Monday, January 27, 2014

मील का एक पत्थर

यह मानवाधिकारों की जीत है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 15 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। बेशक, यह समय की मांग है। मानवाधिकार संरक्षण के लिए जिस तरह दुनियाभर में तेज अभियान चल रहे हैं, सजा के नए मायने सामने आ रहे हैं, उसमें यह फैसला मील का पत्थर सिद्ध होना तय है। जिस देश में अपराध और सजा में औसतन साढ़े 11 वर्ष का फासला हो जहां निचले कोर्ट से फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद से राष्ट्रपति के स्तर से दया याचिका निस्तारण का समय तकरीबन छह साल हो, वहां जेल में निरुद्ध व्यक्ति की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है। भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शुमार है जहां आज भी 'रेयरेस्ट आॅफ द रेयर' मामले में फांसी की सजा दी जाती है। पिछले साल मुंबई हमलों के दोषी अजमल कसाब और संसद पर हमले की योजना बनाने वाले अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया गया तो आठ साल बाद भारत में किसी को फांसी देने के इस फैसले ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को सकते में डाल दिया। ऐसी स्थिति में शीर्ष कोर्ट का फैसला सकारात्मक संकेत दे रहा है। कोर्ट ने फांसी को उम्रकैद में बदलने के पांच आधार दिए हैं। पहला देरी। दूसरा पागलपन। तीसरा जिस फैसले के आधार पर उसे दोषी माना गया है, वह फैसला गलत घोषित हो जाए। चौथा कैदी को एकांतवास मे रखा जाना और पांचवां प्रक्रियात्मक खामी रह जाना। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि फांसी माफी की याचिका पर विचार करते समय देरी के कारण पर भी विचार किया जाएगा। अगर अनुचित और अतार्किक देरी हुई होगी तो फांसी उम्रकैद में बदली जा सकती है। कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या भारत फांसी की सजा को अलविदा कहने को तैयार हो रहा है। मानवाधिकारवादी मौत की सजा पाए लोगों पर इस आधार पर रहम की वकालत करते हैं कि वह सजा सुनाए जाने और मिलने के बीच के समय में रोजाना मानसिक मौत मरा करते हैं। दो वर्ष पूर्व अमेरिकी इलिनॉइस यूनिवर्सिटी ने एक शोध के निष्कर्ष सार्वजनिक किए थे, इनमें सजा की प्रतीक्षा में शरीर में आने वाले बदलावों का जिक्र किया गया था। शोध के तहत मौत की सजा वाले जघन्य अपराध में निरुद्ध एक व्यक्ति से कहा गया कि एक सप्ताह बाद उसे सांप से कटवाकर मौत की सजा दी जाएगी। इस सप्ताह के बाद उसे आंखों में पट्टी बांधकर ले जाया गया, उसे प्लास्टिक के सांप से कटवाने का उपक्रम किया गया तो उसकी मौत हो गई। निष्कर्ष यह था कि बुरा होने की आशंकाएं शरीर में ऐसे नकारात्मक विचार पैदा कर देती हैं जो विष का रूप धर लेते हैं। इस व्यक्ति के पोस्टमार्टम में भी यही विष पाया गया। विष विज्ञान के ही एक अन्य अध्ययन के अनुसार, तनाव जनित स्थितियों में शरीर में बनने वाले रसायन विष के समान घातक रूप दिखाने में सक्षम होते हैं। एसिडिटी अपने चरम में इतनी तीव्र प्रभाव वाली हो जाती है कि कागज में छेद कर दे। कहने का तात्पर्य यह है कि सजा के इंतजार में व्यक्ति जिन बुरे मानसिक हालात से गुजरता है, वह भी मृत्यु की सजा से कम नहीं हुआ करते। सुप्रीम कोर्ट ने भी दया याचिकाओं के निपटारे मे देरी और दोषियों के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के आधार पर फांसी को उम्रकैद में बदला है। मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में मिला माफी देने का अधिकार संवैधानिक दायित्व है। उनके दया याचिका निपटाने की कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती लेकिन अगर दोषी दया याचिका दाखिल करता है तो प्राधिकरण का दायित्व है कि वे उसे जल्दी निपटाएं। हर स्तर पर तेजी से काम किया जाए। पिछले एक दशक के मामलों पर गौर किया जाए तो यही प्राधिकरण देरी की वजह बने हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में फांसी की सजा पाए देवेंदर पाल सिंह भुल्लर का ही मामला लें। उसकी दया याचिका 11 साल तक राष्ट्रपति के स्तर पर लंबित रही और तत्पश्चात खारिज की गई। आज वह पागलपन का शिकार है। अजमल कसाब और अफजल गुरु के मामलों में भी देरी हुई जिसके राजनीतिक कारण थे। खास तबका नाराज न हो जाए इसलिये सरकार फैसला नहीं कर पा रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे भी करीब 11 वर्ष से मौत की सजा पर फैसले का इंतजार कर रहे हैं। और तो और... मौत की सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद ऐसे कैदियों को एकांतवास में रखा जाता है। कोर्ट ने इसे भी यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया है कि राष्ट्रपति से दया याचिका खारिज होने तक ऐसा नहीं होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय जेलों की स्थिति पर भी प्रकाश डालता है जहां कैदी नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार जेल में कारावास के दौरान वर्ष 2012 में मृत्यु की 414 घटनाएं हुर्इं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी भारत को मानवाधिकार हनन के लिए आड़े हाथों लिया जा रहा है। ह्यूमन राइट्स वॉच की अपनी विश्व रिपोर्ट में कहा है कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा, और लम्बे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह मानने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति बदतर हो गई है। हालांकि श्रीलंका में सरकार के स्तर से जातीय हिंसा को संरक्षण के विरुद्ध रुख के लिए भारत की सराहना भी हुई है। रिपोर्ट में पुलिस हिरासत में हिंसा पर चिंता के साथ ही फांसी की सजा जारी रखने के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। बहरहाल, शीर्ष न्यायालय ने मानवाधिकारों पर भारत के दावों को बल दिया है। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स के अध्यक्ष सुहास चकमा कहते हैं कि यह फैसला मील का पत्थर है जो भारत को मौत की सजा को पूरी तरह खत्म करने की ओर ले जाएगा, हालांकि उन्होंने उम्मीद नहीं कि देश की सुरक्षा के मामले में भी मौत की सजा पर रोक लगाई जाएगी लेकिन बाकी मामलों में वह नरमी बरते जाने की उम्मीद करते हैं। बाकी के 90 फीसदी मामले ऐसे हैं जहां लोगों को कत्ल या बलात्कार के लिए मौत की सजा सुनाई गयी है और इन सब लोगों को फांसी पर लटकाया नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद संभव है सरकार भी इस दिशा में सोचे।

Saturday, January 25, 2014

गणतंत्रः जन की उम्मीदें और... दर्द

