Friday, December 28, 2018

राममंदिर और भाजपा...

सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर अगली सुनवाई जनवरी, 2019 तक टाल दी है। उम्मीद जताई जा रही थी कि भारतीय राजनीति में चुनाव को नज़दीक आता देख इस मामले की सुनवाई आगे बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सुनवाई किस तारीख से शुरू होगी, इसका फ़ैसला भी जनवरी में ही होगा और यह भी तभी तय होगा कि सुनवाई रोजाना होगी या नहीं? बहरहाल, असंख्य रामभक्तों की तरह भाजपा की भी नजरें शीर्ष कोर्ट पर थीं। प्रश्न यह उठा है कि राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा के लिए हालात कैसे हैं? वह लाभ में है या नुकसान में, या फिर यह मुद्दा उतना बड़ा नहीं रहा जितना सियासी दल मानते और कहकर भाजपा को घेरते हैं? कौतूहल इस बात पर है कि अब भाजपा क्या कर सकती है या करेगी।ये मामला करीब करीब आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितम्बर, 2010 को 2:1 के बहुमत वाले फ़ैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ़ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। इस निर्णय को किसी भी पक्ष ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। 
शाश्वत सत्य है कि अयोध्या के इस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने भाजपा को बहुत-कुछ दिया है। कभी मात्र दो लोकसभा सदस्य वाली यह पार्टी आज केंद्र के साथ ही अधिकांश राज्यों में बहुमत की सरकार चला रही है। राम ने इतना दिया और भाजपा ने क्या किया, यह सवाल भाजपा को मुश्किल में डाल देता है। इस बात में कोई शक नहीं कि अयोध्या और भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक संबंध भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। भाजपा ने जब भी संभव हुआ, इस जुड़ाव को जगजाहिर भी किया। याद कीजिए, जब सन 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी थी तो पूरा मंत्रिमंडल शपथ लेने के तत्काल बाद अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए आया था। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से पार्टी दूरी बनाने लगी। नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया घूम आए, मस्जिद-मजारों में गए, पड़ोस में बनारस के सांसद हैं किंतु अयोध्या आने का उन्हें अभी तक वक्त नहीं मिला है। हालांकि अटकलें जोरों पर हैं कि सुप्रीम कोर्ट का मामला टालने के बाद नरेंद्र मोदी अयोध्या जाएंगे ताकि जनमत में संदेश जा सके कि भाजपा अब भी खासी गंभीर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सक्रियता भी गंभीरता दर्शाती है, उन्होंने पिछले वर्ष दीपावली पर अयोध्या में धूमधाम से आयोजन कराए और इस बार भी प्रस्तावित हैं।
आने वाले दिनों में संत समाज और विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर निर्माण पर समर्थन जुटाने के प्रयास तेज करने जा रहा है। चौदह जनवरी से इलाहाबाद कुंभ में धर्म संसद का आयोजन होगा जिसमें राम मंदिर भी मुद्दा होगा। यह सभी बातें बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाली होंगी। लेकिन भाजपा के लिए कोई भी निर्णया इतना आसान नहीं है। एससी एसटी एक्ट में संशोधन की तर्ज पर अयोध्या के लिए अध्यादेश लाने की मांग की जा रही हैस लेकिन यह सुलभ मार्ग