यह तैयारियां समुद्री किनारों की रक्षा करने वाली ताकत के बजाए अपनी नौसेना को डीप ब्ल्यू नेवी में बदलने के लिए हैं यानी ऐसी नौसेना जो समुद्र की ताकत हो और अपने किनारों से बहुत दूर जाकर बड़े आॅपरेशन को अंजाम दे सके। करीब दो साल पहले भारत के आॅयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन (ओएनजीसी) ने वियतनाम के साथ मिलकर उसके दक्षिणी हिस्से के समुद्र में तेल खोज अभियान शुरू किया था। चीन ने उस हिस्से को अपना बताकर तेल खोज रोकने की चेतावनी दे दी, लेकिन भारतीय नौसेना के ताकतवर बनने के बाद चीन को ऐसी हरकतों से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा। चीन अपनी बेचैनी छिपा भी नहीं रहा, उसके प्रमुख संगठन चाइना नेवल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने तो कहा भी है कि भारत का पहला स्वदेशी विमान वाहक पोत और भारतीय नौसेना की बढ़ती ताकत दक्षिण एशिया के सैन्य संतुलन को बिगाड़ देगी। भारतीय नौसेना के प्रति चीन की घबराहट इसलिये भी है कि इससे हिंद महासागर पर दबदबा कायम करने की उसकी रणनीति नाकाम हो सकती है। इस रणनीति के तहत वह भारत को समुद्र के रास्ते घेरने के लिए पड़ोसी देशों में बंदरगाह बनाने की योजना को मूर्तरूप देने में जुटा है। म्यांमार में सिट्वे पोर्ट, बांग्लादेश में चटगांव, श्रीलंका में हंबनटोटा, मालदीव में मराओ एटॉल बंदरगाह उसने विकसित किए हैं जबकि पिछले ही साल पाकिस्तान ने अपने ग्वादर पोर्ट का प्रबंधन चीन के हवाले किया है। भारत को घेरकर चीन ओमान और फारस की खाड़ी के बीच की जगह स्ट्रेट आॅफ हॉर्मज से होने वाले तेल व्यापार के मार्ग पर दबदबा कायम करना चाहता है। यही वह मार्ग है जहां से दुनिया का करीब 20 प्रतिशत तेल कारोबार होता है। ताकतवर नौसेना के जरिए चीन अगर इस रूट पर दबदबा कायम कर लेता है तो भारत के लिए ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना आसान नहीं होगा। भारतीय चुनौती के मद्देनजर चीन तेजी से दो विमान वाहक पोत बना रहा है। उसके पास स्वदेशी परमाणु पनडुब्बी भी है। चीन की नौसेना 515 जंगी जहाज से लैस है। दूसरी तरफ भारतीय नौसेना भी कमर कस चुकी है। भारत ने भारत रूस से अकुला-2 श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी प्राप्त कर ली है। रूस ने इसे दस साल की लीज पर भारत को सौंपा है। नौसेना अपने बेड़े में डीजल और बिजली से चलने वाली नयी पीढ़ी की पनडुब्बियां चाहती है। रक्षा मंत्रालय ने जुलाई, 2010 में 50 हजार करोड़ रुपये की इस परियोजना को सैद्धान्तिक सहमति दी थी लेकिन इसकी दिशा में प्रयासों पिछले साल दिसम्बर में तेज हुए हैं। नौसेना अपनी युद्धक क्षमता बढ़ाने के लिए पनडुब्बी निरोधक बम खरीदने की तैयारी कर रही है। इन्हें विमान से गहरे पानी में छिपी शत्रु की पनडुब्बियों पर गिराया जा सकता है। नौसेना ऐसे बम चाहती है जो भारतीय सागर क्षेत्र में एक हजार मीटर की गहराई तक पनडुब्बी डुबोने में समर्थ हों। रक्षा मंत्रालय ने ऐसे बमों के मूल निमार्ताओं के पास अनुरोध भेजा है। खुफिया सूचनाएं इकट्ठा करने के क्षेत्र में कमियों को दूर करने के लिए तारापुर में तटीय निगरानी नेटवर्क स्थापित किया जा रहा है, सभी समुद्री तटों पर राडार सेंसर लगाए जाने का काम भी अगले दो वर्ष में पूरा कर लिया जाएगा। इसके लिए केंद्र सरकार ने 50 करोड़ रुपये की योजना तैयार की है, जिसके तहत इन्हें 46 स्थानों पर लाइट हाउस में लगाया जाएगा। 36 मुख्य भूमि में, 6 लक्षद्वीप और चार अंडमान निकोबार द्वीप समूह में लगाए जाने का प्रस्ताव है। तटीय सुरक्षा योजना का पहला चरण पूरा पूर्ण हो चुका है। इसी साल मार्च में तटीय इलाकों की चौकसी के लिए 73 तटीय थाने, 97 चेक पोस्ट, 58 आउटपोस्ट और 30 आॅपरेशनल बैरक तैयार हो गई हैं। तटीय सुरक्षा के लिए नया निगरानी तंत्र विकसित किया गया है, जिससे समुद्री सीमा में घुसने वाले परिंदे पर भी नजर रख पाना संभव हो चुका है। नौसेना पुराने हो चुके चेतक हेलीकाप्टरों की जगह नये लाइट यूटिलिटी हेलीकॉप्टर खरीदने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। मोदी ने जिस तरह चीनी सीमा पर निगरानी और सड़क तंत्र में गतिशीलता लाने के लिए त्वरित कदम उठाए हैं, उससे उम्मीद बंधी है कि सैन्य क्षेत्र के लिए भी नयी सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से ज्यादा सक्रिय नजर आएगी।

