Wednesday, August 31, 2011

केंद्रीय मंत्रियों की दादागिरी

इसे दादागिरी नहीं कहें तो क्या कहें? केंद्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में मंत्रियों के एक गुट ने कृषि मंत्री शरद पवार की अगुवाई में राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटवा दिया। अब खेल मंत्रालय पवार की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए नए तरीके से विधेयक तैयार कर कैबिनेट में लाएगा। यह विधेयक देश के खेल संघों में पारदर्शिता लाने की मंत्रालय की कवायद का एक अंग था। खेलमंत्री अजय माकन इन खेल संघों को लाइऩ पर लाने के लिए लंबे समय से दुरूह कोशिश में लगे हैं। इस गुट में वह मंत्री शामिल हैं जो विभिन्न खेल संघों से जुड़े हैं। पवार भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे हैं और क्रिकेट की दुनिया की ताकतवर लॉबी का नेतृत्व करते हैं। कमलनाथ, सीपी जोशी, विलासराव देशमुख, प्रफुल्ल पटेल, फारुक अब्दुल्ला, राजीव शुक्ला जैसे कई नेताओं भी विरोध के इस रास्ते पर थे। जोशी राजस्थान क्रिकेट बोर्ड तो विलासराव मुंबई क्रिकेट बोर्ड तथा फारुक अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर किक्रेट बोर्ड में, जबकि पटेल भारतीय फुटबाल संघ में बतौर अध्यक्ष काबिज हैं। वहीं, संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष हैं। विपक्ष के कई नेता भी इस सूची में शामिल हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, भाजपा के वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा भी इसी कतार में हैं। जेटली दिल्ली क्रिकेट संघ से जुड़े हैं और मल्होत्रा तो सुरेश कलमाड़ी के हटाए जाने के बाद भारतीय ओलम्पिक संघ में सबसे प्रभावशाली हस्ती बने हुए हैं। मल्होत्रा भारतीय तीरंदाजी संघ, सुखदेव सिंह ढींढसा साईकिलिंग संघ और कैप्टेन सतीश शर्मा एयरो क्लब के प्रमुख हैं। नेताओं में खेल संघों की कमान संभालना जैसे एक शौक की तरह है। इसी वजह से खिलाड़ी खेल की बेहतरी के लिए कुछ नहीं कर पाते और दिलीप वेंगसरकर की तरह चुनाव हार जाते हैं। वेंगसरकर को मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन (एमसीए) के अध्यक्ष के चुनाव में केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख के हाथों हार का सामना करना पड़ा था।
वेंगसरकर कोई आम क्रिकेटर नहीं हैं। वह अपने जमाने के शानदार बैट्समैन थे, जिनका वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ बहुत अच्छा रिकॉर्ड है। वेंगसरकर अकेले ऐसे गैर इंग्लिश क्रिकेटर हैं, जिन्होंने लॉर्डस पर तीन शतक लगाए हैं। 1983 में विश्व कप और उसके दो साल बाद विश्व चैंपियनशिप जीतने वाली टीमों के भी वह सदस्य थे। अब बताइये, क्रिकेट की बेहतरी के लिए उनसे ज्यादा कोई कैसे सोच सकता है? हालांकि यह भी तथ्य है कि वेंगसरकर और पूर्व क्रिकेटरों की उनकी चुनावी टीम को हराने में सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री जैसी क्रिकेट हस्तियों के लाभ भी आड़े आए थे। खेल संघों की कमान संभालने के पीछे दूसरी वजह पैसा भी है। सुरेश कलमाड़ी का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं कि किस तरह उन्होंने भारतीय ओलंपिक संघ में धींगामुश्ती की, राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी में जमकर धांधलियां की गईं। धांधली भी इतनी कि जो मॉस्किटो रैपेलेंट हम 80-85 रुपये में खरीद लेते हैं, वो राष्ट्रमंडल खेलों में प्रतिदिन 150 रुपये किराए पर ली गईं। क्या नहीं हुआ, सभी को पता है। इसके साथ ही खेल संघ अपने पदाधिकारियों की आयु सीमा तय करने पर भी आपत्ति जता रहे हैं जबकि खेल मंत्री का कहना है कि न्‍यायपालिका और नौकरशाही के लिए आयु सीमा होती है तो खेल संघों के पदाधिकारियों के क्‍यों नहीं। उन्‍होंने कहा कि यदि कोई किसी संगठन की अगुवाई करता रहेगा तो उसमें उसके स्‍वार्थ निहित होंगे। मल्होत्रा, फारुख आदि ज्यादातर नेता उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां निरंतर सक्रियता संभव नहीं हो पाती। फारुख जैसे नेता यदि सही रास्ते पर होते तो उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला को नहीं कहना पड़ता कि खेल संगठनों की अगुवाई कर रहे केंद्रीय मंत्रियों को स्‍पोर्ट्स बिल पर होने वाली चर्चा से अलग कर लेना चाहिए। उमर जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री हैं, कोई गैर अनुभवी नेता पुत्र नहीं जो उनकी बात को तवज्जो न दी जाए। एक समय था जबकि खेल संघों में नेताओं और सांसदों की जरूरत पड़ती थी क्योंकि तब संसाधन नहीं थे और सरकार तक आवाज पहुंचाने के लिए इन लोगों को चुना जाता था। बाद में उन्हें इसकी चाट लग गई। लेकिन अब समय बदल गया है। खेलों में कारपारेट जगत से पैसा आ गया है और ऐसे में पेशेवर और ऐसे लोगों को ही इनसे जुड़ना चाहिए जिन्हें खेल की अच्छी समझ हो। खिलाड़ी आगे आ रहे हैं, यह तो और भी अच्छा है। एक समाजसेवी के आमरण अनशन से हिली नेताओं की बिरादरी को समझ लेना चाहिये कि हालात बदल रहे हैं। ऐसा न हो, कि चीन-जापान में लग रहे पदकों से ढेर और यहां बेतरह खर्च के बावजूद पदकों के टोटे से आक्रोशित जनता खुलकर मैदान में न आ जाए। खुदा खैर करे, नेताओं की सदबुद्धि से देश का भी भला है।

