Monday, January 27, 2014

मील का एक पत्थर

यह मानवाधिकारों की जीत है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 15 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। बेशक, यह समय की मांग है। मानवाधिकार संरक्षण के लिए जिस तरह दुनियाभर में तेज अभियान चल रहे हैं, सजा के नए मायने सामने आ रहे हैं, उसमें यह फैसला मील का पत्थर सिद्ध होना तय है। जिस देश में अपराध और सजा में औसतन साढ़े 11 वर्ष का फासला हो जहां निचले कोर्ट से फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद से राष्ट्रपति के स्तर से दया याचिका निस्तारण का समय तकरीबन छह साल हो, वहां जेल में निरुद्ध व्यक्ति की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है। भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शुमार है जहां आज भी 'रेयरेस्ट आॅफ द रेयर' मामले में फांसी की सजा दी जाती है। पिछले साल मुंबई हमलों के दोषी अजमल कसाब और संसद पर हमले की योजना बनाने वाले अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया गया तो आठ साल बाद भारत में किसी को फांसी देने के इस फैसले ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को सकते में डाल दिया। ऐसी स्थिति में शीर्ष कोर्ट का फैसला सकारात्मक संकेत दे रहा है। कोर्ट ने फांसी को उम्रकैद में बदलने के पांच आधार दिए हैं। पहला देरी। दूसरा पागलपन। तीसरा जिस फैसले के आधार पर उसे दोषी माना गया है, वह फैसला गलत घोषित हो जाए। चौथा कैदी को एकांतवास मे रखा जाना और पांचवां प्रक्रियात्मक खामी रह जाना। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि फांसी माफी की याचिका पर विचार करते समय देरी के कारण पर भी विचार किया जाएगा। अगर अनुचित और अतार्किक देरी हुई होगी तो फांसी उम्रकैद में बदली जा सकती है। कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या भारत फांसी की सजा को अलविदा कहने को तैयार हो रहा है। मानवाधिकारवादी मौत की सजा पाए लोगों पर इस आधार पर रहम की वकालत करते हैं कि वह सजा सुनाए जाने और मिलने के बीच के समय में रोजाना मानसिक मौत मरा करते हैं। दो वर्ष पूर्व अमेरिकी इलिनॉइस यूनिवर्सिटी ने एक शोध के निष्कर्ष सार्वजनिक किए थे, इनमें सजा की प्रतीक्षा में शरीर में आने वाले बदलावों का जिक्र किया गया था। शोध के तहत मौत की सजा वाले जघन्य अपराध में निरुद्ध एक व्यक्ति से कहा गया कि एक सप्ताह बाद उसे सांप से कटवाकर मौत की सजा दी जाएगी। इस सप्ताह के बाद उसे आंखों में पट्टी बांधकर ले जाया गया, उसे प्लास्टिक के सांप से कटवाने का उपक्रम किया गया तो उसकी मौत हो गई। निष्कर्ष यह था कि बुरा होने की आशंकाएं शरीर में ऐसे नकारात्मक विचार पैदा कर देती हैं जो विष का रूप धर लेते हैं। इस व्यक्ति के पोस्टमार्टम में भी यही विष पाया गया। विष विज्ञान के ही एक अन्य अध्ययन के अनुसार, तनाव जनित स्थितियों में शरीर में बनने वाले रसायन विष के समान घातक रूप दिखाने में सक्षम होते हैं। एसिडिटी अपने चरम में इतनी तीव्र प्रभाव वाली हो जाती है कि कागज में छेद कर दे। कहने का तात्पर्य यह है कि सजा के इंतजार में व्यक्ति जिन बुरे मानसिक हालात से गुजरता है, वह भी मृत्यु की सजा से कम नहीं हुआ करते। सुप्रीम कोर्ट ने भी दया याचिकाओं के निपटारे मे देरी और दोषियों के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के आधार पर फांसी को उम्रकैद में बदला है। मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में मिला माफी देने का अधिकार संवैधानिक दायित्व है। उनके दया याचिका निपटाने की कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती लेकिन अगर दोषी दया याचिका दाखिल करता है तो प्राधिकरण का दायित्व है कि वे उसे जल्दी निपटाएं। हर स्तर पर तेजी से काम किया जाए। पिछले एक दशक के मामलों पर गौर किया जाए तो यही प्राधिकरण देरी की वजह बने हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में फांसी की सजा पाए देवेंदर पाल सिंह भुल्लर का ही मामला लें। उसकी दया याचिका 11 साल तक राष्ट्रपति के स्तर पर लंबित रही और तत्पश्चात खारिज की गई। आज वह पागलपन का शिकार है। अजमल कसाब और अफजल गुरु के मामलों में भी देरी हुई जिसके राजनीतिक कारण थे। खास तबका नाराज न हो जाए इसलिये सरकार फैसला नहीं कर पा रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे भी करीब 11 वर्ष से मौत की सजा पर फैसले का इंतजार कर रहे हैं। और तो और... मौत की सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद ऐसे कैदियों को एकांतवास में रखा जाता है। कोर्ट ने इसे भी यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया है कि राष्ट्रपति से दया याचिका खारिज होने तक ऐसा नहीं होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय जेलों की स्थिति पर भी प्रकाश डालता है जहां कैदी नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार जेल में कारावास के दौरान वर्ष 2012 में मृत्यु की 414 घटनाएं हुर्इं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी भारत को मानवाधिकार हनन के लिए आड़े हाथों लिया जा रहा है। ह्यूमन राइट्स वॉच की अपनी विश्व रिपोर्ट में कहा है कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा, और लम्बे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह मानने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति बदतर हो गई है। हालांकि श्रीलंका में सरकार के स्तर से जातीय हिंसा को संरक्षण के विरुद्ध रुख के लिए भारत की सराहना भी हुई है। रिपोर्ट में पुलिस हिरासत में हिंसा पर चिंता के साथ ही फांसी की सजा जारी रखने के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। बहरहाल, शीर्ष न्यायालय ने मानवाधिकारों पर भारत के दावों को बल दिया है। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स के अध्यक्ष सुहास चकमा कहते हैं कि यह फैसला मील का पत्थर है जो भारत को मौत की सजा को पूरी तरह खत्म करने की ओर ले जाएगा, हालांकि उन्होंने उम्मीद नहीं कि देश की सुरक्षा के मामले में भी मौत की सजा पर रोक लगाई जाएगी लेकिन बाकी मामलों में वह नरमी बरते जाने की उम्मीद करते हैं। बाकी के 90 फीसदी मामले ऐसे हैं जहां लोगों को कत्ल या बलात्कार के लिए मौत की सजा सुनाई गयी है और इन सब लोगों को फांसी पर लटकाया नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद संभव है सरकार भी इस दिशा में सोचे।

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