Saturday, November 29, 2014

'सार्क' पर ललचाता चीन

दक्षिण एशियाई देशों का साझा मंच सार्क अपने 18वें शिखर सम्मेलन में अगर किसी बड़े परिणामों तक नहीं पहुंच पाया तो इसकी वजह क्या हैं? भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ की बात यदि छोड़ भी दें तो संगठन के नेताओं के बीच वो सौहार्द दिखा ही नहीं जिसके लिए यह जाना-माना जाता था। दरअसल, एक छिपी शक्ति कुछ नेताओं को अपनी अंगुलियों पर नचा रही थी। उसकी मंशा  थी कि सम्मान गुट निरपेक्ष देशों के नेता के रूप में जैसा सम्मेलन भारत ने सार्क में पाया है, उसमें कमी आ सके। यह छिपी शक्ति थी चीन। एशिया की यह महाशक्ति सार्क और अन्य एशियाई देशों में उपस्थिति बढ़ाने के साथ ही दखलंदाजी की यथासंभव कोशिश में जुटी है।
सार्क यानी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन में अमेरिकी प्रेक्षक के रूप में बराक ओबामा प्रशासन की दक्षिण एवं मध्य एशिया के लिए मुख्य वार्ता निशा देसाई बिस्वाल की तरह चीनी पर्यवेक्षक की भी मौजूदगी थी।  यूरोपीय संघ, जापान और म्यांमार भी संगठन के पर्यवेक्षक हैं। असल में, चीन सार्क की सदस्यता चाहता है इसीलिये उसने सदस्य देशों को बुनियादी ढांचे और विकास के लिए अरबों डॉलर की पेशकश कर ललचाया है। चीन दक्षिण एशिया की परिधि में नहीं आता, फिर भी पाकिस्तान और नेपाल ने उसकी सदस्यता की पैरवी की है। नेपाल के वित्त, विदेश और सूचना प्रसारण मंत्री समेत कुछ पूर्व मंत्रियों ने चीन की खुलेआम पैरवी की है। ऐसी स्थितियों में भारत को सतर्क होने की जरूरत है। पिछले अधिवेशन में पाकिस्तान ने इस आशय का प्रस्ताव भी रखा था। चीन का सार्क में भी आर्थिक और रणनीतिक प्रभाव का विस्तार भारत के हितों को चुनौती देता है। भारत सार्क में चीन के दखल से चिंतित नहीं है, लेकिन वह सार्क मंच का सबसे ताकतवर भागीदार है। चीन को सदस्य बनाया जाता है, तो भारत के पड़ोसी देशों को चीन के रूप में एक आर्थिक विकल्प मिल जाएगा। जाहिर है, इससे भारत का वर्चस्व घटेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसीलिये सार्क देशों को टॉप प्रायर्टी पर ले रखा है, वह निजी तौर पर प्रयास कर रहे हैं कि पाकिस्तान को छोड़कर अन्य देशों के साथ गहरे रिश्ते बनाए जाएं। इसी क्रम में नेपाल को 150 करोड़ रुपए का ट्रॉमा सेंटर, ध्रुव हेलीकॉप्टर, 900 मेगावाट पनबिजली परियोजना, एक अरब डालर का आसान ऋण, बस सेवा और 500-1000 के नोटों का नेपाल में भी चलन आदि ऐसे कुछ तोहफे दिए गए हैं कि नेपाल चीन की तरफ न जाए। परंतु चीन ने पाकिस्तान और श्रीलंका में जिस तरह परिवहन और आर्थिक बुनियादी ढांचा बनाया है, उससे चीन के असरदार विस्तार को नकारा नहीं जा सकता। इसके अलावा, उसने सिल्क रोड प्रोजेक्ट से सार्क देशों को आधारभूत ढांचे के लिए 40 अरब डॉलर देने का वादा किया है। नेपाल को उसके उत्तरी, सीमाई जिलों के चौतरफा विकास के लिए 1.6 अरब डालर देने की पेशकश की है। ये जिले चीन के तिब्बत वाले भाग से सटे हुए हैं।