Friday, August 26, 2011

'इन्फोसिस' से नारायणमूर्ति का जाना...

इन्फोसिस बड़ी हो गई है, पूरे तीस साल की। लेकिन इस समय वैसे ही दुखी है जैसे पिता के घर से विदाई के वक्त बेटी होती है। बेशक यह उलटबांसी है, यहां विदाई पिता की हुई है। करीब 31 वर्ष पहले महाराष्ट्र के पुणे शहर में एक छोटे से कमरे से शुरू की गई कंपनी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की दिग्गज सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी के रूप में स्थापित करने वाले एनआर नारायण मूर्ति 21 अगस्त, 2011 को अध्यक्ष के पद से सेवामुक्त हो गए। इन्फोसिस को दुनिया की एक प्रतिष्ठित आईटी कंपनी का रुतबा दिलाने के लिए मूर्ति ने करीब 30 वर्ष तक उसे अपनी अमूल्य सेवा दी। सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में यह एक मिसाल है। जून में 30वीं सालाना बैठक में इन्फोसिस टेक्नोलॉजीज़ के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति बतौर अध्यक्ष आखिरी बार शामिल हुए। माहौल गमगीन था, वह इतने भावुक हुए कि आंसू बहने लगे। बोले, ऐसा लग रहा है जैसे विवाह के बाद बेटी अभिभावक का घर छोड़कर जा रही है। हालांकि जब (बेटी को) जरूरत होगी, मैं हाजिर हो जाऊंगा। इस मंच को अंतिम बार संबोधित करना मेरे लिए आसान नहीं है। मेरे दिमाग में कई छवियां कौंध रही हैं, उनकी सूची अंतहीन है। इन तीस सालों में मैं किए गए अच्छे-बुरे सभी फैसलों का जिम्मेदार हूं। उम्मीद है कि और अच्छे दिन आएंगे। मैंने इसकी हर उपलब्धि का आनंद उठाया है और कंपनी के गलत निर्णयों पर सहानुभूति भी देता रहा हूं।
नारायणमूर्ति की लीडरशिप में इन्फोसिस देश की दूसरी बड़ी साफ्टवेयर निर्यातक कंपनी बनी। करीब साढ़े चार बिलियन डॉलर आकार वाली इस कंपनी में कर्मचारियों की संख्या एक लाख पार कर चुकी है। सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं और समाधान इसका मुख्य व्यवसाय है। भारतीय कंपनियों को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से झटके शुरू होने के बाद माना जा रहा था कि इन्फोसिस जैसी कंपनियों के लिए बाजार थोड़ी मुश्किलों से भरने वाला है। संकट में फंसे यूरोप के असर, मुद्रा में अस्थिरता, कर्ज के बढ़ते भार और कीमतों पर दबाव के कारण दिग्गज सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इन्फोसिस टेक्नोलॉजिज का संचयी शुद्घ लाभ उम्मीद से कम रहा। 30 जून को समाप्त हुई तिमाही में 1,488 करोड़ रुपये का शुद्घ लाभ हुआ, जो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 2.4 फीसदी कम है। जबकि तिमाही दर तिमाही आधार पर शुद्घ लाभ में 7 फीसदी की कमी आई। मार्च को समाप्त हुई तिमाही में कंपनी का शुद्घ लाभ 1,600 करोड़ रुपये था। पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले इस तिमाही में कंपनी का राजस्व 13.3 फीसदी बढ़कर 6,198 करोड़ रुपये हो गया, जबकि तिमाही आधार पर इसमें 4.3 फीसदी की मामूली वृद्घि दर्ज की गई। हालांकि इस दौरान प्रत्येक शेयर से होने वाली कंपनी की कमाई में सालाना आधार पर 2.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
