क्या यह सच है कि दुनिया के ताकतवर देशों में शुमार चीन की अर्थव्यवस्था पानी के महज एक बुलबुले की तरह है जो कभी भी फुस्स हो सकता है? चीन के भीतर आंतरिक असंतोष इतना है कि वह भीतर की खबरें बाहर नहीं आने देता? डराकर रखने और असंतोष दमन के पीछे उसका मकसद कहीं यह तो नहीं कि बाकी दुनिया के सामने उसकी असली तस्वीर न आ पाए? मीडिया और इंटरनेट सेंसरशिप के पीछे राज तो हैं ही। चीन के बारे में जो भी नकारात्मक खबरें सार्वजनिक हुई हैं, उनका निष्कर्ष है कि चीन में सब-कुछ ठीक नहीं।
वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी याद कीजिए। तब अमेरिका समेत कई देशों में अर्थव्यवस्थाएं चरमरा गई थीं हालांकि भारत अछूता था और हम ने सिद्ध किया था कि हमारी अर्थव्यवस्था तमाम ऐसे जटिल पेंचों में फंसी है कि आसानी से ढेर नहीं हो सकती। हम कुछ ही चीजों पर ही निर्भर अर्थव्यवस्था वाले देश नहीं हैं। कृषि हमारी रीढ़ है और मजबूत सहारा भी है। मंदी के उन दिनों में चीन पर प्रत्यक्ष असर तो कम हुआ था लेकिन वह अमेरिकी बांड्स में गिरावट की खबरों से सकते में आ गया था। लगा था कि बांड्स में उसका बड़ा निवेश औंधे मुंह गिरेगा तो अर्थव्यवस्था को ढेर होने से कोई नहीं बचा पाएगा। समझ-बूझ काम आई और उसने इस संकट से किसी तरह निपटने के बाद वैश्विक स्तर पर निवेश के लिए सर्वाधिक प्रिय अमेरिकी बांड्स के विकल्प तलाश लिये। मंदी टली तो वर्ष 2014 में इसके लौटने की आशंकाएं गहराने लगीं। तमाम भविष्यवाणियां हुर्इं कि 2014 पहले भी भीषण मंदी का वर्ष होगा। इस वर्ष में कोई नकारात्मक संकेत खुलकर सामने नहीं आए परंतु चीन को मुश्किलें हुई हैं। वहां की प्रांतीय सरकारों का ऋण बढ़कर 8000 अरब युआन (लगभग 1,200 अरब डॉलर) हो जाने से यूरोप जैसी मंदी के प्रति आगाह किया जा रहा है। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद का 20 फीसदी है। कहा गया है कि चीन को यूरोपीय तर्ज पर वित्तीय संकट रोकने के लिए स्थानीय सरकारों के ऊपर बढ़ते ऋण को लेकर सतर्क होना चाहिए। चीन का संयुक्त सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 50 फीसदी हो सकता है। इन ऋणों में ट्रेजरी बांड, पालिसी ऋण और स्थानीय सरकार के छिपे ऋण शामिल हैं। यह अनुमान चीन बैंकिंग विनियामक आयोग के आंकड़ों से अधिक है जिनमें कहा गया था कि स्थानीय सरकारों के ऊपर 7660 अरब यूआन (लगभग 1014 अरब डॉलर) का कर्ज हो सकता है। चीन के लिए यह स्थितियां अप्रत्याशित नहीं हैं, इसलिये उसके स्तर से कोई उपाय नहीं किए गए हैं। यहां इस संभावना को बल मिलता है कि चीन अपनी आर्थिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं से न केवल परिचित था अपितु उसने मान लिया था कि इनका फिलहाल इलाज संभव नहीं है। हालांकि ऊपरी तौर पर माना जाता था कि चीन किसी भी संकट को काबू करने के लिए तत्परता से कदम उठाता है।
खाद्यान्न संकट भी उसे चैन नहीं लेने दे रहा। चीन की जनसंख्या सार संसार की जनसंख्या का 20 प्रतिशत है। दरअसल, सार संसार में खेती योग्य जितनी भूमि है, उसका केवल सात प्रतिशत ही चीन में है। इसके बावजूद चीन ने चावल, गेहूं और मक्का की भरपूर पैदावार की और अपने देश की जनता को अनाज की कमी नहीं होने दी। पर स्थितियां इस बार बिगड़ी हैं और विकराल हुई हैं क्योंकि चीनी आबादी दुनिया में सर्वाधिक है। समस्या इस कारण भी है कि मौसम की मार के कारण चावल उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वहां पर पानी की भारी कमी है और भारत की तरह भारत की तरह कृषि अलाभकारी है। इसी वजह से