पाकिस्तान की कोशिश कश्मीर मुद्दे पर एक सशक्त समर्थक ढूंढने की है जो वह आजादी के बाद से निरंतर करता रहा है। चीन खुलकर उसके पक्ष में नहीं बोलता लेकिन सहयोग में किसी तरह की कसर भी बाकी नहीं रखा करता। पाकिस्तान को लगता है कि यदि चीन सार्क का सदस्य बन गया तो यहां भी शक्ति संतुलन की स्थिति आएगी और वह भारत के विरुद्ध चीन के पाले में जाकर खड़ा हो जाएगा। हालांकि सार्क द्विपक्षीय मामलों पर विचार का मंच नहीं है, लेकिन दो बड़े देशों का तनाव और टकराव अंतत: संगठन के विमर्श को ही प्रभावित करता है। शायद इसीलिए पाकिस्तान चीन के दखल की पैरवी कर रहा है। भारत का तर्क है कि सार्क का गठन दक्षिण एशिया के देशों के बीच सहयोग को बढ़ाने के मद्देनजर किया गया था। कश्मीर मुद्दा ही उसके लिए जीवनदायिनी है किंतु वहां चल रहे विधानसभा चुनावों ने पाकिस्तान की उम्मीदों को झटका दिया है। अब तक हुए जबर्दस्त मतदान को भाजपा के पक्ष में भी माना जा रहा है। पाकिस्तान जानता है कि अगर कश्मीर में भाजपा का प्रभाव बढ़ा तो उसके लिए तमाम मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। अलगाववादी तत्वों की गतिविधियां बाधित होंगी। कश्मीर घाटी में बहुसंख्यक मुसलमान हैं जो भाजपा का परंपरागत वोट बैंक नहीं माने जाते। इस हकीकत के बावजूद लोकसभा चुनावों में विधानसभा की कुल 87 में से 25 सीटों पर भाजपा विजयी रही, जबकि नौ अन्य सीटों पर उसे दूसरा स्थान हासिल हुआ। भाजपा ने तब तकरीबन 33 फीसदी वोट पाए थे। माना जा रहा है कि कश्मीर ने हाल ही में भयंकर बाढ़ और उसके बाद की बर्बादी झेली है,साथ ही इस जटिल घड़ी में प्रधानमंत्री की शिरकत और मदद को देखा भी है। लिहाजा, चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता भी मिल सकती है। पाकिस्तान की मुश्किल यह है कि वह कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह की हिमायत करता है और प्रचंड मतदान इस बात का सबूत है कि जनमत भारत के साथ है। जनता हर स्तर पर पाकिस्तान की दखलंदाजी को नकार रही है। कश्मीर को पाकिस्तान की पैरोकारी, हमदर्दी और जनमत संग्रह की मांग कतई मंजूर नहीं। नतीजतन, पाकिस्तान के लिए यह निराशा और हताशा का संदर्भ हो सकता है कि जिस कश्मीर की आड़ में पाकिस्तान अपनी कूटनीति खेलना चाहता है, उसे उसकी भूमिका की दरकार नहीं है। आज का कश्मीर भारतीय होने में सुरक्षित और अपनत्व का एहसास करता है। वह धरती की जन्नत का नूर लौटते और पर्यटन की बयार बहते देखना चाहता है। कमोबेश, पाकिस्तान की उस संदर्भ में कोई जरूरत नहीं है।

Sunday, November 23, 2014

विदेशी परिंदों के देशी ठिकाने

ताजमहल, फतेहपुर सीकरी जैसी विश्वदाय इमारतें और मथुरा-वृन्दावन के मंदिर ही नहीं, ब्रज में बहुत-कुछ है। देश- दुनिया के लोग यूं ही नहीं पहुंचते  और करोड़ों-अरबों विदेशी मुद्रा  की ऐसे ही कमाई नहीं हो जाती, पर कुछ ऐसा भी है जिसे अभी प्रचार पाना है। ब्रज में दो ऐसे पड़ाव हैं जहां देश-विदेश के कई हजार आम और खास पक्षी आते हैं। सर्दियां दस्तक दे चुकी हैं और साथ ही आगरा की कीठम झील और भरतपुर के घना पक्षी विहार में इन अद्भुत मेहमानों का आना शुरू हो चुका है। नजारे मनभावन हैं, पर दुखद ये है कि भीड़ उतनी नहीं है जितनी पक्षियों की कम भीड़ वाले क्षेत्रों में रहती है।
