Monday, January 9, 2023

कॉमन सिविल कोड: बवंडर की आहट

 

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समान नागरिक संहिता यानी कॉमन सिविल कोड फिर चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने संहिता के लिए कमेटी गठन के राज्यों के कदम को संविधान सम्मत माना है। कमेटियों के खिलाफ याचिका खारिज करने के शीर्ष कोर्ट के निर्णय से राजनीतिक बवंडर मचना तय है। भाजपा जहां 2024 के चुनावों में नैया पार करने का सपना देखेगी और विरोधी दलों के लिए यह गैर-भाजपा मतों के ध्रुवीकरण का रास्ता होगा। गैर हिंदू सभी मतों पर फोकस के लिए संहिता का विरोध जरूरी होगा, वही भाजपा इसके सहारे हिंदुओं को एकजुट करने का यत्न करती नजर आएगी। कॉमन सिविल कोड पर उत्तराखंड और गुजरात ने कमेटी गठन किया है। 

उत्तराखंड में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज इंदिरा प्रकाश देसाई अगुवाई कर रही हैं और उत्तराखंड में हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश। सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि राज्यों की बनाई कमेटियां संविधान सम्मत हैं। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि कमेटियों के गठन में गलत कुछ नहीं है। कमेटियों को चुनौती नहीं दी जा सकती। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य की मानता है। लेकिन बात इतनी-सी नहीं है, बल्कि इसके बड़े निहितार्थ और राजनीतिक मायने हैं। भाजपा के लिए एजेंडे का एक बिंदु नहीं अपितु पूरा एजेंडा ही है। वह अपने 2019 के चुनाव घोषणापत्र में इसे शामिल कर चुकी है। खबरें तो यहां तक हैं कि विधेयक बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है।

सरकार मानती है कि समान संहिता लागू करने से देश की अदालतों पर लगातार बढ़ते मुकदमों के बोझ को हल्का करने में मदद मिलेगी। अंतरधार्मिक विवाह और उनसे उत्पन्न संतानों और पारिवारिक विवादों से जुड़े मुकदमे घटेंगे। मुकदमों की संख्या में 20 से 25 फीसदी की कमी आ सकती है क्योंकि दीवानी अदालतों में चल रहे धार्मिक मुकदमे खुद समाप्त हो जाएंगे क्योंकि समान कानून भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) सभी पर समान रूप से लागू होगा। अभी तक हिंदू कानून वेद पुराण, स्मृति आदि के आधार पर तो मुस्लिम पर्सनल लॉ कुरान, सुन्नत, इज्मा, कयास और हदीस के आधार पर हैं। इसी तरह ईसाइयों का कानून बाइबल, पुराने अनुभव, तर्क और रूढ़ियों के आधार पर, जबकि पारसियों का कानून उनके पवित्र धार्मिक ग्रंथ जेंद अवेस्ता पर आधारित है। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायियों को सनातन धर्म से जुड़ा माना जाता है जिसके कारण इसके लिए एक समान कानून है जिसमे इनका एक से ज्यादा शादी करना गैर कानूनी माना गया है।

समान नागरिक संहिता विरोधियों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का तर्क है कि अगर सबके लिए समान कानून लागू कर दिया गया तो उनके अधिकारों का हनन होगा। मुसलमानों को एक से अधिक शादियां करने और बीवी को तलाक देने का हक नहीं होगा। वह अपनी शरीयत के हिसाब से जायदाद का बंटवारा नहीं कर सकेंगे। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी कहता आया है। 

अंत में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर बात। संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान निर्माण के वक्त कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। इस तरह, संविधान के मसौदे में आर्टिकल 35 को अंगीकृत संविधान के आर्टिकल 44 के रूप में शामिल कर दिया गया और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। शायद वो समय अभी भी न आया हो, पर बवाल तो आने वाला है, ऐसा प्रतीत हो रहा है।