Wednesday, October 31, 2012

रिलायंस के कोप का शिकार जयपाल रेड्डी

इंडिया अंगेस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल ने पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी की विदाई के पीछे दिग्गज उद्योग घराने रिलायंस का हाथ बताया है। बात में दम है। तमाम उदाहरण ऐसे हैं जिनमें इस कंपनी की इस तरह की भूमिका उजागर होती रही है। देश के मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इसी घराने के चलते आरोप के घेरे में आए थे, तब धीरूभाई अंबानी विमल ब्रांड की सूटिंग-शर्टिंग बनाने वाली कपड़ा उत्पादन कंपनी की कमान संभालते थे। पॉलिस्टर यार्न आयात उस समय विवादों की वजह बना था। यह कंपनी भारत के एक चिथड़े से धनी व्यावसायिक टाइकून बनने की कहानी है। धीरूभाई ने रिलायंस उद्योग की स्थापना मुम्बई में अपने चचेरे भाई के साथ की। कई लोग अंबानी के अभूतपूर्व विकास का श्रेय सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों तक उनकी पहुंच को देते हैं क्योंकि उनको यह उपलब्धि अति दमनकारी व्यावसायिक वातावरण में मिली थी। अंबानी ने अपनी कंपनी रिलायंस को 1977 में सार्वजानिक क्षेत्र में सम्मिलित किया, और 2007 तक परिवार (बेटे अनिल और मुकेश) की सयुंक्त धनराशि 100 अरब डॉलर तक पहुंच गई और अंबानी विश्व के धनी परिवारों में शुमार हो गए। याद कीजिए, तब मणिशंकर अय्यर यूपीए सरकार में ही पेट्रोलियम मंत्री थे और वह भारत-ईरान और लेटिन अमेरिका के कुछ देशों के बीच पेट्रोलियम कूटनीति में सक्रिय थे। रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी उनसे मुलाकात करने ह्यशास्त्री भवनह्ण आते थे। उन्हें या तो इंतजार करना पड़ता था अथवा मणिशंकर उनसे मिले बिना ही मंत्रालय से खिसक जाते थे। आखिरी नतीजा क्या निकला-मणि को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटा दिया गया। उसके बाद मुरली देवड़ा इस मंत्रालय में आए, जिन्हें रिलायंस की ही परछाईं माना जाता रहा है, लेकिन जब जयपाल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री बने, तो समाजवादी सोच भी उनके साथ आई थी। निजी कंपनियों की अपेक्षा सार्वजनिक सरकारी कंपनियां उनकी प्राथमिकता थीं। उनकी दृष्टि थी कि पेट्रो क्षेत्र में वर्चस्व भी सरकारी नेतृत्व में काम कर रहीं कंपनियों का ही रहे। नतीजतन आम धारणा बनने लगी कि यह समाजवाद बनाम आर्थिक सुधारों का समीकरण है। जयपाल की रिलायंस के प्रति कुछ सख्ती ने इस धारणा को पुख्ता ही किया। उन्होंने रिलायंस के कुछ प्रस्ताव नामंजूर किए। केजी बेसिन से उत्पादित गैस के दाम 2014 से पहले बढ़ाने से इनकार कर दिया। चूंकि रिलायंस कंपनी करार के मुताबिक, गैस का उत्पादन कम कर रही थी, ताकि उस दबाव में गैस के दाम बढ़ा दिए जाएं, लेकिन जयपाल रेड्डी ने उस संदर्भ में 7000 करोड़ रूपए का जुमार्ना रिलायंस पर ठोंक दिया। इस बीच रिलायंस के चेयरमैन मुकेश अंबानी सरकार और कांग्रेस के भीतर लॉबिंग करते रहे। एक घटना गौरतलब है, लिहाजा यहां प्रासंगिक लगती है। मुकेश दिल्ली हवाई अड्डे से आ रहे थे, तो सरदार पटेल रोड से पहले भारी जाम मिला होगा। उन्हें विलिंगडन रोड की कोने वाली कोठी में एक ताकतवर नेता से मुलाकात करनी थी। उस दिन देर शाम के समय मुकेश हांफते हुए उस कोठी की चौखट तक पहुंचे थे। उन्हें