Saturday, January 25, 2014

गणतंत्रः जन की उम्मीदें और... दर्द

गणतंत्र दिवस सामने है। मनन का वक्त है कि गण ने अपने तंत्र से क्या पाया? तमाम सवाल हर ऐसे राष्ट्रीय त्योहार पर अपना हल पूछते नज़र आते हैं। हमारी उम्मीदें पूरी हुईं? संविधान ने हमें जिन अधिकारों से लैस किया, वो हासिल हुए या नेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के नापाक गठजोड़ ने झटक लिये? हम तो सुरक्षित भी नहीं, सीमाओं पर पड़ोसी देश दुश्मन बनकर आंखें दिखाते हैं तो भीतर, बहन-बेटियां असुरक्षित दिखती हैं। कब क्या हो जाए, पता नहीं। हमें मारने के लिए किसी बम-मिसाइल की जरूरत नहीं, महंगाई जैसे दैत्य हमें रोज मारते हैं। संविधान की धाराएं कुछ लोगों के लिए संरक्षण का काम करती हैं तो कुछ का उनकी आड़ में उत्पीड़न होता है। वह आम आदमी है जिसकी न कोई सोर्स, न सिफारिश। ले-देकर एक उल्लास भर है कि वह महान गणतंत्र का गण है। जब-जब गणतंत्र दिवस आता है, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वह बल्लियों उछलता है। एक दिन की छुट्टी जो मिल जाती है। राष्ट्रीय ध्वजों के साथ राष्ट्रभक्ति के गीतों से उल्लासमय वातावरण में मन खुद ही गुनगुनाने लगता है- जन-गण-मन....सारे जहां से हिंदुस्तां हमारा...। वह टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड देखता है। एकाध बार दिल्ली में विशाल झांकियों के रूप में देश के वैभव को देख आया है। जब-जब इसकी तस्वीर उसके जेहन में घूमती है, उसे लगता है कि अपना मुल्क भी किसी से कोई कम नहीं है, 64 साल के गणतंत्र में चाहे आर्थिक विकास हो, चाहे सुरक्षा या सम्मान, इंफ्रास्ट्रक्चर, जमीन से लेकर आसमान तक की वैज्ञानिक खोजें, चिकित्सा सुविधा हर क्षेत्र में एक बेहतरीन मुकाम हासिल किया है। युवा मेधा दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का डंका बजाए हुए है। लेकिन जब वह किसी थाने या चौकी में जाता है तो उसका यह नशा उतर जाता है। उसकी हिम्मत ही नहीं होती परिसर में भी घुसने की। अव्वल तो उसकी सुनी ही नहीं जाएगी, हो सकता है कि उसे ही हवालात में बंद कर दे। एफआईआर के लिए सिफारिशें करानी होंगी, पैसे भी देने होंगे। कार्रवाई कराने के लिए जूते घिस जाएंगे। सिर भी उसका और जूती भी उसकी जबकि दूसरे कई मुल्कों में सूचना करो पुलिस हाजिर, फटाफट कार्रवाई की जाती है। उसके घर के पास एक गड्ढा है, लोग अक्सर उसमें गिरते रहते हैं। सड़क भी न जाने किस जमाने की बनी है। तारकोल उसमें जहां-तहां चिपका रह गया है। जबकि उसके बगल की कालोनी में हर बार सड़क बनती है। यह अलग बात है कि सड़क वह भी ज्यादा दिन नहीं चलती। बार-बार टूटती रहती है लेकिन उसके लिए पैसे की कमी नहीं रहती। कोई वीआईपी आ जाए तो रास्ता बंद कर दिया जाता है। घंटों न किसी न तो बाहर निकलने दिया जाता है और न बाहर से अंदर जाने दिया जाता। लगता है कि देश अब भी काले अंग्रेजों के हाथ में है। वह खूब पढ़ा लिखा है। नंबर भी औसत हैं लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली जबकि उससे कम अंक वाले उसके अनेक साथी नौकरी पा गए। हालांकि बहुत से लोग उससे भी गए बीते हैं। ऐसे बेरोजगार लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नेशनल सैंपल सर्वे आॅर्गनाइजेशन की 68 वीं रिपोर्ट के अनुसार देश में जनवरी 2010 में 9.8 मिलियन लोग बेरोजगार थे जो जनवरी 2012 में बढ़कर 10.8 मिलियन हो गए। उसके पास ले-देकर प्राइवेट नौकरी है, जिसमें अगले दिन का कभी भरोसा नहीं रहता। ऊपर से महंगाई की मार। चाहे पेट्रोल-डीजल हो अथवा अन्य जरूरी चीजें, उसकी आसमान छूती कीमतें, शिक्षा, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च जाड़े में रजाई से बाहर पैर की तरह हालात कष्टकारी हो चले हैं। इस पर भी कोई काम बिना रिश्वत के नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन किया तो उसे भी उम्मीद बढ़ी थी। जो पैसा उसे एक मामले में रिश्वत में देना था, उसे खर्च करके वह दिल्ली के रामलीला मैदान में धरने में भाग लेने भी पहुंचा था। उसने खूब जोर-जोर से नारे