प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा से चीन बौखलाया हुआ है। मोदी ने चीन-भारत सीमा के पूर्वी हिस्से में एक कथित विवादित क्षेत्र की यात्रा की थी। वह अरुणाचल की स्थापना से जुड़े आयोजनों में शामिल भी हुए। चीन कहता है कि भारत ने 1987 में गैरकानूनी और एकपक्षीय तरीके से घोषणा की थी। अरुणाचल भारत की दुखती रग है, चीन ने वहां उसकी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा रखी है।
सीमा पर 1962 के बाद भारत ने किसी तरह का निर्माण न करके चीन को खुश रखने की कोशिश की, पर अब भारत अपनी अंतिम चौकी तक संपर्क रखने के लिए तंत्र विकसित किया जा रहा है। निष्क्रिय हवाई पट्टियों को भी दुरुस्त किया जा रहा है। चीनी सरकार ने सीमा तक अपनी पहुंच बनाने के लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने पर जोर दिया है, भारत इस मोर्चे पर निष्क्रिय ही था हालांकि मोदी सरकार बनने पर उसके काम में तेजी आई है। सीमा सड़क संगठन के मुताबिक, वह 2015 के अंत तक चीन सीमा के आसपास कुल 4200 किमी लम्बी 68 सड़कें तैयार कर लेगा। दरअसल, दोनों देशों के साथ दिक्कत यह है कि वे लम्बे समय बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं कर पाए हैं, कोई काल्पनिक विभाजन रेखा तक नहीं है। नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई थी, चीनी राष्ट्रपति ने भारत यात्रा की और मोदी वहां जाने के लिए तैयार हैं। दोनों देशों की विदेश नीति में जो नए मोड़ आए हैं, उसके तहत भारत ने जहां दक्षिण एशिया के देशों से सम्बन्धों में कटुता दूर दी, वहीं चीन ने फिलीपींस-रूस जैसे देशों से अपनी जमीनी विवाद सुलझा लिये। भारत और चीन के बीच 1981 से 1987 तक आठ दौर की वार्ताएं हुर्इं। 1988 से 2002 तक सीमा विशेषज्ञों के बीच बातचीत हुई और 2003 में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के मध्य। तब से लेकर अब तक दोनों सलाहकार 15 बार मिल चुके हैं, पर सीमा विवाद जस का तस है। चीन को पता है कि अब स्थितियां 1962 जैसी नहीं रह गई हैं और भारत भी सामरिक दृष्टि से मजबूत है। बंजर जमीन हड़पने के लिए वह जंग नहीं लड़ना चाहता बल्कि उसकी इच्छा इस अपना प्रभुत्व दिखाने की है। वह जानता है कि भारत के साथ उसका व्यापार इस साल 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और वह इतना बेवकूफ नहीं है कि लड़ाई करके अपने व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करे। वहां की सरकार भारत को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, इसलिए वह एशिया के देशों के बीच में भारत की छवि को धूमिल करने में लगी है। पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने के लिए चीन हमेशा से जी-जान से जुटा रहता है, पाकिस्तान को परमाणु तकनीक और मिसाइलें देता है ताकि पाकिस्तान भी भारत को आंखें दिखाता रहे। इसके साथ ही, चीन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह भी बना लिया है।