पता था कि वह शख्स वक्त का घोर पाबंद है और मुकेश के लिए वह मुलाकात बेहद अहम थी। पेट्रोलियम का वह ऐसा चक्रव्यूह बुना जा रहा था, जिसमें रेड्डी की बलि तय थी। लिहाजा पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल को हटाना महज विभागों का फेरबदल नहीं है और न ही प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार का मुद्दा है। यह निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का आपसी द्वन्द्व है। पेट्रोलियम की देश की अर्थव्यवस्था में करीब 22 फीसदी हिस्सेदारी है और 90 फीसदी राजनीति उसी के आधार पर की जाती है। उस लिहाज से वह वित्त मंत्रालय के बाद का दूसरी महत्त्वपूर्ण मंत्रालय माना जाता है। उद्योगपतियों और राजनेताओं की मुलाकातों और मिलीभगत से भी साफ है कि यदि वे राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देंगे, तो जाहिर है कि वे उनके काम करने की भी अपेक्षा रखेंगे। इस समीकरण का नतीजा क्या यह होता रहेगा कि उद्योगपति के दबाव में कैबिनेट मंत्री ही बदले जाते रहेंगे? क्या यही हमारे लोकतांत्रिक ढांचे का यथार्थ है? यदि जयपाल रेड्डी के संदर्भ में वाकई ऐसा हुआ है तो सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं है, सरकार निजी क्षेत्र की कठपुतली भी है, लेकिन भारत के निजी क्षेत्र की परिभाषा क्या है? वह अमरीका और जर्मनी के निजी क्षेत्र सरीखा नहीं है, जहां कंपनियों की बागडोर शेयरधारकों के ही हाथों में होती है। वहां कोई पारिवारिक वर्चस्व न होकर बाकायदा चुना हुआ निदेशक मंडल होता है,जो पूरी तरह शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह होता है। भारत में आज भी कहां है निजी क्षेत्र? बेशक रिलायंस सरीखी कंपनियों में निदेशक मंडल है, लेकिन उसमें भी परिवार या निष्ठावान चापलूसों का वर्चस्व रहता है। उसके बावजूद वे कंपनियां सरकार, मंत्री और कैबिनेट सचिव की नियुक्तियां तय करती हैं। मौजूदा प्रकरण को सिर्फ समाजवादी बनाम आर्थिक सुधार के चश्मे से ही देखना उचित नहीं होगा। करीब 70 फीसदी तेल और गैस का क्षेत्र आज भी सरकारी सार्वजनिक कंपनियों के अधीन है। प्रधानमंत्री उसे थोड़ा खोलना और उसका आधुनिकीकरण चाहते हैं। जाहिर है कि वह निजी क्षेत्र की सक्रिय भागीदारी के पक्षधर हैं। क्या जयपाल रेड्डी उसमें रोड़ा साबित हो रहे थे? गौरतलब यह भी है कि केजी बेसिन गैस, रिलायंस, गैस के ज्यादातर उपभोक्ता और खुद जयपाल सभी का संबंध आंध्रप्रदेश से है। जो आंध्र की जमीनी हकीकत से रू-ब-रू हैं, वे जानते हैं कि जयपाल को पेट्रोलियम मंत्रालय से बाहर करने के फैसले के फलितार्थ क्या हो सकते हैं? उस स्थिति में आंध्र पर कांग्रेस का राजनीतिक और चुनावी फोकस नाकाम साबित हो सकता है। जरा उस दौर की भी कल्पना की जाए,जब भविष्य में रिलायंस जैसी 50 ताकतवर निजी कंपनियां होंगी और वे अपने-अपने हिस्से की धूप चाहेंगी, लेकिन दूसरी ओर लड़खड़ाती, बौनी सरकार और बिकाऊ राजनीति होगी, तब देश के हालात क्या होंगे? कैबिनेट मंत्री की बात छोड़िए, प्रधानमंत्री उनके अनदिखे इशारों पर नाचेंगे या संभव है कि उन्हें भी सुविधाजनक तरीके से बदला जाएगा। देश इस समय ऐसे तमाम प्रकरणों से रूबरू है जिनसे राजनीतिज्ञों की प्रति आम जनता की सोच बहुत खराब हो गई है। जयपाल की विदाई ऐसा ही एक प्रकरण है।

