Monday, February 17, 2014

अमर कांत का परलोक गमन

हिंदी जगत के लिए बेहद दु:खभरी खबर है कि उसके सशक्त सिपाहियों में से एक अमर कांत नहीं रहे। अमर कांत क्या थे, हिंदी साहित्य में वो किस योगदान के लिए जाने जाते हैं, यह प्रश्न भी उनका कद बौना करने की कोशिश ही माने जाएंगे। वह जिस स्थान पर थे, वहां कभी मुंशी प्रेमचंद रहे थे, वो साहित्य के ऐसे चितेरे थे जिनका लेखन यथार्थ के धरातल पर था। हालांकि वह साहित्य जगत की राजनीति के शिकार भी बने, राजकमल प्रकाशन से 2003 में पहली बार प्रकाशित उनके उपन्यास... इन्हीं हथियारों से... को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला लेकिन प्रतीत ऐसा हुआ जैसे मजबूरीवश दिया गया है। महानता ही थी इस युगपुरुष की, कि उन्होंने इस राजनीति को बेहद सहजता से स्वीकार किया। अमर कांत को जानने के लिए इसी उपन्यास का सहारा लेना न्यायोचित होगा। यह उपन्यास सन 1942 के आंदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की घटनाओं पर केंद्रित है जहां आम जनता ने लगभग एक सप्ताह तक अंग्रेजी शासन को मिटाकर अपना राज स्थापित किया था। वह इतने संवेदनशील थे, कि उपन्यास में आजादी के बाद की घटनाओं को भी शामिल किया ताकि आजादी के लिए लड़ने वाली जनता और कांग्रेस पार्टी के रिश्तों का संज्ञान लेकर पहली सत्ता की गलतियां भी इंगित की जा सकें। उनकी कोशिश समझाने की थी कि दुनिया के सबसे परिपक्व स्वतंत्रता आंदोलन की आखिर ऐसी परिणति क्यों हुई। एक ऐतिहासिक घटना से जुड़े होने के कारण इसमें कथा की अनुपस्थिति की जो आशंका थी, उसे उन्होंने खूबसूरती के साथ विभिन्न पात्रों की निजी जिंदगी में आए उलटफेर के साथ जोड़कर औत्सुक्य का तत्व पैदा किया है, जो कहीं से भी कथा से अलग पैबंद की तरह नहीं लगता । लेकिन उस घटना के ऐतिहासिक-सामाजिक महत्व पर गंभीर सोच विचार का आमंत्रण भी दिया। 1942 का आंदोलन कांग्रेसी नेतृत्व की हदों के पार चला गया था और उसमें तरह-तरह के आंदोलनकारी शरीक हो गए थे। और सन 42 ही क्यों, कांग्रेस नेतृत्व में चले स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसात्मक होने के बावजूद उसकी शक्ति को समझने की एक महत्वपूर्ण कोशिश के बतौर भी इस उपन्यास को देखा जा सकता है। बलिया में आजादी के आंदोलन के गौरवशाली इतिहास का बयान करने के बाद वे गांधी की रणनीति की व्याख्या करते हैं। कहते हैं- जहां तक अहिंसा का सवाल है, आज के जमाने में उसकी उपयोगिता जनता के व्यापक हितों के लिए इस्तेमाल किए जाने से ही सिद्ध हो सकती है। शोषक इसका इस्तेमाल अपने पक्ष में कर सकते हैं। इससे सावधान रहने की जरूरत है। अमर कांत ने समझाया कि अहिंसा, कायरता और पलायन का पर्याय नहीं है। गांधीजी ने स्वातंत्र्य आंदोलन और स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए इसका इस्तेमाल न किया होता तो इसकी विशेष उपयोगिता और सार्थकता न होती। कहानीकार के रूप में उनकी ख्याति सन 1955 में 'डिप्टी कलेक्टरी' कहानी से हुई। अमरकांत के स्वभाव के संबंध में रवीन्द्र कालिया लिखते हैं- वे अत्यन्त संकोची व्यक्ति थे। यहां तक कि अपना हक मांगने में भी संकोच कर जाते। प्रारम्भिक पुस्तकें उनके दोस्तों ने ही प्रकाशित की थीं। एक बार बेकारी के दिनों में उन्हें पैसे की सख्त जरूरत थी, पत्नी मरणासन्न थीं। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रकाशक से ही सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। बच्चे छोटे थे। अमर कांत ने अत्यन्त संकोच, मजबूरी और असमर्थता में मित्र प्रकाशक से रॉयल्टी के कुछ रुपये मांगे मगर उन्हें दो टूक जवाब मिला, 'पैसे नहीं हैं।' उन्होंने सब्र कर लिया और एक बेसहारा मनुष्य जितनी मुसीबतें झेल सकता था, चुपचाप झेल लीं। 1954 में अमर कांत को हृदय रोग हो गया और उन्होंने जीवन में सख्त अनुशासन अपना लिया। लड़खड़ाती जिंदगी में अनियमितता नहीं आने दी। उनकी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन की पक्षधरता का चित्रण मिलता है। वे भाषा की सृजनात्मकता के प्रति सचेत थे। उन्होंने काशीनाथ सिंह से कहा था- बाबू साब, आप लोग साहित्य में किस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं? भाषा, साहित्य और समाज के प्रति आपका क्या कोई दायित्व नहीं? अगर आप लेखक कहलाए जाना चाहते हैं तो कृपा करके सृजनशील भाषा का ही प्रयोग करें। अपनी रचनाओं में अमर कांत व्यंग्य का खूब प्रयोग करते थे। 'आत्म कथ्य' में उन्होंने लिखा- उन दिनों वह मच्छर रोड स्थित 'मच्छर भवन ' में रहता था। सड़क और मकान का यह नूतन और मौलिक नामकरण उसकी एक बहन की शादी के निमंत्रण पत्र पर छपा था। उनका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन म्युनिसिपैलिटी पर व्यंग्य करना था अथवा रिश्तेदारों को मच्छरदानी के साथ आने का निमंत्रण। उनकी कहानियों में उपमा के भी अनूठे प्रयोग मिलते हैं, जैसे, 'वह लंगर की तरह कूद पड़ता', 'बहस में वह इस तरह भाग लेने लगा, जैसे भादों की अंधेरी रात में कुत्ते भौंकते हैं', 'उसने कौए की भांति सिर घुमाकर शंका से दोनों ओर देखा। आकाश एक स्वच्छ नीले तंबू की तरह तना था। लक्ष्मी का मुंह हमेशा एक कुल्हड़ की तरह फूला रहता है।''दिलीप का प्यार फागुन के अंधड़ की तरह बह रहा था' आदि- आदि। यशपाल ने लिखा था- अमर कांत वो साहित्यकार हैं जो जीएंगे तो सम्मान पाएंगे और जीवन के पश्चात भी उन्हें भुलाया नहीं जा सकेगा। सच से ओतप्रोत है उनका कथन।