नहीं। राज्यसभा में बीजेपी को बहुमत नहीं है और लोकसभा में अध्यादेश पारित होने के बाद भी राज्यसभा में मामला अटक सकता है। ठीक उसी तरह से, जैसे एक बार में तीन तलाक़ वाला मुद्दा अब तक क़ानून नहीं बन पाया है। बीजेपी अगर अध्यादेश लाती भी है तो भी उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। चुनौती का समय होगा ठीक चुनाव और यह उसके लिए नकारात्मक सिद्ध हो सकता है। अध्यादेश लाने की स्थिति में विपक्षी दलों काे छोड़िए, सहयोगी दलों का भी साथ बीजेपी को मिल पाएगा, ये बात दावे से नहीं कही जा सकती क्योंकि जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर की बात कही थी तब सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के मुखिया नीतीश कुमार ने विरोध किया था। इसलिये बेवजह के बवाल से बचते हुए भाजपा यह प्रचार करना पसंद करेगी कि दूसरे पक्ष की धार्मिक और सियासी एकजुटता उसे मंदिर नहीं बनाने दे रही जिससे पार्टी अपने हिंदुत्ववादी राजनीति के कार्ड को जिंदा रख पाएगी।
फिलवक्त, यह सवाल सबसे मौजू है कि सुनवाई टालने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का क्या असर होगा। भाजपा के लिए यह स्थिति भी सुखद ही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा हालात उसे अपने अनुकूल नहीं दिखाई दे रहे। एेसे में नियमित सुनवाई शुरू होने पर निर्णय उसका मजा किरकिरा कर सकता है। चुनाव में संभव होता कि मुद्दा उसके न उगलते बने, न निगलते। और अगर, जनवरी में कोर्ट नियमित सुनवाई तय भी करता है तो यह संभवतया फरवरी तक शुरू होगी, और निर्णय आते-आते चुनाव की बेला आ जाएगी। तब अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों ही फैसलों के भाजपा के लिए लाभदायक सिद्ध होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। भाजपा गम मनाने के बजाए यदि सूुकून में दिखती है तो उसकी यही वजह है। और इसीलिये, उसने और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मंदिर मुद्दे को तूल देने की रणनीति बनाई है। 

Monday, November 26, 2018

कैद है मेरी आस्था, रिहा कीजिए मी लॉर्ड।

मैं हिंदू हूं। व्याकुल हूं, मेरी आस्था सन 1949 से कैद है। पहले लोहे के जालीदार दरवाजों में थी, और अब हाईकोर्ट होती हुई आपके शीर्ष कोर्ट की फाइलों में। अयोध्या में दो फीट चौड़े और सात फीट ऊंचे लोहे के पिंजड़ों में डेढ़ किलोमीटर चलकर पहुंचा हूं कल, निराशा हाथ लगी है। मेरे आराध्य भगवान श्रीराम बीस गुणा तीस फीट के तिरपाल में बैठे हैं। कुछ दिन पहले फटे-हाल तिरपाल था, और मुझ जैसे करोड़ों लोगों के जीवन का हर निर्णय लेने वाले भगवान जैसे असहाय। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, इसलिये मर्यादा में रहे और हैं शायद। भगवान कृष्ण कारागार में पैदा हुए और बाल रूप में श्रीराम को सैकड़ों बंदूकधारियों के घेरकर रखा गया है, पूरे क्षेत्र हजारों टन लोहे के जालों का अभेद्य दुर्ग है, जैसे दुनिया की सबसे सुरक्षित जेल। गेट से लेकर दर्शन तक मुझे बार-बार टटोला गया। मैं इस सुरक्षा तंत्र से भयभीत हुआ और यह मुझसे, कि कहीं मैं अकेले मंदिर बनाने तो नहीं आ गया। देश का तंत्र यह क्यों नहीं समझता कि मैं निरीह हूं। निरीह भक्त हूं, न कि एक अपराधी और न ही अकेले पूरा मंदिर बना डालने में सक्षम। यह क्यों नहीं समझा जाता कि राम के भक्त यदि बम-बंदूक वाले होते तो यह पिंजड़ा कब का उखाड़कर फेंक दिया गया होता और आज अपने देश में, अपनी जन्मस्थली में राम तिरपाल में नहीं होते।