शुभचिंतकों की ओर से नारायणमूर्ति को विदाई का फैसला कुछ दिन टालने की सलाह दी गईं। सत्यम का सत्यानाश होने के बाद बेहतर लाभ उठाने के मौके अभी खत्म नहीं हुए थे। बेशक, अधिग्रहण करने वाली कंपनी ने स्थितियां संभाली हैं लेकिन पहले से स्थापित कंपनियों के लिए अपना कारोबार बढ़ाने के यह अवसर दुर्लभतम श्रेणी के हैं। नारायणमूर्ति में दम था इसलिये उन पर भरोसा जताया गया था। भावी अध्यक्ष केवी कामथ की क्षमताओं पर हालांकि किसी को संदेह नहीं था लेकिन कंपनी चूंकि अपने फाउंडर प्रेसीडेंट का आसरा तलाशती नजर आती थी इसलिये कामथ पर अविश्वास जाहिर किए गए। कामथ इससे पहले देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एक शीर्ष पद कार्यरत थे। वर्ष २००८ में आई आर्थिक मंदी के बाद आईसीआईसीआई बैंक की विदेशों में बिजनेस की नीति को लेकर सवाल भी उठे, लेकिन कामथ ने अपनी सूझ-बूझ से बैंक को इस संकट से उबार लिया।
इन्फोसिस के साथ भी कामथ का साथ नया नहीं है। वे पहले से ही स्वतंत्र डायरेक्टर के रूप में इससे जुड़े रहे हैं। संकेत मिलने लगे हैं, हाल ही में बड़ी संख्या में भर्तियों की घोषणा करने वाली इस कंपनी को उसके नायब छोड़कर जा रहे हैं। अपने फैसलों से चर्चा बटोरने वाले मोहनदास पई चले गए। के. दिनेश सेवानिवृत्त हो गए। दिनेश कंपनी के संस्थापक सात सदस्यों में से एक थे। और अब, रिसर्च हेड सुभाष धर ने विदाई का रास्ता पकड़ लिया। वह कंपनी में इतने महत्वपूर्ण थे, कि खुद नारायणमूर्ति ने उन्हें कंपनी का सीनियर वाइस प्रेसीडेंट, नव प्रवर्तन का कारपोरेट हेड और ब्रिकी-विपणन प्रमुख का काम सौंप था। इसके साथ ही वह कंपनी की एग्जीक्यूटिव कमेटी के मेंबर भी थे। निश्चित रूप से यह चिंता की बात है। इन्फोसिस के तीन दशक के इतिहास में कामथ ऐसे पहले व्यक्ति हैं, जो संस्थापक सदस्य न होते हुए भी कंपनी के चेयरमैन बनाए गए। अब तक इन्फोसिस में इसके संस्थापक सदस्यों को ही इस पद पर बैठाया जाता रहा है। उनके सामने कई सारी चुनौतियां भी आने वाली हैं। एक तरफ जहां उन्हे कंपनी के पुराने लोगों का मनोबल बढ़ाना होगा, वहीं दूसरी तरफ कुछ गैर अनुभवी लोगों के साथ ही उन्हें काम करना होगा। हालांकि उन्हें जानने वाले कहते हैं कि कामथ हमेशा दूसरे लोगों को जगह देने में विश्वास करते हैं जिसके कारण लोग उन्हें बहुत जल्दी पसंद करने लगते हैं। जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में इन्फोसिस लीक से हटकर कुछ नया कर सकती है। यह अपने खर्च को बढ़ा सकती है, विदेशों में अधिग्रहण कर सकती है और एक मजबूत अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड बनने की राह पर चल सकती है। फिलहाल इन्फोसिस के पास 550 ग्राहक हैं और इस सूची में एबीएन एमरो, गोल्डमन सैक्स, टेलस्ट्रा और ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी कंपनियां शामिल हैं। ईश्वर करे, ऐसा ही हो क्योंकि इन्फोसिस हम सभी के लिए गौरव की बात है।