इसी तरह नेपाल में भी उसका जबर्दस्त दखल है जहां वह माओवादियों का समर्थन करता है। भारत से नेपाल के बरसों पुराने सांस्कृतिक रिश्ते भी काम नहीं आ रहे। म्यांमार सरकार भी चीन के दबाव में भारत को गैस देने से मुकर रही है। बांग्लादेश भी चीनी असर के चलते ही अपनी सीमा से तेल पाइपलाइन नहीं आने देना चाहता। श्रीलंका को पक्ष में करने के लिए चीन ने उस लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में मदद की, जो भारत का समर्थक माना जाता था। साथ ही बंदरगाह बनाए और आधुनिक हथियार एवं तकनीक दीं। लड़ाई के बेहाल अफगानिस्तान को भारत ने आर्थिक मदद की तो चीन भी पीछे नहीं रहा। मदद करने के नाम पर उसने वहां ताम्बे की खदानें खरीद लीं। भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का वह धुरविरोधी है, वहीं परमाणु आपूर्ति क्लब में भी हमारे खिलाफ आग उगलता रहता है। जब से उसे पता है कि भारत अमेरिका के नजदीक हो रहा है, तो वह कूटनीतिक चालें चलकर परेशान कर रहा है। उसे जापान से भारत की निकटता रास नहीं आ पा रही। जापान से उसकी तनातनी चलती रहती है, दोनों देश एक-दूसरे पर प्रभुत्व दिखाने का प्रयास करते रहते हैं। परमाणु हमले के बाद जापान चीन को चुनौती देने में सक्षम नहीं था, पर अब वह पूरी तरह से चीन की नीतियों को समझ चुका है और जानता है कि चीन जापान को कभी आगे बढ़ने नहीं देगा। बहरहाल, चीन इस वक्त भारत से दोस्ती की बात कर रहा है। जबर्दस्त प्रयास हो रहे हैं। लेकिन भारत को उसकी कूटनीतियों के मद्देनजर मालदीव, भूटान, रूस और जापान के साथ अपने सम्बन्धों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये। भारत की 15,106.70 किमी लम्बी जमीनी सीमा है, जो 17 राज्यों से गुजरती है। 7516.60 किमी की तटरेखा राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को छूती है। भारत के 1197 आईलैंड्स की 2094 किमी अतिरिक्त तटरेखा है। बेशक, इन सीमाओं की सुरक्षा देश के लिए बड़ी चुनौती है। सरकार को कुछ ठोस इंतजाम करने चाहिए, ताकि देशवासियों को लगे कि वे पूरी तरह महफूज हैं। चीन पर उसे आंख बंद करके विश्वास करने से बचना होगा। मोदी ने जिस तरह वार्ता के साथ अपनी ढांचागत सुविधाएं मजबूत करने के प्रयास किए हैं, उन्हें जारी रखना भारत के हित में है। भारत को कोई गलती न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर सकती है बल्कि सुरक्षा को चुनौती भी सिद्ध हो सकती है।
सीमा पर 1962 के बाद भारत ने किसी तरह का निर्माण न करके चीन को खुश रखने की कोशिश की, पर अब भारत अपनी अंतिम चौकी तक संपर्क रखने के लिए तंत्र विकसित किया जा रहा है। निष्क्रिय हवाई पट्टियों को भी दुरुस्त किया जा रहा है। चीनी सरकार ने सीमा तक अपनी पहुंच बनाने के लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने पर जोर दिया है, भारत इस मोर्चे पर निष्क्रिय ही था हालांकि मोदी सरकार बनने पर उसके काम में तेजी आई है। सीमा सड़क संगठन के मुताबिक, वह 2015 के अंत तक चीन सीमा के आसपास कुल 4200 किमी लम्बी 68 सड़कें तैयार कर लेगा। दरअसल, दोनों देशों के साथ दिक्कत यह है कि वे लम्बे समय बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं कर पाए हैं, कोई काल्पनिक विभाजन रेखा तक नहीं है। नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई थी, चीनी राष्ट्रपति ने भारत यात्रा की और मोदी वहां जाने के लिए तैयार हैं। दोनों देशों की विदेश नीति में जो नए मोड़ आए हैं, उसके तहत भारत ने जहां दक्षिण एशिया के देशों से सम्बन्धों में कटुता दूर दी, वहीं चीन ने फिलीपींस-रूस जैसे देशों से अपनी जमीनी विवाद सुलझा लिये। भारत और चीन के बीच 1981 से 1987 तक आठ दौर की वार्ताएं हुर्इं। 