Saturday, January 24, 2015

तेल के मोर्चे पर घेरा कसता अमेरिका

हमेशा हवा से बातें करने वाले कच्चा तेल बाजार की इससे बुरी स्थिति क्या होगी कि कुछ देर की उछाल के बाद उसके फिर पुराने ढर्रे पर आ जाने के आसार पैदा हो जाएं। अमेरिका ने इस बाजार को ऐसा बांधा है कि वह आसानी से तेजी पकड़ ही नहीं सकता। दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातक देश अमेरिका ने न केवल तेल की खपत कम की है बल्कि उत्पादन के साथ ही वैकल्पिक उपायों पर निर्भरता बढ़ाकर तेल उत्पादक देशों के आर्थिक समीकरण बुरी तरह उलटा दिए हैं। शेल गैस उसका सबसे बड़ा हथियार सिद्ध हो रहा है।
सऊदी शाह के इंतकाल की खबरों के बाद अगर वैश्विक परिदृश्य पर सबसे ज्यादा चर्चा किसी विषय पर हो रही है तो वो है कच्चा तेल। दरअसल, तेल की कीमतों ने वैश्विक राजनीति तय करने के लिहाज से हमेशा अहम भूमिका अदा की है। बीते कुछ माह से वैश्विक बाजार में तेल की कीमतों में अप्रत्याशित उथल-पुथल मची हुई है। लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में तेल की राजनीति फिर निर्णायक बन गयी है। तेल की गिरती कीमतों पर विचार करें तो एक बड़ा मुद्दा अमेरिका ही नजर आता है। अमेरिका की शेल गैस क्रांति मुख्यत: इस हलचल के केंद्र में है। यह गैस तकनीक पिछले एक दशक में महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार बन चुकी है। अमेरिका के इशारे पर तेल उत्पादन घटाने का विरोध कर रहा सऊदी अरब भी इससे भयाक्रांत है। अमेरिका को सर्वाधिक तेल निर्यात करने वाला यह देश महसूस करता है कि अमेरिका की कच्चे तेल पर निर्भरता अगर यूं ही घटती रही तो उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है। अमेरिका ने पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम की है, साथ ही शेल गैस ने उसके कुल र्इंधन खर्च के 30 प्रतिशत तक की भरपाई कर दी है। सीधा-सा गणित है, यह प्रतिशत बढ़ने के साथ ही सऊदी अरब की कमाई में जबर्दस्त गिरावट आएगी। यही वजह है, सऊदी शाह अब्दुल्ला के उत्तराधिकारी   शाह सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सऊद ने भी तत्परता से पुरानी नीतियों पर ही चलने का ऐलान कर दिया। साफ संकेत सामने आ गए कि सऊदी अरब तेल उत्पादन की अपनी नीतियों में बिल्कुल परिवर्तन नहीं करने जा रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चूंकि मामले की गंभीरता को समझा था और अपनी भारत यात्रा की अवधि घटा दी थी, इसलिये सऊदी अरब और अमेरिका में घनिष्ठता के संकेत भी जल्द ही सामने आ गए।
लेकिन तेल बाजार में क्रांतिकारी सिद्ध हो रही यह शेल गैस है क्या? तकनीकी तौर पर शेल गैस चट्टानी संरचनाओं से उत्पादित प्राकृतिक गैस है जो बालू और लाइमस्टोन आदि की संरचनाओं से पैदा होती है। शेल दरअसल पेट्रोलियम की चट्टानें हैं, ऐसी चट्टानें जो पेट्रोलियम की स्रोत हैं। इन चट्टानों पर उच्च ताप और दबाव पड़ने से ही एक प्राकृतिक गैस उत्पन्न होती है जो एलपीजी की तुलना में कहीं अधिक स्वच्छ है। पिछले दशक में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेल की कीमतों में गिरावट आने का बड़ा कारण इसी शेल गैस को माना गया है। अमेरिका के ऊर्जा, सूचना और प्रशासन विभाग के अनुसार, 2035 तक अमेरिका की ऊर्जा की खपत की 46 प्रतिशत भाग की पूर्ति शेल गैस से ही होगी। शेल गैस उद्योग के विकास में अमेरिका को करीब ढाई दशक का समय लगा है। अमेरिकी सरकार ने 1980 के दशक में गैस शोध पर लाखों डॉलर खर्च किए थे, जिसके नतीजे अब मिलना शुरू हुए। वहां मिकीगन, टेक्सास, ओकलोहोमा, अलाबामा, कोलेरडो, वेस्ट वर्जीनिया आदि स्थानों में यह गैस प्रचुर मात्रा में है। कुछ वर्ष पहले