Wednesday, October 31, 2012

रिलायंस के कोप का शिकार जयपाल रेड्डी

इंडिया अंगेस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल ने पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी की विदाई के पीछे दिग्गज उद्योग घराने रिलायंस का हाथ बताया है। बात में दम है। तमाम उदाहरण ऐसे हैं जिनमें इस कंपनी की इस तरह की भूमिका उजागर होती रही है। देश के मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इसी घराने के चलते आरोप के घेरे में आए थे, तब धीरूभाई अंबानी विमल ब्रांड की सूटिंग-शर्टिंग बनाने वाली कपड़ा उत्पादन कंपनी की कमान संभालते थे। पॉलिस्टर यार्न आयात उस समय विवादों की वजह बना था। यह कंपनी भारत के एक चिथड़े से धनी व्यावसायिक टाइकून बनने की कहानी है। धीरूभाई ने रिलायंस उद्योग की स्थापना मुम्बई में अपने चचेरे भाई के साथ की। कई लोग अंबानी के अभूतपूर्व विकास का श्रेय सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों तक उनकी पहुंच को देते हैं क्योंकि उनको यह उपलब्धि अति दमनकारी व्यावसायिक वातावरण में मिली थी। अंबानी ने अपनी कंपनी रिलायंस को 1977 में सार्वजानिक क्षेत्र में सम्मिलित किया, और 2007 तक परिवार (बेटे अनिल और मुकेश) की सयुंक्त धनराशि 100 अरब डॉलर तक पहुंच गई और अंबानी विश्व के धनी परिवारों में शुमार हो गए। याद कीजिए, तब मणिशंकर अय्यर यूपीए सरकार में ही पेट्रोलियम मंत्री थे और वह भारत-ईरान और लेटिन अमेरिका के कुछ देशों के बीच पेट्रोलियम कूटनीति में सक्रिय थे। रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी उनसे मुलाकात करने ह्यशास्त्री भवनह्ण आते थे। उन्हें या तो इंतजार करना पड़ता था अथवा मणिशंकर उनसे मिले बिना ही मंत्रालय से खिसक जाते थे। आखिरी नतीजा क्या निकला-मणि को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटा दिया गया। उसके बाद मुरली देवड़ा इस मंत्रालय में आए, जिन्हें रिलायंस की ही परछाईं माना जाता रहा है, लेकिन जब जयपाल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री बने, तो समाजवादी सोच भी उनके साथ आई थी। निजी कंपनियों की अपेक्षा सार्वजनिक सरकारी कंपनियां उनकी प्राथमिकता थीं। उनकी दृष्टि थी कि पेट्रो क्षेत्र में वर्चस्व भी सरकारी नेतृत्व में काम कर रहीं कंपनियों का ही रहे। नतीजतन आम धारणा बनने लगी कि यह समाजवाद बनाम आर्थिक सुधारों का समीकरण है। जयपाल की रिलायंस के प्रति कुछ सख्ती ने इस धारणा को पुख्ता ही किया। उन्होंने रिलायंस के कुछ प्रस्ताव नामंजूर किए। केजी बेसिन से उत्पादित गैस के दाम 2014 से पहले बढ़ाने से इनकार कर दिया। चूंकि रिलायंस कंपनी करार के मुताबिक, गैस का उत्पादन कम कर रही थी, ताकि उस दबाव में गैस के दाम बढ़ा दिए जाएं, लेकिन जयपाल रेड्डी ने उस संदर्भ में 7000 करोड़ रूपए का जुमार्ना रिलायंस पर ठोंक दिया। इस बीच रिलायंस के चेयरमैन मुकेश अंबानी सरकार और कांग्रेस के भीतर लॉबिंग करते रहे। एक घटना गौरतलब है, लिहाजा यहां प्रासंगिक लगती है। मुकेश दिल्ली हवाई अड्डे से आ रहे थे, तो सरदार पटेल रोड से पहले भारी जाम मिला होगा। उन्हें विलिंगडन रोड की कोने वाली कोठी में एक ताकतवर नेता से मुलाकात करनी थी। उस दिन देर शाम के समय मुकेश हांफते हुए उस कोठी की चौखट तक पहुंचे थे। उन्हें पता था कि वह शख्स वक्त का घोर