Sunday, April 13, 2014

फिजूलखर्ची का लोकतंत्र

चुनाव के दिन हैं। देश का पैसा पानी की तरह बह रहा है। केंद्रीय निर्वाचन आयोग के मुताबिक, आम चुनावों में पांच हजार करोड़ रुपये से ज्यादा धन स्वाहा होगा। जहां देश इतनी बड़ी राशि खर्च करने जा रहा है, वहीं तमाम नेता ऐसे भी हैं जो दो जगह से चुनाव लड़ रहे हैं या वर्तमान में राज्यसभा या अपने राज्य की विधान सभा या विधान परिषद के सदस्य हैं। वह जीतेंगे तो उनकी मौजूदा सीट खाली हो जाएगी और देश का सामना फिर एक चुनाव से होगा, फिर बड़ी राशि खर्च की जाएगी। सवाल कई हैं। किसी नेता के हार के डर की कीमत देश को अदा कर रहा है? क्यों एक जगह से जीत के प्रति आश्वस्त न होने की स्थिति में नेता दूसरी सीट पर भी चुनाव लड़ते हैं? क्या उन्हें हर सूरत में लोकसभा या विधान सभाओं में पहुंचाने की जिम्मेदारी देश की है? कोई भी नेता एक ही सीट पर प्रतिनिधि रह सकता है तो क्यों उस क्षेत्र की जनता से छल करता है जहां से लड़कर जीतता है और इस्तीफा दे देता है? तमाम कड़े नियम बनाकर चुनाव में शुचिता कायम करने वाले निर्वाचन आयोग के स्तर से इस स्थिति को रोकने के लिए क्यों कदम नहीं उठाए गए हैं। उप चुनाव के प्रावधान में देशहित में संशोधन किए जाने की जरूरत क्यों महसूस नहीं की जा रही? लोकसभा चुनावों की सरगर्मियों के बीच एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी संपूर्ण संसद का गठन नहीं होने जा रहा। सिर्फ उत्तर प्रदेश और बड़े नेताओं की बात करें तो पीएम पद के लिए भाजपा के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी वाराणसी और वडोदरा से और सपाध्यक्ष मुलायम सिंह यादव मैनपुरी और आजमगढ़ यानि दो-दो जगह से हाथ आजमा रहे हैं। असुरक्षा हो या राजनीतिक समीकरण साधने की रणनीति, लेकिन इन्हीं दो नेताओं की वजह से ही देश को फिर करीब 20 करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। दोनों सीटों पर उप चुनाव होंगे जिस पर यह राशि खर्च करनी पड़ेगी। उत्तर प्रदेश में ही ऐसे खर्चे की तमाम वजह और भी सामने होंगी। यहां से करीब दस फीसदी विधायक सबसे बड़ी पंचायत के चुनावों में प्रत्याशी हैं। यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर एक दर्जन विधायकों को समाजवादी पार्टी ने प्रत्याशी बनाया है। भाजपा के 11 विधायक लोकसभा चुनाव के मैदान में हैं। विधान परिषद सदस्य नैपाल सिंह भी उसके प्रत्याशी हैं। इसके बाद कांग्रेस और बसपा है, राष्ट्रीय लोकदल, अपना दल, पीस पार्टी और माफिया मुख्तार अंसारी की वजह से चर्चित कौमी एकता दल ने भी विधायक को प्रत्याशी बनाया है। चर्चित नेताओं में उमा भारती, कलराज मिश्र, रीता बहुगुणा जोशी, हुकुम सिंह, माता प्रसाद पांडेय, शाहिद मंजूर, अजय राय, अभिषेक मिश्रा लोकसभा चुनावों में अपनी-अपनी पार्टियों की उम्मीदों का प्रतीक बने हुए हैं। कोई भी राज्य ऐसा नहीं जहां पार्टियों ने विधायकों पर दांव न खेला हो। कहने का आशय यह है कि जो विधायक था, उसे लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाकर पार्टी ने तो अपनी उम्मीदों को दम देने का काम किया है लेकिन वह यह भूल गर्इं कि सीट खाली होने पर उप चुनाव कराना होगा और उस पर देश की बड़ी राशि खर्च होगी। मौजूदा आंकड़ों पर ही गौर करें तो इस वक्त लोकसभा चुनावों के साथ ही चार राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हो रहे हैं, जिन पर करीब एक हजार करोड़ रुपये अलग से खर्च होंगे। ओडिशा, सिक्किम, आंध्र प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में स्थानीय सदन यानि विधानसभा की कुल 513 सीटें हैं, औसत निकाला जाए तो प्रति विधानसभा सीट चुनाव का खर्च आ रहा है एक करोड़ 94 लाख रुपये के आसपास जबकि यह छोटे राज्यों की विधानसभाएं हैं और यहां चुनावों पर बड़े राज्यों की तुलना में कम खर्च होता है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनावों पर खर्च को पैमाना मानें तो यह राशि प्रति सीट आठ से नौ करोड़ रुपये तक पहुंचती है। अगर प्रदेश के एक दर्जन विधायक ही लोकसभा चुनाव में विजयी हो गए तो उप चुनावों में सीधे-सीधे एक अरब का खर्चा सामने आ जाएगा। पूरे देश की ऐसी स्थितियों पर गौर करें तो उप चुनावों का खर्च एक हजार करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगा क्योंकि शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा जहां विधायक बड़े चुनाव न लड़ रहे हों। झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश में यह नशा कुछ ज्यादा ही है। झारखंड में 12 विधायक लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं, जहां सरकार मामूली बहुमत पर टिकी है। अगर ये विधायक लोकसभा चुनाव हार जाते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन जीत जाते हैं तो इसका सीधा असर राज्य सरकार पर भी पड़ सकता है। सरकार गिरने पर पूरे राज्य में चुनाव कराने की सूरत आयी तो यह खर्च कई गुना हो जाएगा। ऐसी नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है, पहले भी राजनीति के दिग्गज दो-दो जगहों से चुनाव लड़ते रहे हैं। लेकिन कभी इन नेताओं ने नहीं सोचा कि जीत के बाद जब वो एक सीट से इस्तीफा देते हैं तो वहां के मतदाताओं पर इसका क्या असर पड़ता है? यह उनका अपमान होता है। चुनाव आयोग की सख्ती से निर्वाचन प्रक्रिया में शुचिता बढ़ी है। बूथ कैप्चरिंग जैसी घटनाएं शून्य के आसपास पहुंच गई हैं। माहौल सुधारने के लिए आयोग ने नेताओं पर अंकुश लगाने के भी प्रयास किए हैं, जिसके तहत दो नेताओं की सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगाई गई है। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि आयोग सरकारी धन व्यय की वजह बनी राजनेताओं की स्वेच्छाचारिता पर भी अंकुश लगाए। आयोग ने खर्च पर नजर रखने के लिए जो कड़े नियम बनाये हैं, उससे प्रत्याशियों में थोड़ा भय है। ऐसे कानून बनने चाहिए कि नेता दो जगह से चुनाव न लड़ पाएं। यह देश के धन का दुरुपयोग है, इस पर रोक लगनी ही चाहिये।