Tuesday, September 1, 2015

आरक्षण के खिलाफ एक नई बयार

... तो क्या महज 22 साल का हार्दिक पटेल इतना ताकतवर हो गया कि एक राज्य की कानून व्यवस्था को ध्वस्त कर दे, आरक्षण की बरसोंपुरानी उस फाइल को उलट-पुलट कर दे, वोट बैंक खिसक जाने के डर से कोई सियासी दल जिसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि यह लड़का उस बिरादरी का है, जिसमें ज्यादातर बच्चे मां के पेट में आते ही लखपति और करोड़पति बन जाया करते हैं। लाख टके का सवाल यह है कि हवा के खिलाफ दमदारी से खड़े इस युवक के पीछे कोई संगठित ताकत तो नहीं, कहीं किसी स्थापित परंपरा को ढेर करने की कोशिशें तो नहीं चल रहीं या फिर, आरक्षण के विरुद्ध बड़े आंदोलन की नींव तो नहीं पड़ रही? 
हार्दिक वाकई जिस भी मकसद से मैदान में है, कुछ प्रतिशत कामयाब-सा प्रतीत होता है। इस युवक के पीछे लाखों की भीड़ होने के निहितार्थ क्या हैं। राजनीति घुमावदार है, यह वो दरिया है जिसकी सतह पर जब शांति लगती है तभी भीतर कोई धारा अंगड़ाई ले रही होती है। यह हार्दिक पटेल के एपीसोड से सिद्ध हो रहा है। हार्दिक कहते हैं कि पटेलों को आरक्षण दीजिए, और अगर ये संभव नहीं तो आरक्षण व्यवस्था ही समाप्त करिए। मांग की बात न करते हुए यदि नियमों पर जाएं तो पटेल आरक्षण की मांग पहली कसौटी पर ढेर होती नजर आती है। सामाजिक स्थिति का आकलन किए जाते वक्त पटेलों को आर्थिक आधार पर पिछड़ा सिद्ध कर पाना मुश्किल होगा, यह बात हार्दिक भी जानते हैं और उनके पीछे खड़े तमाम लोग भी। हालांकि हार्दिक तर्क रखते हैं कि पटेलों की तस्वीर उतनी अच्छी नहीं जितनी नजर आती है। बकौल पटेल, ख़ुशहाल समझा जाने वाला पटेल समुदाय इन दिनों कई तरह की आर्थिक कठिनाइयों का शिकार है। पटेल समुदाय में किसान हैं, हीरे के व्यापारी हैं और उद्योग से जुड़े लोग हैं। हीरों के व्यापार में मंदी है। किसान मुश्किल में हैं। आत्महत्या के दर्जनों मामले सामने आए हैं और राज्य सरकार पर इल्ज़ाम है कि वो केवल बड़े उद्योगपतियों की मदद करती है। इसके अलावा पटेल समुदाय की युवा पीढ़ी में बेरोज़गारी बढ़ी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सामने जाते ही यह मांग फुस्स हुई तो हार्दिक का दूसरा कार्ड सामने आ जाएगा जिसमें वह आरक्षण खत्म करने की मांग करते नजर आते हैं। यह स्थितियां देश की राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों पर जबर्दस्त प्रहार करेंगी, यह तय है। लेकिन जैसे ही आरक्षण समाप्ति की मांग करती भीड़ सामने आएगी स्थितियां काबू से बाहर हो जाएंगी। आंदोलन के मास्टरमाइंड जानते हैं कि जब तक आरक्षण के मुद्दे की संवेदनशीलता को खत्म नहीं किया गया, इसकी समाप्ति की मांग का समर्थन कर पाना तक राजनीतिक और सामाजिक समूहों के लिए संभव नहीं हो सकता। हार्दिक जाट और गुर्जर जैसे अन्य समूहों से भी मिले हैं जो आरक्षण के लिए आसमान सिर पर उठाए हुए हैं, इसका सीधा-सा मतलब यह है कि वह अपने आंदोलन का आधार बढ़ाने के लिए जुगत भिड़ा रहे हैं। अगर मान भी लिया जाए कि यह दोनों बिरादरियां आरक्षण की मांग पर टस से मस नहीं होतीं तो भी यह तब तक भीड़ बढ़ाती रहेंगी जब तक कि पिछड़ा वर्ग आयोग या किसी और संवैधानिक या न्यायिक मंच पर पटेल आरक्षण की मांग नकार न दी जाए। देश का ढीला-ढाला तंत्र इस मांग पर फैसला करने में ही कई साल बिता देगा। यह अवधि आरक्षण के विरुद्ध अन्य जातियों और समूहों को लामबंद करने में उपयोगी साबित हो जाएगी। हार्दिक हों या गैर आरक्षित जाति का कोई और नेता, सब जानते हैं कि युवाओं में आरक्षण से बड़ा कोई दूसरा मुद्दा नहीं। सवर्ण जातियों का हर युवा सरकारी नौकरी चाहता है और आरक्षण उसका यह सपना पूरा नहीं होने देता। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पीएम कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध आंदोलन को याद कीजिए, तब तमाम शिक्षा परिसर जल उठे थे। युवाओं ने आत्मदाह तक किया था, राष्ट्रीय सम्पत्ति तहस-नहस कर दी गई थी। हालांकि वह आंदोलन किसी राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में पैदा और विस्तारित हुआ था। सीधा-सा फलसफा है, हार्दिक या कोई अन्य नेतृत्व तैयार होता है तो भावी आंदोलन (जैसा कि मास्टरमाइंस सोच रहे हैं) ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।
प्रश्न उठता है कि हार्दिक पटेल के पीछे है कौन। जब वह छह लाख की भीड़ के साथ सामने आए तो इस सवाल का जवाब ढूंढने में लोगों ने हर संभावना तलाश डाली। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी फोटो सामने आई, फिर शिवसेना के साथ रिश्तों की चर्चाएं शुरू हुईं। केजरीवाल के पीछे होने की बात तो आसानी से किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि वह तो अपने सर्वाधिक प्रभाव के राज्य दिल्ली में ही खुद को सफल सिद्ध नहीं कर पा रहे और शिवसेना का गुजरात में इतना प्रभाव है नहीं। कांग्रेस जिस तरह से टुकड़ों में बंटी है, तो यह भी नहीं माना जा सकता था कि वह हार्दिक की रीढ़ हो सकती है। गुजरात में भाजपा के एकछत्र राज्य में यह भी संभव नहीं था कि यह सभी दल मिलकर इतनी भीड़ का एक नेतृत्वकर्ता पैदा कर लें। तो फिर... राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या खुद भाजपा? भाजपा का पटेलों में खासा जनाधार है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल जैसे उसके पास खासे रसूखदार पटेल नेता हैं तो फिर क्यों अपने वोट बैंक को छेड़ने लगी? हार्दिक पटेल का ये तर्क कि पटेलों को आरक्षण दो या अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण वापस लो. उनकी यह मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरक्षण से संबंधित विचारों से मेल खाती है।
मोदी और संघ परिवार जाति के बजाय आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का मानदंड बनाने के पक्षधर हैं। आम धारणा ये भी है कि राज्य सरकार ने 25 अगस्त की रैली का पर्दे के पीछे से पूरा साथ दिया। इसकी इजाज़त दी गई जबकि ये ज़ाहिर हो गया था कि हिंसा भड़क सकती है। रैली के लिए सरकारी मैदान का किराया नहीं लिया गया। इसमें अहमदाबाद के बाहर से आने वाले लोगों को नहीं रोका गया बल्कि संकेत ये मिले कि राज्य सरकार रैली को रोकने की बजाय रैली कराने में मदद कर रही है। लेकिन फिर अचानक शाम आठ बजे हिंसा उस समय भड़क उठी जब पुलिस ने हार्दिक पटेल को हिरासत में ले लिया। हिंसा शुरू होने के एक घंटे बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद वह इधर-उधर मनमाफिक घूमने लगे, यहां तक कि योजनाबद्ध तरीके से दिल्ली भी पहुंच गए। सवाल यह भी है कि बिना किसी संगठन के इतनी बड़ी रैली का आयोजन कैसे कर लिया गया। इसी बिंदु पर आंदोलन को संघ की शह सामने आती है। बहरहाल, आंदोलन ने जैसे संकेत दिए हैं तो आरक्षण व्यवस्था के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी तय मानिए कि यह आंदोलन आने वाले समय में तमाम मोड़ लेगा, और कामयाब हुआ तो जाति आधारित राजनीति करने वाले तमाम दलों के लिए मुश्किल हो सकती है।