1988 से 2002 तक सीमा विशेषज्ञों के बीच बातचीत हुई और 2003 में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के मध्य। तब से लेकर अब तक दोनों सलाहकार 15 बार मिल चुके हैं, पर सीमा विवाद जस का तस है। चीन को पता है कि अब स्थितियां 1962 जैसी नहीं रह गई हैं और भारत भी सामरिक दृष्टि से मजबूत है। बंजर जमीन हड़पने के लिए वह जंग नहीं लड़ना चाहता बल्कि उसकी इच्छा इस अपना प्रभुत्व दिखाने की है। वह जानता है कि भारत के साथ उसका व्यापार इस साल 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और वह इतना बेवकूफ नहीं है कि लड़ाई करके अपने व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करे। वहां की सरकार भारत को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, इसलिए वह एशिया के देशों के बीच में भारत की छवि को धूमिल करने में लगी है। पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने के लिए चीन हमेशा से जी-जान से जुटा रहता है, पाकिस्तान को परमाणु तकनीक और मिसाइलें देता है ताकि पाकिस्तान भी भारत को आंखें दिखाता रहे। इसके साथ ही, चीन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह भी बना लिया है।
इसी तरह नेपाल में भी उसका जबर्दस्त दखल है जहां वह माओवादियों का समर्थन करता है। भारत से नेपाल के बरसों पुराने सांस्कृतिक रिश्ते भी काम नहीं आ रहे। म्यांमार सरकार भी चीन के दबाव में भारत को गैस देने से मुकर रही है। बांग्लादेश भी चीनी असर के चलते ही अपनी सीमा से तेल पाइपलाइन नहीं आने देना चाहता। श्रीलंका को पक्ष में करने के लिए चीन ने उस लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में मदद की, जो भारत का समर्थक माना जाता था। साथ ही बंदरगाह बनाए और आधुनिक हथियार एवं तकनीक दीं। लड़ाई के बेहाल अफगानिस्तान को भारत ने आर्थिक मदद की तो चीन भी पीछे नहीं रहा। मदद करने के नाम पर उसने वहां ताम्बे की खदानें खरीद लीं। भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का वह धुरविरोधी है, वहीं परमाणु आपूर्ति क्लब में भी हमारे खिलाफ आग उगलता रहता है। जब से उसे पता है कि भारत अमेरिका के नजदीक हो रहा है, तो वह कूटनीतिक चालें चलकर परेशान कर रहा है। उसे जापान से भारत की निकटता रास नहीं आ पा रही। जापान से उसकी तनातनी चलती रहती है, दोनों देश एक-दूसरे पर प्रभुत्व दिखाने का प्रयास करते रहते हैं। परमाणु हमले के बाद जापान चीन को चुनौती देने में सक्षम नहीं था, पर अब वह पूरी तरह से चीन की नीतियों को समझ चुका है और जानता है कि चीन जापान को कभी आगे बढ़ने नहीं देगा। बहरहाल, चीन इस वक्त भारत से दोस्ती की बात कर रहा है। जबर्दस्त प्रयास हो रहे हैं। लेकिन भारत को उसकी कूटनीतियों के मद्देनजर मालदीव, भूटान, रूस और जापान के साथ अपने सम्बन्धों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये। भारत की 15,106.70 किमी लम्बी जमीनी सीमा है, जो 17 राज्यों से गुजरती है। 7516.60 किमी की तटरेखा राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को छूती है। भारत के 1197 आईलैंड्स की 2094 किमी अतिरिक्त तटरेखा है। बेशक, इन सीमाओं की सुरक्षा देश के लिए बड़ी चुनौती है। सरकार को कुछ ठोस इंतजाम करने चाहिए, ताकि देशवासियों को लगे कि वे पूरी तरह महफूज हैं। चीन पर उसे आंख बंद करके विश्वास करने से बचना होगा। मोदी ने जिस तरह वार्ता के साथ अपनी ढांचागत सुविधाएं मजबूत करने के प्रयास किए हैं, उन्हें जारी रखना भारत के हित में है। भारत को कोई गलती न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर सकती है बल्कि सुरक्षा को चुनौती भी सिद्ध हो सकती है।
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