Saturday, February 15, 2014

दिल्ली का चक्रव्यूह

महज 49 दिनों की सत्ता के बाद अरविंद केजरीवाल ने पद छोड़ दिया। अब बातें कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप के कितने भी सिलसिले चलें, लेकिन दिल्ली की सियासत अब एक चक्रव्यूह की तरह है। केजरीवाल ने अपने छोटे से शासनकाल में दिल्ली की जनता को वो सपने दिखा दिए हैं जो पहले किसी मुख्यमंत्री ने नहीं दिखाए, वह लड़ते रहे तो लोगों को लगा कि वह उनके लिए लड़ रहे हैं, सस्ती बिजली, भरपूर पानी और जन लोकपाल के उनके आधे-अधूरे मुद्दे आने वाली किसी भी सत्ता के लिए मुश्किलों का सबब बनेंगे, यह तय है। फिर चुनाव हुए और वह सत्ता तक नहीं पहुंच पाए तो दिल्ली की जनता नए सीएम में केजरीवाल की छवि तलाशेगी। उसे लालबत्ती पसंद नहीं आएगी, जनप्रतिनिधि हमेशा साथ रहे, यह आकांक्षा नए नेतृत्व को जीने नहीं देगी। सबसे ज्यादा मुश्किल तो भारतीय जनता पार्टी के लिए है। अकेले सबसे बड़े दल के नाते फिलहाल उससे सरकार बनाने की अपेक्षा की जाएगी, वह बनाती है तो मुश्किल और नहीं बनाती तो मुश्किल, यानी इधर कुआं-उधर खाई। केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति का बिल्कुल अलग एपीसोड है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि छोटी-सी उम्र की पार्टी सत्ता तक पहुंच जाए, सभी स्थापित दलों को चकरघिन्नी बना डाले और बिना देर किए इस्तीफा देकर भी जीत की मुद्रा में नजर आए। आईआईटी से इंजीनियरिंग स्नातक अरविंद ने यह करके दिखाया है। उन्होंने लोगों की उस नब्ज पर हाथ रखा जिसे बाकी दल नजरअंदाज करते रहे थे। केजरीवाल ने सड़क पर आम जनता की शिकायतें सुनने के लिए आम दरबार लगाने की कोशिश की और इसमें अफसरों के साथ एक मंत्री को भी बैठाने का निर्णय लिया। हालांकि भारी भीड़ के चलते यह योजना अटक गई परंतु जनता को उनकी नीयत पर कोई संदेह नहीं हुआ। जनता के बीच उनकी सरकार का शपथ ग्रहण समारोह, रिश्वतखोरों को पकड़ने के लिए हेल्पलाइन, 26 जनवरी की परेड में आम आदमी की सरकार का आम आदमी की ही तरह शामिल होना, जनशिकायतों पर तत्काल संज्ञान, दिल्ली सरकार के मंत्रियों का किसी भी समय सड़कों पर आम लोगों के बीच घूमते-फिरते रहना तथा जनता की शिकायतों को व्यक्तिगत रूप से सुनना-समझना तथा उनका समाधान करना जैसे और कई कदम नि:संदेह लोकतांत्रिक व्यवस्था में बड़ी बात थे। जन लोकपाल के जिस मुद्दे पर केजरीवाल ने त्यागपत्र दिया, वो उनका मूल मुद्दा था। समाजसेवी अन्ना हजारे के जिस आंदोलन को केजरीवाल के राजनीतिक जन्म की वजह माना जाता है, वह भी जन लोकपाल के लिए ही था। लोकपाल को हजारे के समर्थन के बाद भी केजरीवाल अड़े हुए थे, वह जन लोकपाल चाहते थे और अगर दिल्ली में, वह पीछे हट जाते तो छीछालेदार का जवाब देना मुश्किल हो जाता। उप राज्यपाल नसीब जंग ने विधेयक के लिए जो प्रक्रिया बताई, कहा कि केंद्र की मंजूरी के बगैर इसे