Friday, June 3, 2016

धर्म में ढंकी सियासत का काला सच

यह अप्रत्याशित तो कतई नहीं था। मथुरा के जवाहर बाग में हजारों असामाजिक तत्वों की भीड़ के सामने अगर नौसिखियाओं की तरह पुलिस और प्रशासनिक अफसर पहुंचे तो वही हुआ, जो हो सकता था। लेकिन बात इतनी सुलझी भी नहीं... यहां बेशक, पुलिस और भीड़ की भिड़ंत हुई पर, इसकी पटकथा राजनीति के बड़े सूरमा ने लिखी। धर्म के घोल में घुली सियासत ने पुलिस के पहले से ही हाथ-पैर बांध रखे थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्ती और स्थानीय राजनीति के प्रतिदिन के हंगामे के उकसावे ने अनुभवी डीएम-एसएसपी के हाथ-पैर फुला दिए और इतने बड़े कांड की कहानी बन गई। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी का एक बड़ा चेहरा भी परदे के पीछे है, मात खाया हुआ, पस्त और बेहाल।
मथुरा में हाईवे के आसपास की बेशकीमती जमीनें माफिया की नजरों में हॉटस्पॉट रही हैं, धार्मिक नगरी में धर्म के कारोबारी भी इस मामले में पीछे नहीं। बाबा जयगुरुदेव के अनुयायी भी अक्सर जमीन पर कब्जे के आरोपों में फंसते रहे हैं। इन्हीं अनुयायियों की नजर करीब ढाई सौ एकड़ के जवाहर बाग पर पड़ी, उस समय बाबा के जयगुरूदेव का गोलोकगमन हुआ था। भीतर बिछी चौसर पर उत्तराधिकार को लेकर शह और मात का खेल चल रहा था। बाबा के नजदीकी पंकज यादव यह जंग जीत गए, तमाम दांव-पेच के बावजूद उमाकांत तिवारी हार गए। लेकिन यह बात तब जोर-शोर से उठी थी कि बाबा ने तिवारी का नाम लिया था। कहा था कि कभी भी हम आएंगे, अब वो अपने लिए.. परमार्थ के लिए। नए लोगों के लिए जो नए आएंगे, लेंगे नाम तो ये उमाकांत तिवारी और पुराने जो नामदानी हैं, वो भी ये सम्हाल करते रहेंगे। इसके बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, उनके अनुज शिवपाल सिंह और पुत्र अखिलेश यादव ने मध्यस्थता की थी। नतीजतन, पंकज यादव के सिर पर ताज सज गया। लेकिन विवाद की कथा लिखनी शुरू हो गई। मथुरा-दिल्ली बाईपास पर सैकड़ों एकड़ भूमि में बने भव्य बाबा जयगुरूदेव नामयोग साधना मंदिर पर यादव समर्थक काबिज हो गए और विरोधी, कुछ समय बाद जवाहर बाग में आकर जम गए। अजूबी मांगों वाले यह लोग खुद को सत्याग्रही बताकर बाग में बसने लगे। कई बार उन्हें हटाने की कोशिश में हंगामे हुए। शासन-सत्ता को खुली चुनौती के बयान सुर्खियां पाते रहे।
ताजा घटनाक्रम में भी सत्ता के दांव-पेच चले हैं। प्रदेश के एक कद्दावर मंत्री की आश्रम पर काबिज समूह से नजदीकियां जगजाहिर हैं। इसी मंत्री की इच्छा पर जिले के पुलिस-प्रशासनिक तंत्र को पर्याप्त मात्रा में फोर्स उपलब्ध नहीं कराया गया। हिंसा में शहीद पुलिस अधीक्षक मुकुल द्विवेदी के मित्र ने खुलकर कहा भी है कि शासन स्तर से पर्याप्त पुलिस फोर्स उपलब्ध कराए जाने को लेकर मुकुल तनाव में चल रहे थे। जिस फोर्स और दम के बूते, वो बाग में घुसे, उससे यह पहले ही तय हो गया था कि मात