प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में लोग गांव छोड़कर शहरों में पलायन कर रहे हैं। पलायन की यह दर भारत से करीब तीन गुनी है। यह स्थिति तब है जबकि ग्रामीण जनता को गांव में रहकर खेतीबाड़ी के लिए सरकार प्रोत्साहित कर रही है और उन्हें आर्थिक सहायता भी दी जा रही है। परेशानहाल सरकार का प्रयास है कि खाद्यान्न की कमी को देखते हुए कम से कम तीन करोड़ एकड़ जमीन को खेती योग्य बनाकर उनमें प्रतिवर्ष कम से कम तीन फसलें उगाई जाएं अन्यथा चीन की विशालकाय जनता का पेट भरना असंभव होगा। फिलहाल निर्यात प्रतिबंध और विदेशों से अनाज मंगाकर के खाद्यान्न संकट के समाधान का प्रयास किया गया है परन्तु कृषि की हालत जिस प्रकार दिनों-दिन बिगड़ रही है, उसमें यह उपाय ऊंट के मुंह में जीरे की मानिंद सिद्ध होना तय है। संकटों की ही बात करें तो वहां खाद्य तेल का भी संकट है। चीन पहले बेशुमार तेल आयात करता था पर यह उपाय भी नाकाफी हुआ है। हालांकि सबसे ज्यादा समस्या आर्थिक तंत्र को लेकर है। उद्योगों में उत्पादन कम हुआ है और पिछले एक वर्ष में वहां श्रमिक हड़ताल की चेतावनियों में इजाफा हुआ है हालांकि डरा-धमका या समझाकर चीन ने तात्कालिक समाधान तो कर लिया पर इस बात की क्या गारंटी कि यह श्रमिक अब पूरी तन्मयता से काम करने लगे होंगे। अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ चीन को ताश के पत्तों का महल कहते हैं। उनकी नजर में, शेयर बाजार की जर्जर स्थिति, अनियंत्रित वायु -जल प्रदूषण, प्रांतीय सरकारों पर केंद्रीय नियंत्रण में कमी, राष्ट्रीय आय में कमी, भूमि और आवास योजनाओं का पुरसाहाल, बैंकों का बढ़ता घाटा, कर्मचारी हित की पेंशन योजनाओं की अनदेखी, बढ़ता भ्रष्टाचार और महंगी चिकित्सा सेवाएं उसके लिए कोढ़ में खाज की तरह हैं। चीन हालात समझ रहा है, उसने कृषि बजट में 30 प्रतिशत की वृद्धि की है। अन्य उपाय भी किए जा रहे हैं लेकिन यह उपाय तब तक कारगर सिद्ध हो सकते हैं जब तक स्थितियां नियंत्रण में रहें।
वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी याद कीजिए। तब अमेरिका समेत कई देशों में अर्थव्यवस्थाएं चरमरा गई थीं हालांकि भारत अछूता था और हम ने सिद्ध किया था कि हमारी अर्थव्यवस्था तमाम ऐसे जटिल पेंचों में फंसी है कि आसानी से ढेर नहीं हो सकती। हम कुछ ही चीजों पर ही निर्भर अर्थव्यवस्था वाले देश नहीं हैं। कृषि हमारी रीढ़ है और मजबूत सहारा भी है। मंदी के उन दिनों में चीन पर प्रत्यक्ष असर तो कम हुआ था लेकिन वह अमेरिकी बांड्स में गिरावट की खबरों से सकते में आ गया था। लगा था कि बांड्स में उसका बड़ा निवेश औंधे मुंह गिरेगा तो अर्थव्यवस्था को ढेर होने से कोई नहीं बचा पाएगा। समझ-बूझ काम आई और उसने इस संकट से किसी तरह निपटने के बाद वैश्विक स्तर पर निवेश के लिए सर्वाधिक प्रिय अमेरिकी बांड्स के विकल्प तलाश लिये। मंदी टली तो वर्ष 2014 में इसके लौटने की आशंकाएं गहराने लगीं। तमाम भविष्यवाणियां हुर्इं कि 2014 पहले भी भीषण मंदी का वर्ष होगा। इस वर्ष में कोई नकारात्मक संकेत खुलकर सामने नहीं आए परंतु चीन को मुश्किलें हुई हैं। वहां की प्रांतीय सरकारों का ऋण बढ़कर 8000 अरब युआन (लगभग 1,200 अरब डॉलर) हो जाने से यूरोप जैसी मंदी के प्रति आगाह किया जा रहा है। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद का 20 फीसदी है। कहा गया है कि चीन को यूरोपीय तर्ज पर वित्तीय संकट रोकने के लिए स्थानीय सरकारों के ऊपर बढ़ते ऋण को लेकर सतर्क होना चाहिए। चीन का संयुक्त सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 50 फीसदी हो सकता है। इन ऋणों में ट्रेजरी बांड, पालिसी ऋण और स्थानीय सरकार के छिपे ऋण शामिल हैं। यह अनुमान चीन बैंकिंग विनियामक आयोग के आंकड़ों से अधिक है जिनमें कहा गया था कि स्थानीय सरकारों के ऊपर 7660 अरब यूआन (लगभग 1014 अरब डॉलर) का कर्ज हो सकता है। चीन के लिए यह स्थितियां अप्रत्याशित नहीं हैं, इसलिये उसके स्तर से कोई उपाय नहीं किए गए हैं। यहां इस संभावना को बल मिलता है कि चीन अपनी आर्थिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं से न केवल परिचित था अपितु उसने मान लिया था कि इनका फिलहाल इलाज संभव नहीं है। हालांकि ऊपरी तौर पर माना जाता था कि चीन किसी भी संकट को काबू करने के लिए तत्परता से कदम उठाता है।
खाद्यान्न संकट भी उसे चैन नहीं लेने दे रहा। चीन की जनसंख्या सार संसार की जनसंख्या का 20 प्रतिशत है। दरअसल, सार संसार में खेती योग्य जितनी भूमि है, उसका केवल सात प्रतिशत ही चीन में है। इसके बावजूद चीन ने चावल, गेहूं और मक्का की भरपूर पैदावार की और अपने देश की जनता को अनाज की कमी नहीं होने दी। पर स्थितियां इस बार बिगड़ी हैं और विकराल हुई हैं क्योंकि चीनी आबादी दुनिया में सर्वाधिक है। समस्या इस कारण भी है कि मौसम की मार के कारण चावल उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वहां पर पानी की भारी कमी है और भारत की तरह भारत की तरह कृषि अलाभकारी है। इसी वजह से प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में लोग गांव छोड़कर शहरों में पलायन कर रहे हैं। पलायन की यह दर भारत से करीब तीन गुनी है। यह स्थिति तब है जबकि ग्रामीण जनता को गांव में रहकर खेतीबाड़ी के लिए सरकार प्रोत्साहित कर रही है और उन्हें आर्थिक सहायता भी दी जा रही है। परेशानहाल सरकार का प्रयास है कि खाद्यान्न की कमी को देखते हुए कम से कम तीन करोड़ एकड़ जमीन को खेती योग्य बनाकर उनमें प्रतिवर्ष कम से कम तीन फसलें उगाई जाएं अन्यथा चीन की विशालकाय जनता का पेट भरना असंभव होगा। फिलहाल निर्यात प्रतिबंध और विदेशों से अनाज मंगाकर के खाद्यान्न संकट के समाधान का प्रयास किया गया है परन्तु कृषि की हालत जिस प्रकार दिनों-दिन बिगड़ रही है, उसमें यह उपाय ऊंट के मुंह में जीरे की मानिंद सिद्ध होना तय है। संकटों की ही बात करें तो वहां खाद्य तेल का भी संकट है। चीन पहले बेशुमार तेल आयात करता था पर यह उपाय भी नाकाफी हुआ है। हालांकि सबसे ज्यादा समस्या आर्थिक तंत्र को लेकर है। उद्योगों में उत्पादन कम हुआ है और पिछले एक वर्ष में वहां श्रमिक हड़ताल की चेतावनियों में इजाफा हुआ है हालांकि डरा-धमका या समझाकर चीन ने तात्कालिक समाधान तो कर लिया पर इस बात की क्या गारंटी कि यह श्रमिक अब पूरी तन्मयता से काम करने लगे होंगे। अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ चीन को ताश के पत्तों का महल कहते हैं। उनकी नजर में, शेयर बाजार की जर्जर स्थिति, अनियंत्रित वायु -जल प्रदूषण, प्रांतीय सरकारों पर केंद्रीय नियंत्रण में कमी, राष्ट्रीय आय में कमी, भूमि और आवास योजनाओं का पुरसाहाल, बैंकों का बढ़ता घाटा, कर्मचारी हित की पेंशन योजनाओं की अनदेखी, बढ़ता भ्रष्टाचार और महंगी चिकित्सा सेवाएं उसके लिए कोढ़ में खाज की तरह हैं। चीन हालात समझ रहा है, उसने कृषि बजट में 30 प्रतिशत की वृद्धि की है। अन्य उपाय भी किए जा रहे हैं लेकिन यह उपाय तब तक कारगर सिद्ध हो सकते हैं जब तक स्थितियां नियंत्रण में रहें।
1 comment:
Good one.
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