Wednesday, August 17, 2011

... इसलिये जननायक बन गए अन्ना

पांच जून 1989 की सुबह। अखबार खून से रंगे थे। चीन के थ्येनआनमन चौक पर एक दिन पहले लोकतंत्र की लड़ाई में सैकड़ों छात्र चीनी टैंकों का शिकार हो गये थे और पूरी दुनिया में हाहाकार मचा था। तब मेरी उम्र कोई 16 साल की होगी। स्कूल में टीचर्स के बीच बातचीत का मुद्दा यही था। घर के बुजुर्ग कहा करते थे कि जब अति हो जाती है तो क्रांति होती है। तब बदलाव की बयार बहती है। तब से आज तक मैं, इसी इंतज़ार में हूं कि हमारे यहां अति हो रही है। अब क्रांति हो, तब क्रांति हो।
15 जून 1937 को जन्मे किसन बाबूराव हजारे यानि अन्ना हज़ारे को मैं किसी क्रांति का फिलहाल अग्रदूत नहीं मानता। हां, अन्ना ने देश को जगाने का काम किया है। और हम जागे इसलिये नहीं कि किसी सबल लोकपाल से हमारे यहां के प्रधानमंत्री या मंत्री भ्रष्ट नहीं होंगे। न ही इसकी गारंटी है कि यह लोकपाल ही भ्रष्ट नहीं हो जाएगा। हम जैसे तमाम देशों में इतिहास गवाह है कि सिक्कों की खनक ने बड़े-बड़ों की अकड़ ढीली की है। यहां तक कि हम यह तक मानने लगे कि जब तक भगवान को भेंट नहीं चढ़ाएंगे, हमारी मनोकामना पूरी नहीं होगी। कुछ साल पहले की बात है, सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ तो हम बल्लियों उछल पड़े थे। क्या हो रहा है अब, सूचना अधिकार कानून को भी धता बताने से तंत्र बाज नहीं आ रहा। सरकारी स्तर से कुछ हुआ नहीं इसलिये गांधी टोपी और खादी पहनने वाले अन्ना को महाराष्ट्र छोड़कर दिल्ली में झंडा उठाना पड़ा। अन्ना के इस अंधाधुंध अनुसरण की वजह हैं। अन्ना चाहें भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार न कर पाएं या सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबे नेता इसकी कोई काट ढूंढ लें, फिर भी हम उम्मीद लगाए बैठे हैं। संसद के जनलोकपाल विधेयक को ध्वनिमत से पारित करने से इस उम्मीद को दम मिला है। दरअसल, भ्रष्टाचार ने हमारे देश की जड़ों में ऐसा मट्ठा डाला है जिसने हमें नौ-नौ आंसू रुलाया है। कहां नहीं हैं भ्रष्टाचार? आम दिनचर्या की छोड़िए, सरकारी विभागों को भी छोड़ दीजिए, अब तो प्राइवेट कंपनियों में भी यह बीमारी पहुंच चुकी है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के हर हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार चरम पर है| ये हालात एक दिन या कुछ बरसों में पैदा नहीं हो गए, बल्कि लंबे समय तक हमारी लापरवाही भी इसके लिए ज़िम्मेदार साबित हुई है। गलत एवं पथभ्रष्ट लोगों को सम्मान देने की नीति का पनपना और ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज न उठाने की हमारी आदत भी खूब दोषी है। हम लड़ने की आदत भूल बैठे। इसके जरिए हमने भी शॉर्ट-कट रास्ता चुनना शुरू कर दिया। बजाए यह देखने के, कि रिश्वत दिए बिना कैसे काम कराएं, हम सोचने लगे कि कैसे रिश्वत कम कराएं और सही आदमी तक पहुंचा दें।