Saturday, February 21, 2015

चीन से रिश्ते की तल्खी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा से चीन बौखलाया हुआ है। मोदी ने चीन-भारत सीमा के पूर्वी हिस्से में एक कथित विवादित क्षेत्र की यात्रा की थी। वह अरुणाचल की स्थापना से जुड़े आयोजनों में शामिल भी हुए। चीन कहता है कि भारत ने 1987 में गैरकानूनी और एकपक्षीय तरीके से घोषणा की थी। अरुणाचल भारत की दुखती रग है, चीन ने वहां उसकी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा रखी है।
सीमा पर 1962 के बाद भारत ने किसी तरह का निर्माण न करके चीन को खुश रखने की कोशिश की, पर अब भारत अपनी अंतिम चौकी तक संपर्क रखने के लिए तंत्र विकसित किया जा रहा है। निष्क्रिय हवाई पट्टियों को भी दुरुस्त किया जा रहा है। चीनी सरकार ने सीमा तक अपनी पहुंच बनाने के लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने पर जोर दिया है, भारत इस मोर्चे पर निष्क्रिय ही था हालांकि मोदी सरकार बनने पर उसके काम में तेजी आई है। सीमा सड़क संगठन के मुताबिक, वह 2015 के अंत तक चीन सीमा के आसपास कुल 4200 किमी लम्बी 68 सड़कें तैयार कर लेगा। दरअसल, दोनों देशों के साथ दिक्कत यह है कि वे लम्बे समय बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं कर पाए हैं, कोई काल्पनिक विभाजन रेखा तक नहीं है। नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई थी, चीनी राष्ट्रपति ने भारत यात्रा की और मोदी वहां जाने के लिए तैयार हैं। दोनों देशों की विदेश नीति में जो नए मोड़ आए हैं, उसके तहत भारत ने जहां दक्षिण एशिया के देशों से सम्बन्धों में कटुता दूर दी, वहीं चीन ने फिलीपींस-रूस जैसे देशों से अपनी जमीनी विवाद सुलझा लिये। भारत और चीन के बीच 1981 से 1987 तक आठ दौर की वार्ताएं हुर्इं। 1988 से 2002 तक सीमा विशेषज्ञों के बीच बातचीत हुई और 2003 में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के मध्य। तब से लेकर अब तक दोनों सलाहकार 15 बार मिल चुके हैं, पर सीमा विवाद जस का तस है। चीन को पता है कि अब स्थितियां 1962 जैसी नहीं रह गई हैं और भारत भी सामरिक दृष्टि से मजबूत है। बंजर जमीन हड़पने के लिए वह जंग नहीं लड़ना चाहता बल्कि उसकी इच्छा इस अपना प्रभुत्व दिखाने की है। वह जानता है कि भारत के साथ उसका व्यापार इस साल 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और वह इतना बेवकूफ नहीं है कि लड़ाई करके अपने व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करे। वहां की सरकार भारत को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, इसलिए वह एशिया के देशों के बीच में भारत की छवि को धूमिल करने में लगी है। पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने के लिए चीन हमेशा से जी-जान से जुटा रहता है, पाकिस्तान को परमाणु तकनीक और मिसाइलें देता है ताकि पाकिस्तान भी भारत को आंखें दिखाता रहे। इसके साथ ही, चीन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह भी बना लिया है।
इसी तरह नेपाल में भी उसका जबर्दस्त दखल है जहां वह माओवादियों का समर्थन करता है। भारत से नेपाल के बरसों पुराने सांस्कृतिक रिश्ते भी काम नहीं आ रहे। म्यांमार सरकार भी चीन के दबाव में भारत को गैस देने से मुकर रही है। बांग्लादेश भी चीनी असर के चलते ही अपनी सीमा से तेल पाइपलाइन नहीं आने देना चाहता। श्रीलंका को पक्ष में करने के लिए चीन ने उस लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में मदद की, जो भारत का समर्थक माना जाता था। साथ ही बंदरगाह बनाए और आधुनिक हथियार एवं तकनीक दीं। लड़ाई के बेहाल अफगानिस्तान को भारत ने आर्थिक मदद की तो चीन भी पीछे नहीं रहा। मदद करने के नाम पर उसने वहां ताम्बे की खदानें खरीद लीं। भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का वह धुरविरोधी है, वहीं परमाणु आपूर्ति क्लब में भी हमारे खिलाफ आग उगलता रहता है। जब से उसे पता है कि भारत अमेरिका के नजदीक हो रहा है, तो वह कूटनीतिक चालें चलकर परेशान कर रहा है। उसे जापान से भारत की निकटता रास नहीं आ पा रही। जापान से उसकी तनातनी चलती रहती है, दोनों देश एक-दूसरे पर प्रभुत्व दिखाने का प्रयास करते रहते हैं। परमाणु हमले के बाद जापान चीन को चुनौती देने में सक्षम नहीं था, पर अब वह पूरी तरह से चीन की नीतियों को समझ चुका है और जानता है कि चीन जापान को कभी आगे बढ़ने नहीं देगा। बहरहाल, चीन इस वक्त भारत से दोस्ती की बात कर रहा है। जबर्दस्त प्रयास हो रहे हैं। लेकिन भारत को उसकी कूटनीतियों के मद्देनजर मालदीव, भूटान, रूस और जापान के साथ अपने सम्बन्धों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये। भारत की 15,106.70 किमी लम्बी जमीनी सीमा है, जो 17 राज्यों से गुजरती है। 7516.60 किमी की तटरेखा राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को छूती है। भारत के 1197 आईलैंड्स की 2094 किमी अतिरिक्त तटरेखा है। बेशक, इन सीमाओं की सुरक्षा देश के लिए बड़ी चुनौती है। सरकार को कुछ ठोस इंतजाम करने चाहिए, ताकि देशवासियों को लगे कि वे पूरी तरह महफूज हैं। चीन पर उसे आंख बंद करके विश्वास करने से बचना होगा। मोदी ने जिस तरह वार्ता के साथ अपनी ढांचागत सुविधाएं मजबूत करने के प्रयास किए हैं, उन्हें जारी रखना भारत के हित में है। भारत को कोई गलती न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर सकती है बल्कि सुरक्षा को चुनौती भी सिद्ध हो सकती है।

Friday, February 13, 2015

एक नायिका का पतन...

जिन गुजरात दंगों पर अक्सर राजनीतिक हो हल्ले हुआ करते थे, उसमें समीकरण बदले हुए हैं। जिन नरेंद्र मोदी पर प्रहार होते थे, वो आज देश के पीएम हैं। फर्जी ढंग से मुठभेड़ों के कथित संरक्षणदाता अमित शाह सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पीड़ितों के सबसे बड़ी हिमायतियों में एक तीस्ता सीतलवाड़ कठघरे में हैं, कानून के शिकंजे में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आरोप इतने संगीन हैं, उन्होंने विश्वासघात किया और पीड़ितों के लिए लगे धन के ढेर से अपना ही घर भर लिया।
देशभर में चर्चित गुजरात की ढेरों घटनाओं  में तीस्ता नायिका बनकर सामने आर्इं। पीड़ितों को भरोसा था कि तीस्ता उन्हें इंसाफ दिलाएंगी। कमजोर और परेशान लोगों की उम्मीदें उनसे जुड़ीं थीं। तीस्ता ने मोदी के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ा था, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वे मोदी के खिलाफ छोटी से लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत तक गर्इं। अगर आज भी मोदी पर छोटे-बड़े आरोप लगते हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं तीस्ता की भूमिका जरूर होती है। लेकिन यह नायिका अब खलनायिका बन चुकी है। विशेष जांच दल (एसआईटी) की रपट आई तो जैसे हंगामा बरप गया। उजागर हुआ कि गुजरात दंगों में तीस्ता ने जिन लोगों के शपथपत्र प्रस्तुत किए हैं, उन्होंने खुद कहा है कि सीतलवाड़ के कहने पर शपथपत्र दिया गया है, उन्हें शपथपत्र में दी गई सूचना की जानकारी भी नहीं है। तीस्ता का दावा था कि गुलबर्ग सोसाइटी में तत्कालीन पुलिस आयुक्त पीसी पाण्डे दंगाइयों का नेतृत्व कर रहे थे, जबकि ऐसे साक्ष्य मिले कि पाण्डे घायलों को अस्पताल पहुंचाने और दंगाइयों को खदेड़ने में लगे थे। झूठी कहानियां यहीं खत्म नहीं होतीं। सुप्रीम कोर्ट में उनके स्तर से दाखिल शपथपत्र में कहा गया था कि गर्भवती कौसर बानो का सामूहिक बलात्कार हुआ और उसका बच्चा पेट फाड़ कर निकाला गया पर एसआईटी ने दोनों ही बातें झूठी पार्इं। जरीना मंसूरी नामक महिला को नरोडा पाटिया में जिंदा जलाकर मारने सम्बन्धी शपथपत्र के बारे में जांच में पाया गया कि जरीना की मौत टीबी से हुई थी। सीतलवाड़ के मुख्य गवाह रईस खान ने कहा कि गवाही देने के लिए उसे डराया-धमकाया गया। तीस्ता के दाखिल किए सारे शपथपत्र एक ही कम्प्यूटर से निकाले गए और उनमें केवल नाम बदला गया। अब मामला और गहरा रहा है। गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच उनके दरवाजे तक पहुंच चुकी है। फिलहाल जो आरोप उन पर हैं, उनके बारे में यह कह देना कि यह बदले की भावना से है, कतई सच बात नहीं। क्राइम ब्रांच की रिपोर्ट में कही गर्इं बातें चौंकाने वाली हैं।
रिपोर्ट कहती है कि तीस्ता ने दंगा पीड़ितों के पुनर्वास-सहायता और म्यूजियम आॅफ रेजिस्टेंस बनाने के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा लिया लेकिन चंदे का बड़ा हिस्सा खुद डकार गर्इं। तीस्ता की संस्थाओं सबरंग ट्रस्ट और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस को देश- विदेश से करीब पौने दस करोड़ रुपये चंदा मिला था जिसे दो भारतीय बैंकों के पांच खातों में जमा किया गया। रिपोर्ट कहती है कि तीस्ता और उनके पति जावेद आनंद ने इन रुपयों में से 3.85 करोड़ अपने नाम कर लिये। सबरंग ट्रस्ट के दो खातों में करीब सवा तीन करोड़ रुपये थे जिनके बारे में तीस्ता-जावेद आनंद ने किसी कोर्ट तक को नहीं बताया। इसी धन से वो इस्लामाबाद, लंदन और अबूधाबी के होटलों में रुकीं, वहां शॉपिंग की। दंपति ने इटली, कुवैत, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, सऊदी अरब, पाकिस्तान में इसी पैसे से खूब खरीददारी की। क्रेडिट कार्ड से खर्च हुआ था इसलिये आसानी से पकड़ में आ गया। जावेद ने जिनेवा से जूते खरीदे तो भी चंदे के पैसे ही खर्च हुए। हैरतअंगेज यह भी है कि इसी पैसे से दंपति ने वेतन लिया और बच्चों के नाम फिक्स डिपाजिट भी कराया। तीस्ता कहती हैं कि उन्होंने पैसे लौटा दिए हैं लेकिन कानून की नजर में इससे अपराध की संगीनता कम नहीं होती। तीस्ता को लेकर विवादों का क्रम यहीं खत्म नहीं होता। समस्या उनके सर्वाधिक खास लोगों में शुमार लोगों में से एक रईस खान पठान ने भी पैदा की है। उन्होंने स्वीकार किया है कि तीस्ता दंगों के फोटोग्राफ को मनमाफिक परिवर्तन करती थीं। बकौल पठान, 2002 में मैं अपने पत्रकार मित्रों से दंगों की तस्वीर लाकर उन्हें देता था। जिन दंगों में कांग्रेस के लोग शामिल थे, उन तस्वीरों में फोटो मार्क करके नाम के साथ कांग्रेसियों की तस्वीरें मैंने उन्हें दी थीं। लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। उनका प्रयास रहता था कि मात्र भाजपा और उसके लोगों पर ही निशाना सधे, कांग्रेस के प्रति उनके दिल में सॉफ्टकॉर्नर था। यह फोटोग्राफ उन्होंने गायब कर दिए, मैंने सवाल उठाने शुरू किए तो मुझे एनजीओ से निकाल दिया। मेरे पीछे गुंडे लगा दिए, धमकी दी गई कि गुजरात छोड़ जाओ। परिवार के साथ जान से मारने की धमकी आई। मैं गुजरात छोड़कर नहीं जा सकता था, क्योंकि मैंने यहां पीड़ितों की सेवा की है। मैं उनके सुख-दुख का साथी रहा हूं। आप किसी भी पी़ड़ित के पास जाकर पूछिए, उन्हें पहले कौन मिला? तीस्ता या रईस खान, जवाब मिल जाएगा। बहरहाल, तीस्ता के बेनकाब होने के पीछे अगर मोदी या उनके किसी विश्वस्त की भूमिका का शक जताया जा रहा हो, तो उसकी संभावनाएं हो सकती हैं लेकिन सबूत कह रहे हैं कि तीस्ता ने गुजरात दंगों में जो कुछ भी किया-कहा, सब सही और सच नहीं था। जरूरी यह भी है कि जांच और कार्रवाई की प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता रहे क्योंकि नरेंद्र मोदी अब एक राज्य के मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री हैं और अमित शाह भाजपा जैसी फिलहाल सर्वाधिक शक्तिशाली पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष।