गणतंत्र दिवस सामने है। मनन का वक्त है कि गण ने अपने तंत्र से क्या पाया? तमाम सवाल हर ऐसे राष्ट्रीय त्योहार पर अपना हल पूछते नज़र आते हैं। हमारी उम्मीदें पूरी हुईं? संविधान ने हमें जिन अधिकारों से लैस किया, वो हासिल हुए या नेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के नापाक गठजोड़ ने झटक लिये? हम तो सुरक्षित भी नहीं, सीमाओं पर पड़ोसी देश दुश्मन बनकर आंखें दिखाते हैं तो भीतर, बहन-बेटियां असुरक्षित दिखती हैं। कब क्या हो जाए, पता नहीं। हमें मारने के लिए किसी बम-मिसाइल की जरूरत नहीं, महंगाई जैसे दैत्य हमें रोज मारते हैं। संविधान की धाराएं कुछ लोगों के लिए संरक्षण का काम करती हैं तो कुछ का उनकी आड़ में उत्पीड़न होता है। वह आम आदमी है जिसकी न कोई सोर्स, न सिफारिश। ले-देकर एक उल्लास भर है कि वह महान गणतंत्र का गण है। जब-जब गणतंत्र दिवस आता है, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वह बल्लियों उछलता है। एक दिन की छुट्टी जो मिल जाती है। राष्ट्रीय ध्वजों के साथ राष्ट्रभक्ति के गीतों से उल्लासमय वातावरण में मन खुद ही गुनगुनाने लगता है- जन-गण-मन....सारे जहां से हिंदुस्तां हमारा...। वह टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड देखता है। एकाध बार दिल्ली में विशाल झांकियों के रूप में देश के वैभव को देख आया है। जब-जब इसकी तस्वीर उसके जेहन में घूमती है, उसे लगता है कि अपना मुल्क भी किसी से कोई कम नहीं है, 64 साल के गणतंत्र में चाहे आर्थिक विकास हो, चाहे सुरक्षा या सम्मान, इंफ्रास्ट्रक्चर, जमीन से लेकर आसमान तक की वैज्ञानिक खोजें, चिकित्सा सुविधा हर क्षेत्र में एक बेहतरीन मुकाम हासिल किया है। युवा मेधा दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का डंका बजाए हुए है। लेकिन जब वह किसी थाने या चौकी में जाता है तो उसका यह नशा उतर जाता है। उसकी हिम्मत ही नहीं होती परिसर में भी घुसने की। अव्वल तो उसकी सुनी ही नहीं जाएगी, हो सकता है कि उसे ही हवालात में बंद कर दे। एफआईआर के लिए सिफारिशें करानी होंगी, पैसे भी देने होंगे। कार्रवाई कराने के लिए जूते घिस जाएंगे। सिर भी उसका और जूती भी उसकी जबकि दूसरे कई मुल्कों में सूचना करो पुलिस हाजिर, फटाफट कार्रवाई की जाती है। उसके घर के पास एक गड्ढा है, लोग अक्सर उसमें गिरते रहते हैं। सड़क भी न जाने किस जमाने की बनी है। तारकोल उसमें जहां-तहां चिपका रह गया है। जबकि उसके बगल की कालोनी में हर बार सड़क बनती है। यह अलग बात है कि सड़क वह भी ज्यादा दिन नहीं चलती। बार-बार टूटती रहती है लेकिन उसके लिए पैसे की कमी नहीं रहती। कोई वीआईपी आ जाए तो रास्ता बंद कर दिया जाता है। घंटों न किसी न तो बाहर निकलने दिया जाता है और न बाहर से अंदर जाने दिया जाता। लगता है कि देश अब भी काले अंग्रेजों के हाथ में है। वह खूब पढ़ा लिखा है। नंबर भी औसत हैं लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली जबकि उससे कम अंक वाले उसके अनेक साथी नौकरी पा गए। हालांकि बहुत से लोग उससे भी गए बीते हैं। ऐसे बेरोजगार लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नेशनल सैंपल सर्वे आॅर्गनाइजेशन की 68 वीं रिपोर्ट के अनुसार देश में जनवरी 2010 में 9.8 मिलियन लोग बेरोजगार थे जो जनवरी 2012 में बढ़कर 10.8 मिलियन हो गए। उसके पास ले-देकर प्राइवेट नौकरी है, जिसमें अगले दिन का कभी भरोसा नहीं रहता। ऊपर से महंगाई की मार। चाहे पेट्रोल-डीजल हो अथवा अन्य जरूरी चीजें, उसकी आसमान छूती कीमतें, शिक्षा, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च जाड़े में रजाई से बाहर पैर की तरह हालात कष्टकारी हो चले हैं। इस पर भी कोई काम बिना रिश्वत के नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन किया तो उसे भी उम्मीद बढ़ी थी। जो पैसा उसे एक मामले में रिश्वत में देना था, उसे खर्च करके वह दिल्ली के रामलीला मैदान में धरने में भाग लेने भी पहुंचा था। उसने खूब जोर-जोर से नारे लगाए। लगा था कि अब रिश्वत कैसी? इतना बड़ा आंदोलन है, पूरा देश एक है। लेकिन अब लग रहा है कि वह तो धोखा था। अन्ना भी कहने लगे हैं कि इससे तीस प्रतिशत तक ही भ्रष्टाचार खत्म हो सकेगा। लोकपाल विधेयक भले ही पारित हो गया है लेकिन उसका काम बिना घूस के होते नहीं दिख रहा। पहले उससे दो हजार रुपये देने पड़ रहे थे, उसके अब पांच हजार रुपये मांगे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि महंगाई बढ़ गई है। भविष्य को लेकर भी उसे उसे कोई बहुत अच्छी उम्मीद नहीं दिख रही क्योंकि न तो औद्योगिक प्रगति हो रही है और न ही बाहर से निवेश के लिए कोई कंपनी आ रही है। विकास दर लगातार पीछे खिसक रही है। औद्योगिक उत्पाद चीनी उत्पादों के मुकाबले में बाजार में टिक नहीं पा रहे। न केवल दूसरे मुल्कों में बल्कि अपने देश में भी भारतीय उत्पादों के लिए मुश्किल पैदा हो रही है। आईटी, सॉफ्टवेयर आदि जिसमें भारतीय युवाओं का डंका बजता था, वहां चीनी और ब्राजील के युवा उन्हें चुनौती देने लगे हैं। विकास दर घटने लगी है। देश की जो विकास दर वर्ष 2000 में 7.5 प्रतिशत थी, वह 2010 में 10.1 प्रतिशत हो गई और पिछले साल घटकर 4.4 प्रतिशत पर आ गई । बच्चे जब घर से बाहर निकलते हैं, एक अजीब आशंका सी बनी रहती है। जब तक वापस नहीं आ जाते, चैन नहीं मिलता। पता नहीं कहां कब विस्फोट हो जाए। दुनिया के दादा अमेरिका से बेहतरीन संबंधों के बावजूद आतंकवाद की यह समस्या जबर्दस्त चुनौती बनी हुई है। जहां तक विदेश संबंधों की बात है, सिवाय मार्केट के रूप में खुद के इस्तेमाल अपनी कोई धाक नहीं है। न तो हमारे अपने पड़ोसियों पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका से बेहतर संबंध हैं और नहीं दूसरे मुल्कों से। सबसे ज्यादा मदद देने के बावजूद अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसे हुए हैं। इसी तरह हर तरह की मदद के बावजूद बंग्ला देश से भी अपने विवादों को नहीं सुलझा पा रहे हैं। देश में केंद्र और राज्यों के संबंध भी सुगम नहीं है। कई राज्य अक्सर चिल्लाते रहते हैं कि उनके अधिकार क्षेत्र में दखल दिया जा रहा है। उनकी मदद नहीं की जा रही। केंद्र को शिकायत रहती है कि उनकी योजनाओं का न तो ठीक क्रियान्वयन किया जाता है और न ही उसके निर्देशों का पालन किया होता है। ताजा मामला राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र का है, केंद्र के पुरजोर प्रयास के बावजूद राज्यों के विरोध के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका। जब वह पड़ोस की झुग्गी-झोपड़ियों में चक्कर लगाकर आता है तो उसे दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं। हे भगवान, ये भी इंसान हैं! इनके न खाने के लिए भरपेट भोजन है और न ही तन पर पहनने के लिए कपड़े। योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार गरीबों की संख्या कम हुई है। पहले 37.2 फीसदी लोग गरीब थे, अब 22 प्रतिशत रह गए हैं। लेकिन वास्तव में अमीर और गरीबों के बीच की खाई बढ़ी है। एक वर्ग ऐसा है, जिसकी आमदनी हर साल बढ़ जाती है और दूसरे वर्ग की आय घट रही है। एक ओर सरकारी गोदामों में खाद्यान्न सड़ता है दूसरी ओर लोग भूखों मरने के लिए मजबूर हैं। लहलहाती फसलों