देश की सरकार पर उम्मीद टिकाए आधी से ज्यादा उम्र गुजार दी मैंने। एक आतंकी को फांसी पर रात को खुल जाने वाले सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीदें हैं मेरी, जिसे यह मुद्दा शायद अहम नहीं दिखता। करोड़ों लोगों की आस्था इस सरकार और कोर्ट के लिए बेमानी-सी हैं जहां। मैं कल से सोच रहा हूं, क्या उस लोहे के पिजड़े में केवल रामलला की मूर्ति कैद है? वहां तो अयोध्या में सौ करोड़ लोगों का स्वाभिमान कैद है। अयोध्या में भारत की आस्था बंद है। अयोध्या में भारत कैद है। लगने लगता है कि अयोध्या में देश के संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता की बातें घुटन में हैं, दम तोड़ती लगती हैं। मेरे भगवान के जन्म की साक्षी अयोध्या बिना-किए का दंड भोग रही है। अयोध्या केवल राजनीतिक खेल का दंश झेल रही है, या हम सबने मिलकर उसकी यह दुर्गति की है, समझ नहीं आ रहा। जब पांच लाख लोगों ने अयोध्या के माथे से बाबरी का कलंक धोया था, तब सत्ता उनके साथ नहीं थी। लोकतांत्रिक भारत का सबसे बड़ा न्यायालय उनके साथ नहीं था। साथ था मात्र उनका साहस, साथ थी उनकी आस्था... वे माथे का कलंक धो सकते थे तो माथे का टीका भी लगाया जा सकता है। हम सत्ता के भरोसे हैं, जो सत्ता इन्हीं राम ने दी है। हम न्यायालय के भरोसे बैठे हैं।
हे राम, मुझे आपका मंदिर चाहिये। मुझे भव्य मंदिर में विराजमान रामलला देखने हैं। प्रभु दर्शन की लालसा पूरी करो मेरी।

Tuesday, October 30, 2018

तंबाकू से प्रारंभ मौत का सफर

शौक के रास्ते शरीर तक पहुंच रही तंबाकू जहर बनकर जान ले रही है। तमाम शोध के निष्कर्ष हैं कि कैंसर के बाद दिल की बीमारियों की भी तंबाकू बड़ी वजह है। चिंताजनक यह है कि हार्ट अटैक की बीमारी युवाओं में तेजी से बढ़ रही है। करीब 40 फीसद युवाओं में हार्ट अटैक का कारण तंबाकू पाया गया है। युवा नहीं संभले और धूमपान के प्रति जागरूक नहीं हुए तो आने वाले दिनों में परिणाम और घातक होगा। 
पूरे विश्व से किसी भी रूप में तंबाकू का सेवन पूरी तरह से रोकने या कम करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने और जागरूकता के विचार से विश्व तंबाकू निषेध दिवस मनाया जाता है। दूसरों पर इसकी जटिलताओं के साथ ही तंबाकू इस्तेमाल के नुकसानदायक प्रभाव के संदेश को फैलाने के लिए वैश्विक तौर पर लोगों का ध्यान खींचना इस दिवस का लक्ष्य है। इस अभियान में कई वैश्विक संगठन शामिल होते हैं जैसे राज्य सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन आदि विभिन्न प्रकार के स्थानीय लोक जागरुकता कार्यक्रम आयोजित करते हैं। भारत में पुराने समय से ही तंबाकू का प्रचलन रहा है। पहले के समय में भी हुक्का-चिलम, बीड़ी, खैनी का नशा किया जाता था, किन्तु आज स्थिति कहीं ज्यादा विस्फोटक हो चुकी है। बीड़ी की जगह सिगरेट ने ले ली है तो हुक्का और चिलम की जगह स्मैक, ड्रग्स ने और खैनी बन गयी है गुटखा। तंबाकू एक धीमा जहर है, जो सेवन करने वाले व्यक्ति को धीरे-धीरे करके मौत के मुँह मे धकेलता रहता है, तब भी लोग बेपरवाह होकर इसका इस्तेमाल किये जा रहे हैं। वैसे तो देश तमाम बीमारियों के कहर से परेशान है, लेकिन इनमें तम्बाकू से होने वाली बीमारियां और नुकसान अपनी जड़ें और गहरी करती जा रही हैं। लोग जाने-अनजाने या शौकिया तौर पर तंबाकू उत्पादों का सेवन करना शुरू करते हैं जो लत में परिवर्तित हो जाता है। 