अमेरिका में ही प्राकृतिक गैस की कीमतें जापान और यूरोप के बराबर थीं, लेकिन शेल गैस तकनीक के चलते आज कीमत यूरोप की तुलना में एक तिहाई है। इस गैस से निकलने वाले तेल की लागत करीब 50 डॉलर प्रति बैरल होती है। मौजूदा स्थितियों की बात करें तो करीब सौ डॉलर में अमेरिका को शुद्ध र्इंधन प्राप्त हो जाता है। विश्व में शेल गैस के भंडार अमेरिका, कनाडा और चीन में सबसे अधिक हैं। अमेरिका में भूगर्भीय और आधारभूत संरचनाएं शेल गैस तकनीक के लिए अनुकूल हैं जो अन्य देशों में नहीं है। इसी के चलते ब्रिटेन, पोलैण्ड, यूरोप, चीन और भारत जैसे स्थानों में अभी तक ये सफल नहीं हो पायी है। एक आंकलन के मुताबिक, शेल गैस क्रांति से अमेरिका की लगभग आधी ऊर्जा जरूरतों की ही पूर्ति होने लगे तो शेल गैस अमेरिका को विश्व पटल में सबसे ऊंचे स्थान में काबिज कर देगी जहां तेल खर्च के बोझ का बहुत कम दबाव होगा। 50 डॉलर प्रति बैरल खर्च को घटाने के लिए अमेरिका ऐड़ी चोटी का जोर लगा रहा है, उसके बाद की स्थिति उसके ज्यादा अनुकूल हो जाएंगी। असल में 50 डॉलर का खर्च ही एक बड़ी मुश्किल है, क्योंकि सऊदी अरब में तेल की लागत 25 डॉलर प्रति बैरल है और आयात करने पर यह तेल काफी सस्ता पड़ता है। अमेरिका जानता है कि विश्व में सत्ता में शीर्ष पर काबिज होने के लिए तेल और डॉलर पर नियंत्रण आवश्यक है। रूस का उदाहरण उसके सामने है जो तेल के अत्यधिक सस्ता हो जाने की वजह से अपनी अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव झेल रहा है। अमेरिका अभी डॉलर के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रहा है। उसकी तेल और गैस के लिए ओपेक देशों पर निर्भरता कम हो जाए, तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका असली मायने में सबसे ताकतवर हो जाएगा, यह ओबामा भी समझते हैं लेकिन वह जल्दबाजी के मूड में नहीं हैं। जल्दबाजी दिखाने पर तेल की कीमतों में उछाल और उसके नतीजतन, अर्थव्यवस्था पर बड़े दबाव का भय है।

Monday, January 19, 2015

भारत-रूस में बढ़ती दूरियां

अमेरिका और भारत में नजदीकियां बढ़ रही हैं तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए, यह निकालें कि दोनों देशों के रिश्ते वहां तक पहुंच गए हैं जहां कभी रूस और भारत थे। तमाम मौकों पर अमेरिका ने भारत को अहमियत दी है, तेल आयात में अपने मित्र देशों से मदद दिलाकर  अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, अमेरिकी राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि हैं। उनके स्वागत में पलक- पांवड़े बिछ रहे हैं। कोई कमी न रह जाए, इसके लिए पूरा तंत्र जोर लगा रहा है। विचारों से दक्षिणपंथी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सत्ता  संभालने के बाद से ही हालांकि ऐसी संभावनाएं जताई जा रही थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस को भी नाराज न करने की कोशिशें की हैं लेकिन हालात ऐसे नहीं कि वह अमेरिका को अपने देश से दूर कर पाएं।
भारत और रूस के बीच सम्बंधों पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि दोनों देशों के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे हैं। आजादी से पहले ही भारतीय नेताओं की रूस से नजदीकी रही है। 