महज एक साल के अंतराल में अगर अरविंद केजरीवाल धमाकेदार जीत हासिल करने में कामयाब रहे हैं तो बेशक, उनकी मेहनत का असर है लेकिन भूमिका भारतीय जनता पार्टी की भी कम नहीं है। उसने अगर रणनीति में खामियां नहीं छोड़ी होतीं तो केजरीवाल प्रचंड बहुमत तक नहीं पहुंचते। राष्ट्रीय राजधानी के इस चुनाव के अगर नतीजे ऐतिहासिक हैं तो इसका श्रेय केजरीवाल की स्वच्छ और बदलाव लाने के लिए व्यग्र व्यक्ति की छवि को भी जाना चाहिये। बहाने लाख तलाशे जाएं, बलि का कोई भी बकरा ढूंढ लिया जाए पर हार की जिम्मेदारी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बच नहीं पाएंगे, यह तय है।
वर्ष 2013 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी को 31, आम आदमी पार्टी को 28, कांग्रेस को आठ और अन्य को दो सीटें मिली थीं, इस दफा यह संख्या बढ़कर 67 के लगभग उच्चतम अंक तक पहुंच गई। तब पहले नंबर पर आई भाजपा को इस दफा महज तीन सीटें मिली हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए चुनावों में जो विजय रथ रफ्तार के चला था, आज औंधे मुंह पड़ा है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो भाजपा के स्तर से तमाम खामियां छोड़ी गर्इं। भाजपा अगर, जम्मू कश्मीर के चुनावों के साथ ही दिल्ली में चुनाव कराने का फैसला कर लेती तो नतीजे दूसरे हो सकते थे। यह देरी उस पर भारी पड़ी। आम आदमी पार्टी की तरफ से केजरीवाल घोषित सीएम उम्मीदवार थे, भाजपा ने यह फैसला करने में ही काफी वक्त ले लिया कि वह किसके चेहरे को सामने रखकर मैदान में उतरने जा रही है। फिर उन किरण बेदी को सामने लाया गया जो कभी मोदी के विरुद्ध टिप्पणी कर चुकी थीं, तमाम विवादों की जड़ में थीं, अन्ना आंदोलन की उपज होने के बावजूद जिनकी राजनीतिक समझ को हमेशा शक की नजरों से देखा गया। साथ ही, वह तानाशाह प्रवृत्ति की नजर आर्इं जिनके विरुद्ध पार्टी कैडर यह सोचते ही अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा हो गया कि सत्ता मिल गई तो वह उसे भी नहीं बख्शेंगी। इससे पहले कार्यकर्ताओं में आक्रोश पैदा हो ही चुका था। यहां तक कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय भी मन से नहीं जुट पाए। उनके समर्थकोें ने तो कई दिन तक हंगामा भी किया। दरअसल, बीजेपी चीफ अमित शाह की यह प्लानिंग थी जिसमें उम्मीदवार के कद के नेताओं के पर कतर दिए जाते हैं। उपाध्याय के भाई को बिजली मीटर सप्लाई घोटाले में लिप्त बताकर चुप करा दिया गया।
वरिष्ठ नेता विजय गोयल और डॉ. हर्षवर्धन के समर्थक भी असंतुष्ट हो गए। उधर, बेदी के साथ ही शाजिया इल्मी, कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी का प्रवेश भी आम कार्यकर्ता हजम नहीं कर पाया। इसी वजह से पार्टी ने बाद में मंत्रियों और सांसदों की भारी-भरकम फौज को प्रचार के लिए उतार दिया। ऐसी भी हालात आए जब सभा प्रबंधन के लिए कार्यकर्ता मौजूद नहीं थे और अचानक मंत्री सभा करने पहुंच गए। पूरे घटनाक्रम से ऐसी स्थिति पैदा हुई कि भाजपा को लेकर नकारात्मकता बढ़ने लगी। हालांकि कांग्रेस की निष्क्रियता भी इस हार की एक प्रमुख वजह है। जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने लापरवाह रवैया अख्तियार किया, उससे यह साफ लगने लगा था कि पार्टी ने मैदान केजरीवाल के लिए खाली छोड़ दिया है। उसके वोट बैंक पर आम आदमी पार्टी का कब्जा हुआ और ये भी बीजेपी के हार का कारण बन गया। केंद्र के फैसलों का फायदा जमीन पर नहीं दिखने से भी भाजपा को क्षति हुई है। दूसरी तरफ, केजरीवाल नकारात्मक प्रचार से बचे रहे और भ्रष्टाचार पर लगाम को मुख्य मुद्दा बनाया। आम आदमी पार्टी ने सभी वर्गों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की और कामयाब भी रही। फर्जी कम्पनियों से फंडिंग के आरोपों का बेहतर जवाब देना भी आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कई चीजें पहली बार हुर्इं। सभी दलों ने जमकर प्रयोग किए और एक से बढ़कर एक अस्त्र चलाए। लेकिन बीजेपी ने जो किया, उससे उसे अच्छे ढंग से जानने वाले भी हतप्रभ रह गए, कार्यकर्ताओं की ताकत से पहचानी जाने वाली इस पार्टी को इसी करतब का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है।