की जमीन पर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी होती जा रही हैं। खेती की जमीन सिकुड़ रही है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में जनवरी 2009 में 60.57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन थी जो जनवरी 2011 में घटकर 60.53 प्रतिशत रह गई। पहले जहां 80 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर थे, वे अब घटकर 60 प्रतिशत भी नहीं रहे। यदि बदलाव की यही गति और प्रक्रिया बनी रही तो आने वाले सालों में खेती किसी के परिवार का पूरा बोझ झेल नहीं पाएगी। अब जो किसान खेती करके अपने परिवारों का पालन कर रहे हैं, उनके बच्चों में हरएक को रोजगार की जरूरत पड़ेगी। यह देश के गणतंत्र के लिए जबर्दस्त चुनौती है।

Saturday, January 4, 2014

बदलाव की नई बयार

... तो क्या दिल्ली की हवाएं देश के दूसरे हिस्सों में भी पहुंचने लगी हैं? हरियाणा में पुलिस में आईजी रणबीर शर्मा ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आम जनता को सियासी पार्टियों की गलत नीतियों के विरुद्ध आगाह करने का बीड़ा उठाया है, भीड़ उनकी बात सुन रही है। अब तक सिर्फ अपने काम से काम रखने और राजनीति की बातों से दूर रहने वाले तमाम नामी-गिरामी लोग इरादे बदल रहे हैं। अरविंद केजरीवाल के उद्भव से उन्हें उम्मीद जगी है, वह मानने लगे हैं कि आम आदमी तकदीर बदलने में सक्षम हो सकता है और राजनीति के शुद्धिकरण का जटिल सपना भी हकीकत बन सकता है। विचारों में बदलाव की बयार लोकपाल के लिए समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू हुई। दिल्ली में गैंगरेप हुआ तब जनाक्रोश के समंदर ने सिद्ध किया कि जनता अब बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं। केजरीवाल पहले भी सक्रिय थे, सूचना का अधिकार कानून के लिए उनकी प्रसिद्धि थी, मैग्सेसे अवार्ड मिल चुका था उन्हें लेकिन अन्ना के आंदोलन ने उन्हें पहली बार आम जनता से जोड़ दिया। अन्ना के विचारों से हटकर उनके राजनीतिक सफर का निर्णय भी लोगों के आसानी से गले नहीं उतरा। पर आज उसी बेतुके से लगते रहे निर्णय की बदौलत वह दिल्ली के सीएम हैं। केजरीवाल ने उम्मीदें जिंदा की हैं। उनके साथ जनता की सहानुभूति है, समर्थन है तभी तो वह वीआईपी सुविधाएं न लेने का फैसला करते हैं तो जनता साथ होती है और अगर, यह कहते हुए सरकारी आवास में जाने की तैयारी कर लेते हैं कि इससे काम करने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा, जनता उनके इस तर्क का भी समर्थन करने लग जाती है, जैसे उन पर अविश्वास का मन ही न हो। बड़ा मकान ठुकराने पर उनका समर्थन और बढ़ जाता है। असल में, इसके पीछे सरकार और उसका संचालन करने वाले राजनीतिक तंत्र के प्रति बरसों पुरानी निराशा है। यही वजह है कि रणबीर शर्मा के पीछे भीड़Þ जुट रही है। वह कहते हैं कि देश चलाने वालों से लोग निराश हैं, समस्याओं का हल नहीं हो रहा इसलिये यह निराशा आक्रोश में बदल रही है। रणबीर जब तक सेवा में रहे, सरकार में मौजूद नकारात्मक विचारों वाले लोगों का निशाना बने रहे। उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा व रियल एस्टेट कंपनी डीएलएफ के बीच संदिग्ध भूमि सौदों पर मुखर आईएएस अफसर अशोक खेमका की तरह बेवजह तबादले झेलने पड़े। यहां तक कि सत्ता संरक्षण में आंदोलनों से भी उनका सामना हुआ। शर्मा कहने से नहीं हिचकते कि जरूरी हुआ तो वह राजनीतिक भूमिका भी निभाएंगे। हरियाणा