1955 में जवाहर लाल नेहरू रूस गए। शीतयुद्ध के दौरान भारत को सामरिक मामलों में रूस का सहयोग मिलाता रहा। फिलहाल, मोदी और रूस के सत्ताधीश ब्लादीमीर पुतिन दोनों के समस्या से जूझ रहे हैं, समस्या यह है कि उनके देशों को लम्बे समय से एक सूत्र में बांधे रखने वाली भू-राजनीतिक परिस्थितियां बदलनी शुरू हो गई हैं। भागीदारी का ढांचा भी पहले जैसी विशेष घनिष्ठता का सूचक नहीं रहा, उसमें विलम्बित ठहराव आ गया है। आजकल रिश्तों का सबसे बड़ा मानक आर्थिक सम्बंध हैं और भारत का रूस के साथ दोतरफा व्यापार बमुश्किल तीस हजार करोड़ रुपये का है जबकि वह चीन के साथ इससे 15 गुना राशि का कारोबार कर रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि दोनों देशों ने मुश्किल दौर में एक-दूसरे की काफी मदद की है, लेकिन एक अरसे से दोनों की एक-दूसरे पर निर्भरता घटी है। व्यापार बढ़ना दोनों देशों के हित में है लेकिन यह बढ़ नहीं पा रहा। समस्या की शुरुआत 1990 के दशक में हुई जब सोवियत संघ का विघटन हुआ। रूस ने भारत को उपयुक्त तवज्जो देना बंद कर दिया क्योंकि मास्को पश्चिमी देशों के साथ तारतम्य बैठाने और बाल्टिक सागर से प्रशांत महासागर तक साझे यूरोपीय संघ के निर्माण में जुटा था। इसी बीच भारत ने हथियारों के लिए अमेरिका, इजरायल और फ्रांस से बड़े सौदे किए जिससे रूस में नाराजगी पैदा होने लगी। दूसरी तरफ रूस और पाकिस्तान के बीच रक्षा संबंध और रूस द्वारा पाकिस्तान को एमआई-35 हेलीकॉप्टर बेचने से भारत में नाराजगी पैदा हुई। भारतीय राजनय के कठोर परिश्रम और राजनीतिक तंत्र के मजबूत आत्मविश्वास की बदौलत कठिन परिस्थितियों से भरे दशक में रूस के साथ रिश्ते किसी तरह बचे रहे। रिश्तों में तब्दीलियों का क्रम तब शुरू हुआ जब रूस की बागडोर पुतिन के हाथों में आ गई। पश्चिमी देशों के साथ उन्होंने जो कार्यशील सम्बंध बनाए, उन्होंने भारत का काम अपेक्षाकृत सरल बना दिया और भारत ने रूस एवं पश्चिमी देशों की ओर एक ही समय दोस्ती का हाथ बढ़ाने की नीति अपना ली। पर स्थितियां अब बिल्कुल विपरीत हैं। रूस से हमारे रिश्ते तेजी से बिगड़ रहे हैं। किसी भी कीमत पर पूर्व की ओर विस्तार की नाटो की महत्वाकांक्षा और पड़ोसी देशों में अपना परम्परागत प्रभाव क्षेत्र बनाए रखने की जिद के चलते रूस विवाद में फंस रहा है, पिछले वर्ष यूक्रेन के मामले में उसकी बदनामी हो चुकी है। अमेरिका भी उससे खफा है।
साझा यूरोपीय संघ की रूसी अवधारणा ढेर हो गई है। यूरोप में शीतयुद्ध समाप्ति पर बनाए गए नियमों की बहाली रूस एवं पश्चिमी दुनिया के लिए मुश्किल हो गयी है। पश्चिमी दुनिया से रूस की दूरी बढ़ जाने से भारतीय विदेश नीति पर नए दबाव क्रियाशील हो गए हैं। यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र को रूस के साथ मिलाने की पुष्टि से भारत ने परहेज किया है, बिल्कुल उसी प्रकार जैसे 1979 में रूस के अफगानिस्तान में सेनाएं भेजने के मुद्दे पर उसने सार्वजनिक आलोचना से इंकार किया था। अब रूस और पश्चिमी देशों के बीच नए शीत युद्ध से भारत भी दुविधाग्रस्त हो गया है। एक ओर तो उसे पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक भागीदारी का मोह है और दूसरी तरफ पुराना दोस्त रूस है। महत्वपूर्ण रक्षा और रणनीतिक व्यापार के अलावा दोनों देशों के बीच कोई प्रभावी व्यापारिक आदान-प्रदान नहीं हो रहा। यही रूस कभी हमें वो शस्त्र उपलब्ध कराता था जो कहीं से नहीं मिलते थे। यहां तक कि परमाणु चालित पनडुब्बी अरिहंत का निर्माण में रूस से ही सहायता मिली थी। चीनी नजदीकी के लिए रूस के प्रयास भी भारत के लिए तकलीफदेह हैं। दोनों देशों में न केवल रणनीतिक घनिष्ठता बढ़ी है बल्कि रूस चीन के साथ रक्षा सम्बंधों को पुख्ता करता जा रहा है। उसे उन तकनीकों का निर्यात कर रहा है जो भारत के लिए आरक्षित हुआ करती थीं।