Tuesday, June 3, 2014

मुंडे की असमय मृत्यु पर सवाल

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता गोपीनाथ मुंडे के निधन की दु:खभरी खबर आई है। महाराष्ट्र की भगवा राजनीति के अहम योद्धा मुंडे की भविष्य में अहम भूमिका की तैयारियां की जा रही थीं। अगले चार महीनों में महाराष्ट्र में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में वह भाजपा के चुनाव अभियान के प्रमुख खिलाड़ी रहने वाले थे, पार्टी का एक धड़ा तो उनका इस कदर समर्थन कर रहा था कि वह चुनाव बाद सरकार की स्थिति में मुख्यमंत्री बन जाएं। इसकी वजह भी थीं। महाराष्ट्र की राजनीति में दो ध्रुव हैं, पहला कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी गठबंधन और दूसरा भाजपा-शिवसेना का गठजोड़। यह मुंडे की ही रणनीति थी कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में राज्य की 48 में से 42 सीटें भगवा गठजोड़ के हिस्से में आई हैं। भाजपा ने यहां अपने विरोधियों के साथ ही दोस्तों को भी हतप्रभ किया है, उसकी सीटों की संख्या 23 है जबकि शिवसेना को 18 सीटों पर संतोष करना पड़ा है। मुंडे ने जो भी प्रयोग किए, वह पूरी तरह सफल रहे और भाजपा का वोट प्रतिशत 23 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर गया। मुंडे अपनी पार्टी के उस कामयाब चुनाव अभियान के सर्वेसर्वा थे, जिसकी बदौलत तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल, सुनील तटकरे, पदमसिंह पाटिल और माणिकराव गावित जैसे सूरमा लोकसभा का मुंह नहीं देख पाए। शिंदे को तो उनके गढ़ सोलापुर से मतदाताओं ने बाहर का रास्ता दिखाया, जहां मुंडे ने चार चुनावी सभाओं को संबोधित किया था। चुनाव के अंतिम चरण में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भिवंडी के मुस्लिम बहुल क्षेत्र में भाषण के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को महात्मा गांधी की हत्या का जिम्मेदार बताया था। इसका परिणाम यह निकला कि पहली बार भाजपा भिवंडी में जीत गई। मुंबई की सभी सात सीटों पर कांग्रेस गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी। इसी तरह शरद पवार का गढ़ माने जाने वाले पुणे में भी उनकी बेटी सुप्रिया सुले भी जैसे-तैसे अपनी सीट बचा पाईं। मुंडे की मृत्यु में साजिश के सूत्र ढूंढ रहे लोगों का कहना है कि शानदार व्यूहरचना से वह दुश्मनों ही नहीं बल्कि दोस्तों की भी आंखों की किरकिरी बन गए थे। उनकी सक्रियता से परेशान शिवसेना की ओर से यह आधिकारिक वक्तव्य भी सामने आया था कि सीएम का पद शिवसेना के पास रहेगा, जीतने की स्थिति में उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री का पद संभालेंगे। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे की महत्वाकांक्षाएं भी जन्म ले चुकी हैं, वह भी सीएम पद के दावेदार हैं। राज भी भाजपा के दोस्त हैं। आम चुनावों में उन्होंने भाजपा का सीधा समर्थन किया था और उसके प्रत्याशियों के विरुद्ध अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए थे। मृत्यु की अगर जांच हुई जैसी कि भाजपा की महाराष्ट्र इकाई की ओर से मांग उठी है तो एजेंसी के सामने यह सब सवाल खड़े होंगे। महाराष्‍ट्र भाजपा के प्रवक्‍ता अवधूत वाघ ने सवाल उठाया है कि मुंडेजी हमेशा गार्ड्स के साथ हाई सिक्‍योरिटी व्‍हीकल में सफर करते थे, फिर वह एक सामान्‍य कार में कैसे सफर कर रहे थे? उनके कार ड्राइवर का बयान आया है कि दुर्घटना जिस इंडिका कार से हुई, उसने रेड लाइट जंप करके टक्कर मारी। जांच के दौरान पता चला कि इस इंडिका कार का संबंध होटल इम्पीरियल से है जिसका रजिस्ट्रेशन नबंर DL7C E 4549 है। इसका ड्राइवर गुरविंदर सिंह है। इस पर होटल इम्पीरियल ने कहा, ड्राइवर गुरविंदर सिंह और इंडिका कार से कोई लेना-देना नहीं है, ड्राइवर और कार ड्यूटी पर नहीं थे। यह बातें साजिश की बात को दम प्रदान कर रही हैं।मुंडे चूंकि केंद्र में एक अहम दायित्व संभाल रहे थे, इसलिये उनकी मृत्यु पर उठ रहे सवालों का जवाब तो मोदी सरकार को ढूंढना ही होगा।