Tuesday, February 10, 2015

भाजपाई उम्मीदों के साथ मोदी की भी हार

महज एक साल के अंतराल में अगर अरविंद केजरीवाल धमाकेदार जीत हासिल करने में कामयाब रहे हैं तो बेशक, उनकी मेहनत का असर है लेकिन भूमिका भारतीय जनता पार्टी की भी कम नहीं है। उसने अगर रणनीति में खामियां नहीं छोड़ी होतीं तो केजरीवाल प्रचंड बहुमत तक नहीं पहुंचते। राष्ट्रीय राजधानी के इस चुनाव के अगर नतीजे ऐतिहासिक हैं तो इसका श्रेय केजरीवाल की स्वच्छ और बदलाव लाने के लिए व्यग्र व्यक्ति की छवि को भी जाना चाहिये। बहाने लाख तलाशे जाएं, बलि का कोई भी बकरा ढूंढ लिया जाए पर हार की जिम्मेदारी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बच नहीं पाएंगे, यह तय है।
वर्ष 2013 में  जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी को 31, आम आदमी पार्टी को 28, कांग्रेस को आठ और अन्य को दो सीटें मिली थीं, इस दफा यह संख्या बढ़कर 67 के लगभग उच्चतम अंक तक पहुंच गई। तब पहले नंबर पर आई भाजपा को इस दफा महज तीन सीटें मिली हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए चुनावों में जो विजय रथ रफ्तार के चला था, आज औंधे मुंह पड़ा है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो भाजपा के स्तर से तमाम खामियां छोड़ी गर्इं। भाजपा अगर, जम्मू कश्मीर के चुनावों के साथ ही दिल्ली में चुनाव कराने का फैसला कर लेती तो नतीजे दूसरे हो सकते थे। यह देरी उस पर भारी पड़ी। आम आदमी पार्टी की तरफ से केजरीवाल घोषित सीएम उम्मीदवार थे, भाजपा ने यह फैसला करने में ही काफी वक्त ले लिया कि वह किसके चेहरे को सामने रखकर मैदान में उतरने जा रही है। फिर उन किरण बेदी को सामने लाया गया जो कभी मोदी के विरुद्ध टिप्पणी कर चुकी थीं, तमाम विवादों की जड़ में थीं, अन्ना आंदोलन की उपज होने के   बावजूद जिनकी राजनीतिक समझ को हमेशा शक की नजरों से देखा गया। साथ ही, वह तानाशाह प्रवृत्ति की नजर आर्इं जिनके विरुद्ध पार्टी कैडर यह सोचते ही अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा हो गया कि सत्ता मिल गई तो वह उसे भी नहीं बख्शेंगी। इससे पहले कार्यकर्ताओं में आक्रोश पैदा हो ही चुका था। यहां तक कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय भी मन से नहीं जुट पाए। उनके समर्थकोें ने तो कई दिन तक हंगामा भी किया। दरअसल, बीजेपी चीफ अमित शाह की यह प्लानिंग थी जिसमें उम्मीदवार के कद के नेताओं के पर कतर दिए जाते हैं। उपाध्याय के भाई को बिजली मीटर सप्लाई घोटाले में लिप्त बताकर चुप करा दिया गया।
वरिष्ठ नेता विजय गोयल और डॉ. हर्षवर्धन के समर्थक भी असंतुष्ट हो गए। उधर, बेदी के साथ ही शाजिया इल्मी, कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी का प्रवेश भी आम कार्यकर्ता हजम नहीं कर पाया। इसी वजह से पार्टी ने बाद में मंत्रियों और सांसदों की भारी-भरकम फौज को प्रचार के लिए उतार दिया। ऐसी भी हालात आए जब सभा प्रबंधन के लिए कार्यकर्ता मौजूद नहीं थे और अचानक मंत्री सभा करने पहुंच गए। पूरे घटनाक्रम से ऐसी स्थिति पैदा हुई कि भाजपा को लेकर नकारात्मकता बढ़ने लगी। हालांकि कांग्रेस की निष्क्रियता भी इस हार की एक प्रमुख वजह है। जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने लापरवाह रवैया अख्तियार किया, उससे यह साफ लगने लगा था कि पार्टी ने मैदान केजरीवाल के लिए खाली छोड़ दिया है। उसके वोट बैंक पर आम आदमी पार्टी का कब्जा हुआ और ये भी बीजेपी के हार का कारण बन गया। केंद्र के फैसलों का फायदा जमीन पर नहीं दिखने से भी भाजपा को क्षति हुई है। दूसरी तरफ, केजरीवाल नकारात्मक प्रचार से बचे रहे और भ्रष्टाचार पर लगाम को मुख्य मुद्दा बनाया। आम आदमी पार्टी ने सभी वर्गों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की और कामयाब भी रही। फर्जी कम्पनियों से फंडिंग के आरोपों का बेहतर जवाब देना भी आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कई चीजें पहली बार हुर्इं। सभी दलों ने जमकर प्रयोग किए और एक से बढ़कर एक अस्त्र चलाए। लेकिन बीजेपी ने जो किया, उससे उसे अच्छे ढंग से जानने वाले भी हतप्रभ रह गए, कार्यकर्ताओं की ताकत से पहचानी जाने वाली इस पार्टी को इसी करतब का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है।

जनतंत्र में जन का दम

आखिरकार, दिल्ली ने दिलदारी दिखा दी। जिन अरविंद केजरीवाल को पहले बहुमत न होने पर  निराशा का सामना करना पड़ा था। कुछ न कर पाने के असमंजस में भगोड़ा जैसे अपमानजनक शब्दों से रूबरू होना पड़ा था, उन केजरीवाल को इस बार दिल्लीवालों ने सिर पर बैठा लिया। जीत का ऐसा तूफान मचा दिया कि नरेंद्र मोदी की लहर गुम-सी हो गई। सवाल यह है कि इतनी जबर्दस्त जीत हुई कैसे, अटकलबाजियां कैसे हवा हो गर्इं? पढ़े-लिखे लोगों की दिल्ली में मीडिया की बनाई मोदी वेब भी नहीं चली और जनतंत्र में जन का दम एक बार फिर सिद्ध हो गया।
केजरीवाल की प्रचंड जीत की वजह क्या हैं?  प्रथम दृष्टया भारतीय जनता पार्टी की नादानियों की इसमें भूमिका है। अपने नेता-कार्यकर्ताओं को किनारे कर किरण बेदी को सीएम प्रोजेक्ट करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही। इससे कार्यकर्ता घर बैठ गए और नेताओं ने सियासत के इस खेल में अपनी ही पार्टी को मात देने की जुगत भिड़ाना शुरू कर दी। जगदीश मुखी जैसे नेताओं की हार सिद्ध करती है कि जनता भाजपा से अति की रुष्ट थी जिसकी वजह लोकसभा चुनावों में किए गए वादों का पूरा न होना भी है। तीन संभावनाएं और भी हैं, पहली ये कि राष्ट्रीय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता और व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद उसकी पार्टी की रणनीति गड़बड़ा गई। उसने दिल्ली चुनाव घोषित कराने में गैरजरूरी देरी की और रहस्यमयी तरीके से डॉक्टर हर्षवर्धन की उम्मीदवारी को दरकिनार कर दिया। उनसे पार्टी को फायदा हो सकता था। मदनलाल खुराना और सुषमा स्वराज के बाद हर्षवर्धन ही दिल्ली में भाजपा का चेहरा माने जाते हैं।  एक तथ्य यह भी है कि विधानसभा चुनावों की घोषणा से कहीं पहले ही केजरीवाल ने अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। विवादास्पद किरण बेदी को स्थानीय नेतृत्व के सिर पर थोपे जाने के फैसले ने मोदी कार्ड को बेअसर कर दिया तो उसमें भी हर्षवर्धन को किनारे किए जाने की भूमिका है। यहां तक कि भाजपा ने 'आप' के असंतुष्टों को अपनी ओर खींचकर सरकार बनाने की कोशिशों के पीछे अपना कीमती समय बर्बाद किया। पार्टी यह सिद्ध करने में नाकाम रही कि दिल्ली में सत्ता मिलती है तो केंद्र में भी सरकार होने से लाभ का प्रतिशत कई गुना हो सकता है, वह यह समझा पाती तो मतदाताओं को राष्ट्रीय राजधानी के आर्थिक हितों का भी ध्यान आता। दूसरी संभावना इस गलती से उपजती है कि लोकसभा चुनाव में अपने ही गढ़ में एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही आम आदमी पार्टी को चुका हुआ मान लिया गया। केजरीवाल को मफलर के प्रयोग पर आड़े हाथों लिया गया, यह मतदाताओं को नागवार गुजरा। आश्चर्य हुआ कि कैसे एक नेता की सरल वेशभूषा पर हो-हल्ला हो रहा है। आम आदमी पार्टी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के दौरान मोदी के दस लाख रुपये कीमत के सूट पहनने से इस मुद्दे को काउंटर किया। लोगों ने उसकी बात को ध्यान से सुना। भाजपा ने पूरे अभियान के दौरान केजरीवाल को भगोड़ा कहकर कम आंकने की कोशिश की लेकिन इस मुद्दे को भी केजरीवाल ने माफी मांग कर हल्का कर दिया। उन्होंने पलायन की वजह समझार्इं और इस गलती का इस्तेमाल भी पार्टी के फायदे के लिए कर लिया।
केजरीवाल ने कहा, हमने कोई भी फैसला करने से पहले दिल्ली के लोगों से सलाह ली थी लेकिन हमारी गलती ये थी कि इस्तीफा देने से पहले हमें आपसे पूछना चाहिए था। 'पांच साल केजरीवाल' के नारे को लेकर चला केजरीवाल की पार्टी का चुनाव अभियान इसलिये भी कामयाबी के मुकाम तक पहुंचा क्योंकि मतदाताओं को वह समझाने में सफल रही कि अल्पकाल की सरकार से अरविंद की योग्यताओं का आकलन दरअसल, उनका अपमान है। आम आदमी पार्टी की जीत का तीसरा प्रमुख कारण कांग्रेस पार्टी का बेमन से किया गया चुनाव प्रचार भी है। पार्टी के उपाध्यक्ष और स्टार प्रचारक राहुल गांधी का आखिरी क्षणों में चुनाव प्रचार के लिए उतरना वोटरों को ये समझाने में नाकाम रहा कि पार्टी रेस में बनी हुई है। शीला दीक्षित सरकार की नाकामियों पर उन्होंने अप्रत्याशित रूप से न माफी मांगी, और न ही सरकार बन जाने की सूरत में अपनी पार्टी की प्राथमिकताएं बताने की जहमत उठाई। स्पष्ट-सा संकेत गया कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस वॉकओवर के मूड में है। इससे उसका पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ सरक गया। कांग्रेस का पतन और मोदी लहर में ठहराव से कहीं ज्यादा, दिल्ली चुनावों की अहमियत आम आदमी पार्टी के दोबारा उभार से है। प्रश्न यह भी है कि मामूली संसाधन, आंतरिक विभाजन और मीडिया के बड़े तबके की बेरुखी के बावजूद पार्टी आखिर ये कैसे कर पाई? 'आप' हकीकत समझ गई थी। मीडिया ने एकतरफा खबरें और सर्वेक्षण देना शुरू किया तो उसने काउंटर करना शुरू कर दिया। लोगों को समझाया कि मीडिया बिका हुआ है और वह वही दिखाएगा जो मोदी चाहेंगे। टीवी चैनलों पर एक-तरह की ही खबरों ने लोगों को मजबूर किया कि वह आम आदमी पार्टी की बात पर भरोसा करें। बहरहाल, इन चुनाव नतीजों ने इस बुनियादी विचार को मजबूत किया कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता उस पार्टी को ही अहमियत देती है जो उसकी बात करे। उसे तत्काल  नतीजे चाहिये, वादों को कसौटी पर तौलने में वह किसी तरह की देरी नहीं करती। केजरीवाल को भी यह समझना होगा कि वादों में देरी से जनता उनसे भी रुष्ट हो सकती है, और इस स्थिति में स्वभाव की वजह से वह खुद भी परेशान हो सकते हैं। पानी-बिजली के मोर्चे पर उन्हें चुनौतियों का सामना करना है, वहीं दिल्ली के कामकाजी लोगों को आकर्षित करने के लिए घर, शिक्षा, वाई-फाई और यहां तक कि नौकरियों का वादा पूरा करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा के लिए यह चुनाव सबक हैं कि वह पुराने कार्यकर्ताओं को किनारे बैठाकर कोई जंग नहीं जीत सकती। दलबदलुओं के दम पर लड़ने में मिली हार का यह सबक उसे जितने ज्यादा दिन याद रहे, उतना ही अच्छा।