सीधी-सपाट बात यह है कि चीन के समर्थन से मास्को एशिया में सत्ता संतुलन का काम कठिन बना रहा है। पाकिस्तान के प्रति उसका प्रेम बढ़ा है जबकि कभी वह पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की सुरक्षा की गारंटी दिया करता था। स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि यदि मास्को पश्चिम विरोधी रुख जारी रखता है, साथ ही चीन और पाकिस्तान से उसकी नजदीकियां बढ़ती जाती हैं तो भारत किसी सूरत में पुरानी दोस्ती बरकरार रखने में दिलचस्पी नहीं दिखा सकता। ऐसी परिस्थितियों में प्रश्न यह है कि अमेरिका और रूस के बीच में क्या भारत संतुलन बना पाएगा? रूस हो या अमेरिका, कारोबारी रिश्तों के मामले में दोनों ही देश भारत के हित में हैं। भारत और रूस के बीच 2011 में 8.87 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था जो 2013 में बढ़कर 10.01 अरब डॉलर हो गया। वहीं भारत ने 2013 में अमेरिका के साथ 63.7 अरब डॉलर और चीन के साथ 65.47 अरब डॉलर का कारोबार किया। भारत चाहेगा कि दोनों देशों से व्यापार में वृद्धि हो लेकिन अमेरिका ने जिस तरह खुले दिल से भारत के साथ व्यापारिक समझौते किए हैं, विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए कदम उठाए हैं, उससे रिश्तों का पलड़ा अमेरिका की तरफ झुकना तय है। ओबामा की यात्रा से भी भारत उम्मीद लगाए बैठा है। मोदी लाख यत्न करें पर लग तो यही रहा है कि रूस की तलना में हम अमेरिका के ज्यादा करीब आ रहे हैं।

Saturday, January 10, 2015

रास्ता तो नहीं भटक गई पत्रकारिता!

फ्रांस की राजधानी पेरिस में 10 पत्रकारों की हत्या कर दी गई। हमलावर दो भाई थे। यह हत्याकांड है और हत्याकांड होते रहे हैं, होते रहेंगे लेकिन यहां बात कुछ मायनों में अलग है। इसलिये नहीं, कि पत्रकार मरे हैं, इसलिये भी नहीं कि आतंकवाद का शिकार हुए हैं... घटना अलग और खास इसलिये है कि शिकार वो तबका हुआ है जो सोते हुए लोगों को जगाने, सच्चाई और न्याय दिलाने जैसी अहम जिम्मेदारियां निभाने के लिए चर्चित है। भारत जैसे देशों में जो लोकतंत्र का चौथा खंभा माना गया है... विश्वसनीयता को जिसका पर्याय कहते हैं। सब-कुछ सकारात्मक है तो इसके 10 सिपाही क्यों मार डाले गए? डराता हुआ सवाल पैदा होता है कि कहीं मीडिया भी रास्ता तो नहीं भटक गया।
आतंकवाद पर लाखों बातें हुर्इं, होती रहती हैं। इसके कारण-निवारण पर भी चर्चाएं आम हैं। धार्मिक कट्टरपंथ को आतंकवाद का प्रश्रय मिलता है, यह बात भी खूब सुनी है लेकिन इनमें मीडिया महज मंच है, तो कहीं... मीडिया  पक्ष तो नहीं बन रहा। दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है। हम महाभारत के संजय की तरह आंखों देखा हाल सुनाने के बजाए खुद पक्षकार बनने लगे हैं। हम न्यूज में व्यूज डालने की इंतिहा कर रहे हैं, हम अपना फर्ज निभाने के बजाए एक पक्ष की तरफ न्याय का पलड़ा झुका रहे हैं। हिंदुस्तान के ही चंद चर्चित प्रकरणों को ही याद कीजिए, बटला हाउस प्रकरण बार-बार उछाला गया। मीडिया का एक तबका यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि इस घटना का ताल्लुक दो युवकों से था। आरक्षण के लिए आन्दोलन चलाएं तो यह सिद्ध करने का प्रयास न करें कि डॉ. अम्बेडकर ने जाति विशेष के लिए इस सुविधा का प्रावधान किया और दूसरे धर्मों के पिछड़ों को भूल गए। सच्चर कमेटी की बात करें तो मुस्लिमों की बदहाली का जिक्र करें, न कि आरक्षण जैसी सरकारी सुविधाओं से सम्पन्न हो चुकी जातियों के बारे में बोलने से बचें। लेकिन इसके उलट, हम आपस में कटुता घोल रहे हैं। हम क्यों नहीं समझते कि सच्चाई हजम कर पाना मुश्किल होता है और वह भी तब, जबकि सच्चाई पर अमल होने की स्थिति में सुविधाएं छिन जाने की आशंकाएं हों। आज मुस्लिम समुदाय की आंतरिक स्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं। उसका बड़ा हिस्सा गरीबी-भुखमरी का शिकार है। ऐसी स्थितियों में धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि पिछड़ेपन के आधार पर उसे आरक्षण मिलना चाहिए। हम उस हेडली की बार-बार बात करते हैं, 26/11 का प्रमुख अपराधीे मानकर जिसके जिसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। आतंकवाद की हर घटना में उस पुरानी घटना का जिक्र करना उचित नहीं। न हेडली के मामले को ज्यादा तूल दिया जाए, न इसी मामले में चुपचाप अमेरिका ले जाई गइ अनिता उदया की चर्चा हो। फहीम अंसारी और सबाहुद्दीन अहमद को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया तो हम पत्रकार खुद विवेचना करने लगे। जरूरत नहीं कि कलम नए सिरे से उन्हें न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करे, बाइज्जत बरी होने की घोषणा से बड़ा न्याय और क्या हो सकता है? हम न्यायविद् तो नहीं, फिर जबर्दस्ती क्यों जज बनने की कोशिश करते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं कि बेगुनाह सिद्ध हुए लोगों ने जेल की सलाखों के पीछे दिन कैसे गुजारे होंगे? उनके परिवार ने क्या-क्या नहीं झेला होगा? परिवार को आतंकवाद के कलंक के साथ सिर झुकाकर अपराधियों से भी कहीं अधिक पीड़ादायक जीवन व्यतीत करने पर मजबूर होना पड़ता है, यह कम कष्टदायक नहीं है।
इसी तरह का मसला कश्मीर का है। बेशक, यह दो देशों के बीच का मामला होने की वजह से जटिल है लेकिन जब तक हम और पाकिस्तान कहते रहेंगे कि कश्मीर हमारा है... समस्या का समाधान नहीं होगा। पाकिस्तान कुछ भी करे, हमें तो अपने लोगों के साथ जुड़ना है इसलिये जिस दिन हम कहने लगेंगे कि कश्मीरी हमारे हैं तो समस्या हल हो जाएगी। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में जिस तरह से लोगों ने  बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की, उससे यह सिद्ध हो ही गया है कि घाटी के लोग हमारे साथ रहना चाहते हैं। यह जनमत संग्रह की मांग करने वालों को करारा जवाब है। शाह फैसल को याद रखिए, वही शाह फैसल जो उग्रवाद के खिलाफ कामयाबी का प्रतीक बन सकता है। फैसल केवल एक मुसलमान या कश्मीरी नहीं, वह व्यक्ति है जिसने आतंकवाद के विरुद्ध सिर्फ शब्दबाण नहीं चलाए बल्कि आतंकवाद और आतंकी हालात को सहन करके दुनिया को संदेश दिया है कि आतंकवाद के विरुद्ध सफल अभियान का तरीका यह है। सिविल सर्विसेज में चुना गया शाह फैसल इतिहास बन गया है। आतंकवादी हमले में अपने पिता को खो देने के बावजूद उसने यह इबारत लिखी। पिता की हत्या महज संयोग नहीं थी, बल्कि आतंकियों को शरण न देने के फैसले में उनकी जान गई थी। पेरिस की घटना ने सिद्ध किया है कि आतंकवाद सारी दुनिया का सबसे बड़ा मसला है कदम- क़दम पर जिसमें मानवता का लहू बहा है, जिसने  पेशावर में तमाम बच्चों की जान ली है, नाइजीरिया में अब तक के सबसे बड़े हमले में शहर और कई गांव फूंक डाले हैं और करीब दो हजार लोगों को मार डाला है। इसी आतंकवाद ने एक धर्म को जैसे खलनायक सिद्ध कर दिया है, जीवन जीने का ढंग सिखाने वाले धर्म को ऐसा बना दिया है जैसे वह जान लेने की शिक्षा देता हो। यह सभी पक्षों के लिए सावधानी से संभालने के योग्य मामला है, धर्म के अनुयायियों की संख्या काफी है और कई देशों में यह बहुसंख्यक हैं। ऐसी स्थिति में हमें कमियों के साथ खूबियां भी उजागर करनी ही चाहिये। एकतरफा खबर लिखने को तो वैसे भी पत्रकारिता के मूल नियमों के विपरीत माना जाता है। खबर तभी बैलेंस होती है जबकि दूसरे पक्ष का भी जिक्र हो। शराब पीकर गिरे व्यक्ति के बारे में खबर लिखने पर भी यह पूछना होता है कि वो शराब पीकर ही गिरा है या गिरे होने की कोई और वजह है? यह सावधानी समय की मांग है और हमारा पेशागत दायित्व भी।

Monday, January 5, 2015

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा...

