आखिरकार, दिल्ली ने दिलदारी दिखा दी। जिन अरविंद केजरीवाल को पहले बहुमत न होने पर निराशा का सामना करना पड़ा था। कुछ न कर पाने के असमंजस में भगोड़ा जैसे अपमानजनक शब्दों से रूबरू होना पड़ा था, उन केजरीवाल को इस बार दिल्लीवालों ने सिर पर बैठा लिया। जीत का ऐसा तूफान मचा दिया कि नरेंद्र मोदी की लहर गुम-सी हो गई। सवाल यह है कि इतनी जबर्दस्त जीत हुई कैसे, अटकलबाजियां कैसे हवा हो गर्इं? पढ़े-लिखे लोगों की दिल्ली में मीडिया की बनाई मोदी वेब भी नहीं चली और जनतंत्र में जन का दम एक बार फिर सिद्ध हो गया।
केजरीवाल की प्रचंड जीत की वजह क्या हैं? प्रथम दृष्टया भारतीय जनता पार्टी की नादानियों की इसमें भूमिका है। अपने नेता-कार्यकर्ताओं को किनारे कर किरण बेदी को सीएम प्रोजेक्ट करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही। इससे कार्यकर्ता घर बैठ गए और नेताओं ने सियासत के इस खेल में अपनी ही पार्टी को मात देने की जुगत भिड़ाना शुरू कर दी। जगदीश मुखी जैसे नेताओं की हार सिद्ध करती है कि जनता भाजपा से अति की रुष्ट थी जिसकी वजह लोकसभा चुनावों में किए गए वादों का पूरा न होना भी है। तीन संभावनाएं और भी हैं, पहली ये कि राष्ट्रीय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता और व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद उसकी पार्टी की रणनीति गड़बड़ा गई। उसने दिल्ली चुनाव घोषित कराने में गैरजरूरी देरी की और रहस्यमयी तरीके से डॉक्टर हर्षवर्धन की उम्मीदवारी को दरकिनार कर दिया। उनसे पार्टी को फायदा हो सकता था। मदनलाल खुराना और सुषमा स्वराज के बाद हर्षवर्धन ही दिल्ली में भाजपा का चेहरा माने जाते हैं। एक तथ्य यह भी है कि विधानसभा चुनावों की घोषणा से कहीं पहले ही केजरीवाल ने अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। विवादास्पद किरण बेदी को स्थानीय नेतृत्व के सिर पर थोपे जाने के फैसले ने मोदी कार्ड को बेअसर कर दिया तो उसमें भी हर्षवर्धन को किनारे किए जाने की भूमिका है। यहां तक कि भाजपा ने 'आप' के असंतुष्टों को अपनी ओर खींचकर सरकार बनाने की कोशिशों के पीछे अपना कीमती समय बर्बाद किया। पार्टी यह सिद्ध करने में नाकाम रही कि दिल्ली में सत्ता मिलती है तो केंद्र में भी सरकार होने से लाभ का प्रतिशत कई गुना हो सकता है, वह यह समझा पाती तो मतदाताओं को राष्ट्रीय राजधानी के आर्थिक हितों का भी ध्यान आता। दूसरी संभावना इस गलती से उपजती है कि लोकसभा चुनाव में अपने ही गढ़ में एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही आम आदमी पार्टी को चुका हुआ मान लिया गया। केजरीवाल को मफलर के प्रयोग पर आड़े हाथों लिया गया, यह मतदाताओं को नागवार गुजरा। आश्चर्य हुआ कि कैसे एक नेता की सरल वेशभूषा पर हो-हल्ला हो रहा है। आम आदमी पार्टी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के दौरान मोदी के दस लाख रुपये कीमत के सूट पहनने से इस मुद्दे को काउंटर किया। लोगों ने उसकी बात को ध्यान से सुना। भाजपा ने पूरे अभियान के दौरान केजरीवाल को भगोड़ा कहकर कम आंकने की कोशिश की लेकिन इस मुद्दे को भी केजरीवाल ने माफी मांग कर हल्का कर दिया। उन्होंने पलायन की वजह समझार्इं और इस गलती का इस्तेमाल भी पार्टी के फायदे के लिए कर लिया।