Sunday, February 8, 2015

चरमपंथ से जूझता अमेरिका

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने देश के मुस्लिम चरमपंथियों से चर्चा की है। यह अप्रत्याशित है और साथ ही, बयार के विरुद्ध भी। चरमपंथ की बार-बार मुखालफत करने वाले इस देश के राष्ट्रपति यदि ऐसे लोगों से चर्चा करने लगें जिनकी वजह से उनके देश में ज्यादातर विवादों का जन्म होता है तो अचरज स्वाभाविक ही है। असल में, अमेरिका उस चरमपंथ से विचलित है जो संगठित है और नियमों के दायरे में ही विस्तार पा रहा है। स्थितियां दिन-प्रतिदिन सुपर पावर के नियंत्रण से निकल रही हैं।
अमेरिका में सर्वाधिक चर्चित सेंटर फॉर स्टडी के अधिकांश मुस्लिम सदस्य अतिवादी हैं। सेंटर के अभिन्न अंग कामरान बुखारी बरसों तक पश्चिम के कट्टर इस्लामवादी संगठन अल मुहाजिरोन में उत्तरी अमेरिका का प्रवक्ता रहा है। अमेरिका की नजर में यह सर्वाधिक सक्रिय चरमपंथी है, वह खुलकर बोलता है पर कभी वहां के कानून का उल्लंघन नहीं करता। इस संगठन ने 11 सितम्बर की पहली वर्षगांठ को इतिहास का शीर्ष दिवस बताकर उल्लास मनाया था और दूसरी वर्षगांठ को शानदार 19 की संज्ञा दी थी। इसकी वेबसाइट पर भी अमेरिका की कैपिटोल इमारत को ध्वस्त होते चित्रित किया गया है। अल मुहाजिरोन का इंग्लैण्ड प्रमुख उमर बिन बकरी ने कश्मीर, अफगानिस्तान और चेचन्या जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में लड़ने के लिए जिहादियों की भर्ती करना भी स्वीकार कर चुका है। अल मुहाजिरोन का एक सदस्य आत्मघाती हमले के लिए इजरायल गया था। अल मुहाजिरोन का ही एक कार्यकर्ता हानी हंजोर 11 सितम्बर की घटना में अप्रत्यक्ष रूप से लिप्त था। अमेरिकी शान्ति संस्थान का इस सेंटर से गठजोड़ है। इस प्रतिष्ठित संस्थान से जुड़े होने की वजह से अमेरिकी सरकार खुलकर कुछ कर भी नहीं पाती। नकारात्मक पक्ष यह भी है कि इस गठजोड़ से पूर्व किसी ने आवश्यक छानबीन नहीं की और संगठन अपने से पूर्व की सूचनाओं पर निर्भर रहा। इस प्रकार कभी बंद कमरे में रहा अप्रतिष्ठित संगठन सेंटर फॉर स्टडी मुख्यधारा में अपना स्थान बनाने में सफल रहा। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान भी इसके प्रति आंख मूंदकर चलता रहा। अमेरिकी सेना ने जब इस संगठन की जिहाद से जुड़ी आपराधिक गतिविधियों का खुलाला किया, तक उसकी आंख खुल पाई। तब सात इस्लामवादियों को गिरफ्तार किया गया। कट्टरपंथ की काली कहानियां यहीं खत्म नहीं हो रहीं, न्यूयॉर्क जेल में कुछ धार्मिक शाखाओं का गठन किया गया। इस शाखा से वो लोग जुड़े जो आतंकवादी घटनाओं में लिप्तता की पुष्टि के बाद गिरफ्तार हुए थे। यहां यह घोषणा तक हुई कि 11 सितम्बर की घटना बुरे लोगों के लिए ईश्वर का दण्ड थी। बोस्टन के मेयर ने वहां की इस्लामिक सोसायटी को बाजार से 10 प्रतिशत कम कीमत में भूमि उपलब्ध करायी। बाद में पता चला कि सोसायटी का सम्बंध उस जिहादी संगठन से है जिसका अमेरिका में प्रवेश प्रतिबंधित है। उसका कार्यकर्ता संघीय जेल में है और एक इजरायल पर आत्मघाती आक्रमणों की प्रशंसा का आरोपी है।
काउंसिल आॅन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस भी कम विवादित नहीं। उसने बेखौफ होकर एक सर्वेक्षण के निष्कर्ष सार्वजनिक किए हैं, जिसमें कहा गया है कि 67:33 के अनुपात से अमेरिकी मुसलमान सोचते हैं कि अमेरिका अनैतिक है। हालांकि बात में यह उजागर हो गया कि प्रायोजकों ने वास्तविक परिणामों को छिपाने के लिए शोध को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। परंतु इस बौद्धिक छल और राजनीतिक धोखे के लिए सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। संगठन ने इतने संगठित रूप से घृणा का प्रचार किया ताकि धार्मिकस्थलों में आने वाले लोगों तक में अमेरिका की छवि प्रभावित हो जाए। इसके अतिरिक्त बड़ी मात्रा में ऐसे साक्ष्य सामने आए हैं जो संकेत देते हैं कि अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों के विचार अमेरिका की सामान्य जनसंख्या से भिन्न हैं। इसका उदाहरण इस सर्वेक्षण के जरिए संगठन ने खुद दिया है। दुनिया में मुस्लिम आबादी के भविष्य के बारे में अपनी तरह का पहला आकलन करने वाले एनजीओ प्यू रिसर्च सेंटर और जॉन टेंपलटन फाउंडेशन के प्रोजेक्ट डायरेक्टर माइकल ड्यू ने ये कहकर चर्चाओं का नया क्रम शुरू किया है कि अमेरिका में बढ़ता कट्टरपंथ और संघ सरकार की सक्रियता का आपसी सम्बंध है जिसके तहत राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश के चरमपंथियों से बातचीत की। ड्यू के नेतृत्व में जन्म-मृत्यु और विस्थापन दरों के आधार हुई स्टडी 'द फ्यूचर आॅफ ग्लोबल मुस्लिम पॉपुलेशन' यानी वैश्विक मुसलमान आबादी का भविष्य में कहा गया है कि वर्ष 2030 तक अमेरिका में मुसलमानों की जनसंख्या दोगुनी से अधिक होगी, 2010 में अमेरिका में 26 लाख मुसलमान थे जो 2030 में बढ़कर 62 लाख हो जाएंगे। अमेरिका को यह चिंता भी परेशान कर रही है। बहरहाल, ओबामा ने वार्ता का जो दौर शुरू किया है, उसकी सराहना की जानी चाहिये लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया में आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिकी लड़ाई का कोई नकारात्मक संकेत न जाए। अमेरिका ने जिस तरह से उग्रवाद के वित्तीय स्रोतों की घेराबंदी की है, उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्यात संगठनों की रीढ़ टूटी है। ओबामा के वार्तालाप से यह संकेत जा सकता है कि वह चरमपंथ के सामने झुक रहे हैं। ऐसी स्थितियां अमेरिका की लड़ाई को कमजोर कर सकती हैं।

चीन के अंदर की सच्चाइयां...