आगरा अपनी कीठम झील को इंटरनेशनल वैटलैण्ड लिस्ट में शुमार कराने को लायायित है। भरतपुर स्थित केवलादेव घना पक्षी विहार को यूनेस्को ने विश्व धरोहर सूची में रख रखा है।  इसका उल्लेख बाबरनामा में भी आता है। विख्यात पक्षी वैज्ञानिक सलीम अली ने कहा था कि पक्षियों का यह अंतर्राष्ट्रीय प्रवास एक अनसुलझी गुत्थी, एक रहस्य है। शीतकाल में यहां लगभग सवा दो सौ प्रजातियों के स्थानीय और विदेशी परिंदे यहां निर्द्वंद्व दाना चुगते, घोंसले बनाते और प्रजनन करते देखे जा सकते हैं। इस पक्षी विहार का निर्माण करीब ढाई सौ साल पहले किया गया था और बाद में नामकरण केवलादेव (शिव) मंदिर पर कर दिया गया। प्राकृतिक ढाल होने के कारण यहां वर्षाकाल में अक्सर बाढ़ का सामना करना पड़ता था। इसलिए भरतपुर के शासक महाराजा सूरजमल ने यहां अजान बांध का निर्माण कराया, जो दो नदियों (गंभीरी और बाणगंगा) के संगम पर बनवाया गया था। संरक्षित वन्य क्षेत्र की घोषणा से पहले यह रियासत काल में भरतपुर के राजाओं का निजी शिकारगाह था। अंग्रेजी शासन के दौरान कई वायसरायों और प्रशासकों ने हजारों की तादाद में बत्तखों और मुर्गाबियों का शिकार किया। लेकिन आजादी के कुछ साल बाद यह अली की वजह से यह सिलसिला बंद हो गया। प्रवासी पक्षियों के लिए बेहद उपयुक्त वातावरण, प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता और पक्षियों को मनवांछित भोजन की उपलब्धता इन दोनों स्थलों की खासियत है। सर्दियों की आमद पर इन वैटलैण्ड पर पक्षियों की चहचहाहट, बसेरों के लिए कशमकश और विचरण करते उनके दल बरबस ही सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। ये प्रवासी पक्षी मुख्यत: तिब्बत, मध्य एशिया, रूस, अफगानिस्तान और साइबेरिया से अपना सफर तय करते हुए डेरा जमाते हैं। पिछले दो साल की गणना का आंकड़ा देखें तो वर्ष 2012-13 में प्रवासी पक्षियों की 110 प्रजातियों के लगभग 85 हजार पक्षी भरतपुर पहुंचे। वर्ष 2013-14 में इन पक्षियों की 112 प्रजातियों के लगभग इतने ही पक्षियों ने यहां पड़ाव बनाया। पक्षियों के आगमन में बढ़ोत्तरी सिद्ध करती है कि भरतपुर पर्यावरण की दृष्टि से सैरगाह पक्षियों की पसंदीदा स्थली बन रहा है। हालांकि कीठम के मामले में यह स्थिति थोड़ी उलट है, वहां कम प्रजातियों के अपेक्षाकृत कम पक्षियों का आगमन होता है लेकिन नजारे वहां भी कम आकर्षक नहीं हुआ करते।
जिन पक्षियों के आने का क्रम प्रतिलक्षित हो रहा है, उसमें मुख्यत: बार हैडिड गीज, नार्दर्न पिंटेल, कॉमन टील, कॉमन पौचार्ड, कूट्स, टफ्ड पौचार्ड, ग्रेट कारमोनेंट, रूडी शेल्डक और पूरासियन वेग्योन जैसी मुख्य प्रजातियां यहां सर्द ऋतु बिताने आती हैं। इसके अलावा कॉमन रोल्डक, साइबेरियन क्रेन (पांच साल से इसका आगमन बंद हुआ है), ओस्प्रे, वफ विलेड पिपट, इंडियन स्केमर और लिटल गल्ल की इक्का-दुक्का प्रजातियां भी दिखाई दीं जो अब तक हिमाचल प्रदेश में ही ज्यादातर आती थीं। रिंग और कलरिंग पर प्रवासी पक्षियों की पहचान चिह्नित करने के प्रयत्न भी किए गए थे, जिससे पता चला है कि चिह्नित पक्षियों के आने के क्रम में थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव चलता रहता है। निष्कर्ष पक्षियों के अमुक स्थान पर आगमन क्रम में परिवर्तन को दर्शाते हैं। संभावना यह है कि एक जगह आने के बाद चिह्नित पक्षी किसी अन्य स्थल को अपना नया बसेरा बना लेते हों, उनकी जगह दूसरे पक्षियों का आगमन बदस्तूर परिवर्तनशीलता को दर्शाता है। संदेह नहीं है कि पक्षी बहुत अच्छे से दिशाओं का अंदाजा लगा लेते हैं और मीलों दूर यात्रा करने के बाद भी नहीं भटकते और गंतव्य स्थल को हमेशा याद रखते हैं। यह अनोखी दक्षता उन्हें स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। दोनों