जीवन क्या  तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ-सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है,
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा,
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा।
ब्रज में बहुत-कुछ है, कान्हा की नगरी मथुरा है, शाहजहां का बनाया ताजमहल है और... गोपालदास नीरज हैं। नीरज जैसा न कोई हुआ और न ही शायद होगा। नीरज क्या हैं, उनके लाखों मुरीदों से पूछिए, उनके एक-एक शब्द पर वाह-वाह की झड़ियां लगाने वालों से पूछिए। कविता के मंच पर अगर नीरज हैं तो सारा वजन उधर ही है। वो आगरे में हैं, यह गौरव इस शहर का है क्योंकि देश-दुनिया में नीरज जैसे बिरले ही हुआ करते हैं।
नीरज का जन्म चार जनवरी 1925 को इटावा के पुरावली गांव में एक साधारण कायस्थ-परिवार में हुआ था। छह साल के होंगे, जब पिता बाबू ब्रजकिशोर स्वर्ग सिधार गए। नीरज ने जो कुछ हासिल किया, वह खुद का कमाया हुआ है। उनका कवि जीवन जीवन मई 1942 से विधिवत प्रारम्भ होता है जब वह हाईस्कूल में पढ़ते थे। यह युवक गोपालदास सक्सेना कवि होकर गोपालदास सक्सेना ह्यनीरजह्ण हो गया। पहले-पहल नीरज को हिन्दी के प्रख्यात लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन का निशा नियंत्रण कहीं से पढ़ने को मिल गया। उससे वह बहुत प्रभावित हुए था। इस सम्बन्ध में नीरज ने स्वयं लिखा है- मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हां, इतना जरूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में निशा निमंत्रण पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई।
नीरज जी उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं, उन्हें राज्य सरकार ने कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया है। बातचीत का क्रम चला तो पता चला कि वह बच्चन जी से भीतर तक प्रभावित हुए। बकौल नीरज, इसके कई कारण थे, पहला तो यही कि बच्चन जी की तरह मुझे भी जिन्दगी से बहुत लड़ना पड़ा है, अब भी लड़ रहा हूं और शायद भविष्य में भी लड़ता ही रहूं। बच्चन जी की महत्ता उन्होंने 1944 में प्रकाशित अपनी पहली काव्य-कृति संघर्ष में भी लिखीं। संघर्ष में नीरज ने बच्चन जी के प्रभाव को ही स्वीकार नहीं किया, प्रत्युत यह पुस्तक भी उन्हें समर्पित की। नीरज हर जगह सम्मानित हुए। तीन बार सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित हुए। पद्मश्री, पद्म भूषण, यश भारती सम्मान मिला। लेकिन साहित्य के पुरस्कारों के प्रति उनकी नाराजगी हमेशा रही। हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों अज्ञेय, धर्मवीर भारती आदि को भारत-भारती सम्मान मिला है, मेरी इच्छा थी कि हम लोग जो हिन्दी कविता को लोकप्रिय बना रहे हैं, उनको भी मिले। ऐसे लोगों को लगातार उपेक्षित किया गया। हमें संघर्ष करना पड़ा। इसकी क्या जरूरत थी? हिन्दी सेवा के लिए हमारे लंबे संघर्ष को क्या लोग नहीं जानते हैं? फिर संस्तुति कराने की क्या जरूरत थी। संस्तुति के बाद दिया गया, वह पुरस्कार कहां रहा। हमें पहला पुरस्कार उर्दू के अनीस सिद्दीकी ने विश्व उर्दू सम्मेलन में दिया था। आठ लोगों में, एक पुरस्कार मुझे दिया गया था। लोगों ने कहा कि हिन्दी वाले को पुरस्कार क्यों दिया? अनीस ने कहा, हिन्दी-उर्दू हम नहीं जानते। हमने तो गजल सुनी है। वहां सुनने पर पुरस्कार दिया गया था, संस्तुति के बाद नहीं। जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो, उससे संस्तुति नहीं करानी चाहिए हमने देश-विदेश में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया है।