Sunday, October 28, 2012

चीनी सत्ता में बदलाव के दिन

चीन करवट लेने की तैयारी में है। अगले माह की आठ तारीख को राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हू जिन ताओ उप राष्ट्रपति शी जिन पिंग के नेतृत्व की नई पीढ़ी को सत्ता सौंपेंगे। रहस्यों के तमाम पर्दों में घिरे एशिया के इस प्रभावशाली देश में असमंजस का दौर है, साथ ही विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के भावी शासकों की नीतियों को लेकर रहस्य भी कायम है। सत्तारूढ़ सीपीसी की सबसे ताकतवर संस्था पोलित ब्यूरो ने जो बयान जारी किया है, उसने अटकलें और बढ़ा दी हैं। बयान में पार्टी संविधान में संशोधन करने की बात कही गयी थी लेकिन मार्क्सवाद, लेनिनवाद और माओवादी विचारधारा का जिक्र तक नहीं किया गया। ये तीनों शब्द अब तक कम्युनिस्ट पार्टी के हर सैद्धांतिक दस्तावेज के शुरू में लिखे जाते थे। इनसे पता चलता था कि पार्टी अब भी उन आदर्शों पर कायम है जिन्हें लेकर इसकी स्थापना की गई थी। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि चीन क्या रास्ता बदलने की योजना बना चुका है? करीब 10 साल पहले विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की थी कि हू जिन ताओ की अगुआई में चीन के नए कमांडर आर्थिक उदारीकरण से तालमेल बैठाने वाले राजनीतिक सुधार लागू करेंगे। उस वक्त हू सत्ता संभाल रहे थे। लेकिन, वे उम्मीदें धराशायी हो गर्इं। राजनीतिक प्रेक्षक झांग यिहे कहती हैं, किसी ने कल्पना नहीं की थी, हू का प्रशासन इतना पिछड़ा होगा। 2002 की तुलना में चीन आज अधिक अमीर है पर वहां खुलापन नहीं है। आय बढ़ने के साथ अमीर-गरीब के बीच गैर बराबरी बढ़ी है। भ्रष्टाचार फैला है। इसके साथ इंटरनेट ने नागरिकों को सूचना के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराए हैं। विरोध प्रदर्शन इतने बढ़ गए हैं कि अधिकारियों ने सात साल पहले इनके आंकड़े देने बंद कर दिए। अगले दस साल के लिए चीन को चलाने के लिए अगली पीढ़ी के नेताओं का यह चुनाव बेशक चीन का घरेलू राजनीतिक फैसला है, लेकिन कुछ ऐसी बातें हैं, जिसके कारण वहां की सत्ता के गलियारों में होने वाले फैसले पर बाकी दुनिया की भी निगाह रहेगी, 'धनी होना है आनंददायक होना।' 35 साल पहले पूर्व नेता डेंग जिओंपिंग ने यह नारा दिया था। आज चीन में दस लाख ऐसे नागरिक हैं जो कि डॉलरों में लखपति हैं। इस साल अगली पीढ़ी के नेताओं के हाथ में सत्ता आने के बाद शायद चीन विश्व अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर बैठे अमेरिका को चुनौती देगा। नए नेताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती पहले की तरह आर्थिक वृद्धि को बनाए रखने की होगी। चीन में सस्ते मजदूरों के कारण यूरोप लगभग हर चीज के लिए इस देश पर निर्भर है। चीन अब अफ्रीका में सबसे बड़ा निवेशक है। चीन के संपन्न होने की स्थिति में दुनिया का सबसे धनी मध्य वर्ग तैयार होगा। चीन ने अपनी तरक्की के लिए 'शांतिपूर्वक उत्थान' शब्द का इस्तेमाल किया। उसने हमेशा ही अपने डरे हुए पड़ोसियों को बताने की कोशिक की है कि वह अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल उन्हें डराने में नहीं करेगा. लेकिन इसके बावजूद जापान, फिलीपिंस और वियतनाम जैसे पड़ोसियों और अमेरिका के साथ विवाद के कारण चीन के शांतिपूर्वक उत्थान के नारे को खोखला साबित करता है। इसके अलावा विश्व की सबसे बड़ी सेना वाला देश चीन अपनी रक्षा और सैन्य आधुनिकीकरण पर अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है। यकीनन अमेरिका की तरह बाकी देशों पर उसका प्रभाव और बढ़ा है। लेकिन नेतृत्व हस्तांतरण से पहले चीन की सत्ताधारी चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी का मतभेद एक बार फिर सार्वजनिक हो गया है। पार्टी के लगभग 300 से अधिक वामपंथी बुद्धिजीवियों ने संसद से बो शिलाई के निष्कासन का विरोध किया है। बुद्धिजीवियों और कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व अधिकारियों ने इस संबंध में खुला पत्र लिखकर बो शिलाई के इस्तीफे की वजह बताने की मांग की है। इस पत्र को ह्यरेड चाइनाह्ण वेबसाइट पर जारी किया गया है। पत्र में कहा गया है, ‘बो शिलाई को निष्कासित करने के लिए क्या वजह बताई गई है? कृपया तथ्यों और सबूत की जांच कीजिए। कृपया इस बात की घोषणा कीजिए कि बो शिलाई कानून के मुताबिक अपना बचाव करने में सक्षम होंगे।’ पत्र लिखने वाले चीनी वामपंथियों को पार्टी में एक छोटा, लेकिन मुखर दबाव समूह माना जाता है। समूह ने शिलाई के निष्कासन पर कानूनी तौर पर सवाल खड़ा करते हुए इसे राजनीति से प्रेरित बताया है। पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के पूर्व निदेशक ली चेंगरूरी, पीकिंग विश्वविद्यालय के विधि के एक प्राध्यापक, स्थानीय जन प्रतिनिधि, झेंजीयांग के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं। चीन में प्रतिबंधित वेबसाइट ह्यरेड चाइनाह्ण पर प्रकाशित इस पत्र में कहा गया है कि नेशनल पीपुल्स कांग्रेस से बो के निष्कासन का मतलब होगा कि उन्हें प्राप्त विशेषाधिकार छिन गए हैं और उनपर उस घटना के लिए मुकदमा चलाया जा सकेगा, जिस मामले में उनकी पत्नी को सजा मिली है। गौरतलब है कि बो को अवैध संबंध, अनैतिक व्यवहार और भ्रष्टाचार सहित कई आरोपों के चलते मुकदमे का सामना करने के लिए पार्टी से निष्कासित किया गया है। इसके अलावा उन पर अपनी पत्नी को जांच से बचाने का भी आरोप है। उनकी पत्नी गु काईलाई को एक ब्रिटिश व्यवसायी की हत्या के मामले में दोषी पाया गया था। सत्ता परिवर्तन के इस मौके पर चीन पर दुनियाभर की निगाहें टिकी हैं। यह वह देश है जो अपनी विस्तारवादी और महत्वकांक्षी सोच की वजह से समय-समय पर किसी न किसी विवाद में उलझा ही रहा है। अभी हाल ही में मध्य-पूर्व सागर में जापान के विवादित द्वीप खरीदने के बाद दोनों देशों में फिर से विवादों को हवा मिली। सोवियत यूनियन और चीन में राजनीतिक और वैचारिक मतभेद उभरने के बाद दोनों देश सात महीने तक सैन्य संघर्ष में उलझे रहे हैं। मार्च 1969 में जेनबाओ द्वीप के आस-पास की सीमा को लेकर दोनों देशों के बीच झगड़ा बढ़ गया था। बाद में नए सिरे से सीमाकंन के बाद झगड़ा सुलझ पाया। चीन के साथ अमेरिका का ऐसा कोई गंभीर विवाद नहीं हैं, लेकिन लोकतंत्र के पैरोकार अमेरिका के साम्यवादी देश चीन की जुबानी जंग हमेशा चलती रहती है। उत्तर कोरिया की सीमा के नजदीक, दक्षिण कोरिया-अमेरिका के संयुक्त सैन्य अभ्यास के समय भी उत्तर कोरिया का पक्ष लेते हुए चीन ने कड़ा विरोध दर्ज कराया था। अभी हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के चीन दौरे से पहले चीनी नेताओं ने अमेरिका को उनके आंतरिक मामलों में दखल न देने की सीख दे डाली। वहीं भारत-चीन संबंधों पर भी अमेरिका का ज्यादा झुकाव भारत की तरफ रहा है। अमेरिका भारत को चीन के मुकाबले में एशिया में बड़ी ताकत के रूप में देखना चाहता है, जिससे एशिया में शक्ति का संतुलन बना रहे। कहते हैं दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। यह बात इसलिए भी कही जा रही है, क्योंकि दक्षिण एशिया में चीन, पाकिस्तान का बड़ा सहयोगी है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद दोनों देश और ज्यादा नजदीक आ गए। चीन ने पाकिस्तान को पीआरसी देश के दर्जा दिया है, जिसके तहत आर्थिक, सैन्य और तकनीक सहायता देगा। दोस्ती की खातिर कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन, पाकिस्तान का बचाव कर चुका है। साम्यवादी देश होने के नाते उत्तर कोरिया-चीन के संबंध बहुत ज्यादा प्रगाढ़ हैं। अमेरिका की निंदा करने की बात हो तो दोनों देश एक सुर में बोलने लगते हैं। वीटो पावर देश होने के नाते चीन कई बार उत्तर कोरिया के समर्थन में आवाज उठा चुका है, जबकि यह देश दुनिया में अलग-थलग पड़ा रहता है।

Thursday, October 25, 2012

हिंदुत्व के शेर का बूढ़ा हो जाना...