ही वैटलैण्ड्स के आसपास खेती होती है और इसीलिये पक्षियों की स्वाभाविक प्रक्रिया दानों को चुगने और सुलभ उपलब्ध भोजन को भक्षण करने की होती है, फिर चाहे वह किसानों की खेती ही क्यों न हो। पक्षियों के किसानों की खेती की तरफ पसरते कदमों को रोकने के लिए तरह-तरह के कदम उठाने की प्रक्रिया पक्षियों को डर का एहसास दिलाती है। किसान पटाखे, ड्रम और टीन बजाकर भी पक्षियों को अपनी फसलों से दूर रखने की कोशिश करते हैं। पक्षी मानवीय निकटता, चाहे वह बनावटी ही क्यों न हो, को सहर्ष स्वीकार नहीं करते इसलिये वहां से दूर भाग जाते हैं। हो सकता है कि कुछ प्रतिशत पक्षी इसी वजह से आगामी वर्ष के लिए अपना बसेरा बदल लेते हों।  बहरहाल, हमें पर्यटन की दृष्टि से इन दोनों स्थलों का प्रचार करना है। साथ ही पक्षियों के अनुकूल पर्यावरण भी बनाना है क्योंकि पर्यटक आएंगे तो उन्हें पक्षियों का झीलों के आसपास मंडराना और उनकी मधुर चहचहाहट रोचक लगेगी। ऐसे में व्यक्ति प्राकृतिक सौंदर्य में कहीं खो सा जाता   है। प्रवासी मेहमान पक्षियों को देखने की चाह भी हमारे पर्यटन को नया आयाम प्रदान करेंगी। पर्यटन के क्षेत्र में एक नए अध्याय का सूत्रपात होगा।

Thursday, November 6, 2014

जम्मू-कश्मीर की बदलती आवोहवा

घाटी में इनदिनों चुनाव का मौसम है, तो आवोहवा बदली हुई है। राज्य में कांग्रेस के साथ साझी सत्ता पर काबिज नेशनल कॉन्फ्रेंस और प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट चुनाव के पक्ष में नहीं थे, लेकिन मजबूरी है इसलिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। दोनों दल जानते हैं कि एक कदम भी पीछे हटे तो राज्य में भारतीय जनता पार्टी के लिए रास्ता साफ करने का आरोप लगेगा, और अगर भाजपा किसी तरह सत्ता में आ गई तो पूरा खेल बिगड़ जाएगा। राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए ये सर्वाधिक दुष्कर और प्रतिष्ठा के चुनाव हैं।
जम्मू और कश्मीर, दोनों का मिजाज उलट है। जम्मू में हिंदूवादियों का अच्छा असर है। इस बार की अमरनाथ यात्रा के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं के विरुद्ध यहां के दुकानदारों और स्थानीय लोगों ने जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया था। एक महीने तक स्थानीय बाजार बंद रखा गया था। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने इस पर प्रतिक्रिया जाहिर की किंतु बाजार खुले नहीं। जम्मू के बारे में कहा जाता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे अलगाववादी दल यहां अपनी कई स्थानीय इकाइयां गठित नहीं कर पाए हैं। यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात जम्मू के कपड़ा विक्रेता अमित कुमार से हुई। अमित गौरवान्वित थे कि हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी को उनके साथी दुकानदारों ने स्थानीय लोगों की मदद से स्थानीय होटल लिटिल हॉर्ट से खदेड़ दिया था। गिलानी पांच दर्जन लोगों के साथ स्थानीय इकाइयों का गठन करने आए थे, लेकिन पुलिस और खुफिया एजेंसियों की सक्रियता से परेशान लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से गिलानी को होटल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। योजना में होटल संचालक को साथ लेकर होटल में तोड़फोड़ का नाटक किया गया। यह