क्या यह सच है कि दुनिया के ताकतवर देशों में शुमार चीन की अर्थव्यवस्था पानी के महज एक बुलबुले की तरह है जो कभी भी फुस्स हो सकता है? चीन के भीतर आंतरिक असंतोष इतना है कि वह भीतर की खबरें बाहर नहीं आने देता? डराकर रखने और असंतोष दमन के पीछे उसका मकसद  कहीं यह तो नहीं कि बाकी दुनिया के सामने उसकी असली तस्वीर न आ पाए? मीडिया और इंटरनेट सेंसरशिप के पीछे राज तो हैं ही। चीन के बारे में जो भी नकारात्मक खबरें सार्वजनिक हुई हैं, उनका निष्कर्ष है कि चीन में सब-कुछ ठीक नहीं।
वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी याद कीजिए। तब अमेरिका समेत कई देशों में अर्थव्यवस्थाएं चरमरा गई थीं हालांकि भारत अछूता था और हम ने सिद्ध किया था कि हमारी अर्थव्यवस्था तमाम ऐसे जटिल पेंचों में फंसी है कि आसानी से ढेर नहीं हो सकती। हम कुछ ही चीजों पर ही निर्भर अर्थव्यवस्था वाले देश नहीं हैं। कृषि हमारी रीढ़ है और मजबूत सहारा भी है। मंदी के उन दिनों में चीन पर प्रत्यक्ष असर तो कम हुआ था लेकिन वह अमेरिकी बांड्स में गिरावट की खबरों से सकते में आ गया था। लगा था कि बांड्स में उसका बड़ा निवेश औंधे मुंह गिरेगा तो अर्थव्यवस्था को ढेर होने से कोई नहीं बचा पाएगा। समझ-बूझ काम आई और उसने इस संकट से किसी तरह निपटने के बाद वैश्विक स्तर पर निवेश के लिए सर्वाधिक प्रिय अमेरिकी बांड्स के विकल्प तलाश लिये। मंदी टली तो वर्ष 2014 में इसके लौटने की आशंकाएं गहराने लगीं। तमाम भविष्यवाणियां हुर्इं कि 2014 पहले भी भीषण मंदी का वर्ष होगा। इस वर्ष में कोई नकारात्मक संकेत खुलकर सामने नहीं आए परंतु चीन को मुश्किलें हुई हैं। वहां की प्रांतीय सरकारों का ऋण बढ़कर 8000 अरब युआन (लगभग 1,200 अरब डॉलर) हो जाने से यूरोप जैसी मंदी के प्रति आगाह किया जा रहा है। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद का 20 फीसदी है। कहा गया है कि चीन को यूरोपीय तर्ज पर वित्तीय संकट रोकने के लिए स्थानीय सरकारों के ऊपर बढ़ते ऋण को लेकर सतर्क होना चाहिए। चीन का संयुक्त सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 50 फीसदी हो सकता है। इन ऋणों में ट्रेजरी बांड, पालिसी ऋण और स्थानीय सरकार के छिपे ऋण शामिल हैं। यह अनुमान चीन बैंकिंग विनियामक आयोग के आंकड़ों से अधिक है जिनमें कहा गया था कि स्थानीय सरकारों के ऊपर 7660 अरब यूआन (लगभग 1014 अरब डॉलर) का कर्ज हो सकता है। चीन के लिए यह स्थितियां अप्रत्याशित नहीं हैं, इसलिये उसके स्तर से कोई उपाय नहीं किए गए हैं। यहां इस संभावना को बल मिलता है कि चीन अपनी आर्थिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं से न केवल परिचित था अपितु उसने मान लिया था कि इनका फिलहाल इलाज संभव नहीं है। हालांकि ऊपरी तौर पर माना जाता था कि चीन किसी भी संकट को काबू करने के लिए तत्परता से कदम उठाता है।
खाद्यान्न संकट भी उसे चैन नहीं लेने दे रहा। चीन की जनसंख्या सार संसार की जनसंख्या का 20 प्रतिशत है। दरअसल, सार संसार में खेती योग्य जितनी भूमि है, उसका केवल सात प्रतिशत ही चीन में है। इसके बावजूद चीन ने चावल, गेहूं और मक्का की भरपूर पैदावार की और अपने देश की जनता को अनाज की कमी नहीं होने दी। पर स्थितियां इस बार बिगड़ी हैं और विकराल हुई हैं क्योंकि चीनी आबादी दुनिया में सर्वाधिक है। समस्या इस कारण भी है कि मौसम की मार के कारण चावल उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वहां पर पानी की भारी कमी है और भारत की तरह भारत की तरह कृषि अलाभकारी है। इसी वजह से प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में लोग गांव छोड़कर शहरों में पलायन कर रहे हैं। पलायन की यह दर भारत से करीब तीन गुनी है। यह स्थिति तब है जबकि ग्रामीण जनता को गांव में रहकर खेतीबाड़ी के लिए सरकार प्रोत्साहित कर रही है और उन्हें आर्थिक सहायता भी दी जा रही है। परेशानहाल सरकार का प्रयास है कि खाद्यान्न की कमी को देखते हुए कम से कम तीन करोड़ एकड़ जमीन को खेती योग्य बनाकर उनमें प्रतिवर्ष कम से कम तीन फसलें उगाई जाएं अन्यथा चीन की विशालकाय जनता का पेट भरना असंभव होगा। फिलहाल निर्यात प्रतिबंध और विदेशों से अनाज मंगाकर के खाद्यान्न संकट के समाधान का प्रयास किया गया है परन्तु कृषि की हालत जिस प्रकार दिनों-दिन बिगड़ रही है, उसमें यह उपाय ऊंट के मुंह में जीरे की मानिंद सिद्ध होना तय है। संकटों की ही बात करें तो वहां खाद्य तेल का भी संकट है। चीन पहले बेशुमार तेल आयात करता था पर यह उपाय भी नाकाफी हुआ है। हालांकि सबसे ज्यादा समस्या आर्थिक तंत्र को लेकर है। उद्योगों में उत्पादन कम हुआ है और पिछले एक वर्ष में वहां श्रमिक हड़ताल की चेतावनियों में इजाफा हुआ है हालांकि डरा-धमका या समझाकर चीन ने तात्कालिक समाधान तो कर लिया पर इस बात की क्या गारंटी कि यह श्रमिक अब पूरी तन्मयता से काम करने लगे होंगे। अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ चीन को ताश के पत्तों का महल कहते हैं। उनकी नजर में, शेयर बाजार की जर्जर स्थिति, अनियंत्रित वायु -जल प्रदूषण, प्रांतीय सरकारों पर केंद्रीय नियंत्रण में कमी, राष्ट्रीय आय में कमी, भूमि और आवास योजनाओं का पुरसाहाल, बैंकों का बढ़ता घाटा, कर्मचारी हित की पेंशन योजनाओं की अनदेखी,  बढ़ता भ्रष्टाचार और महंगी चिकित्सा सेवाएं उसके लिए कोढ़ में खाज की तरह हैं। चीन हालात समझ रहा है, उसने कृषि बजट में 30 प्रतिशत की वृद्धि की है। अन्य उपाय भी किए जा रहे हैं लेकिन यह उपाय तब तक कारगर सिद्ध हो सकते हैं जब तक स्थितियां नियंत्रण में रहें।