हद होने लगी तो मजबूरी में हम चेते। अन्ना के शांति और प्रशांत भूषण जैसे दागी साथियों को भी हम दरकिनार कर समर्थन कर रहे हैं क्योंकि लक्ष्य हमारी पसंद का है। हम दोनों भूषणों के इलाहाबाद में स्टाम्प चोरी और नोएडा में करोड़ों के भूमि आवंटन को इसीलिये भूल जाते हैं। इसके बजाए महत्व देते हैं अन्ना को, वजह वही है अन्ना हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। अन्ना के समर्थन में लोग झंडा उठा रहे हैं, कारों के पीछे लिखवा रहे हैं 'मैं हू अन्ना', यह वही लोग हैं जो थक चुके हैं व्यवस्था से। मीडिया के कैमरों की फ्लैश तक चलने वाले समर्थक आंदोलनों का भी असर है, इससे आवाज बुलंद हो रही है। दिल्ली के रामलीला मैदान में बेशक अन्ना के साथ तमाम लोग बैठे हैं लेकिन देश के हर हिस्से में उनका झण्डा फहर रहा है। शहरों की छोड़िए, गांवों में किसी बड़े पेड़ के नीचे बैनर लगाकर बैठे लोगों को अन्ना का समर्थन करते मैंने देखा है, वह भी उन गांवों में जहां लोग बिजली न आने पर कुछ नहीं बोलते। पानी साफ मिले तो ठीक वरना दूर से भरकर ले आते हैं। गांवों में कोई कब्जा कर ले तो कुछ दिन अफसरों के चक्कर लगाते हैं, फिर थककर हार मानकर बैठ जाते हैं। यह लोग '... तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं' जैसे पुराने नारे के शुरू में अन्ना का नाम जोड़ते हैं तो इसके मायने हैं। मैं उन लोगों में नहीं जो कह रहे हैं कि देश पूरी तरह जाग गया है। इन जागे हुए लोगों को मैंने कई बार देखा है, पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध, फिर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद के वक्त। यह जगे, तोड़ा-फोड़ा और सो गए। जैसे मकसद था कि कुछ हंगामा बरपाने का। अन्ना के साथ उठ खड़ी हुई भीड़ के मायने हैं कि इस बार एक ऐसे मुद्दे पर जागृति आयी है जो न जाति से जुड़ा और न धर्म से। इसी दिल्ली में बाबा रामदेव भी बैठे थे। उनकी अगवानी करने केंद्रीय मंत्री पहुंचे थे, लगा था कि जैसे कुछ बड़ा कर गुजरने वाला है यह बाबा। लेकिन हुआ क्या, सरकार ने धोबी पाट दिया और बाबा चारों खाने चित्त। लेडीज़ सूट में गायब होने के बाद जब देहरादून में मिला तो बोलती बंद। अन्ना की मुहिम की शुरुआत उत्साहित कर रही है। लोकतंत्र में लोक पहली बार तंत्र से भारी पड़ता नजर आ रहा है। इसका श्रेय अन्ना के साथ ही, कांग्रेस की उस सरकार को भी है जो आम आदमी की आवाज़ को दबाने में तुली है। सरकार अगर चुपचाप अन्ना की बात मान लेती तो यह हवा पैदा न होती, जनाक्रोश पैदा न होता। अति हो रही है, काश अब क्रांति भी हो जाए।