एक उदाहरण मात्र है। जम्मू छोड़िए, कश्मीर में भी जब भारत-विरोधी किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, जम्मू में जबर्दस्त प्रतिक्रिया होती है। यहां न केवल भाजपा बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरी तरह सक्रिय तंत्र है। जम्मू में भाजपा का जनाधार ही है कि उसके प्रत्याशी जीत हासिल करते रहे हैं। इन चुनावों में राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों की बेचैनी की एक वजह भाजपा की वो योजना है जिसके तहत वह कश्मीर में भी प्रत्याशी लड़ा रही है। यह योजनाबद्ध सक्रियता ही है कि उसके प्रत्याशियों  ने प्रतिद्वंद्वियों से पहले चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया। सूची में मुस्लिमों की संख्या भी खूब है, जबकि अब तक मुस्लिम तो दूर, भाजपा के बैनर तले हिंदू भी चुनाव लड़ने से बचा करते थे। डराने के लिए भाजपा और अन्य हिंदूवादी दलों के प्रत्याशियों पर हमले तक हो जाया करते थे।
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर अक्सर हिंदू समर्थक कहकर मुुस्लिम विरोधी होने का आरोप  लगाया जाता है, ऐसे में मुसलमानों का जुड़ाव साबित करता है कि राष्ट्रवादी मुस्लिमों का पुराना भाजपाई सूत्र निराधार नहीं है। हाल ही में थॉमस फ्रीडमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा कि खामीयुक्त लेकिन जीवंत लोकतंत्र की वजह से ही भारत के मुसलमानों में से बहुसंख्य खुद को पहले भारतीय मानते हैं। कुछ दिन पहले घाटी में जिस वक्त बाढ़ का प्रकोप था, तब केंद्र की सक्रियता ने भी मुस्लिमों का रुख मोड़ा था। राज्य सरकार के नाकाम हो जाने पर स्थानीय लोगों ने इस आपदा से निपटने की अभूतपूर्व कोशिश आरंभ की। जरूरत के समय नदारद होने पर राज्य सरकार की आलोचना हुई लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्परता दिखाकर बाजी लूट ली। अलगाववादी नेताओं को मुंह की खानी पड़ी। राज्य सरकार नाकाम थी और अगर, कश्मीरियों ने संकट के पहले दिन से यानी जब सेना हरकत में नहीं आई थी तब से ही अपना काम करना शुरू न किया होता तो हालात और भी भयावह होते। छात्र, मोहल्लों के नेताओं आदि ने सुरक्षित ठिकानों और वहां रहने के अस्थायी इंतजाम शुरू कर दिए थे। शुरुआत में सेना को अपना काम करने में इन युवाओं से जबरदस्त मदद हासिल हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी अधिकारी तो मौके से पूरी तरह नदारद हो चुके थे। लोग लापता थे, परिवार बिछड़ चुके थे, ऐसे में तकनीक से लैस इन युवाओं ने सोशल मीडिया की मदद से संचार की कमी पूरी की। वहीं अन्य ने आपातकालीन आपूर्ति के लिए शिविर बनाए जहां से मदद घाटी पहुंंचनी शुरू हुई। धीरे-धीरे पूरा देश उनके पीछे एकजुट हो गया। यहां भी भाजपा का तंत्र सक्रिय था, उसके सुगठित सोशल मीडिया तंत्र ने कारगर भूमिका का निर्वाह किया। सेना के मीडिया संस्थान आर्मी लायजन सेल ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान के नेतृत्व में एएलसी ने अपने फेसबुक पेज और ट्विटर फीड को सूचना केंद्र में बदल दिया। यह पूरी प्रक्रिया बहुत मददगार साबित हुई। सेना जनसंपर्क में पहले से कमजोर थी लेकिन लगता है अब हालात बदल रहे हैं। केंद्र सरकार ने सेना के अच्छे काम की फसल काटी है। इसमें दो राय नही कि सेना इस आपदा के दौरान बहुत मजबूत होकर उभरी