सवाल हुआ कि मंचीय और मुख्य धारा की कविता में क्या अंतर है। लोकप्रियता के लिहाज से मंचीय कविता श्रेष्ठ मानी जाती है। फिर भी आलोचक इसे उतना महत्व क्यों नही देते? उन्होंने जवाब दिया, 1950 से लेकर के 75 तक एक मूवमेंट चला। इसके तहत कवियों में किसी गीतकार का उल्लेख नहीं किया गया जबकि सन 62 तक हमारी और गोपालसिंह नेपाली की पहचान गीतकार के रूप में बन चुकी थी। हम लोगों को गवैया कवि कह दिया गया। हम लोगों की लोकप्रियता इतनी थी कि हमारे गीत-कविताएं छपकर हाथोंहाथ बिक जाया करते थे जबकि तथाकथित मुख्यधारा के कवि अपनी रचनाओं को छपवाया करते थे। फिल्मों में रहा। फिल्मी गीतों मे जो भाषा मैंने लिखकर दे दी है, वैसी आज तक कोई नहीं लिख पाया। सांसों की सरगम, सरगम की वीणा, शब्दों की गीतांजलि तू...  इतना मदिर, इतना मधुर.... वगैरह-वगैरह। 1973 में मैं बम्बई छोड़ आया। आज भी मेरे गीत बज रहे हैं। मैं मानता हूं कि आज कविता बदल रही है। नये बिम्ब हैं। लोकमन एक दिन में नहीं बनता। इन संस्कारों से कविता बनती है। एक कविता की अवधारणा यह भी है कि एक नया बिम्ब प्रस्तुत कर देना, एक किताब से ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन बिम्ब का विधान भी आना चाहिए।

कच्चे तेल की संजीवनी

कच्चा तेल देश की अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। मूल्य घटाने से सरकार का इंकार सोने पर सुहागा सिद्ध हुआ है और इससे सरकारी खजाने में सीधे-सीधे छह हजार करोड़ की बड़ी राशि आने का रास्ता साफ हुआ है। यह स्थिति जितने दिन रहे, भारत के लिए उतना ही अच्छा। लेकिन इसकी वजह क्या हैं, दाम कब तक गिरेंगे? भारत को कब तक लाभ होगा? क्यों गिर रहे हैं दाम? 
कच्चा तेल पांच साल के निम्नतर स्तर पर है। मई 2009 में इसके जो भाव थे, आज भी वही हैं। एक नजर में देखें तो इससे घरेलू मोर्चे पर कई तरह की राहत मिल रही है। महंगाई घट रही है। आयात बिल में कमी आ रही है और सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा। पेंट, प्लास्टिक, फर्टिलाइजर और शिपिंग कंपनियां फायदा उठा रही हैं। भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। कोयला आयात में भी वह तीसरे स्थान पर है जबकि प्राकृतिक गैस का पांचवां और ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा आयातक देश है इसलिए तेल की कीमतों में कमी से सर्वाधिक लाभान्वित देशों में भारत भी प्रमुख है। हमारा शुद्ध ऊर्जा आयात, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के छह फीसदी से भी अधिक है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी तेल की ही है। 2014 की दूसरी छमाही के दौरान ऊर्जा कीमतों में करीब 40 फीसदी की कटौती से पूरे वित्त वर्ष के शुद्ध आयात बिल में सवा तीन लाख करोड़ रुपये की कमी आएगी। मूल्यों में नरमी से वित्तीय वर्ष-2015 में तेल कंपनियों की अंडर रिकवरी 40 प्रतिशत घटने का अनुमान है। नियंत्रित मूल्य और बाजार कीमत के बीच के फासले को अंडर-रिकवरी या राजस्व क्षति कहा जाता है और सरकार विभिन्न माध्यमों से कंपनियों को इसकी भरपाई करती है। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से इन कंपनियों को बड़ा फायदा होगा। इसके साथ ही भारत जैसे देशों के लिए कच्चे तेल में आगे आने वाले उछाल से निपटने की तैयारी करने का सुनहरा मौका है। माना जा रहा है कि एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, खासकर चीन और जापान, का आर्थिक विकास कुछ थम रहा है इसीलिए वहां तेल की डिमांड कम हुई है और इसी से तेल के दाम कम हो रहे हैं। भारत के लिए तो अभी सब-कुछ अच्छा दिख रहा है। महंगाई कम होने के साथ ही बचा पैसा बाजार में आने लगा है। दाम गिरना अंतर्राष्ट्रीय मंदी का लक्षण है तो इसका असर आज नहीं तो कल, भारत पर भी पड़ना है। कच्चे तेल का उत्पादन ग्राफ देखें तो इसमें ओपेक देशों की 40 फीसदी, उत्तरी अमेरिका की 17, रूस की 13, चीन और दक्षिण अमेरिका की पांच-पांच और अन्य देशों की 20 फीसदी हिस्सेदारी है। एक बड़ी वजह यह भी है कि अमेरिका में जिस हिसाब से शेल तेल और गैस का उत्पादन बढ़ा है, उससे उसकी मध्य-पूर्वी देशों पर निर्भरता खत्म हो रही है। आने वाले समय में अमेरिका इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हो सकता है।
भारत अपनी जरूरत का 20.2 फीसदी सऊदी अरब से, 13 फीसदी इराक से, 10.8 फीसदी कुवैत, 8.6 फीसदी नाइजीरिया, 7.4 फीसदी संयुक्त अरब अमीरात, 5.8 फीसदी ईरान और 34.2 फीसदी कच्चा तेल अन्य देशों से हासिल करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होते हैं, जिसमें ओपेक की बड़ी भूमिका होती है। चालू वर्ष में भी कच्चे तेल की कीमत 80-85 डॉलर प्रति बैरल तक रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। हालांकि भारत चाहेगा कि विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम कभी बहुत न बढ़ें क्योंकि हम बड़े स्तर पर र्इंधन का आयात करते हैं और सरकार की इच्छा है आॅयल बैंक बनाने की है जिससे महंगाई के दिनों में कुछ दिन तक काम चल सके। गत एक दशक में तेल की कीमतें आसमान पर थीं तो सरकार को बेलगाम महंगाई को काबू में करने के लिए कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय कर कम रखने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसीलिये मौका हाथ आते ही उसने पेट्रोल और डीजल पर दो-दो रुपये उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। आज की स्थिति िमें भी पेट्रोल-डीजल उन वस्तुओं में शामिल हैं, जिन पर देश में सबसे कम टैक्स है। कच्चे तेल पर कोई सीमा शुल्क नहीं है और बिना ब्रांड वाले पेट्रोल-डीजल पर प्रति लीटर तीन रुपये से भी कम उत्पाद शुल्क है। राज्य सरकारें जरूर इस पर शुल्क लगाती हैं। सीमा शुल्क वृद्धि से मिले राजस्व से केरोसिन और रसोई गैस सब्सिडी की क्षतिपूर्ति हो जाएगी। सब्सिडी में कमी और राजस्व में बढ़ोतरी के मेल से राजकोषीय घाटे में एक फीसदी की कटौती की जा सकती है। ड्यूटी में बढ़ोत्तरी को तेल की गिरती कीमतों के साथ समायोजित किया जा सकता है, जिससे मुद्रास्फीति के फिर सिर उठाने का खतरा नहीं रह जाएगा। कुछ खतरे भी दस्तक दे रहे हैं, तेल उत्पादक देशों में भारी उथल-पुथल के संकेत मिल रहे हैं, मसलन वेनेजुएला और रूस में। यह दोनों देश तेल की आमदनी पर दूसरों से ज्यादा निर्भर हैं, जहां तक रूस का सवाल है तो पश्चिमी प्रतिबंधों और तेल की कीमतों के गिरने के गंभीर नतीजे सामने आए हैं। राष्ट्रीय मुद्राओं की दर तेजी से गिरी है, पूंजी का पलायन हो रहा है और निवेशकों ने देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा खो दिया है। यह समझना कि पुतिन के साम्राज्य के दिवालिया होने का पश्चिम पर असर नहीं होगा, भूल है। रूस दिवालिया हो जाता है तो समूची दुनिया के अर्थजगत पर बुरा असर पड़ना तय है। भारत चूंकि रूस का करीबी दोस्त रहा है, इसलिये उसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। लेकिन फिलहाल तो कोई संकट नजर नहीं आ रहा। ऐसी स्थितियों में भारत जैसे देश खुशियां मना सकते हैं।