Thursday, October 25, 2012
हिंदुत्व के शेर का बूढ़ा हो जाना...
'हिन्दुत्व के शेर' यानि शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने आखिरकार मान लिया कि शरीर उनका साथ नहीं दे रहा। बात यह नहीं कि वह बूढ़े हो गए हैं, बल्कि अहम इसलिये है कि उन्होंने अपने बेटे उद्धव और पौत्र आदित्य को अपना राजनीतिक साम्राज्य सौंपने का फैसला किया है। ऐसे समय में जबकि उनके भतीजे राज ठाकरे का सियासी कद भी बढ़ा है, बाल ठाकरे का फैसला क्या गुल खिलाएगा, यह देखा जाना खासा दिलचस्प होगा। मुंबई के ऐतिहासिक शिवाजी पार्क में दशहरा के उपलक्ष्य में होने वाली शिवसेना की परंपरागत रैली में बाल ठाकरे के भाग न लेने से ही यह अटकलें लगने लगी थीं कि वह अब परिदृश्य से हटने का मन बना चुके हैं।
अटकलें लग ही रही थीं कि शिवसेना ने अपने अध्यक्ष का रिकॉर्डेड संदेश जारी किया, जिसमें उन्होंने अपने गिरते स्वास्थ्य की मजबूरी जताते हुए शिवसैनिकों को अपने बेटे और पोते के साथ डटे रहने की मार्मिक अपील की। संदेश में बाल ठाकरे ने कहा कि जिस तरह इतने वर्षों तक सैनिक उनके साथ डटे रहे, उसी तरह अब वे उद्धव और आदित्य का भी साथ दें। हालांकि परिवारवाद थोपने का आरोप न लगे, इसके लिए वह यह जोड़ना नहीं भूले कि वे उद्धव और आदित्य को शिवसैनिकों पर थोप नहीं रहे हैं। ये लोग सफल हैं और राज्य-राष्ट्र का हित किसमें है, यह जानते हैं। 46 वर्षीय शिवसेना आज जिस मुकाम पर है, वह अकेले बाल ठाकरे का ही दम है। हिन्दुत्व की खुलकर बात करने वाले वह देश के अकेले नेता हैं। उनके दल ने महाराष्ट्र में जिस तरह से अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वो कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी कहीं नहीं बना पाई। यह अकेली ऐसी पार्टी है जिस पर मुंबई के लोग पुलिस से ज्यादा भरोसा करते हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ हो जाए तो वह पुलिस चौकी-थाने के बजाए शिवसेना बूथ पर शिकायत को प्राथमिकता देते हैं। बाल ठाकरे जो कह दें, वो पत्थर की लकीर बन जाया करती है। महाराष्ट्र के बारे में कहा जाता है कि मुंबई अगर अकेले राज्य की सत्ता का निर्धारण करने की हैसियत में हो तो शिवसेना का हर बार सत्ता में आना तय है। पिछले चुनावों के उदाहरण से ही स्पष्ट है कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अगर बीच में नहीं होती तो महाराष्ट्र की सीटों की तस्वीर ही दूसरी होती। ठाकरे परिवार की बात की जाए तो वहां राज ठाकरे दरअसल यह साबित करना चाहते हैं कि बाल ठाकरे के असली वारिस उद्धव ठाकरे नहीं, बल्कि वह खुद हैं। राज ठाकरे अपनी भाषण देने की शैली, हाव-भाव में बाल ठाकरे की हू-ब-हू नकल करते हैं और उनकी राजनीतिक शैली भी बाल ठाकरे जैसी ही है। गाली-गलौज तथा धमकियों से भरी भाषा और हिंसा की राजनीति उन्हें ही शिवसेना का ही उत्तराधिकारी सिद्ध करती है। मनसे की ही तरह शिवसेना को भी लंबे वक्त तक कांग्रेस ने समाजवादियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ इस्तेमाल किया था।
एक वक्त बाद जब मराठीभाषी शिवसेना के कथित बाहरी लोगों के विरोध से छिटकने लगे, तब अस्सी के दशक में बाल ठाकरे हिंदुत्ववादियों की जमात में कूद पड़े और भाजपा के सहयोगी हो गए। अब तक शिवसेना और भाजपा की महाराष्ट्र में साथ-साथ राजनीति चलती है और भाजपा ने भी शिवसेना की हिंसक राजनीति का कभी विरोध नहीं किया। महाराष्ट्र की राजनीति में मनसे और शिवसेना जैसे उग्र तत्व सभी राजनीतिक ताकतों को रास आते हैं, इसलिए वे अपनी असली ताकत से ज्यादा मजबूत नजर आते हैं। हालांकि इसकी कीमत महाराष्ट्र के लोग भी चुकाते हैं क्योंकि राजनीति को ऐसे उग्र गिरोहों के हाथों सौंप देने का नतीजा राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। मुंबई की वजह से महाराष्ट्र आज भी आर्थिक रूप से देश में सबसे आगे है लेकिन धीरे-धीरे उसकी जगह फिसल रही है। स्थानीय स्तर पर ऐसी राजनीति में उलझे रहने की वजह से महाराष्ट्र का कोई नया नेता राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक पहचान और स्वीकृति भी नहीं पा सकता। शरद पवार को यह स्थान मिला है तो इसकी वजह कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरियां हैं। कांग्रेस को खुद ही पर्याप्त सीटें मिल जातीं तो पवार को केंद्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं मिलता। राज ठाकरे का राजनीतिक संघर्ष उन महत्वाकांक्षाओं पर आधारित माना जाता है जिन्हें वह बाल ठाकरे से हासिल करने में वंचित रह गए। राज की पार्टी को महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनाव में कोई समर्थन नहीं मिला और जिसे वो समर्थन कह रहे हैं वह उस परिवार से अलग होने पर उपजी एक तात्कालिक सहानुभूति थी जो आज खत्म हो चुकी है। बाल ठाकरे ने राज ठाकरे को शिवसेना की राजनीति की अंगुली पकड़कर चलाना सिखाया है। उन्हें कई बार यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह कांग्रेस के साथ खड़े होकर जो कर रहे हैं उससे उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह बाल ठाकरे का बड़प्पन कहा जाएगा कि जिस प्रकार राज ठाकरे ने इस परिवार के खिलाफ मोर्चा खोला है उस पर बाल ठाकरे ने अपनी ओर से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी। उधर, उद्धव ठाकरे की दुनिया तो पूरी तरह बाल ठाकरे की विरासत पर ही टिकी है। उद्धव को राज की तुलना में आक्रामक नहीं माना जाता। हां, यह जरूर है कि उनके पुत्र आदित्य ने जरूर अपनी शुरुआत उग्र तेवरों के साथ की है। लेकिन देखना यह है कि पिता और चाचा की लड़ाई में अपना वह क्या स्थान बना पाते हैं। युवाओं में वह लोकप्रिय तो हो रहे हैं लेकिन चाचा यहां उन पर भारी पड़ते हैं। दादा की विरासत के हिसाब से उद्धव उनसे पहले हैं। कुछ भी हो, यह तो तय है कि महाराष्ट्र में बैठे हिन्दुत्व के शेर का खुद को बूढ़ा मान लेना आने वाले समय में कई नए घटनाक्रमों का साक्षी बनेगा। चूंकि लोकसभा चुनाव भी नजदीक आ रहे हैं, इसलिये फिलहाल तो लग ही रहा है कि इनकी धमक केंद्रीय राजनीति पर भी पड़ेगी।
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