है लेकिन कश्मीर की रोजमर्रा की राजनीति की प्रकृति से यही अंदाजा मिलता है कि यह एक क्षणिक लाभ है। बस एक फर्जी मुठभेड़, बलात्कार या शोषण का एक इल्जाम स्थानीय लोगों की नजर में सेना को दोबारा शक के दायरे में ला देगा और सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम के चलते होने वाले अन्यायों की बात की जाने लगेगी लेकिन भाजपा के लिए फिलहाल हवाएं सुखदेय हैं। बकौल अमित, जम्मू को लगता है कि भाजपा को सत्ता से अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए उलटी गिनतियां शुरू होंगी। स्थानीय लोगों की और भी उम्मीदें हैं और यही चुनावों में अहम भूमिका का निर्वाह करेंगी।

Sunday, November 2, 2014

कुलपति पद को तो बख्शें

उच्च शिक्षा पटरी से उतर रही है। विश्वविद्यालयों की स्थितियां प्रतिदिन बिगड़ रही हैं। शासन-सत्ता ने कुलपतियों के हवाले छोड़ रखा है और कुलपति नियंत्रक की भूमिका ढंग से नहीं निभा पा रहे। दरअसल, कुलपति चयन की प्रक्रिया में गंभीर त्रुटियां हैं, सरकारों और राज्यपालों ने इसे अपने मनमुताबिक मान लिया है और जो नियुक्तियां हो रही हैं, उनका पैमाना प्रशासनिक और अकादमिक अनुभव कम, राजनीतिक उद्देश्य ज्यादा हो गए हैं। यह स्थितियां रहीं तो रहा-सहा ढांचा ढहने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला।
विश्वविद्यालय ज्ञान तथा नवाचार के केंद्र के रूप में स्थापित किए जाते हैं। यहां नई पीढ़ी को तैयार किया जाता है। कोई भी संस्था या विश्वविद्यालय किस ऊंचाई तक अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा सकता है तथा युवा प्रतिभा का विकास कर सकता है, जिसमें कुलपति द्वारा प्रदत्त शैक्षिक, नैतिक तथा बौद्धिक नेतृत्व सबसे महत्वपूर्ण होता है। परंपरा से कुलपति का पद समाज में श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। व्यवस्था उसके ज्ञान तथा विद्धतापूर्ण योगदान के कारण सदैव नतमस्तक रही है। डॉक्टर राधाकृष्णन, सर रामास्वामी मुदलियार, आशुतोष मुखर्जी, पंडित मदन मोहन मालवीय, गंगानाथ झा, डॉक्टर अमरनाथ झा, डॉक्टर जाकिर हुसैन जैसे कई विख्यात नाम याद आते हैं। इन नामों को सुनकर ही कुलपति की गरिमा, प्रतिष्ठा का पक्ष उभरकर सामने आ जाता है। इसी के मद्देनजर कोठारी आयोग (1964-66) ने स्पष्ट संस्तुति की थी कि शिक्षा के इतर क्षेत्रों से सेवानिवृत्त होकर आए व्यक्तियों की कुलपति पद पर नियुक्ति उचित नहीं। विशेष परिस्थितियों में ऐसा कुछ करना भी पड़े तब भी उसे किसी को पुरस्कृत करने या पद देने के लिए प्रयोग न किया जाए। विश्वविद्यालय शिक्षा के मंदिर ही नहीं बल्कि विद्वत समाज की वजह से भी जाने जाते हैं और कुलपति को विद्धता तथा योगदान के आधार पर विश्वविद्यालय को नेतृत्व देना होता है। इसका आधार उसकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिकता होती है। ज्ञान की खोज और सृजन गहन प्रतिबद्धता के आधार पर ही हो पाता है। इसके लिए उचित वातावरण का निर्माण कुलपति का विशेष उत्तरदायित्व होता है। उस वातावरण में सम्मान तथा श्रद्धा उसे तभी मिलती है जब वह शोध, नवाचार तथा अध्यापन में सक्रिय भागीदारी निभाता है। वह मात्र अपने पद के अधिकारों के आधार पर सम्मान और श्रद्धा अर्जित नहीं करता है। कुछ समय से यह मिसालें भी सामने आ रही हैं कि पुलिस अफसर और नौकरशाह भी कुलपति