लगाए। लगा था कि अब रिश्वत कैसी? इतना बड़ा आंदोलन है, पूरा देश एक है। लेकिन अब लग रहा है कि वह तो धोखा था। अन्ना भी कहने लगे हैं कि इससे तीस प्रतिशत तक ही भ्रष्टाचार खत्म हो सकेगा। लोकपाल विधेयक भले ही पारित हो गया है लेकिन उसका काम बिना घूस के होते नहीं दिख रहा। पहले उससे दो हजार रुपये देने पड़ रहे थे, उसके अब पांच हजार रुपये मांगे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि महंगाई बढ़ गई है। भविष्य को लेकर भी उसे उसे कोई बहुत अच्छी उम्मीद नहीं दिख रही क्योंकि न तो औद्योगिक प्रगति हो रही है और न ही बाहर से निवेश के लिए कोई कंपनी आ रही है। विकास दर लगातार पीछे खिसक रही है। औद्योगिक उत्पाद चीनी उत्पादों के मुकाबले में बाजार में टिक नहीं पा रहे। न केवल दूसरे मुल्कों में बल्कि अपने देश में भी भारतीय उत्पादों के लिए मुश्किल पैदा हो रही है। आईटी, सॉफ्टवेयर आदि जिसमें भारतीय युवाओं का डंका बजता था, वहां चीनी और ब्राजील के युवा उन्हें चुनौती देने लगे हैं। विकास दर घटने लगी है। देश की जो विकास दर वर्ष 2000 में 7.5 प्रतिशत थी, वह 2010 में 10.1 प्रतिशत हो गई और पिछले साल घटकर 4.4 प्रतिशत पर आ गई । बच्चे जब घर से बाहर निकलते हैं, एक अजीब आशंका सी बनी रहती है। जब तक वापस नहीं आ जाते, चैन नहीं मिलता। पता नहीं कहां कब विस्फोट हो जाए। दुनिया के दादा अमेरिका से बेहतरीन संबंधों के बावजूद आतंकवाद की यह समस्या जबर्दस्त चुनौती बनी हुई है। जहां तक विदेश संबंधों की बात है, सिवाय मार्केट के रूप में खुद के इस्तेमाल अपनी कोई धाक नहीं है। न तो हमारे अपने पड़ोसियों पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका से बेहतर संबंध हैं और नहीं दूसरे मुल्कों से। सबसे ज्यादा मदद देने के बावजूद अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसे हुए हैं। इसी तरह हर तरह की मदद के बावजूद बंग्ला देश से भी अपने विवादों को नहीं सुलझा पा रहे हैं। देश में केंद्र और राज्यों के संबंध भी सुगम नहीं है। कई राज्य अक्सर चिल्लाते रहते हैं कि उनके अधिकार क्षेत्र में दखल दिया जा रहा है। उनकी मदद नहीं की जा रही। केंद्र को शिकायत रहती है कि उनकी योजनाओं का न तो ठीक क्रियान्वयन किया जाता है और न ही उसके निर्देशों का पालन किया होता है। ताजा मामला राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र का है, केंद्र के पुरजोर प्रयास के बावजूद राज्यों के विरोध के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका। जब वह पड़ोस की झुग्गी-झोपड़ियों में चक्कर लगाकर आता है तो उसे दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं। हे भगवान, ये भी इंसान हैं! इनके न खाने के लिए भरपेट भोजन है और न ही तन पर पहनने के लिए कपड़े। योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार गरीबों की संख्या कम हुई है। पहले 37.2 फीसदी लोग गरीब थे, अब 22 प्रतिशत रह गए हैं। लेकिन वास्तव में अमीर और गरीबों के बीच की खाई बढ़ी है। एक वर्ग ऐसा है, जिसकी आमदनी हर साल बढ़ जाती है और दूसरे वर्ग की आय घट रही है। एक ओर सरकारी गोदामों में खाद्यान्न सड़ता है दूसरी ओर लोग भूखों मरने के लिए मजबूर हैं। लहलहाती फसलों की जमीन पर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी होती जा रही हैं। खेती की जमीन सिकुड़ रही है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में जनवरी 2009 में 60.57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन थी जो जनवरी 2011 में घटकर 60.53 प्रतिशत रह गई। पहले जहां 80 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर थे, वे अब घटकर 60 प्रतिशत भी नहीं रहे। यदि बदलाव की यही गति और प्रक्रिया बनी रही तो आने वाले सालों में खेती किसी के परिवार का पूरा बोझ झेल नहीं पाएगी। अब जो किसान खेती करके अपने परिवारों का पालन कर रहे हैं, उनके बच्चों में हरएक को रोजगार की जरूरत पड़ेगी। यह देश के गणतंत्र के लिए जबर्दस्त चुनौती है।

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