Saturday, January 24, 2015

तेल के मोर्चे पर घेरा कसता अमेरिका

हमेशा हवा से बातें करने वाले कच्चा तेल बाजार की इससे बुरी स्थिति क्या होगी कि कुछ देर की उछाल के बाद उसके फिर पुराने ढर्रे पर आ जाने के आसार पैदा हो जाएं। अमेरिका ने इस बाजार को ऐसा बांधा है कि वह आसानी से तेजी पकड़ ही नहीं सकता। दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातक देश अमेरिका ने न केवल तेल की खपत कम की है बल्कि उत्पादन के साथ ही वैकल्पिक उपायों पर निर्भरता बढ़ाकर तेल उत्पादक देशों के आर्थिक समीकरण बुरी तरह उलटा दिए हैं। शेल गैस उसका सबसे बड़ा हथियार सिद्ध हो रहा है।
सऊदी शाह के इंतकाल की खबरों के बाद अगर वैश्विक परिदृश्य पर सबसे ज्यादा चर्चा किसी विषय पर हो रही है तो वो है कच्चा तेल। दरअसल, तेल की कीमतों ने वैश्विक राजनीति तय करने के लिहाज से हमेशा अहम भूमिका अदा की है। बीते कुछ माह से वैश्विक बाजार में तेल की कीमतों में अप्रत्याशित उथल-पुथल मची हुई है। लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में तेल की राजनीति फिर निर्णायक बन गयी है। तेल की गिरती कीमतों पर विचार करें तो एक बड़ा मुद्दा अमेरिका ही नजर आता है। अमेरिका की शेल गैस क्रांति मुख्यत: इस हलचल के केंद्र में है। यह गैस तकनीक पिछले एक दशक में महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार बन चुकी है। अमेरिका के इशारे पर तेल उत्पादन घटाने का विरोध कर रहा सऊदी अरब भी इससे भयाक्रांत है। अमेरिका को सर्वाधिक तेल निर्यात करने वाला यह देश महसूस करता है कि अमेरिका की कच्चे तेल पर निर्भरता अगर यूं ही घटती रही तो उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है। अमेरिका ने पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम की है, साथ ही शेल गैस ने उसके कुल र्इंधन खर्च के 30 प्रतिशत तक की भरपाई कर दी है। सीधा-सा गणित है, यह प्रतिशत बढ़ने के साथ ही सऊदी अरब की कमाई में जबर्दस्त गिरावट आएगी। यही वजह है, सऊदी शाह अब्दुल्ला के उत्तराधिकारी   शाह सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सऊद ने भी तत्परता से पुरानी नीतियों पर ही चलने का ऐलान कर दिया। साफ संकेत सामने आ गए कि सऊदी अरब तेल उत्पादन की अपनी नीतियों में बिल्कुल परिवर्तन नहीं करने जा रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चूंकि मामले की गंभीरता को समझा था और अपनी भारत यात्रा की अवधि घटा दी थी, इसलिये सऊदी अरब और अमेरिका में घनिष्ठता के संकेत भी जल्द ही सामने आ गए।
लेकिन तेल बाजार में क्रांतिकारी सिद्ध हो रही यह शेल गैस है क्या? तकनीकी तौर पर शेल गैस चट्टानी संरचनाओं से उत्पादित प्राकृतिक गैस है जो बालू और लाइमस्टोन आदि की संरचनाओं से पैदा होती है। शेल दरअसल पेट्रोलियम की चट्टानें हैं, ऐसी चट्टानें जो पेट्रोलियम की स्रोत हैं। इन चट्टानों पर उच्च ताप और दबाव पड़ने से ही एक प्राकृतिक गैस उत्पन्न होती है जो एलपीजी की तुलना में कहीं अधिक स्वच्छ है। पिछले दशक में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेल की कीमतों में गिरावट आने का बड़ा कारण इसी शेल गैस को माना गया है। अमेरिका के ऊर्जा, सूचना और प्रशासन विभाग के अनुसार, 2035 तक अमेरिका की ऊर्जा की खपत की 46 प्रतिशत भाग की पूर्ति शेल गैस से ही होगी। शेल गैस उद्योग के विकास में अमेरिका को करीब ढाई दशक का समय लगा है। अमेरिकी सरकार ने 1980 के दशक में गैस शोध पर लाखों डॉलर खर्च किए थे, जिसके नतीजे अब मिलना शुरू हुए। वहां मिकीगन, टेक्सास, ओकलोहोमा, अलाबामा, कोलेरडो, वेस्ट वर्जीनिया आदि स्थानों में यह गैस प्रचुर मात्रा में है। कुछ वर्ष पहले अमेरिका में ही प्राकृतिक गैस की कीमतें जापान और यूरोप के बराबर थीं, लेकिन शेल गैस तकनीक के चलते आज कीमत यूरोप की तुलना में एक तिहाई है। इस गैस से निकलने वाले तेल की लागत करीब 50 डॉलर प्रति बैरल होती है। मौजूदा स्थितियों की बात करें तो करीब सौ डॉलर में अमेरिका को शुद्ध र्इंधन प्राप्त हो जाता है। विश्व में शेल गैस के भंडार अमेरिका, कनाडा और चीन में सबसे अधिक हैं। अमेरिका में भूगर्भीय और आधारभूत संरचनाएं शेल गैस तकनीक के लिए अनुकूल हैं जो अन्य देशों में नहीं है। इसी के चलते ब्रिटेन, पोलैण्ड, यूरोप, चीन और भारत जैसे स्थानों में अभी तक ये सफल नहीं हो पायी है। एक आंकलन के मुताबिक, शेल गैस क्रांति से अमेरिका की लगभग आधी ऊर्जा जरूरतों की ही पूर्ति होने लगे तो शेल गैस अमेरिका को विश्व पटल में सबसे ऊंचे स्थान में काबिज कर देगी जहां तेल खर्च के बोझ का बहुत कम दबाव होगा। 50 डॉलर प्रति बैरल खर्च को घटाने के लिए अमेरिका ऐड़ी चोटी का जोर लगा रहा है, उसके बाद की स्थिति उसके ज्यादा अनुकूल हो जाएंगी। असल में 50 डॉलर का खर्च ही एक बड़ी मुश्किल है, क्योंकि सऊदी अरब में तेल की लागत 25 डॉलर प्रति बैरल है और आयात करने पर यह तेल काफी सस्ता पड़ता है। अमेरिका जानता है कि विश्व में सत्ता में शीर्ष पर काबिज होने के लिए तेल और डॉलर पर नियंत्रण आवश्यक है। रूस का उदाहरण उसके सामने है जो तेल के अत्यधिक सस्ता हो जाने की वजह से अपनी अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव झेल रहा है। अमेरिका अभी डॉलर के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रहा है। उसकी तेल और गैस के लिए ओपेक देशों पर निर्भरता कम हो जाए, तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका असली मायने में सबसे ताकतवर हो जाएगा, यह ओबामा भी समझते हैं लेकिन वह जल्दबाजी के मूड में नहीं हैं। जल्दबाजी दिखाने पर तेल की कीमतों में उछाल और उसके नतीजतन, अर्थव्यवस्था पर बड़े दबाव का भय है।

Monday, January 19, 2015

भारत-रूस में बढ़ती दूरियां

अमेरिका और भारत में नजदीकियां बढ़ रही हैं तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए, यह निकालें कि दोनों देशों के रिश्ते वहां तक पहुंच गए हैं जहां कभी रूस और भारत थे। तमाम मौकों पर अमेरिका ने भारत को अहमियत दी है, तेल आयात में अपने मित्र देशों से मदद दिलाकर  अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, अमेरिकी राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि हैं। उनके स्वागत में पलक- पांवड़े बिछ रहे हैं। कोई कमी न रह जाए, इसके लिए पूरा तंत्र जोर लगा रहा है। विचारों से दक्षिणपंथी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सत्ता  संभालने के बाद से ही हालांकि ऐसी संभावनाएं जताई जा रही थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस को भी नाराज न करने की कोशिशें की हैं लेकिन हालात ऐसे नहीं कि वह अमेरिका को अपने देश से दूर कर पाएं।
भारत और रूस के बीच सम्बंधों पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि दोनों देशों के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे हैं। आजादी से पहले ही भारतीय नेताओं की रूस से नजदीकी रही है। 1955 में जवाहर लाल नेहरू रूस गए। शीतयुद्ध के दौरान भारत को सामरिक मामलों में रूस का सहयोग मिलाता रहा। फिलहाल, मोदी और रूस के सत्ताधीश ब्लादीमीर पुतिन दोनों के समस्या से जूझ रहे हैं, समस्या यह है कि उनके देशों को लम्बे समय से एक सूत्र में बांधे रखने वाली भू-राजनीतिक परिस्थितियां बदलनी शुरू हो गई हैं। भागीदारी का ढांचा भी पहले जैसी विशेष घनिष्ठता का सूचक नहीं रहा, उसमें विलम्बित ठहराव आ गया है। आजकल रिश्तों का सबसे बड़ा मानक आर्थिक सम्बंध हैं और भारत का रूस के साथ दोतरफा व्यापार बमुश्किल तीस हजार करोड़ रुपये का है जबकि वह चीन के साथ इससे 15 गुना राशि का कारोबार कर रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि दोनों देशों ने मुश्किल दौर में एक-दूसरे की काफी मदद की है, लेकिन एक अरसे से दोनों की एक-दूसरे पर निर्भरता घटी है। व्यापार बढ़ना दोनों देशों के हित में है लेकिन यह बढ़ नहीं पा रहा। समस्या की शुरुआत 1990 के दशक में हुई जब सोवियत संघ का विघटन हुआ। रूस ने भारत को उपयुक्त तवज्जो देना बंद कर दिया क्योंकि मास्को पश्चिमी देशों के साथ तारतम्य बैठाने और बाल्टिक सागर से प्रशांत महासागर तक साझे यूरोपीय संघ के निर्माण में जुटा था। इसी बीच भारत ने हथियारों के लिए अमेरिका, इजरायल और फ्रांस से बड़े सौदे किए जिससे रूस में नाराजगी पैदा होने लगी। दूसरी तरफ रूस और पाकिस्तान के बीच रक्षा संबंध और रूस द्वारा पाकिस्तान को एमआई-35 हेलीकॉप्टर बेचने से भारत में नाराजगी पैदा हुई। भारतीय राजनय के कठोर परिश्रम और राजनीतिक तंत्र के मजबूत आत्मविश्वास की बदौलत कठिन परिस्थितियों से भरे दशक में रूस के साथ रिश्ते किसी तरह बचे रहे। रिश्तों में तब्दीलियों का क्रम तब शुरू हुआ जब रूस की बागडोर पुतिन के हाथों में आ गई। पश्चिमी देशों के साथ उन्होंने जो कार्यशील सम्बंध बनाए, उन्होंने भारत का काम अपेक्षाकृत सरल बना दिया और भारत ने रूस एवं पश्चिमी देशों की ओर एक ही समय दोस्ती का हाथ बढ़ाने की नीति अपना ली। पर स्थितियां अब बिल्कुल विपरीत हैं। रूस से हमारे रिश्ते तेजी से बिगड़ रहे हैं। किसी भी कीमत पर पूर्व की ओर विस्तार की नाटो की महत्वाकांक्षा और पड़ोसी देशों में अपना परम्परागत प्रभाव क्षेत्र बनाए रखने की जिद के चलते रूस विवाद में फंस रहा है, पिछले वर्ष यूक्रेन के मामले में उसकी बदनामी हो चुकी है। अमेरिका भी उससे खफा है।
साझा यूरोपीय संघ की रूसी अवधारणा ढेर हो गई है। यूरोप में शीतयुद्ध समाप्ति पर बनाए गए नियमों की बहाली रूस एवं पश्चिमी दुनिया के लिए मुश्किल हो गयी है। पश्चिमी दुनिया से रूस की दूरी बढ़ जाने से भारतीय विदेश नीति पर नए दबाव क्रियाशील हो गए हैं। यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र को रूस के साथ मिलाने की पुष्टि से भारत ने परहेज किया है, बिल्कुल उसी प्रकार जैसे 1979 में रूस के अफगानिस्तान में सेनाएं भेजने के मुद्दे पर उसने सार्वजनिक आलोचना से इंकार किया था। अब रूस और पश्चिमी देशों के बीच नए शीत युद्ध से भारत भी दुविधाग्रस्त हो गया है। एक ओर तो उसे पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक भागीदारी का मोह है और दूसरी तरफ पुराना दोस्त रूस है। महत्वपूर्ण रक्षा और रणनीतिक व्यापार के अलावा दोनों देशों के बीच कोई प्रभावी व्यापारिक आदान-प्रदान नहीं हो रहा। यही रूस कभी हमें वो शस्त्र उपलब्ध कराता था जो कहीं से नहीं मिलते थे। यहां तक कि परमाणु चालित पनडुब्बी अरिहंत का निर्माण में रूस से ही सहायता मिली थी। चीनी नजदीकी के लिए रूस के प्रयास भी भारत के लिए तकलीफदेह हैं। दोनों देशों में न केवल रणनीतिक घनिष्ठता बढ़ी है बल्कि रूस चीन के साथ रक्षा सम्बंधों को पुख्ता करता जा रहा है। उसे उन तकनीकों का निर्यात कर रहा है जो भारत के लिए आरक्षित हुआ करती थीं।सीधी-सपाट बात यह है कि चीन के समर्थन से मास्को एशिया में सत्ता संतुलन का काम कठिन बना रहा है। पाकिस्तान के प्रति उसका प्रेम बढ़ा है जबकि कभी वह पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की सुरक्षा की गारंटी दिया करता था। स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि यदि मास्को पश्चिम विरोधी रुख जारी रखता है, साथ ही चीन और पाकिस्तान से उसकी नजदीकियां बढ़ती जाती हैं तो भारत किसी सूरत में पुरानी दोस्ती बरकरार रखने में दिलचस्पी नहीं दिखा सकता। ऐसी परिस्थितियों में प्रश्न यह है कि अमेरिका और रूस के बीच में क्या भारत संतुलन बना पाएगा? रूस हो या अमेरिका, कारोबारी रिश्तों के मामले में दोनों ही देश भारत के हित में हैं। भारत और रूस के बीच 2011 में 8.87 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था जो 2013 में बढ़कर 10.01 अरब डॉलर हो गया। वहीं भारत ने 2013 में अमेरिका के साथ 63.7 अरब डॉलर और चीन के साथ 65.47 अरब डॉलर का कारोबार किया। भारत चाहेगा कि दोनों देशों से व्यापार में वृद्धि हो लेकिन अमेरिका ने जिस तरह खुले दिल से भारत के साथ व्यापारिक समझौते किए हैं, विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए कदम उठाए हैं, उससे रिश्तों का पलड़ा अमेरिका की तरफ झुकना तय है। ओबामा की यात्रा से भी भारत उम्मीद लगाए बैठा है। मोदी लाख यत्न करें पर लग तो यही रहा है कि रूस की तलना में हम अमेरिका के ज्यादा करीब आ रहे हैं।

Saturday, January 10, 2015

रास्ता तो नहीं भटक गई पत्रकारिता!