के पद पर नियुक्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला अपर पुलिस महानिदेशक मंजूर अहमद की आगरा विश्वविद्यालय में नियुक्ति से शुरू हुआ था, जो धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी आरंभ हो गया। इसके अतिरिक्त राजनेताओं को कुलपति बनाने के तो और भी तमाम उदाहरण हैं। इस तरह की नियुक्तियों में देखा यह गया है कि राजनेता और नौकरशाह अकादमिक बातों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया करते बल्कि उनका पूरा जोर प्रशासनिक व्यवस्थाओं की तरफ होता है। वह उन बातों के लिए जरूरी समय नहीं निकालते जो विश्वविद्यालयों के मूल कार्यों में शुमार हैं। इसीलिये उनके कार्यकालों में शोध और पाठ्यक्रम उन्नयन के कार्यों में ब्रेक लग जाया करते हैं।
सेवारत अफसरों की नियुक्तियों से तो और भी समस्याएं आती हैं। वह काम ढंग से नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह मात्र एक अस्थायी व्यवस्था है जैसे वह किसी विभाग से स्थानांतरित होकर यहां आए हों। राजनीतिक नेतृत्वों ने पहुंच वाले नौकरशाहों को लगने लगता है कि एक से दूसरे विभाग में स्थानांतरित होकर वह कार्यकुशलता दिखा सकता है तो सेवानिवृत्त होकर एक विश्वविद्यालय क्यों नहीं चला सकता? नेता और नौकरशाह जब मिल जाते हैं तब वे शिक्षाविदों, प्राध्यापकों और विद्वानों को चयन समितियों में अधिकतर अवसरों पर खानापूर्ति के लिए आमंत्रित करते हैं। कुलपति की नियुक्तियों में जाति, पंथ, क्षेत्रीयता अब खुलेआम हावी हो रही है। इस क्रम में अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय का उदाहरण देखें, इस विवि की स्थापना की घोषणा पूर्व राष्ट्रपति और प्रख्यात वैज्ञानिक डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन जैसे नामों के साथ की गई, लेकिन जब वहां पहले कुलपति की नियुक्ति की घोषणा हुई तो लोगों का आश्चर्य और आशंकाएं उभर कर सामने आ गर्इं। कलाम अलग हो चुके हैं। लोग पूछते हैं कि यह विश्वविद्यालय कहां से चल रहा है, दिल्ली से, पटना से, विदेश से या नालंदा से? जो भी हो, यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि शिक्षा की प्रगति न केवल ठहरी है वरन नीचे जा रही है। निजी विश्वविद्यालयों की स्थितियां भी सुखद नहीं हैं।  देश में जब मानद विश्वविद्यालयों की अचानक बाढ़ आ गई है, तब उसके पीछे की कहानी भी सारे देश में प्रचलित हुई। कुलपतियों की नियुक्ति भी अनेक बार चर्चा के उसी दायरे में आती है कि कौन किस का नामित है, वह कैसे सबसे आगे निकल गया, पद पर आकर उसका सबसे बड़ा लक्ष्य क्या होगा, इत्यादि। मानद विश्वविद्यालयों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब राजनेता अथवा व्यापारी पिता ने संपत्ति अर्जित की, शिक्षा को निवेश का सुरक्षित क्षेत्र माना और पुत्र को कुलपति या कुलाधिपति बना दिया जिससे बौद्धिक क्षमताओं से परिपूर्ण शख्सियतें हताश हो जाती हैं और अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। असल में, यह मनन का वक्त है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाए बिना देश की ज्ञान संपदा नहीं बढ़ सकती। यह तभी संभव होगा जब उच्च शिक्षा नौकरशाहों तथा राजनेताओं के गठबंधन से मुक्ति पा सके। इसके लिए प्राध्यापकों, विद्वानों तथा साहित्यकारों को एकजुट होकर आवाज उठानी होगी।