में ही केजरीवाल के सहयोगी योगेंद्र यादव की सभाएं भीड़ खींच रही हैं। भारतीय किसान यूनियन ने उन्हें बिना शर्त समर्थन दिया है यानी वह साथ तो देगी लेकिन किसी चुनाव में सीटें नहीं मांगेगी। आम आदमी पार्टी की सक्रियता बढ़ी है और वह छोटे-बड़े मुद्दे पर सामने आने लगी है। देश के अन्य हिस्सों में भी कमोवेश यही हाल है। मुंबई में बॉलीवुड के लोग बदलाव का झण्डा उठाने के लिए तैयार हैं और यह कोई छोटे नहीं, गायक कैलाश खेर, रेमो फर्नांडिस जैसे बड़े नाम हैं। कैलाश खेर तो यहां तक कह चुके हैं कि राजनीतिक शुद्धिकरण के हवन में यदि मेरी आहुति जरूरी है तो मुझे इसमें भी हिचक नहीं। मुंबई में लम्बे समय से सामुदायिक विकास कार्यक्रमों और नीतिगत सुधारों से जुड़ी रहीं मीरा सान्याल भी हालात में पूर्ण बदलाव की आकांक्षी बनी हैं। रॉयल बैंक आॅफ स्कॉटलैंड की पूर्व इंडिया हेड मीरा सान्याल ने आम आदमी पार्टी में शामिल होकर दक्षिण मुंबई से लोकसभा का टिकट मांगा है। वह इसी सीट पर मुरली देवड़ा के विरुद्ध चुनाव लड़ भी चुकी हैं। उनकी ही तरह देश की दूसरी बड़ी सॉफ्टवेयर सेवा निर्यातक कंपनी इंफोसिस के पूर्व मुख्य वित्त अधिकारी वी. बालकृष्णन दक्षिण में केजरीवाल के सारथी बनने के दावेदार हैं। एचसीएल के एक बड़े पद से त्यागपत्र देकर आर. कृष्णमूर्ति ने भी उनके साथ रहने का इरादा जताया है। तकनीकी दुनिया के ही एक अन्य महारथी आदर्श शास्त्री भी नई भूमिका में आए हैं। वह सालाना एक करोड़ के पैकेज पर बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक्स कंपनी एप्पल में काम कर रहे थे। उनका इरादा आम आदमी पार्टी के लिए काम करने का है और आजीविका के लिए वह एक छोटी सॉफ्टवेयर कंपनी स्थापित करेंगे। वह उन पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र हैं जिन्हें केजरीवाल अपना आदर्श मानते हैं। रेमो गोवा में सक्रिय राजनीति करने के इच्छुक हैं। वह फिलहाल नहीं चाहते कि चुनाव लड़ें लेकिन जरूरत हुई तो हिचकेंगे भी नहीं। बड़े नामों के जुड़ने का क्रम यहीं खत्म नहीं हो रहा, मध्य प्रदेश में रिटायर्ड बिक्रीकर कमिश्नर आरसी गुप्ता और प्रमुख टेलीकॉम कंपनी के चीफ आॅपरेटिंग इंजीनियर रहे एससी त्रिपाठी अभियान संभालने के लिए मैदान में उतर चुके हैं। दूरदराज की बात करें तो आंध्र प्रदेश में समीर नायर और अरुणाचल प्रदेश में हाबुंग प्यांग ऐसे नाम हैं जो केजरीवाल ब्रिगेड के हमराह बने हैं। समीर नायर एक प्रमुख टीवी चैनल के सीईओ रहे हैं और हाबुंग सूचना आयुक्त। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे राकेश सिन्हा उत्तर प्रदेश में संजय सिंह के साथ पार्टी की बागडोर संभाल रहे हैं। उत्तराखण्ड में देशदीपक सचदेवा सक्रिय हैं जो प्रमुख व्यवसायियों में शुमार हैं और विज्ञापन की दुनिया का जाना-पहचाना नाम हैं। अनूप नौटियाल भी उनके साथ हैं जो राज्य आपात फोन सेवा 108 के प्रभारी रहे हैं और अमेरिकन-इंडिया फाउंडेशन में ट्रस्टी भी हैं। ओंकार भाटिया भी उत्तराखण्ड में संगठनात्मक ढांचे का बड़ा नाम हैं, वह आपदा प्रबंधन एवं नवनिर्माण तंत्र की अहम जिम्मेदारी संभालते हैं। सचदेवा की बात में दम दिखता है कि बयार चल रही है इसलिये कुछ स्वार्थी तत्व भी जुड़ सकते हैं, हमें सतर्कता बरतनी होगी। लेकिन यह तय है कि स्थितियां बदल रही हैं, बड़े नामों के सक्रिय होने से संकेत मिल रहे हैं कि दिल्ली से हुई शुरुआत देश में कुछ और गुल तो जरूर खिलाएगी।