पुलिस के हिस्से में ही आने वाली है। बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस एेसे अभियान स्थानीय अभिसूचना इकाई से हालात का फीडबैक लेने के बाद चलाती है। सेना के साथ अॉपरेशन में सहयोग की रणनीति बनाई पर, एेन वक्त पर सेना को बुलाया ही नहीं गया। जिस जवाहर बाग के एक तरफ जिला मुख्यालय यानी कलक्ट्रेट, दूसरी ओर जिला जेल, तीसरी तरफ सैन्य क्षेत्र और चौथी ओर दिल्ली राजमार्ग है, एेसे संवेदनशील क्षेत्र में खिचड़ी पक जाना स्थानीय खुफिया तंत्र की नाकामी है।
इतनी लापरवाही कैसे हो सकती है कि बाग में हथियारों का जखीरा जमा हो, हैंड ग्रेनेड, फरसे-तलवारें, एके 47 जैसे अस्त्रों-शस्त्रों का जमावड़ा हो और पुलिस जैसे मात्र हाथों में डंडे लेकर पहुंच जाए। शुरुआती दौर में ही फरह थाने के प्रभारी संतोष यादव और एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के घायल होने के बाद अफरातफरी मच जाना तो एेसा है जैसे बच्चों का कोई खेल हो। आश्चर्य इस बात का भी है कि आगरा परिक्षेत्र के डीआईजी मथुरा जाकर हालात का जायजा लें, रणनीति बनाएं लेकिन अन्य जिलों की फोर्स तक मुहैया कराने की जरूरत न समझी जाए।
सूत्र तो यहां तक कहने से नहीं हिचक रहे कि कद्दावर मंत्री के इशारे पर आला अफसरों ने लापरवाही बरती। यह नेता चाहता है कि नया आश्रम बन जाए और इस बागी गुट का जयगुरुदेव आश्रम पर काबिज गुट के बीच ताकत का संतुलन बना रहे। इस बीच सक्रिय हुए काबिज गुट ने अवैध कब्जेदारों में मतभेद कराकर अपनी घुसपैठ बढ़ा ली। बवाल के बाद ज्यादातर लोगों का मंदिर की तरफ भागना इसी ओर इशारा कर रहा है कि अंदरखाने कुछ और भी पक रहा था। सवाल तो कई हैं जो इन अवैध कब्जाधारियों को सत्ता के संरक्षण का शक पैदा कर रहे हैं। पहला और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मात्र दो दिन सत्याग्रह की अनुमति लेने वालों को दो साल तक क्यों जवाहर बाग से नहीं हटाया गया? उन्हें सरकारी दर पर राशन कैसे और किसके इशारे पर मुहैया कराया जाता रहा? बिजली आपूर्ति कैसे चलती रही और तीन बार खराब हुए दो सरकारी नलकूप किसने और क्यों ठीक कराए जबकि उनके लिए किसी बिल का  भुगतान नहीं हो रहा था? धर्म के आवरण में ढंके राजनीति के इस खेल ने पुलिसकर्मियों की बलि ली है, हालांकि लगता अब भी नहीं कि दोषी बेनकाब होंगे। जांच में भी लीपापोती के पक्के आसार हैं क्योंकि जांच मंडलायुक्त स्तर के एक सरकारी अफसर को दी गई है, न कि किसी न्यायिक अधिकारी को। आयुक्त की मजबूरी होगी कि वह सत्ता की मर्जी के माफिक रिपोर्ट तैयार करे। जांच अधिकारी बदला गया है। पहले घोषित आगरा का कमिश्नर सपा के दूसरे प्रभावशाली नेता का करीबी था जो कद्दावर मंत्री से आजकल छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं। आगरा के कमिश्नर की जांच कद्दावर मंत्री के गले फंस सकती थी। बहरहाल, इस प्रकरण पर शासन-सत्ता को शर्म तो करनी ही चाहिये।