'हिन्दुत्व के शेर' यानि शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने आखिरकार मान लिया कि शरीर उनका साथ नहीं दे रहा। बात यह नहीं कि वह बूढ़े हो गए हैं, बल्कि अहम इसलिये है कि उन्होंने अपने बेटे उद्धव और पौत्र आदित्य को अपना राजनीतिक साम्राज्य सौंपने का फैसला किया है। ऐसे समय में जबकि उनके भतीजे राज ठाकरे का सियासी कद भी बढ़ा है, बाल ठाकरे का फैसला क्या गुल खिलाएगा, यह देखा जाना खासा दिलचस्प होगा। मुंबई के ऐतिहासिक शिवाजी पार्क में दशहरा के उपलक्ष्य में होने वाली शिवसेना की परंपरागत रैली में बाल ठाकरे के भाग न लेने से ही यह अटकलें लगने लगी थीं कि वह अब परिदृश्य से हटने का मन बना चुके हैं। अटकलें लग ही रही थीं कि शिवसेना ने अपने अध्यक्ष का रिकॉर्डेड संदेश जारी किया, जिसमें उन्होंने अपने गिरते स्वास्थ्य की मजबूरी जताते हुए शिवसैनिकों को अपने बेटे और पोते के साथ डटे रहने की मार्मिक अपील की। संदेश में बाल ठाकरे ने कहा कि जिस तरह इतने वर्षों तक सैनिक उनके साथ डटे रहे, उसी तरह अब वे उद्धव और आदित्य का भी साथ दें। हालांकि परिवारवाद थोपने का आरोप न लगे, इसके लिए वह यह जोड़ना नहीं भूले कि वे उद्धव और आदित्य को शिवसैनिकों पर थोप नहीं रहे हैं। ये लोग सफल हैं और राज्य-राष्ट्र का हित किसमें है, यह जानते हैं। 46 वर्षीय शिवसेना आज जिस मुकाम पर है, वह अकेले बाल ठाकरे का ही दम है। हिन्दुत्व की खुलकर बात करने वाले वह देश के अकेले नेता हैं। उनके दल ने महाराष्ट्र में जिस तरह से अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वो कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी कहीं नहीं बना पाई। यह अकेली ऐसी पार्टी है जिस पर मुंबई के लोग पुलिस से ज्यादा भरोसा करते हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ हो जाए तो वह पुलिस चौकी-थाने के बजाए शिवसेना बूथ पर शिकायत को प्राथमिकता देते हैं। बाल ठाकरे जो कह दें, वो पत्थर की लकीर बन जाया करती है। महाराष्ट्र के बारे में कहा जाता है कि मुंबई अगर अकेले राज्य की सत्ता का निर्धारण करने की हैसियत में हो तो शिवसेना का हर बार सत्ता में आना तय है। पिछले चुनावों के उदाहरण से ही स्पष्ट है कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अगर बीच में नहीं होती तो महाराष्ट्र की सीटों की तस्वीर ही दूसरी होती। ठाकरे परिवार की बात की जाए तो वहां राज ठाकरे दरअसल यह साबित करना चाहते हैं कि बाल ठाकरे के असली वारिस उद्धव ठाकरे नहीं, बल्कि वह खुद हैं। राज ठाकरे अपनी भाषण देने की शैली, हाव-भाव में बाल ठाकरे की हू-ब-हू नकल करते हैं और उनकी राजनीतिक शैली भी बाल ठाकरे जैसी ही है। गाली-गलौज तथा धमकियों से भरी भाषा और हिंसा की राजनीति उन्हें ही शिवसेना का ही उत्तराधिकारी सिद्ध करती है। मनसे की ही तरह शिवसेना को भी लंबे वक्त तक कांग्रेस ने समाजवादियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ इस्तेमाल किया था। एक वक्त बाद जब मराठीभाषी शिवसेना के कथित बाहरी लोगों के विरोध से छिटकने लगे, तब अस्सी के दशक में बाल ठाकरे हिंदुत्ववादियों की जमात में कूद पड़े और भाजपा के सहयोगी हो गए। अब तक शिवसेना और भाजपा की महाराष्ट्र में साथ-साथ राजनीति चलती है और भाजपा ने भी शिवसेना की हिंसक राजनीति का कभी विरोध नहीं किया। महाराष्ट्र की राजनीति में मनसे और शिवसेना जैसे उग्र तत्व सभी राजनीतिक ताकतों को रास आते हैं, इसलिए वे अपनी असली ताकत से ज्यादा मजबूत नजर आते हैं। हालांकि इसकी कीमत महाराष्ट्र के लोग भी चुकाते हैं क्योंकि राजनीति को ऐसे उग्र गिरोहों के हाथों सौंप देने का नतीजा राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। मुंबई की वजह से महाराष्ट्र आज भी आर्थिक रूप से देश में सबसे आगे है लेकिन धीरे-धीरे उसकी जगह फिसल रही है। स्थानीय स्तर पर ऐसी राजनीति में उलझे रहने की वजह से महाराष्ट्र का कोई नया नेता राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक पहचान और स्वीकृति भी नहीं पा सकता। शरद पवार को यह स्थान मिला है तो इसकी वजह कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरियां हैं। कांग्रेस को खुद ही पर्याप्त सीटें मिल जातीं तो पवार को केंद्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं मिलता। राज ठाकरे का राजनीतिक संघर्ष उन महत्वाकांक्षाओं पर आधारित माना जाता है जिन्हें वह बाल ठाकरे से हासिल करने में वंचित रह गए। राज की पार्टी को महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनाव में कोई समर्थन नहीं मिला और जिसे वो समर्थन कह रहे हैं वह उस परिवार से अलग होने पर उपजी एक तात्कालिक सहानुभूति थी जो आज खत्म हो चुकी है। बाल ठाकरे ने राज ठाकरे को शिवसेना की राजनीति की अंगुली पकड़कर चलाना सिखाया है। उन्हें कई बार यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह कांग्रेस के साथ खड़े होकर जो कर रहे हैं उससे उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह बाल ठाकरे का बड़प्पन कहा जाएगा कि जिस प्रकार राज ठाकरे ने इस परिवार के खिलाफ मोर्चा खोला है उस पर बाल ठाकरे ने अपनी ओर से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी। उधर, उद्धव ठाकरे की दुनिया तो पूरी तरह बाल ठाकरे की विरासत पर ही टिकी है। उद्धव को राज की तुलना में आक्रामक नहीं माना जाता। हां, यह जरूर है कि उनके पुत्र आदित्य ने जरूर अपनी शुरुआत उग्र तेवरों के साथ की है। लेकिन देखना यह है कि पिता और चाचा की लड़ाई में अपना वह क्या स्थान बना पाते हैं। युवाओं में वह लोकप्रिय तो हो रहे हैं लेकिन चाचा यहां उन पर भारी पड़ते हैं। दादा की विरासत के हिसाब से उद्धव उनसे पहले हैं। कुछ भी हो, यह तो तय है कि महाराष्ट्र में बैठे हिन्दुत्व के शेर का खुद को बूढ़ा मान लेना आने वाले समय में कई नए घटनाक्रमों का साक्षी बनेगा। चूंकि लोकसभा चुनाव भी नजदीक आ रहे हैं, इसलिये फिलहाल तो लग ही रहा है कि इनकी धमक केंद्रीय राजनीति पर भी पड़ेगी।