'नशा' एक ऐसी बीमारी है जो हमें और हमारे समाज को, हमारे देश को तेजी से निगलती जा रही है, लेकिन सबसे बड़ा दुःख ये है कि युवा-वर्ग इसकी चपेट में कहीं बड़े स्तर पर आ चुका है। पहले के समय और आज में यह सबसे बड़ा अंतर है, क्योंकि पहले बुजुर्ग लोग सेवन करते थे तो आज छोटे बच्चों को भी धड़ल्ले से सिगरेट, शराब, यहां तक कि शहरों में 'ड्रग्स' सेवन करते पाया गया है। ऐसे में देश के भविष्य को लेकर चिंता होनी ही है। हम सबसे उन्नत मस्तिष्क के जीव हैं। जानते हैं कि तंबाकू खाने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है लेकिन फिर भी इससे बचते नहीं, बल्कि डूबते जाते हैं। तनाव से बचाव जैसे बहाने ढूंढते हैं। तंबाकू सेवन के मामले में इंसन का कुछ ऐसा ही हाल है, कि उसे यदि सीधे तौर से जानवर कह दिया जाए तो बुरा मान लेता है लेकिन यदि उसे जानवरों के राजा यानि शेर कहा जाए तो खुद पर गर्व महसूस करने लगता है। ठीक उसी तरह यदि कोई व्यक्ति नशा का आदी है तो वह लोकलाज के डर से कहीं भी मौका मिलने पर चोरी-छिपे नशा जरूर करता है। नशा करने में खुद पर फक्र महसूस करता है यानी नशा करने में व्यक्ति कहीं न कहीं दिखावटीपन का भी शिकार है। 
सबसे पहले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक शोध की चर्चा करते हैं। इसके मुताबिक, 20 से 30 वर्ष की उम्र में भी हार्ट अटैक से पीड़ित मरीज इलाज के लिए अस्पताल पहुंच रहे हैं। अब तक के आंकड़ों में यह बात सामने आई है कि हार्ट अटैक से पीड़ित लोगों में करीब 35 फीसद मरीजों की उम्र 50 साल से कम व 10 फीसद मरीजों की उम्र 30 साल से कम होती है। हार्ट अटैक से पीड़ित ज्यादातर युवा तंबाकू, सिगरेट और गुटखे का सेवन करते थे। यह देखा गया है कि जो युवा तंबाकू के सेवन के चलते हार्ट अटैक से पीड़ित होते हैं, उनके हृदय की धमनियों में ज्यादा ब्लॉकेज नहीं होता. धमनी ठीक होती है, लेकिन तंबाकू के दुष्प्रभाव से किसी जगह पर रक्त का थक्का जमा हो जाता है। कैंसर तो है ही तंबाकू का बड़ा स्रोत। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद कै कै्सर रजिस्ट्री डाटा कार्यक्रम बता ही चुका है कि भारत में कैंसर से प्रतिवर्ष करीब पांच लाख मौतें होती हैं। इनमें 70 फीसदी मरने वाले वो हैं जो तंबाकू के प्रेम में मौत के द्वार तक पहुंच गए। यह तो दो बड़े रोग हैं और कभी-कभी लाइलाज भी लेकिन, तंबाकू इसके अतिरिक्त भी कई बीमारियों का प्रमुख कारण है। तंबाकू से निर्मित उत्पादों के सेवन से न सिर्फ व्यक्तिगत, शारीरिक और बौद्धिक नुकसान हो रहा है बल्कि समाज पर भी इसके दूरगामी आर्थिक दुष्प्रभाव हैं। हालात यह है कि ग्लोबल एडल्ट टोबैको सर्वे के अनुसार देश में 15 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में से लगभग 10 करोड़ लोग सिगरेट या बीड़ी का सेवन करते हैं। विश्व में तंबाकू के इस्तेमाल के कारण 70 लाख व्यक्तियों की प्रतिवर्ष मृत्यु हो जाती है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार लाखों लोग तंबाकू की खेती और व्यापार से अपनी आजीविका कमाते हैं। 
ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि इन विरोधाभासों का हल कैसे संभव है। दरअसल, तंबाकू की समस्या का हल हर स्तर पर इच्छा शक्ति से जुड़ा हुआ है। फिर चाहे यह इच्छा शक्ति तंबाकू से निजात दिलाने की हो या फिर तंबाकू छुड़ाने का प्रयास करने वाले लोगों की, उसके घर वालों की हो अथवा नियम कायदे-कानून और सरकारों की हो। धूम्रपान से नुकसान: धूम्रपान के इस्तेमाल से चार हजार हानिकारक रासायनिक पदार्थ निकलते हैं, जिनमें निकोटीन और टार प्रमुख हैं। विभिन्न शोध-अध्ययनों के अनुसार लगभग 50 रासायनिक पदार्थ कैंसर उत्पन्न करने वाले पाए गए हैं। तंबाकू सेवन और धूम्रपान के परिणामस्वरूप रक्त का संचार प्रभावित हो जाता है, ब्लड प्रेशर की समस्या का जोखिम बढ़ जाता है, सांस फूलने लगती है और नित्य क्रियाओं में अवरोध आने लगता है। धूम्रपान से होने वाली प्रमुख बीमारियां-ब्रॉन्काइटिस, एसिडिटी, टीबी, ब्लड प्रेशर, लकवा, माइग्रेन, सिरदर्द और बालों का जल्दी सफेद होना आदि भी हैं। धूम्रपान बंद करने के कुछ ही घंटों के अंदर फायदे दिखाई देने लगते हैं। आठ घंटों के अंदर कार्बन मोनोऑक्साइड और निकोटिन की मात्रा खून में 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है और खून में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है। 25 घंटे में कार्बन मोनोऑक्साइड शरीर से पूरी तरह से बाहर हो जाती है और 48 घंटों में निकोटिन शरीर से बाहर निकल जाती है। धूम्रपान बंद करने के एक वर्ष के भीतर दिल की बीमारियां की आशंका 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है। फेफड़े का कैंसर होने की आशंका 10 से 15 वर्षों में 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है। शरीर में रक्त का संचार सुचारु रूप से होने लगता है और देह में ऑक्सीजन की मात्रा अच्छी हो जाती है, ब्रॉन्काइटिस व सांस तंत्र के अन्य रोगों की आशंका भी काफी कम हो जाती है। जरा सोचिये, जीवन आपका है, इसे कैसे जीना है, इसका निर्णय खुद आपको ही करना है। यदि डॉक्टर दवा दे भी देता है तो उसे खाना तो आपको ही है। यदि आप समय से दवा नहीं ले सकते तो कभी भी आप सही नहीं हो सकते। नशा नहीं छोड़ सकते इसलिए यदि आप नशे के लत के शिकार हैं तो खुद निर्णय लें। फिर देखिये, आपका यही निर्णय आपके जीवन को बदलकर रख देगा। तंबाकू के भयावह दुष्परिणाम को देखते हुए हम ये दृढ निश्चय करें कि अपने और अपने प्रियजनों को इससे दूर रखेंगे। ये जिम्मेदारी हमारी है और इसे सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। हां, सरकार भी सिर्फ राजस्व के लालच में और इस तरह के उद्योगपतियों के दबाव से जितनी जल्दी बाहर आ जाए, उतनी जल्दी फायदा देशवासियों को पहुंचना शुरू हो जाएगा, इस बात में संशय नहीं। मार्क ट्वैन ने कहा था कि तंबाकू छोड़ना इस दुनिया का सबसे आसान कार्य है। मैं जानता हूँ क्योंकि मैंने ये हजार बार किया है। आइये आज शपथ लें, कि इस बीमारी से दूर रहेंगे क्योंकि हम तो बचेंगे ही, वो लोग भी खुश होंगे जो हम-में जीवन ढूंढते हैं, हमारे साथ खुश रहते हैं।

उत्तर कोरिया से राहत की ठण्डी बयार