केजरीवाल ने कहा, हमने कोई भी फैसला करने से पहले दिल्ली के लोगों से सलाह ली थी लेकिन हमारी गलती ये थी कि इस्तीफा देने से पहले हमें आपसे पूछना चाहिए था। 'पांच साल केजरीवाल' के नारे को लेकर चला केजरीवाल की पार्टी का चुनाव अभियान इसलिये भी कामयाबी के मुकाम तक पहुंचा क्योंकि मतदाताओं को वह समझाने में सफल रही कि अल्पकाल की सरकार से अरविंद की योग्यताओं का आकलन दरअसल, उनका अपमान है। आम आदमी पार्टी की जीत का तीसरा प्रमुख कारण कांग्रेस पार्टी का बेमन से किया गया चुनाव प्रचार भी है। पार्टी के उपाध्यक्ष और स्टार प्रचारक राहुल गांधी का आखिरी क्षणों में चुनाव प्रचार के लिए उतरना वोटरों को ये समझाने में नाकाम रहा कि पार्टी रेस में बनी हुई है। शीला दीक्षित सरकार की नाकामियों पर उन्होंने अप्रत्याशित रूप से न माफी मांगी, और न ही सरकार बन जाने की सूरत में अपनी पार्टी की प्राथमिकताएं बताने की जहमत उठाई। स्पष्ट-सा संकेत गया कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस वॉकओवर के मूड में है। इससे उसका पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ सरक गया। कांग्रेस का पतन और मोदी लहर में ठहराव से कहीं ज्यादा, दिल्ली चुनावों की अहमियत आम आदमी पार्टी के दोबारा उभार से है। प्रश्न यह भी है कि मामूली संसाधन, आंतरिक विभाजन और मीडिया के बड़े तबके की बेरुखी के बावजूद पार्टी आखिर ये कैसे कर पाई? 'आप' हकीकत समझ गई थी। मीडिया ने एकतरफा खबरें और सर्वेक्षण देना शुरू किया तो उसने काउंटर करना शुरू कर दिया। लोगों को समझाया कि मीडिया बिका हुआ है और वह वही दिखाएगा जो मोदी चाहेंगे। टीवी चैनलों पर एक-तरह की ही खबरों ने लोगों को मजबूर किया कि वह आम आदमी पार्टी की बात पर भरोसा करें। बहरहाल, इन चुनाव नतीजों ने इस बुनियादी विचार को मजबूत किया कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता उस पार्टी को ही अहमियत देती है जो उसकी बात करे। उसे तत्काल नतीजे चाहिये, वादों को कसौटी पर तौलने में वह किसी तरह की देरी नहीं करती। केजरीवाल को भी यह समझना होगा कि वादों में देरी से जनता उनसे भी रुष्ट हो सकती है, और इस स्थिति में स्वभाव की वजह से वह खुद भी परेशान हो सकते हैं। पानी-बिजली के मोर्चे पर उन्हें चुनौतियों का सामना करना है, वहीं दिल्ली के कामकाजी लोगों को आकर्षित करने के लिए घर, शिक्षा, वाई-फाई और यहां तक कि नौकरियों का वादा पूरा करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा के लिए यह चुनाव सबक हैं कि वह पुराने कार्यकर्ताओं को किनारे बैठाकर कोई जंग नहीं जीत सकती। दलबदलुओं के दम पर लड़ने में मिली हार का यह सबक उसे जितने ज्यादा दिन याद रहे, उतना ही अच्छा।
केजरीवाल की प्रचंड जीत की वजह क्या हैं? प्रथम दृष्टया भारतीय जनता पार्टी की नादानियों की इसमें भूमिका है। अपने नेता-कार्यकर्ताओं को किनारे कर किरण बेदी को सीएम प्रोजेक्ट करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही। इससे कार्यकर्ता घर बैठ गए और नेताओं ने सियासत के इस खेल में अपनी ही पार्टी को मात देने की जुगत भिड़ाना शुरू कर दी। जगदीश मुखी जैसे नेताओं की हार सिद्ध करती है कि जनता भाजपा से अति की रुष्ट थी जिसकी वजह लोकसभा चुनावों में किए गए वादों का पूरा न होना भी है। तीन संभावनाएं और भी हैं, पहली ये कि राष्ट्रीय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता और व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद उसकी पार्टी की रणनीति गड़बड़ा गई। उसने दिल्ली चुनाव घोषित कराने में गैरजरूरी देरी की और रहस्यमयी तरीके से डॉक्टर हर्षवर्धन की उम्मीदवारी को दरकिनार कर दिया। उनसे पार्टी को फायदा हो सकता था। मदनलाल खुराना और सुषमा स्वराज के बाद हर्षवर्धन ही दिल्ली में भाजपा का चेहरा माने जाते हैं। एक तथ्य यह भी है कि विधानसभा चुनावों की घोषणा से कहीं पहले ही केजरीवाल ने अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। विवादास्पद किरण बेदी को स्थानीय नेतृत्व के सिर पर थोपे जाने के फैसले ने मोदी कार्ड को बेअसर कर दिया तो उसमें भी हर्षवर्धन को किनारे किए जाने की भूमिका है। यहां तक कि भाजपा ने 'आप' के असंतुष्टों को अपनी ओर खींचकर सरकार बनाने की कोशिशों के पीछे अपना कीमती समय बर्बाद किया। पार्टी यह सिद्ध करने में नाकाम रही कि दिल्ली में सत्ता