पारित नहीं किया जा सकता, केजरीवाल उस प्रक्रिया को भी पक्षपातपूर्ण सिद्ध करने में कामयाब रहे। उनका तर्क था कि पूर्ववर्ती शीला दीक्षित सरकार विद्युत सुधार के विधेयकों को केंद्र की मंजूरी के बिना पारित कर चुकी है। कांग्रेस और भाजपा ने जिस तरह एकजुट होकर विधानसभा में नसीब जंग के पक्ष में हो-हल्ला किया, उससे केजरीवाल की इस बात को बल मिला कि दोनों दल उन्हें सत्ता में देखना नहीं चाहते और दोनों की मिलीभगत है। राज्यों के मामले में केंद्र के हस्तक्षेप का विरोध करने वाली भाजपा से सवाल पूछा जाना चाहिये कि क्यों वह दिल्ली में अपने इस ज्वलंत मुद्दे से भटककर कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई। राजनीतिक प्रेक्षक मान रहे हैं कि प्राकृतिक गैस के मुद्दे पर रिलायंस और मुकेश अंबानी के विरुद्ध जंग भी केजरीवाल के प्रति जनता में सहानुभूति का विषय बन सकती है। कांग्रेस और भाजपा यहां भी यह जवाब देने में मुश्किल महसूस करेंगी कि क्यों उन्होंने एक उद्योगपति को बचाने के लिए सरकार गिरवा दी। केजरीवाल के साथ कई और प्लस प्वॉइंट्स भी हैं। वह अपने वोटरों के बीच गंभीरता से लिये जाते हैं, उन्हें ईमानदार मानने में किसी को हिचक नहीं होती क्योंकि वे आयकर विभाग की बड़ी नौकरी छोड़कर आए थे, वह चाहते तो वहीं नोटों के ढेर लगा सकते थे। अब तक इसी इतिहास ने उन्हें लोगों के बीच स्वीकार्य और विश्वसनीय बनाया है। सूचना अधिकार से लेकर बिजली, साफ-सफाई, राशन तथा अन्य कई क्षेत्रों में अपनी परिवर्तन नामक संस्था के जरिए काम ने लोगों को उन पर भरोसा करने की वजह दी थी। केजरीवाल दिल्ली के लिए नए नहीं थे बल्कि तकरीबन 15 साल से सक्रिय थे। दिल्ली की उन तमाम झुग्गियों से उनका रिश्ता बरसों पुराना है जहां नेता सिर्फ चुनाव के समय ही जाया करते हैं। कुछ मुश्किलें भी हैं जो आने वाले लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें हल करनी होंगी। जिस तरह से उनकी पार्टी देशभर में अपने विस्तार की बात कर रही है, उसके लिए जरूरी है कि हर राज्य का सक्षम प्रतिनिधित्व सामने आए यानी पार्टी सिर्फ केजरीवाल के भरोसे न रहे। पूरे देश में वह मात्र केजरीवाल के सहारे रह भी नहीं सकती। बहरहाल, एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इस नवोदित राजनीतिक पार्टी ने न केवल देश की जनता बल्कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समक्ष ऐसे प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश की है जिससे भारतीय राजनीति में परिवर्तन की एक नई आस जगी है। कल तक सत्ता को आम जनता पर राज करने का साधन समझने वाले नेता अब सड़कों पर घूमते-फिरते, आम लोगों के बीच उठते-बैठते, बातें करते तथा उनका दु:ख-दर्द सुनते दिखाई देने लगे हैं। अब इसे 'केजरीवाल इफेक्ट' कहें या पैरों के नीचे से जमीन खिसकने का भय, देश के लोगों के लिए तो यह एक शुभ संकेत ही है।