वर्ष 2013 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी को 31, आम आदमी पार्टी को 28, कांग्रेस को आठ और अन्य को दो सीटें मिली थीं, इस दफा यह संख्या बढ़कर 67 के लगभग उच्चतम अंक तक पहुंच गई। तब पहले नंबर पर आई भाजपा को इस दफा महज तीन सीटें मिली हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए चुनावों में जो विजय रथ रफ्तार के चला था, आज औंधे मुंह पड़ा है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो भाजपा के स्तर से तमाम खामियां छोड़ी गर्इं। भाजपा अगर, जम्मू कश्मीर के चुनावों के साथ ही दिल्ली में चुनाव कराने का फैसला कर लेती तो नतीजे दूसरे हो सकते थे। यह देरी उस पर भारी पड़ी। आम आदमी पार्टी की तरफ से केजरीवाल घोषित सीएम उम्मीदवार थे, भाजपा ने यह फैसला करने में ही काफी वक्त ले लिया कि वह किसके चेहरे को सामने रखकर मैदान में उतरने जा रही है। फिर उन किरण बेदी को सामने लाया गया जो कभी मोदी के विरुद्ध टिप्पणी कर चुकी थीं, तमाम विवादों की जड़ में थीं, अन्ना आंदोलन की उपज होने के बावजूद जिनकी राजनीतिक समझ को हमेशा शक की नजरों से देखा गया। साथ ही, वह तानाशाह प्रवृत्ति की नजर आर्इं जिनके विरुद्ध पार्टी कैडर यह सोचते ही अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा हो गया कि सत्ता मिल गई तो वह उसे भी नहीं बख्शेंगी। इससे पहले कार्यकर्ताओं में आक्रोश पैदा हो ही चुका था। यहां तक कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय भी मन से नहीं जुट पाए। उनके समर्थकोें ने तो कई दिन तक हंगामा भी किया। दरअसल, बीजेपी चीफ अमित शाह की यह प्लानिंग थी जिसमें उम्मीदवार के कद के नेताओं के पर कतर दिए जाते हैं। उपाध्याय के भाई को बिजली मीटर सप्लाई घोटाले में लिप्त बताकर चुप करा दिया गया।
वरिष्ठ नेता विजय गोयल और डॉ. हर्षवर्धन के समर्थक भी असंतुष्ट हो गए। उधर, बेदी के साथ ही शाजिया इल्मी, कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी का प्रवेश भी आम कार्यकर्ता हजम नहीं कर पाया। इसी वजह से पार्टी ने बाद में मंत्रियों और सांसदों की भारी-भरकम फौज को प्रचार के लिए उतार दिया। ऐसी भी हालात आए जब सभा प्रबंधन के लिए कार्यकर्ता मौजूद नहीं थे और अचानक मंत्री सभा करने पहुंच गए। पूरे घटनाक्रम से ऐसी स्थिति पैदा हुई कि भाजपा को लेकर नकारात्मकता बढ़ने लगी। हालांकि कांग्रेस की निष्क्रियता भी इस हार की एक प्रमुख वजह है। जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने लापरवाह रवैया अख्तियार किया, उससे यह साफ लगने लगा था कि पार्टी ने मैदान केजरीवाल के लिए खाली छोड़ दिया है। उसके वोट बैंक पर आम आदमी पार्टी का कब्जा हुआ और ये भी बीजेपी के हार का कारण बन गया। केंद्र के फैसलों का फायदा जमीन पर नहीं दिखने से भी भाजपा को क्षति हुई है। दूसरी तरफ, केजरीवाल नकारात्मक प्रचार से बचे रहे और भ्रष्टाचार पर लगाम को मुख्य मुद्दा बनाया। आम आदमी पार्टी ने सभी वर्गों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की और कामयाब भी रही। फर्जी कम्पनियों से फंडिंग के आरोपों का बेहतर जवाब देना भी आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कई चीजें पहली बार हुर्इं। सभी दलों ने जमकर प्रयोग किए और एक से बढ़कर एक अस्त्र चलाए। लेकिन बीजेपी ने जो किया, उससे उसे अच्छे ढंग से जानने वाले भी हतप्रभ रह गए, कार्यकर्ताओं की ताकत से पहचानी जाने वाली इस पार्टी को इसी करतब का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है।
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