Thursday, August 11, 2011

खिलाड़ियों को 'भारत रत्न'... जरा संभलकर

क्या चाहती है सरकार? क्यों बनती हैं इस तरह की बकवास नीतियां? क्यों हम लोकतंत्र का मजाक बनाने पर तुले हैं? भारत रत्न को खिलाड़ियों के लिए भी खोलने की तैयारी है। क्यां हम उन खिलाड़ियों को भारत रत्न मिलता झेल पाएंगे जो कोका कोला जैसे विदेशी उत्पाद बेचते नजर आते हैं? खेल के मैदान में रिकार्डों की झड़ी लगा देने का मतलब यह नहीं कि हमसे उसकी कीमत मांगी जाए। भारत रत्न हमारे लिए श्रद्धा का भी मसला है, यह किसी टुच्चे उत्पाद के ब्रांड एंबेस्डर और समाज में अलग तरह का आचरण करने वाले खिलाड़ी को मिले, यह शायद मेरी तरह तमाम लोगों को कतई बर्दाश्त नहीं।
एक बार फिर हम आजादी की वर्षगांठ बनाने की तैयारी में हैं। बहुत कीमत चुकाकर हमने पाई है यह आजादी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे चौधरी रुस्तम सिंह मेरे पड़ोसी थे। बात करीब दस साल पुरानी है, नेताजी के जन्मदिन पर जागरण के लिए उनका इंटरव्यू किया। मैंने पूछा कि फिल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों को पद्म पुरस्कार मिलते देखकर आपको कैसा लगता है, उन्होंने गुस्से में कहा, नचकइयों के लिए नहीं हैं यह सब। उनके लिए फिल्मों के तमाम अवार्ड हैं तो। उनका साफ कहना था, पद्म पुरस्कार इतने बड़े हैं कि उनके लिए पात्रों का चयन करते वक्त जरा सी चूक देश के सम्मान को ठेस पहुंचा सकती है। वो नेताजी के निजी अंगरक्षक रहे थे। सुबह सैर के वक्त पद्मश्री डॉ. लाल बहादुर सिंह चौहान से मुलाकात हुई। चर्चा चली तो उन्होंने भी विरोध किया। बोले, भारत रत्न के चयन में लापरवाही नहीं चलेगी।
बहरहाल, भारत रत्न यदि खिलाड़ियों के लिए खुले तो मास्टर ब्लास्टर जैसे नामों से चर्चित सचिन तेंदुलकर और शतरंज के ग्रैंड मास्टर विश्वनाथन आनंद के नाम चुनने वालों के सामने सबसे पहले आएंगे। सचिन बेशक, बिरले खिलाड़ी हैं लेकिन क्या हम यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि हमारा भारत रत्न किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के जूते या कोल्ड ड्रिंक बेचता नजर आए। आनंद ने भी विज्ञापन किए हैं। फिर खिलाड़ियों के लिए राजीव गांधी खेल रत्न जैसे पुरस्कार हैं तो, दोनों खिलाड़ी इन पुरस्कारों तक पहुंच चुके हैं। देना ही है तो कड़ी स्क्रीनिंग करनी होगी। मामले पर सरकार को समझदारी से निर्णय लेना है क्योंकि जरा सी चूक देश के लिए शर्मिंदगी की वजह बन सकती है। सरकार सचिन से कहे कि विज्ञापन करना छोड़ें और क्रिकेट से संन्यास लें वरना मैदान में जरा भी विपरीत आचरण पूरे देश का अपमान साबित होगा। और मैदान में रहकर कभी न कभी तो इस तरह आचरण तो करना ही पड़ सकता है। यह बहुत बड़ा निर्णय होगा और सरकार को समझदारी तो दिखानी ही होगी। सरकार महज रिकार्डों को ढेर को आधार न बनाए, सोचे कि कैसे यह दोनों चीजें एकसाथ चलेंगी। ईश्वर सरकार को सोचने की सदबुद्धि प्रदान करे।