मिलती है तो केंद्र में भी सरकार होने से लाभ का प्रतिशत कई गुना हो सकता है, वह यह समझा पाती तो मतदाताओं को राष्ट्रीय राजधानी के आर्थिक हितों का भी ध्यान आता। दूसरी संभावना इस गलती से उपजती है कि लोकसभा चुनाव में अपने ही गढ़ में एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही आम आदमी पार्टी को चुका हुआ मान लिया गया। केजरीवाल को मफलर के प्रयोग पर आड़े हाथों लिया गया, यह मतदाताओं को नागवार गुजरा। आश्चर्य हुआ कि कैसे एक नेता की सरल वेशभूषा पर हो-हल्ला हो रहा है। आम आदमी पार्टी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के दौरान मोदी के दस लाख रुपये कीमत के सूट पहनने से इस मुद्दे को काउंटर किया। लोगों ने उसकी बात को ध्यान से सुना। भाजपा ने पूरे अभियान के दौरान केजरीवाल को भगोड़ा कहकर कम आंकने की कोशिश की लेकिन इस मुद्दे को भी केजरीवाल ने माफी मांग कर हल्का कर दिया। उन्होंने पलायन की वजह समझार्इं और इस गलती का इस्तेमाल भी पार्टी के फायदे के लिए कर लिया।
केजरीवाल ने कहा, हमने कोई भी फैसला करने से पहले दिल्ली के लोगों से सलाह ली थी लेकिन हमारी गलती ये थी कि इस्तीफा देने से पहले हमें आपसे पूछना चाहिए था। 'पांच साल केजरीवाल' के नारे को लेकर चला केजरीवाल की पार्टी का चुनाव अभियान इसलिये भी कामयाबी के मुकाम तक पहुंचा क्योंकि मतदाताओं को वह समझाने में सफल रही कि अल्पकाल की सरकार से अरविंद की योग्यताओं का आकलन दरअसल, उनका अपमान है। आम आदमी पार्टी की जीत का तीसरा प्रमुख कारण कांग्रेस पार्टी का बेमन से किया गया चुनाव प्रचार भी है। पार्टी के उपाध्यक्ष और स्टार प्रचारक राहुल गांधी का आखिरी क्षणों में चुनाव प्रचार के लिए उतरना वोटरों को ये समझाने में नाकाम रहा कि पार्टी रेस में बनी हुई है। शीला दीक्षित सरकार की नाकामियों पर उन्होंने अप्रत्याशित रूप से न माफी मांगी, और न ही सरकार बन जाने की सूरत में अपनी पार्टी की प्राथमिकताएं बताने की जहमत उठाई। स्पष्ट-सा संकेत गया कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस वॉकओवर के मूड में है। इससे उसका पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ सरक गया। कांग्रेस का पतन और मोदी लहर में ठहराव से कहीं ज्यादा, दिल्ली चुनावों की अहमियत आम आदमी पार्टी के दोबारा उभार से है। प्रश्न यह भी है कि मामूली संसाधन, आंतरिक विभाजन और मीडिया के बड़े तबके की बेरुखी के बावजूद पार्टी आखिर ये कैसे कर पाई? 'आप' हकीकत समझ गई थी। मीडिया ने एकतरफा खबरें और सर्वेक्षण देना शुरू किया तो उसने काउंटर करना शुरू कर दिया। लोगों को समझाया कि मीडिया बिका हुआ है और वह वही दिखाएगा जो मोदी चाहेंगे। टीवी चैनलों पर एक-तरह की ही खबरों ने लोगों को मजबूर किया कि वह आम आदमी पार्टी की बात पर भरोसा करें। बहरहाल, इन चुनाव नतीजों ने इस बुनियादी विचार को मजबूत किया कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता उस पार्टी को ही अहमियत देती है जो उसकी बात करे। उसे तत्काल नतीजे चाहिये, वादों को कसौटी पर तौलने में वह किसी तरह की देरी नहीं करती। केजरीवाल को भी यह समझना होगा कि वादों में देरी से जनता उनसे भी रुष्ट हो सकती है, और इस स्थिति में स्वभाव की वजह से वह खुद भी परेशान हो सकते हैं। पानी-बिजली के मोर्चे पर उन्हें चुनौतियों का सामना करना है, वहीं दिल्ली के कामकाजी लोगों को आकर्षित करने के लिए घर, शिक्षा, वाई-फाई और यहां तक कि नौकरियों का वादा पूरा करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा के लिए यह चुनाव सबक हैं कि वह पुराने कार्यकर्ताओं को किनारे बैठाकर कोई जंग नहीं जीत सकती। दलबदलुओं के दम पर लड़ने में मिली हार का यह सबक उसे जितने ज्यादा दिन याद रहे, उतना ही अच्छा।
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