अमेरिका-उत्तर कोरिया के बीच बहुप्रतीक्षित मुलाकात उम्मीद से ज्यादा कामयाब रही और उसके नतीजे अब सामने आने लगे हैं। कोरियाई नेता ने गुस्सा छोड़कर परमाणु ठिकाने खत्म करने की पहल कर दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और कोरियाई नेता किम जोंग की नई पनपी दोस्ती से समूची दुनिया ने राहत की सांस ली है। जिन उम्मीदों पर दुनिया शांति का रास्ता तय करने की अनुमान लगा रही है, वो सुखदेय है। नतीजे आने हैं अभी। हालांकि यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि धुंध छंटी है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में चीन का दबदबा बढ़ा है।
असल में, दोनों पक्षों के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। चीन ने दखल दिया तो मार्ग खुलने लगे। अमेरिका भी चाहता था क्योंकि उसकी अपनी मुश्किलें हैं जिनके चलते हठी तेवरों के राष्ट्रपति ट्रम्प को बातचीत के लिए आगे बढ़ना पड़ा। अमेरिका ने तमाम धमकियां दी थीं। कहा था कि उत्तर कोरिया नहीं माना तो उसे तहस-नहस कर दिया जाएगा। पर सुपर पावर भी घुटने पर यूं नहीं आ गई। अमेरिका ने सीरिया पर बमबारी करके अपनी ताकत दिखाई है। अमेरिका समर्थक कहने लगे थे कि ट्रम्प कोरिया का हश्र भी सीरिया जैसा कर सकते हैं। लेकिन उत्तर कोरिया सीरिया जैसा कमजोर नहीं। दक्षिण कोरियाई खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट पर नजर डालें जिनमें कहा गया था कि 1967 की तुलना में उत्तर कोरिया की ‘कोरियन पीपुल्स आर्मी’ ने तेज प्रगति की। तब की करीब साढ़े तीन लाख संख्या बढ़कर 12 लाख जवानों तक पहुंच चुकी है। यह दुनिया की तीसरी बड़ी सेना है। उत्तर कोरिया में नागरिकों के लिए वर्ष में न्यूनतम दो दफा सैन्य प्रशिक्षण भी अनिवार्य है। उन्हें यह बता दिया जाता है कि युद्ध की स्थिति में सीमा पर बुला जाना तय है। इसके साथ ही, हथियारों के मामले में उत्तर कोरिया पांच शक्तिशाली देशों में शुमार है। वह परमाणु ताकत भी सिद्ध कर चुका है। उत्तर कोरिया के पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) है जिसकी जद में खुद अमेरिका भी है। उत्तर कोरिया कह भी चुका है कि अगर उसे उकसाया गया तो वह अमेरिका पर बिना बताए परमाणु हमला करने से भी नहीं हिचकेगा।
पड़ोसी की ताकत से दक्षिण कोरिया और जापान की चिंता भी अमेरिका के हाथ बांध देती है। याद कीजिए जब अमेरिका ने कोरियाई प्रायद्वीप में विशाल युद्ध पोत कार्ल विंसन तैनात किया था तो दोनों देशों तुरंत सक्रिय होते हुए अमेरिका के पास पहुंच गए थे और किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई से बचने का आग्रह किया था। क्योंकि दोनों ही देश मानते हैं कि अमेरिका के स्तर से उत्तर कोरिया से किसी भी तरह की छेड़छाड़ सबसे पहले उनके लिए कहर बनकर बरपेगी। दक्षिण कोरिया और जापान, दोनों ये तो चाहते हैं कि अमेरिका उनके साथ खड़ा दिखाई दे लेकिन वे किसी भी कीमत पर उत्तर कोरिया पर हमला करना नहीं चाहते। ट्रम्प ने चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर कोरिया पर हमले का वादा किया था, इससे दोनों देश परेशान हुए। यही परेशानी थी कि जापानी पीएम शपथ के एक महीने पहले ही ट्रम्प से मिलने पहुंच गए थे। पूरी दुनिया में व्यापार के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण दक्षिण कोरियाई राजधानी सियोल उत्तर कोरिया की सीमा से सिर्फ 35 मील दूर है। किसी भी तरह के हमले की स्थिति में सियोल सबसे ज्यादा प्रभावित होगा, यह बिल्कुल