Tuesday, October 23, 2012

मोर्चे पर कांग्रेस, कमान दिग्विजय पर

कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपनी पार्टी पर भ्रष्टाचार के लगातार आरोपों पर जवाब देने की कमान सम्हाली है। निशाने पर भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी हैं, जिनके विरुद्ध उन्होंने पीएम को सुबूत भेजे हैं। जिस तरह से वो सक्रिय हुए हैं, ये उनकी पार्टी की रणनीति है या खुद की मजबूरी? रणनीति का तर्क देने वाले मानते हैं कि कांग्रेस के हमलावर शैली के वह नेताओं में वो सबसे आगे हैं और मजबूरी यह हो सकती है कि वे पार्टी में उस हाशिये पर आ गए हैं, जहां उनकी न हिंदुओं में उपयोगिता बची है और न ही कांग्रेस को उनकी कार्यशैली से मुसलमानों वोटों का कोई लाभ मिलने वाला। दोनों वर्गों में दिग्विजय की छटपटाहट भरी राजनीतिक चाल को आसानी से पकड़ लिया गया है, इसीलिए उनसे सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर राजनीति में वे कहां खड़े हैं और जो कर रहे हैं उसमें राजनीतिक संकट आने पर कांग्रेस उनके साथ खड़ी रहेगी या नहीं? कांग्रेस का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इस प्रकार के अनेक नेता गुमनामी में जा चुके हैं। कांग्रेस ने पहले उनका भरपूर इस्तेमाल किया और जब उसकी लपटें कांग्रेस की तरफ आर्इं तो अपने बचाव में कांग्रेस ने सबसे पहले उसी को उन लपटों के हवाले कर दिया यानि न बांस रहा और न बांसुरी। कई दृष्टांत ऐसे हैं जो कांग्रेस की इस राजनीति को सहजता से स्थापित करते हैं। इसके शिकार कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह भी हो चुके हैं किंतु वे एक कदम चलते थे तो बीस कदम आगे की सोच लेते थे। उन्होंने इसी राजनीतिक चतुराई से अपने को लंबे समय तक बचाए रखा और जब उनकी उपयोगिता शून्य की ओर बढ़ी तो अर्जुन सिंह को भी सड़क दिखा दी गई। वैसे भी अर्जुन सिंह की भी उपयोगिता उस समय खत्म हो गई थी जब उनको बसपा के एक मामूली कार्यकर्ता ने लोकसभा चुनाव में उन्हें पराजित कर दिया था इसमें यह अलग बात है कि वहीं के कांग्रेसियों ने भी उस बसपाई को जिताने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दिग्विजय सिंह और अर्जुन सिंह की राजनीति में फर्क इतना है कि काफी समय तक उनके हर बयान के साथ समूची कांग्रेस खड़ी दिखाई देती थी, किंतु दिग्विजय के साथ ऐसा होता नहीं दिख रहा। अनेक आशंकाएं दिग्विजय सिंह पर मंडरा रही हैं क्योंकि वे अपने बयानों के बाद अकेले ही नजर आ रहे हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनने के बाद से वे लगातार विवादस्पद बयान देते और फिर उनसे पलटते आ रहे हैं? मुंबई में ताज होटल के हमलावरों से मोर्चा लेते हुए शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे का ही मामला लिया जाए। दिग्विजय सिंह का पहले कहना था कि करकरे ने उन्हें फोन किया था, और कॉल रिकार्ड पेश करते वक्त फरमा रहे हैं कि उन्होंने ही करकरे को पहले कॉल लगाई थी। आश्चर्य तो तब होता है जब उनका फोन एटीएस के मुंबई स्थित मुख्यालय में शाम पांच बजकर 44 मिनट पर पहुंचता है, वह भी इंटरनेट पर एटीएस के पीबीएक्स नंबर पर। कॉल रिकार्ड बताता है कि इस नंबर पर 381 सेकेंड बात हुई है। सवाल उठता है कि जब उस दिन दोपहर को ही मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादियों ने कब्जा जमा लिया था, तब क्या एटीएस चीफ करकरे के पास आतंकियों से निपटने और रणनीति बनाते हुए इतना समय था कि वे मोबाइल या फोन पर दिग्विजय सिंह से खुद को हिंदूवादियों से मिलने वाली धमकियों का दुखड़ा रोएं? इसके अलावा दिग्विजय सिंह खुद यह भी स्वीकार कर चुके हैं कि वे करकरे से कभी मिले भी नहीं थे, तब करकरे क्या पहली ही बातचीत में उनसे अपने मन की ऐसी बातें कह गए होंगे? दिग्विजय पहले तो कॉल रिकार्ड नहीं मिलने की बात कर रहे थे? उन्होंने कौन सी जादू की छड़ी से रिकार्ड तलब कर लिया? इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के गृह मंत्री आरआर पाटिल से माफी की मांग करने में भी देरी नहीं की। इसका एनसीपी और कांग्रेस के संबंधों पर तो कोई असर दिखाई नहीं दिया अलबत्ता दिग्विजय सिंह जरूर अलग-थलग पड़ गए। भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के इस दावे में दम लगता है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को एक मिशन पर लगाया हुआ है जिसका मकसद भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान बांटना है। हिंदू आतंकवादियों वाले बयान से दिग्विजय सिंह क्या हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज के हीरो बन गए हैं? देश-विदेश के किसी भी राजनेता ने या पाकिस्तान को छोड़कर किसी भी देश ने ऐसा बयान नहीं दिया। जैसाकि कुछ समय के पूर्व तक दिग्विजय सिंह की छवि कुछ और थी क्योंकि उन जैसे नेताओं के व्यक्तित्व से ऐसे बयान और आरोप बिल्कुल भी मेल नहीं खाते हैं। मुंबई आतंकी हमले के बाद शिवराज पाटिल को केंद्रीय गृहमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। महाराष्ट्र में सियासत करने वाले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी मुंबई हमले पर विवादस्पद बयान दिया था जिससे कांग्रेस को अंतुले से किनारा करना पड़ा था। यदि आपको याद हो तो देश के बहुचर्चित शाहबानो तलाक मामले में इसी कांग्रेस ने राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से पहले तो तलाक के खिलाफ बयान दिलवा दिया और जब इस पर तूफान उठा तो कांग्रेस ने आरिफ के बयान से अपने को अलग कर लिया। यही नहीं केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से इस्तीफा ले लिया गया और शाहबानों मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में संशोधन विधेयक के जरिए प्रभावहीन कर दिया गया। इस घटनाक्रम में आरिफ मोहम्मद खान जैसा दिग्गज और योग्य लीडर निपट गया। वह दिन और आज का दिन है आरिफ मोहम्मद खान देश तो छोड़िए अपने राज्य उत्तर प्रदेश और अपने ही जिले बहराइच के राजनीतिक परिदृश्य से ही ओझल हो चुके हैं। कांग्रेस को इस बात का कोई पछतावा नहीं है कि उसने आरिफ मोहम्मद खान को शाहबानो मामले में बलि का बकरा बनाया। कांग्रेस अब आरिफ मोहम्मद खान का नाम भी लेने से डरती है, उन्हें कांग्रेस में वापस लेने की बात तो बहुत दूर है। वे यह जानते हुए भी कि यह कांग्रेस है जिसमें डूब जाने वाले या डुबो दिए जाने वाले का पता नहीं चल पाया ऐसी राजनीतिक गलतियां करते जा रहे हैं जिनका कांग्रेस साथ देने वाली नहीं है पर दिग्विजय सबक नहीं ले रहे।