पाबंद है और मुकेश के लिए वह मुलाकात बेहद अहम थी। पेट्रोलियम का वह ऐसा चक्रव्यूह बुना जा रहा था, जिसमें रेड्डी की बलि तय थी। लिहाजा पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल को हटाना महज विभागों का फेरबदल नहीं है और न ही प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार का मुद्दा है। यह निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का आपसी द्वन्द्व है। पेट्रोलियम की देश की अर्थव्यवस्था में करीब 22 फीसदी हिस्सेदारी है और 90 फीसदी राजनीति उसी के आधार पर की जाती है। उस लिहाज से वह वित्त मंत्रालय के बाद का दूसरी महत्त्वपूर्ण मंत्रालय माना जाता है। उद्योगपतियों और राजनेताओं की मुलाकातों और मिलीभगत से भी साफ है कि यदि वे राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देंगे, तो जाहिर है कि वे उनके काम करने की भी अपेक्षा रखेंगे। इस समीकरण का नतीजा क्या यह होता रहेगा कि उद्योगपति के दबाव में कैबिनेट मंत्री ही बदले जाते रहेंगे? क्या यही हमारे लोकतांत्रिक ढांचे का यथार्थ है? यदि जयपाल रेड्डी के संदर्भ में वाकई ऐसा हुआ है तो सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं है, सरकार निजी क्षेत्र की कठपुतली भी है, लेकिन भारत के निजी क्षेत्र की परिभाषा क्या है? वह अमरीका और जर्मनी के निजी क्षेत्र सरीखा नहीं है, जहां कंपनियों की बागडोर शेयरधारकों के ही हाथों में होती है। वहां कोई पारिवारिक वर्चस्व न होकर बाकायदा चुना हुआ निदेशक मंडल होता है,जो पूरी तरह शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह होता है। भारत में आज भी कहां है निजी क्षेत्र? बेशक रिलायंस सरीखी कंपनियों में निदेशक मंडल है, लेकिन उसमें भी परिवार या निष्ठावान चापलूसों का वर्चस्व रहता है। उसके बावजूद वे कंपनियां सरकार, मंत्री और कैबिनेट सचिव की नियुक्तियां तय करती हैं। मौजूदा प्रकरण को सिर्फ समाजवादी बनाम आर्थिक सुधार के चश्मे से ही देखना उचित नहीं होगा। करीब 70 फीसदी तेल और गैस का क्षेत्र आज भी सरकारी सार्वजनिक कंपनियों के अधीन है। प्रधानमंत्री उसे थोड़ा खोलना और उसका आधुनिकीकरण चाहते हैं। जाहिर है कि वह निजी क्षेत्र की सक्रिय भागीदारी के पक्षधर हैं। क्या जयपाल रेड्डी उसमें रोड़ा साबित हो रहे थे? गौरतलब यह भी है कि केजी बेसिन गैस, रिलायंस, गैस के ज्यादातर उपभोक्ता और खुद जयपाल सभी का संबंध आंध्रप्रदेश से है। जो आंध्र की जमीनी हकीकत से रू-ब-रू हैं, वे जानते हैं कि जयपाल को पेट्रोलियम मंत्रालय से बाहर करने के फैसले के फलितार्थ क्या हो सकते हैं? उस स्थिति में आंध्र पर कांग्रेस का राजनीतिक और चुनावी फोकस नाकाम साबित हो सकता है। जरा उस दौर की भी कल्पना की जाए,जब भविष्य में रिलायंस जैसी 50 ताकतवर निजी कंपनियां होंगी और वे अपने-अपने हिस्से की धूप चाहेंगी, लेकिन दूसरी ओर लड़खड़ाती, बौनी सरकार और बिकाऊ राजनीति होगी, तब देश के हालात क्या होंगे? कैबिनेट मंत्री की बात छोड़िए, प्रधानमंत्री उनके अनदिखे इशारों पर नाचेंगे या संभव है कि उन्हें भी सुविधाजनक तरीके से बदला जाएगा। देश इस समय ऐसे तमाम प्रकरणों से रूबरू है जिनसे राजनीतिज्ञों की प्रति आम जनता की सोच बहुत खराब हो गई है। जयपाल की विदाई ऐसा ही एक प्रकरण है।

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