तय ही था। दक्षिण कोरिया जानता है कि युद्ध की स्थिति में सियोल को बचा पाना अमेरिका के लिए भी असम्भव है। सनद रहे कि 1994 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उत्तर कोरिया के योंगबायोन रिएक्टर पर बमबारी की योजना बनाई थी लेकिन, रेडियोएक्टिव पदार्थ के लीक होने से पड़ोसी देशों को नुकसान था और उत्तर कोरिया की प्रतिक्रिया से सियोल के तबाह होने के डर ने उन्हें कदम बढ़ाने नहीं दिए। उत्तर कोरिया को चीन का संरक्षण है और उसकी मदद से ही ट्रम्प से बातचीत का दौर शुरू हुआ है। चीन भी नहीं चाहता कि युद्ध की कोई भी स्थिति सामने आए। वह जानता है कि युद्ध की स्थिति में उसे भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। सबसे बड़ी समस्या उत्तर कोरियाई शरणार्थी होंगे, जो युद्ध छिड़ने पर शत्रु देश जापान और दक्षिण कोरिया के बजाए चीन में शरण को प्राथमिकता देंगे। व्यापारिक तौर पर भी उसे खासी मुश्किलें सहनी होंगी और बड़े व्यापारी के तौर पर दुनियाभर में स्थापित हो चुका चीन से यह कतई नहीं चाहता था। बहरहाल, वार्ता के दौर ने उम्मीदें जगाई हैं। शांति ही समूची दुनिया के लिए अनिवार्य और आवश्यक है। भारत भी खुशियां मना सकता है क्योंकि व्यापारिक लाभ में उसके हाथ भी उपलब्धियां आने की संभावनाएं पैदा हुई हैं।

राममंदिर और भाजपा...

सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर अगली सुनवाई जनवरी, 2019 तक टाल दी है। उम्मीद जताई जा रही थी कि भारतीय राजनीति में चुनाव को नज़दीक आता देख इस मामले की सुनवाई आगे बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सुनवाई किस तारीख से शुरू होगी, इसका फ़ैसला भी जनवरी में ही होगा और यह भी तभी तय होगा कि सुनवाई रोजाना होगी या नहीं? बहरहाल, असंख्य रामभक्तों की तरह भाजपा की भी नजरें शीर्ष कोर्ट पर थीं। प्रश्न यह उठा है कि राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा के लिए हालात कैसे हैं? वह लाभ में है या नुकसान में, या फिर यह मुद्दा उतना बड़ा नहीं रहा जितना सियासी दल मानते और कहकर भाजपा को घेरते हैं? कौतूहल इस बात पर है कि अब भाजपा क्या कर सकती है या करेगी।
ये मामला करीब करीब आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितम्बर, 2010 को 2ः1 के बहुमत वाले फ़ैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ़ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। इस निर्णय को किसी भी पक्ष ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी।
शाश्वत सत्य है कि अयोध्या के इस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने भाजपा को बहुत-कुछ दिया है। कभी मात्र दो लोकसभा सदस्य वाली यह पार्टी आज केंद्र के साथ ही अधिकांश राज्यों में बहुमत की सरकार चला रही है। राम ने इतना दिया और भाजपा ने क्या किया, यह सवाल भाजपा को मुश्किल में डाल देता है। इस बात में कोई शक नहीं कि अयोध्या और भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक संबंध भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। भाजपा ने जब भी संभव हुआ, इस जुड़ाव को जगजाहिर भी किया। याद कीजिए, जब सन 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी थी तो पूरा मंत्रिमंडल शपथ लेने के तत्काल बाद अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए आया था। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से पार्टी दूरी बनाने लगी। नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया घूम आए, मस्जिद-मजारों में गए, पड़ोस में बनारस के सांसद हैं किंतु अयोध्या आने का उन्हें अभी तक वक्त नहीं मिला है। हालांकि अटकलें जोरों पर हैं कि सुप्रीम कोर्ट का मामला टालने के बाद नरेंद्र मोदी अयोध्या जाएंगे ताकि जनमत में संदेश जा सके कि भाजपा अब भी खासी गंभीर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सक्रियता भी गंभीरता दर्शाती है, उन्होंने पिछले वर्ष दीपावली पर अयोध्या में धूमधाम से आयोजन कराए और इस बार भी प्रस्तावित हैं।
आने वाले दिनों में संत समाज और विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर निर्माण पर समर्थन जुटाने के प्रयास तेज करने जा रहा है। चौदह जनवरी से इलाहाबाद कुंभ में धर्म संसद का आयोजन होगा जिसमें राम मंदिर भी मुद्दा होगा। यह सभी बातें बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाली होंगी। लेकिन भाजपा के लिए कोई भी निर्णया इतना आसान नहीं है। एससी एसटी एक्ट में संशोधन की तर्ज पर अयोध्या के लिए अध्यादेश लाने की मांग की जा रही हैस लेकिन यह सुलभ मार्ग नहीं। राज्यसभा में बीजेपी को बहुमत नहीं है और लोकसभा में अध्यादेश पारित होने के बाद भी राज्यसभा में मामला अटक सकता है। ठीक उसी तरह से, जैसे एक बार में तीन तलाक़ वाला मुद्दा अब तक क़ानून नहीं बन पाया है। बीजेपी अगर अध्यादेश लाती भी है तो भी उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। चुनौती का समय होगा ठीक चुनाव और यह उसके लिए नकारात्मक सिद्ध हो सकता है। अध्यादेश लाने की स्थिति में विपक्षी दलों को छोड़िए, सहयोगी दलों का भी साथ बीजेपी को मिल पाएगा, ये बात दावे से नहीं कही जा सकती क्योंकि जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर की बात कही थी तब सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के मुखिया नीतीश कुमार ने विरोध किया था। इसलिये बेवजह के बवाल से बचते हुए भाजपा यह प्रचार करना पसंद करेगी कि दूसरे पक्ष की धार्मिक और सियासी एकजुटता उसे मंदिर नहीं बनाने दे रही जिससे पार्टी अपने हिंदुत्ववादी राजनीति के कार्ड को जिंदा रख पाएगी।
फिलवक्त, यह सवाल सबसे मौजू है कि सुनवाई टालने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का क्या असर होगा। भाजपा के लिए यह स्थिति भी सुखद ही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा हालात उसे अपने अनुकूल नहीं दिखाई दे रहे। ऐसे में नियमित सुनवाई शुरू होने पर निर्णय उसका मजा किरकिरा कर सकता है। चुनाव में संभव होता कि मुद्दा उसके न उगलते बने, न निगलते। और अगर, जनवरी में कोर्ट नियमित सुनवाई तय भी करता है तो यह संभवतया फरवरी तक शुरू होगी, और निर्णय आते-आते चुनाव की बेला आ जाएगी। तब अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों ही फैसलों के भाजपा के लिए लाभदायक सिद्ध होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। भाजपा गम मनाने के बजाए यदि सूकून में दिखती है तो उसकी यही वजह है। और इसीलिये, उसने और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मंदिर मुद्दे को तूल देने की रणनीति बनाई है।