Monday, October 15, 2012

खुर्शीद के बहाने खुली एनजीओ की पोल

केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद के गैरसरकारी संगठन यानि एनजीओ ‘डॉ. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट’ पर आरोप सच हों या झूठ, लेकिन इस घटनाक्रम से देश में इन संगठनों की धींगामुश्ती की कलई जरूर खुली है। आश्चर्यजनक रूप से देश का एक मंत्रालय को अपना पूरा काम इन्हीं एनजीओ के जरिए कराता है। सामने दिखता है कि वह क्या चाहता होगा और कमाई के स्रोत बने इन संगठनों के जरिए क्या हो पाता होगा। खुर्शीद पर आरोपों से देश की सियासत गर्म है। ट्रस्ट पुराना है और दावे किए जाते रहे हैं कि उसके स्तर से ढेरों कार्य किए गए हैं। यही नहीं, तमाम गणमान्य लोगों ने उसके कार्यक्रमों में हिस्सा लिया है। ऐसे में जैसे ही आरोप लगे तो लोग हैरत में पड़ गए। वैसे भी यह मान पाना बेहद मुश्किल था कि देश के कानून मंत्री भी नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ा सकते हैं। खुर्शीद राजनीतिक तौर पर बेहद प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य हैं, उनके पिता खुर्शीद आलम खां कई बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहे और राज्यपाल जैसे पदों को भी सुशोभित किया। लुईस खुद भी अपना सियासी कद रखती हैं और चुनावी मैदान में हाथ आजमा चुकी हैं। मौजूदा घटनाक्रम से सबसे ज्यादा मुश्किल कांग्रेस को हो रही है। खुर्शीद पार्टी के बड़े नेता हैं और संकट की स्थिति में उसके अभियान की कमान सम्हाला करते हैं। अरविंद केजरीवाल इस मामले में फिलहाल सियासी नफे की स्थिति में नजर आ रहे हैं क्योंकि एक बड़े केंद्रीय मंत्री की घेराबंदी का उनका प्रयास कांग्रेस की चूलें हिलाने में सफल रहा है। तमाम तरह के राजनीतिक तूफानों में घिरी कांग्रेस को खुर्शीद पर भरोसा था पर वो भी अब शक के घेरे में आ गए हैं। बहरहाल, सच जो भी है, वो सामने आना बाकी है लेकिन इससे देश में गैर सरकारी संगठनों की धींगामुश्ती की पोल खुली है। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने गैर सरकारी संगठनों को तेजी से खड़ा और मजबूत किया है। कई मामलों में एनजीओ लगभग सरकार या उसकी एजेंसियों के बराबर हस्तक्षेप रखते हैं। सरकार ने भी अपनी नीतियों के जरिये अपरोक्ष रूप से एनजीओ को बढ़ावा दिया है। केंद्र और राज्य में चाहे भी जिस दल की सरकार रही हो, सभी ने एनजीओ को धीरे-धीरे विपक्ष के रूप में खड़ा किया है। पहले जो काम राजनीतिक दलों या उससे जुड़े जन संगठन किया करते थे, उदारीकरण की नीतियों के बाद उनकी जगह ये एनजीओ लेने लगे। यह सब-कुछ बिल्कुल सोची-समझी रणनीति के तहत धीरे-धीरे किया जा रहा है। पिछले वित्त वर्ष में आदिवासी मामलों के मंत्रालय का कुल बजट 2229 करोड़ रुपये का था। इससे पहले वर्ष 2009-2010 में यह बजट 1818 करोड़ और उससे पहले वर्ष 2008-2009 में करीब 2133 करोड़ रुपये का था। आदिवासियों के विकास के नाम पर खर्च होने वाला उन सब बजट से अलग है जो गृह मंत्रालय आदिवासी बहुल जिलों में वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने के लिए खर्च करता है, या दूसरी अन्य योजनाओं के जरिये आदिवासियों पर खर्च हो रहे हैं। देश व राज्य के आदिवासी मामलों के मंत्रालय या सामाजिक अधिकारिता विभाग की वार्षिक रिपोर्टों पर नजर डालना रोचक होगा। यह इकलौते ऐसे मंत्रालय या विभाग होंगे जिनका अधिकांश काम गैर सरकारी संगठनों के जिम्मे होता है। मसलन आदिवासी मामलों के मंत्रालय की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट को लेते हैं। इसमें आदिवासियों के विकास से जुड़ी जितनी भी योजनाएं हैं वह बिना एनजीओ की भागीदारी के नहीं चल रहीं। कई सारी योजनाएं तो महज एनजीओ के भरोसे ही चल रही हैं। एनजीओ के प्रति आकर्षण का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मौजूदा समय में हमारे देश में सक्रिय सूचीबद्घ एनजीओ की संख्या एक रिपोर्ट के मुताबिक 33लाख के आसपास है। यानी हर 365 भारतीयों पर एक एनजीओ। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा एनजीओ हैं, करीब 4.8 लाख। इसके बाद दूसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है। यहां 4.6 लाख एनजीओ हैं। उत्तर प्रदेश में 4.3 लाख, केरल में 3.3 लाख, कर्नाटक में 1.9 लाख, गुजरात व पश्चिम बंगाल में 1.7-1.7 लाख, तमिलनाडु में 1.4 लाख, उड़ीसा में 1.3 लाख तथा राजस्थान में एक लाख एनजीओ सक्रिय हैं। इसी तरह अन्य राज्यों में भी बड़ी तादाद में गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं। दुनिया भर में सबसे ज्यादा सक्रिय एनजीओ हमारे ही देश में हैं। धन की बात करें तो दान, सहयोग और विभिन्न फंडिंग एजेंसियों के जरिये एनजीओ क्षेत्र में अरबों रुपया आता है। अनुमान है कि हमारे देश में हर साल सारे एनजीओ मिल कर 40 हजार से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये तक जुटा ही लेते हैं। सबसे ज्यादा पैसा सरकार देती है। ग्यारहवीं योजना में सामाजिक क्षेत्र के लिए 18 हजार करोड़ रुपये का बजट रखा गया था। दूसरा स्थान विदेशी दानदाताओं का है। सिर्फ सन् 2005 से 2008 के दौरान ही विदेशी दानदाताओं से यहां के गैर सरकारी संगठनों को 28876 करोड़ रुपये (करीब 6 अरब डॉलर) मिले। इसके अलावा कॉरपोरेट सेक्टर से भी सामाजिक दायित्व के तहत काफी धन गैर सरकारी संगठनों को प्राप्त होता है।