फ्रांस की राजधानी पेरिस में 10 पत्रकारों की हत्या कर दी गई। हमलावर दो भाई थे। यह हत्याकांड है और हत्याकांड होते रहे हैं, होते रहेंगे लेकिन यहां बात कुछ मायनों में अलग है। इसलिये नहीं, कि पत्रकार मरे हैं, इसलिये भी नहीं कि आतंकवाद का शिकार हुए हैं... घटना अलग और खास इसलिये है कि शिकार वो तबका हुआ है जो सोते हुए लोगों को जगाने, सच्चाई और न्याय दिलाने जैसी अहम जिम्मेदारियां निभाने के लिए चर्चित है। भारत जैसे देशों में जो लोकतंत्र का चौथा खंभा माना गया है... विश्वसनीयता को जिसका पर्याय कहते हैं। सब-कुछ सकारात्मक है तो इसके 10 सिपाही क्यों मार डाले गए? डराता हुआ सवाल पैदा होता है कि कहीं मीडिया भी रास्ता तो नहीं भटक गया।
आतंकवाद पर लाखों बातें हुर्इं, होती रहती हैं। इसके कारण-निवारण पर भी चर्चाएं आम हैं। धार्मिक कट्टरपंथ को आतंकवाद का प्रश्रय मिलता है, यह बात भी खूब सुनी है लेकिन इनमें मीडिया महज मंच है, तो कहीं... मीडिया  पक्ष तो नहीं बन रहा। दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है। हम महाभारत के संजय की तरह आंखों देखा हाल सुनाने के बजाए खुद पक्षकार बनने लगे हैं। हम न्यूज में व्यूज डालने की इंतिहा कर रहे हैं, हम अपना फर्ज निभाने के बजाए एक पक्ष की तरफ न्याय का पलड़ा झुका रहे हैं। हिंदुस्तान के ही चंद चर्चित प्रकरणों को ही याद कीजिए, बटला हाउस प्रकरण बार-बार उछाला गया। मीडिया का एक तबका यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि इस घटना का ताल्लुक दो युवकों से था। आरक्षण के लिए आन्दोलन चलाएं तो यह सिद्ध करने का प्रयास न करें कि डॉ. अम्बेडकर ने जाति विशेष के लिए इस सुविधा का प्रावधान किया और दूसरे धर्मों के पिछड़ों को भूल गए। सच्चर कमेटी की बात करें तो मुस्लिमों की बदहाली का जिक्र करें, न कि आरक्षण जैसी सरकारी सुविधाओं से सम्पन्न हो चुकी जातियों के बारे में बोलने से बचें। लेकिन इसके उलट, हम आपस में कटुता घोल रहे हैं। हम क्यों नहीं समझते कि सच्चाई हजम कर पाना मुश्किल होता है और वह भी तब, जबकि सच्चाई पर अमल होने की स्थिति में सुविधाएं छिन जाने की आशंकाएं हों। आज मुस्लिम समुदाय की आंतरिक स्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं। उसका बड़ा हिस्सा गरीबी-भुखमरी का शिकार है। ऐसी स्थितियों में धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि पिछड़ेपन के आधार पर उसे आरक्षण मिलना चाहिए। हम उस हेडली की बार-बार बात करते हैं, 26/11 का प्रमुख अपराधीे मानकर जिसके जिसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। आतंकवाद की हर घटना में उस पुरानी घटना का जिक्र करना उचित नहीं। न हेडली के मामले को ज्यादा तूल दिया जाए, न इसी मामले में चुपचाप अमेरिका ले जाई गइ अनिता उदया की चर्चा हो। फहीम अंसारी और सबाहुद्दीन अहमद को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया तो हम पत्रकार खुद विवेचना करने लगे। जरूरत नहीं कि कलम नए सिरे से उन्हें न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करे, बाइज्जत बरी होने की घोषणा से बड़ा न्याय और क्या हो सकता है? हम न्यायविद् तो नहीं, फिर जबर्दस्ती क्यों जज बनने की कोशिश करते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं कि बेगुनाह सिद्ध हुए लोगों ने जेल की सलाखों के पीछे दिन कैसे गुजारे होंगे? उनके परिवार ने क्या-क्या नहीं झेला होगा? परिवार को आतंकवाद के कलंक के साथ सिर झुकाकर अपराधियों से भी कहीं अधिक पीड़ादायक जीवन व्यतीत करने पर मजबूर होना पड़ता है, यह कम कष्टदायक नहीं है।
इसी तरह का मसला कश्मीर का है। बेशक, यह दो देशों के बीच का मामला होने की वजह से जटिल है लेकिन जब तक हम और पाकिस्तान कहते रहेंगे कि कश्मीर हमारा है... समस्या का समाधान नहीं होगा। पाकिस्तान कुछ भी करे, हमें तो अपने लोगों के साथ जुड़ना है इसलिये जिस दिन हम कहने लगेंगे कि कश्मीरी हमारे हैं तो समस्या हल हो जाएगी। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में जिस तरह से लोगों ने  बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की, उससे यह सिद्ध हो ही गया है कि घाटी के लोग हमारे साथ रहना चाहते हैं। यह जनमत संग्रह की मांग करने वालों को करारा जवाब है। शाह फैसल को याद रखिए, वही शाह फैसल जो उग्रवाद के खिलाफ कामयाबी का प्रतीक बन सकता है। फैसल केवल एक मुसलमान या कश्मीरी नहीं, वह व्यक्ति है जिसने आतंकवाद के विरुद्ध सिर्फ शब्दबाण नहीं चलाए बल्कि आतंकवाद और आतंकी हालात को सहन करके दुनिया को संदेश दिया है कि आतंकवाद के विरुद्ध सफल अभियान का तरीका यह है। सिविल सर्विसेज में चुना गया शाह फैसल इतिहास बन गया है। आतंकवादी हमले में अपने पिता को खो देने के बावजूद उसने यह इबारत लिखी। पिता की हत्या महज संयोग नहीं थी, बल्कि आतंकियों को शरण न देने के फैसले में उनकी जान गई थी। पेरिस की घटना ने सिद्ध किया है कि आतंकवाद सारी दुनिया का सबसे बड़ा मसला है कदम- क़दम पर जिसमें मानवता का लहू बहा है, जिसने  पेशावर में तमाम बच्चों की जान ली है, नाइजीरिया में अब तक के सबसे बड़े हमले में शहर और कई गांव फूंक डाले हैं और करीब दो हजार लोगों को मार डाला है। इसी आतंकवाद ने एक धर्म को जैसे खलनायक सिद्ध कर दिया है, जीवन जीने का ढंग सिखाने वाले धर्म को ऐसा बना दिया है जैसे वह जान लेने की शिक्षा देता हो। यह सभी पक्षों के लिए सावधानी से संभालने के योग्य मामला है, धर्म के अनुयायियों की संख्या काफी है और कई देशों में यह बहुसंख्यक हैं। ऐसी स्थिति में हमें कमियों के साथ खूबियां भी उजागर करनी ही चाहिये। एकतरफा खबर लिखने को तो वैसे भी पत्रकारिता के मूल नियमों के विपरीत माना जाता है। खबर तभी बैलेंस होती है जबकि दूसरे पक्ष का भी जिक्र हो। शराब पीकर गिरे व्यक्ति के बारे में खबर लिखने पर भी यह पूछना होता है कि वो शराब पीकर ही गिरा है या गिरे होने की कोई और वजह है? यह सावधानी समय की मांग है और हमारा पेशागत दायित्व भी।

Monday, January 5, 2015

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा...