Wednesday, February 5, 2014

नई चुनौतियों के बीच सत्या

यह अच्छी खबर है। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनी माइक्रोसॉफ्ट की कमान सत्य नारायण नडेला संभालेंगे। यहां पिछले 22 साल से काम कर रहे 46 वर्षीय नडेला की नियुक्ति इस मामले में भी अहम है कि कंपनी के सह-संस्थापक बिल गेट्स ने संस्तुति की थी और वह खुद नए मुख्य कार्यकारी अधिकारी सत्या के सलाहकार होंगे। ऐसे समय में जबकि पूरी दुनिया कंप्यूटर सॉफ्टवेयरों पर आश्रित होती जा रही है, सत्या के सामने चुनौती होगी कि वह करीब एक लाख 30 हजार कर्मचारियों की इस कंपनी का सॉफ्टवेयर बाजार पर दबदबा कायम रखें। हालांकि रास्ते इतने आसान नहीं। उन्हें ऐसे वक्त में जिम्मेदारी मिली है जबकि कंपनी प्रतिस्पर्धा में रहने के लिए संघर्ष कर रही है। बेशुमार खर्च करने के बावजूद कंपनी टैबलेट और सर्च इंजन जैसे नए क्षेत्रों में कुछ खास हासिल नहीं कर पा रही है। उसका सर्च इंजन बिंग कामयाब नहीं रहा है, जिसकी जिम्मेदारी नडेला के ही पास थी। इसके साथ ही, माइक्रोसॉफ्ट की जटिलता भी अपने-आप में चुनौती है। वह जोखिम न उठाने की अपनी नीति की वजह से हर नए मोर्चे पर मात खा रही है। निर्णय लेने में बिल गेट्स और अपने पूर्ववर्ती स्टीव बामर के हस्तक्षेप भी उनकी मुश्किलें बढ़ाएंगे। उन्हें तय करना होगा कि कंपनी को टेक्नोलॉजी के हर क्षेत्र में आगे रहने का बामर का विजन ही लेकर चलना है या उन क्षेत्रों में बढ़ना है, जिनमें वह मजबूत है। दूसरे विकल्प में दिक्कत यह है कि माइक्रोसॉफ्ट का दबदबा ऐसे बाजार में है जिसका आकार निरंतर कम हो रहा है। वह आॅपरेटिंग सिस्टम विंडोज की मास्टर है पर यह अब परंपरागत पीसी यानी पर्सनल कंप्यूटरों और लैपटॉप बाजार तक सीमित है और स्मार्टफोन, टैबलेट्स जैसी नई डिवाइसों के बमुश्किल 15 फीसदी हिस्से में इसका उपयोग होता है। कंपनी के मोबाइल, टैबलेट और मोबाइल विंडोज सफल नहीं रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता बाजार में उसे मुख्य रूप से गूगल, एप्पल, अमेजन से चुनौतियां मिल रही हैं जबकि औद्योगिक उपभोक्ता जगत में एचपी, आईबीएम और ओरेकल जैसी पुरानी प्रतिद्वंद्वी अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रही हैं। बहरहाल, सत्या के भारत में जन्मे होने की वजह से हम भारतीय खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह भारतीयों के हर क्षेत्र में बढ़ते दबदबे का सबसे नया उदाहरण है। सूचना प्रौद्योगिकी के उस जगत में वह नई जिम्मेदारी के साथ सामने आए हैं जिसमें भारतीयों को सर्वश्रेष्ठ माना जा चुका है। उनके पहले वक्तव्य का जिक्र सामयिक होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि मेरी पहचान मेरी जिज्ञासा और सीखने की उत्कंठा है। बेशक, इसी विशेषता की वजह से वह कामयाब भी होंगे। गेट्स ने यह कहकर उनका उत्साहवर्धन किया है, परिवर्तन के इस दौर में माइक्रोसॉफ्ट का नेतृत्व करने के लिए सत्या नडेला से बेहतर कोई और व्यक्ति नहीं हो सकता। रही चुनौतियों की बात तो हम भारतीय इनका सामने करने से डरते नहीं हैं।