Thursday, October 4, 2012

आर्थिक सुधारों का दूसरा दौर

खुदरा कारोबार में विदेश निवेश को मंजूरी, डीजल के दाम बढ़ाने और एलपीजी पर सब्सिडी को सीमित करने के करीब 20 दिनों बाद दूसरे दौर के आर्थिक सुधारों को मंजूरी दिए जाने से यह सिद्ध हुआ है कि आलोचनाओं और विरोध के बवंडर से बेपरवाह डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार की आर्थिक सुधार की रेल बेधड़क दौड़ रही है। पेंशन में विदेशी निवेश को स्वीकृति और बीमा क्षेत्र में इसका दायरा बढ़ाने का सरकार का ताजा फैसला एक और राजनीतिक भूचाल लाने को तैयार है। सवाल उठता है कि नए फैसले में उसकी हिमायत कौन-कौन करने जा रहा है और जो विरोधी हैं, उनसे सरकार कैसे टक्कर लेने जा रही है। मनमोहन के सुधारों का अर्थव्यवस्था पर अच्छे परिणामों के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। इनसे सरकार को विपक्षी तीरों का जवाब देना आसान होने जा रहा है। सरकार समझ रही है कि अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए बढ़ता औद्योगिकीकरण जरूरी है। जिस तरह के हालात हैं, देशी निवेशकों के समक्ष चुनौती अपनी पूंजी कायम रखने की है और वह नए निवेश की तरफ नहीं बढ़ रहे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी दस्तक दे रही है। अमेरिका समेत तमाम दुनिया के कई बैंक तक धराशाई हो चुके हैं। ऐसे में विदेशी निवेश एक सरल रास्ता हो सकता है। तथ्य यह भी है कि भारत के बड़े आकार के बाजार पर बड़ी विदेशी कम्पनियों की पहले से नजर है। ढेरों प्रस्ताव सत्ता के समक्ष लम्बित हैं यानी सरकार के समक्ष यह चुनौती भी नहीं है कि विदेशी निवेश जुटाया कहां से जाए। इसीलिये पेंशन क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश स्वीकृत किया गया जबकि बीमा क्षेत्र में इस निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत की गई। इससे पहले यूपीए सरकार ने 14 सितंबर को मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत एफडीआई की मंजूरी दी थी। साथी ही नागरिक उड्डयन क्षेत्र में एफडीआई नियमों में और ढील देने का फैसला किया था। प्रसारण क्षेत्र में भी एफडीआई को उदार बनाया गया था। सरकार दरअसल, सितम्बर में शुरू सुधार के अपने कदमों को आगे भी जारी रखना चाहती है। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद राजनीतिक माहौल भी अनुकूल ही है। समाजवादी पार्टी खुलकर साथ है तो बहुजन समाज पार्टी चुपचाप पीछे-पीछे चल रही है। यूपीए का घटक द्रमुक कहे कुछ भी लेकिन अपनी मजबूरियों के चलते वह अलग नहीं हो सकता है, यह बिल्कुल तय है। यूपीए को उम्मीद है कि वह विकास दर में गिरावट रोकने में सफल रहेगी। जून में नौ साल पुराने पेंशन फंड रेग्युलेटरी एण्ड डेवलपमेंट अथॉरिटी बिल को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के चलते कदम पीछे खींच लिये। इस बिलि से बिल से पेंशन नियामक तो कानूनी दर्जा मिलेगा। वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम की इसमें रुचि है, कार्यभार संभालने के तुरंत बाद उन्होंने बीमा और पेंशन बिलों को आगे बढ़ाने का फैसला किया था। नियामक खुद भी मानता है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ाने की जरूरत है। इरडा चेयरमैन जे. हरिनारायण का कहना है, 'जब तक हम यह सीमा 49 फीसदी नहीं करते, तब तक बीमा उद्योग के विकास के लिए हमें पर्याप्त पूंजी नहीं मिल पाएगी।' सरकार के नए फैसले के प्रभावों का आकलन किया जाए तो तमाम विशेषज्ञों ने इसकी वकालत की है। उनका कहना है कि पेंशन क्षेत्र में इससे बड़े पैमाने पर पैसा आएगा, जिसे ढांचागत क्षेत्र में निवेश किया जा सकता है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में निवेश के लिए करीब 52 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। एसोचैम कहती है कि एफडीआई की इजाजत से ग्लोबल पेंशन फंड्स कंपनियों को भारतीय बाजार में कारोबार करने का मौका मिल सकेगा जिनके पास अथाह पैसा है और उन्हें भारत के विशाल बाजार में कमाई की स्वर्णिम संभावनाएं नजर आ रही हैं। विरोधी कहते हैं कि विदेशी निवेशकों के पास देने के लिए कोई भी नया बीमा उत्पाद नहीं है। ये भारतीय जीवन बीमा निगम से उलट सामाजिक दायित्वों से बचते हुए व्यापार की मलाई खाना चाहती हैं। आलोचक यह भी तर्क देते हैं कि पेंशन का मसला सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा है। भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक सुरक्षा का मसला बेहद संवेदनशील है, पेंशन में विदेशी निवेश से ज्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा क्योंकि सरकार अपने लोगों की सुरक्षा और कल्याण के बारे में जितना अधिक सोच और कर सकती है, उतना विदेशी कंपनियां नहीं सोचेंगी क्योंकि वे कारोबार के लिहाज से निवेश करेंगी। दूसरी तरफ, सरकारी बीमा कंपनियां सामाजिक और आर्थिक विकास में बड़े पैमाने पर निवेश कर रही हैं और इनके इंश्योरेंस कवर का दायरा ऐसे क्षेत्रों तक फैल रहा है, जो अब तक अछूते थे। इसमें तेजी लाए जाने की जरूरत है। ढांचागत विकास का क्षेत्र सरकारी बीमा कंपनियों में 'सरप्लस जनरेशन' के जरिये निवेश पर निर्भर है। बीमा क्षेत्र में और विदेशी निवेश की इजाजत देकर सरकार विकास के लिए निवेश की इस प्रक्रिया को पंगु बना रही है जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ेगा। बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा बढ़ाने के मुद्दे पर यह नहीं भूला जाना चाहिए कि विदेश निवेशकों की दिलचस्पी माइनॉरिटी शेयर होल्डिंग में नहीं बल्कि अपने हित साधने में ज्यादा होगी। ये निवेशक विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने में भी रुचि नहीं दिखाएंगे। उनकी दिलचस्पी भारत के घरेलू सेविंग्स पर नियंत्रण करने और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होगी। बीमा और पेंशन को सबसे सर्वाधिक अहम मानकर विरोध करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा का कहना है कि एफडीआई से भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलभूत ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। अमेरिका हो या यूरोप या फिर कोई और देश, प्राइवेट बीमा कंपनियां पूरी तरह नाकाम रहीं और बर्बाद हो गई हैं।