जीवन क्या  तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ-सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है,
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा,
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा।
ब्रज में बहुत-कुछ है, कान्हा की नगरी मथुरा है, शाहजहां का बनाया ताजमहल है और... गोपालदास नीरज हैं। नीरज जैसा न कोई हुआ और न ही शायद होगा। नीरज क्या हैं, उनके लाखों मुरीदों से पूछिए, उनके एक-एक शब्द पर वाह-वाह की झड़ियां लगाने वालों से पूछिए। कविता के मंच पर अगर नीरज हैं तो सारा वजन उधर ही है। वो आगरे में हैं, यह गौरव इस शहर का है क्योंकि देश-दुनिया में नीरज जैसे बिरले ही हुआ करते हैं।
नीरज का जन्म चार जनवरी 1925 को इटावा के पुरावली गांव में एक साधारण कायस्थ-परिवार में हुआ था। छह साल के होंगे, जब पिता बाबू ब्रजकिशोर स्वर्ग सिधार गए। नीरज ने जो कुछ हासिल किया, वह खुद का कमाया हुआ है। उनका कवि जीवन जीवन मई 1942 से विधिवत प्रारम्भ होता है जब वह हाईस्कूल में पढ़ते थे। यह युवक गोपालदास सक्सेना कवि होकर गोपालदास सक्सेना ह्यनीरजह्ण हो गया। पहले-पहल नीरज को हिन्दी के प्रख्यात लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन का निशा नियंत्रण कहीं से पढ़ने को मिल गया। उससे वह बहुत प्रभावित हुए था। इस सम्बन्ध में नीरज ने स्वयं लिखा है- मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हां, इतना जरूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में निशा निमंत्रण पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई।
नीरज जी उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं, उन्हें राज्य सरकार ने कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया है। बातचीत का क्रम चला तो पता चला कि वह बच्चन जी से भीतर तक प्रभावित हुए। बकौल नीरज, इसके कई कारण थे, पहला तो यही कि बच्चन जी की तरह मुझे भी जिन्दगी से बहुत लड़ना पड़ा है, अब भी लड़ रहा हूं और शायद भविष्य में भी लड़ता ही रहूं। बच्चन जी की महत्ता उन्होंने 1944 में प्रकाशित अपनी पहली काव्य-कृति संघर्ष में भी लिखीं। संघर्ष में नीरज ने बच्चन जी के प्रभाव को ही स्वीकार नहीं किया, प्रत्युत यह पुस्तक भी उन्हें समर्पित की। नीरज हर जगह सम्मानित हुए। तीन बार सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित हुए। पद्मश्री, पद्म भूषण, यश भारती सम्मान मिला। लेकिन साहित्य के पुरस्कारों के प्रति उनकी नाराजगी हमेशा रही। हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों अज्ञेय, धर्मवीर भारती आदि को भारत-भारती सम्मान मिला है, मेरी इच्छा थी कि हम लोग जो हिन्दी कविता को लोकप्रिय बना रहे हैं, उनको भी मिले। ऐसे लोगों को लगातार उपेक्षित किया गया। हमें संघर्ष करना पड़ा। इसकी क्या जरूरत थी? हिन्दी सेवा के लिए हमारे लंबे संघर्ष को क्या लोग नहीं जानते हैं? फिर संस्तुति कराने की क्या जरूरत थी। संस्तुति के बाद दिया गया, वह पुरस्कार कहां रहा। हमें पहला पुरस्कार उर्दू के अनीस सिद्दीकी ने विश्व उर्दू सम्मेलन में दिया था। आठ लोगों में, एक पुरस्कार मुझे दिया गया था। लोगों ने कहा कि हिन्दी वाले को पुरस्कार क्यों दिया? अनीस ने कहा, हिन्दी-उर्दू हम नहीं जानते। हमने तो गजल सुनी है। वहां सुनने पर पुरस्कार दिया गया था, संस्तुति के बाद नहीं। जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो, उससे संस्तुति नहीं करानी चाहिए हमने देश-विदेश में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया है।
सवाल हुआ कि मंचीय और मुख्य धारा की कविता में क्या अंतर है। लोकप्रियता के लिहाज से मंचीय कविता श्रेष्ठ मानी जाती है। फिर भी आलोचक इसे उतना महत्व क्यों नही देते? उन्होंने जवाब दिया, 1950 से लेकर के 75 तक एक मूवमेंट चला। इसके तहत कवियों में किसी गीतकार का उल्लेख नहीं किया गया जबकि सन 62 तक हमारी और गोपालसिंह नेपाली की पहचान गीतकार के रूप में बन चुकी थी। हम लोगों को गवैया कवि कह दिया गया। हम लोगों की लोकप्रियता इतनी थी कि हमारे गीत-कविताएं छपकर हाथोंहाथ बिक जाया करते थे जबकि तथाकथित मुख्यधारा के कवि अपनी रचनाओं को छपवाया करते थे। फिल्मों में रहा। फिल्मी गीतों मे जो भाषा मैंने लिखकर दे दी है, वैसी आज तक कोई नहीं लिख पाया। सांसों की सरगम, सरगम की वीणा, शब्दों की गीतांजलि तू...  इतना मदिर, इतना मधुर.... वगैरह-वगैरह। 1973 में मैं बम्बई छोड़ आया। आज भी मेरे गीत बज रहे हैं। मैं मानता हूं कि आज कविता बदल रही है। नये बिम्ब हैं। लोकमन एक दिन में नहीं बनता। इन संस्कारों से कविता बनती है। एक कविता की अवधारणा यह भी है कि एक नया बिम्ब प्रस्तुत कर देना, एक किताब से ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन बिम्ब का विधान भी आना चाहिए।

कच्चे तेल की संजीवनी

कच्चा तेल देश की अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। मूल्य घटाने से सरकार का इंकार सोने पर सुहागा सिद्ध हुआ है और इससे सरकारी खजाने में सीधे-सीधे छह हजार करोड़ की बड़ी राशि आने का रास्ता साफ हुआ है। यह स्थिति जितने दिन रहे, भारत के लिए उतना ही अच्छा। लेकिन इसकी वजह क्या हैं, दाम कब तक गिरेंगे? भारत को कब तक लाभ होगा? क्यों गिर रहे हैं दाम? 
कच्चा तेल पांच साल के निम्नतर स्तर पर है। मई 2009 में इसके जो भाव थे, आज भी वही हैं। एक नजर में देखें तो इससे घरेलू मोर्चे पर कई तरह की राहत मिल रही है। महंगाई घट रही है। आयात बिल में कमी आ रही है और सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा। पेंट, प्लास्टिक, फर्टिलाइजर और शिपिंग कंपनियां फायदा उठा रही हैं। भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। कोयला आयात में भी वह तीसरे स्थान पर है जबकि प्राकृतिक गैस का पांचवां और ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा आयातक देश है इसलिए तेल की कीमतों में कमी से सर्वाधिक लाभान्वित देशों में भारत भी प्रमुख है। हमारा शुद्ध ऊर्जा आयात, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के छह फीसदी से भी अधिक है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी तेल की ही है। 2014 की दूसरी छमाही के दौरान ऊर्जा कीमतों में करीब 40 फीसदी की कटौती से पूरे वित्त वर्ष के शुद्ध आयात बिल में सवा तीन लाख करोड़ रुपये की कमी आएगी। मूल्यों में नरमी से वित्तीय वर्ष-2015 में तेल कंपनियों की अंडर रिकवरी 40 प्रतिशत घटने का अनुमान है। नियंत्रित मूल्य और बाजार कीमत के बीच के फासले को अंडर-रिकवरी या राजस्व क्षति कहा जाता है और सरकार विभिन्न माध्यमों से कंपनियों को इसकी भरपाई करती है। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से इन कंपनियों को बड़ा फायदा होगा। इसके साथ ही भारत जैसे देशों के लिए कच्चे तेल में आगे आने वाले उछाल से निपटने की तैयारी करने का सुनहरा मौका है। माना जा रहा है कि एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, खासकर चीन और जापान, का आर्थिक विकास कुछ थम रहा है इसीलिए वहां तेल की डिमांड कम हुई है और इसी से तेल के दाम कम हो रहे हैं। भारत के लिए तो अभी सब-कुछ अच्छा दिख रहा है। महंगाई कम होने के साथ ही बचा पैसा बाजार में आने लगा है। दाम गिरना अंतर्राष्ट्रीय मंदी का लक्षण है तो इसका असर आज नहीं तो कल, भारत पर भी पड़ना है। कच्चे तेल का उत्पादन ग्राफ देखें तो इसमें ओपेक देशों की 40 फीसदी, उत्तरी अमेरिका की 17, रूस की 13, चीन और दक्षिण अमेरिका की पांच-पांच और अन्य देशों की 20 फीसदी हिस्सेदारी है। एक बड़ी वजह यह भी है कि अमेरिका में जिस हिसाब से शेल तेल और गैस का उत्पादन बढ़ा है, उससे उसकी मध्य-पूर्वी देशों पर निर्भरता खत्म हो रही है। आने वाले समय में अमेरिका इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हो सकता है।
भारत अपनी जरूरत का 20.2 फीसदी सऊदी अरब से, 13 फीसदी इराक से, 10.8 फीसदी कुवैत, 8.6 फीसदी नाइजीरिया, 7.4 फीसदी संयुक्त अरब अमीरात, 5.8 फीसदी ईरान और 34.2 फीसदी कच्चा तेल अन्य देशों से हासिल करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होते हैं, जिसमें ओपेक की बड़ी भूमिका होती है। चालू वर्ष में भी कच्चे तेल की कीमत 80-85 डॉलर प्रति बैरल तक रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। हालांकि भारत चाहेगा कि विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम कभी बहुत न बढ़ें क्योंकि हम बड़े स्तर पर र्इंधन का आयात करते हैं और सरकार की इच्छा है आॅयल बैंक बनाने की है जिससे महंगाई के दिनों में कुछ दिन तक काम चल सके। गत एक दशक में तेल की कीमतें आसमान पर थीं तो सरकार को बेलगाम महंगाई को काबू में करने के लिए कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय कर कम रखने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसीलिये मौका हाथ आते ही उसने पेट्रोल और डीजल पर दो-दो रुपये उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। आज की स्थिति िमें भी पेट्रोल-डीजल उन वस्तुओं में शामिल हैं, जिन पर देश में सबसे कम टैक्स है। कच्चे तेल पर कोई सीमा शुल्क नहीं है और बिना ब्रांड वाले पेट्रोल-डीजल पर प्रति लीटर तीन रुपये से भी कम उत्पाद शुल्क है। राज्य सरकारें जरूर इस पर शुल्क लगाती हैं। सीमा शुल्क वृद्धि से मिले राजस्व से केरोसिन और रसोई गैस सब्सिडी की क्षतिपूर्ति हो जाएगी। सब्सिडी में कमी और राजस्व में बढ़ोतरी के मेल से राजकोषीय घाटे में एक फीसदी की कटौती की जा सकती है। ड्यूटी में बढ़ोत्तरी को तेल की गिरती कीमतों के साथ समायोजित किया जा सकता है, जिससे मुद्रास्फीति के फिर सिर उठाने का खतरा नहीं रह जाएगा। कुछ खतरे भी दस्तक दे रहे हैं, तेल उत्पादक देशों में भारी उथल-पुथल के संकेत मिल रहे हैं, मसलन वेनेजुएला और रूस में। यह दोनों देश तेल की आमदनी पर दूसरों से ज्यादा निर्भर हैं, जहां तक रूस का सवाल है तो पश्चिमी प्रतिबंधों और तेल की कीमतों के गिरने के गंभीर नतीजे सामने आए हैं। राष्ट्रीय मुद्राओं की दर तेजी से गिरी है, पूंजी का पलायन हो रहा है और निवेशकों ने देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा खो दिया है। यह समझना कि पुतिन के साम्राज्य के दिवालिया होने का पश्चिम पर असर नहीं होगा, भूल है। रूस दिवालिया हो जाता है तो समूची दुनिया के अर्थजगत पर बुरा असर पड़ना तय है। भारत चूंकि रूस का करीबी दोस्त रहा है, इसलिये उसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। लेकिन फिलहाल तो कोई संकट नजर नहीं आ रहा। ऐसी स्थितियों में भारत जैसे देश खुशियां मना सकते हैं।