Wednesday, February 20, 2013

कुम्हलाता बचपन

आगरा में थाना एत्माद्दौला क्षेत्र में सातवीं कक्षा की छात्रा सुरभि (बदला हुआ नाम) के प्राइवेट ट्यूयर ने घर पर ही यौन उत्पीड़न किया। सिलसिला दो साल तक चलता रहा। वह नौवीं कक्षा में आई, ट्यूटर बदल गया। जो दूसरा ट्यूटर लगाया गया उसने भी वही बदतमीजी दोहराई। दूसरे ट्यूटर का शब्दजाल इतना मोहित कर देने वाला था कि निधि को न चाहते हुए भी उससे प्यार हो गया। यह क्रम भी करीब दो साल चला। दूसरा ट्यूटर शादीशुदा और तीन बच्चों का बाप था। वो नाबालिग ममता को घर से भगा ले गया। ममता अपने इस 15 साल बड़े पति के साथ रह रही है जबकि उसने पहली पत्नी और तीन बच्चों को मामूली गुजारा भत्ता देकर उनके हाल पर छोड़ दिया है। बाल यौन उत्पीड़न की शिकायत समय से न होने से एक परिवार और एक बच्ची का जीवन अंधकारमय हो गया है। बचपन कुम्हला रहा है, उसके अपने भी उसे कुचलने में पीछे नहीं। मशहूर सितार वादक स्वर्गीय पंडित रविशंकर की बेटी अनुष्का शंकर ने खुलासा किया कि जब वो छोटी थीं तो उनका यौन शोषण हुआ था। बात अकेली अनुष्का की नहीं है, हालात बहुत खराब हैं और पूरी दुनिया में ऐसे मामले सामने आए हैं। हॉलीवुड स्टार सोफिया हयात ने भी कहा है कि 10 साल की उम्र में उनका यौन शोषण किया गया था। बच्चों का यौन शोषण एक डरावना सच है और अधिकांश लोग इसके विस्तार से अनजान हैं। शोध बताते हैं कि 53 प्रतिशत या प्रत्येक दो में से एक बच्चा बाल यौन शोषण का शिकार है। सामान्य धारणा के विपरीत, घर बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित जगह नहीं हैं, क्योंकि अधिकांश दुर्व्यवहारी परिवार के विश्वासी होते हैं। तो फिर हल क्या है, दुर्व्यवहार को मना कर सकने के साहस के लिए बच्चों को प्रशिक्षित तथा प्रोत्साहित करने के साथ साथ अभिभावकों को भी उनके संकेतों के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त बच्चों की सुरक्षा तथा अपराधियों को सख्ती के साथ दण्डित करने के लिए बाल यौन शोषण के खिलाफ विशेष एवं ठोस कानून की आवश्यकता है। सर्वाधिक बाल यौन शोषण का देश मौजूदा हालात ने भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा यौन शोषित बच्चों का देश बना दिया है। बाल यौन शोषण के आंकड़ों का चित्र बेहद वीभत्स कर देने वाला है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 53 फीसदी से ज्यादा बच्चों को अपने वयस्क होने तक बाल यौन शोषण के हालातों का सामना करना पड़ता है। केंद्रीय महिला एंव बाल विकास मंत्रालय’ के लिए हुए एक सर्वेक्षण से सामने आए हैं। पता चला कि विभिन्न प्रकार के शोषण में पांच से 12 वर्ष तक की उम्र के छोटे बच्चे शोषण और दुर्व्यवहार के सबसे अधिक शिकार होते हैं तथा इन पर खतरा भी सबसे अधिक होता है। इन शोषणों में शारीरिक, यौन और भावनात्मक शोषण शामिल होता है। --- हरेक तीन में से दो बच्चे शारीरिक शोषण के शिकार बने। --- शारीरिक रूप से शोषित 69 प्रतिशत बच्चों में 54.68 प्रतिशत लड़के थे। --- 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे किसी न किसी प्रकार के शारीरिक शोषण के शिकार थे। --- पारिवारिक स्थिति में शारीरिक रूप से शोषित बच्चों में 88.6 प्रतिशत का शारीरिक शोषण माता-पिता ने किया। --- आंध्र प्रदेश, असम, बिहार और दिल्ली से अन्य राज्यों की तुलना में सभी प्रकार के शोषणों के अधिक मामले सामने आये। --- 50.2 प्रतिशत बच्चे सप्ताह के सात दिन काम करते हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार परामर्श समूह न्यूयॉर्क के ह्यूमन राइट्स वॉच ने ताजा रिपोर्ट में कहा, बेशक 16 दिसम्बर को दिल्ली में गैंगरेप की घटना और तत्पश्चात जनता के आक्रोश के चलते भारत में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को लेकर काफी जागरूकता आई, लेकिन, ‘बाल-उत्पीड़न की समस्या के बारे में जानकारी काफी कम है।’ रिपोर्ट में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े उजागर किए गए हैं। रिपोर्ट में भारत के 13 राज्यों के 12,500 बच्चों पर किए सरकारी सर्वेक्षण का हवाला दिया गया। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि जवाब देने वाले आधे बच्चों ने कहा कि उन्होंने किसी ना किसी प्रकार का यौन उत्पीड़न अनुभव किया है। समस्या के विस्तार के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन अगर ये आंकड़े कोई गाइड हैं, तो कदाचित इस समस्या का स्तर काफी व्यापक है। भारत में करीब चार अरब तीस करोड़ बच्चे हैं, जो उसकी कुल आबादी का एक-तिहाई हैं। विश्व की बाल आबादी का ये करीब पांचवा हिस्सा हैं। रिपोर्ट में इंगित किया गया है, भारत में हर जगह बच्चे यौन-उत्पीड़न के विभिन्न प्रकारों को सहते हैं-अपने घरों के भीतर, सड़कों पर, स्कूलों में, अनाथालयों में और संरक्षण गृहों में। रिपोर्ट बाल उत्पीड़न के शिकार बच्चों, उनके नातेदारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकारी अधिकारियों और अन्य हितधारकों के 100 से ज्यादा साक्षात्कारों पर आधारित है। क्या है बाल उत्पीड़न संयुक्त राष्ट्र बाल उत्पीड़न की जो परिभाषा दी है, उसके अनुसार, एक बच्चे और उम्रदराज़ अथवा ज्यादा समझदार बच्चे अथवा वयस्क के बीच संपर्क अथवा बातचीत (अजनबी, सहोदर अथवा अधिकार प्राप्त शख्स, जैसे अभिभावक अथवा देखभाल करने वाला), के दौरान जब बच्चे का इस्तेमाल एक उम्रदराज़ बच्चे अथवा वयस्क द्वारा यौन संतुष्टि के लिए वस्तु के तौर पर किया जाए। बच्चे से ये संपर्क अथवा बातचीत ज़ोर-जबर्दस्ती, छल-कपट, लोभ, धमकी अथवा दबाव में की जाए। वास्तव में, बाल-उत्पीड़न में बाल-यौन अंगों का दुरुपयोग, वयस्कों द्वारा बाल-यौन शोषण, अश्लील बाल चित्र या लेखन और बलात्कार शामिल होंगे। बाल यौन व्यापार के बने अड्डे दिलचस्प तथ्य ये है कि शोषण धार्मिक-पर्यटक स्थलों पर अधिक है। शोषण करने वाले विदेशी और घरेलू पर्यटकों के साथ-साथ स्थानीय निवासी होते हैं। ये शोषण लगभग छह साल की उम्र से शुरू हो जाता है और जब बालक नौ साल की उम्र के होते हैं तो उन्होंने पूरी तरह से इस काम में लगा दिया जाता है। ऐसे तत्थ तब और उजागर हो गए जब एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक को पुरी में बालकों के यौन शोषण के मामले में गिरफ्तार किया गया। आंकडे बताते हैं कि ऐसी घटनाएं कम संख्या में नहीं हैं। कई विदेशी पर्यटक किसी एक स्थान पर लंबे समय तक रहते हैं और वे बच्चों और उनके परिवारों से दोस्ती गांठ लेते हैं और उसके बाद उनका शोषण करते हैं। कभी-कभी परिजनों ने ही बालकों का शोषण किया होता है और बाद में वो उन्हें इसके लिए मजबूर कर देते हैं। कई शहरों में बाल सेक्स पर्यटन जोरों से चल रहा है। मामलों से स्पष्ट है कि विदेशी पर्यटकों ने नगद राशि या उपहारों का प्रस्ताव देकर बच्चों का यौन शोषण किया। जिस तेजी से विदेशों में गे-समुदाय की वृद्धि हुई है उससे भारत में आने वाले विदेशियों में 10 से 16 साल तक के लड़कों की मांग में बढ़ोतरी हुई है। गैरसरकारी संगठन आई आन क्राइम के मुताबिक, देश के विभिन्न थानों में हर महीने लगभग सात हजार के लगभग बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है। इनमें से हर साल करीब 23 हजार बच्चों का कोई अता-पता नहीं चल पाता जिन्हें अमूमन मृत ही समझा जाता है। भारत में सही तौर पर बाल यौन व्यापार में धकेले जा रहे बच्चों की कोई सही संख्या उपलब्ध नहीं है, जबकि भारत सबसे बड़ा केंद्र है बाल यौन व्यापार का। शोषण रोकने के उपाय बाल संरक्षण के लिए तमाम व्यवस्थाएं हैं, जैसा कि एक दशक पहले पारित हुआ एक जुविनाइल जस्टिस कानून। यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करता है। कानून के तहत बाल-कल्याण कमेटियों और जुविनाइल-न्यायिक बोर्ड का गठन किया गया, जो दुर्व्यवहार के जोखिम में रह रहे अथवा प्राधिकार के साथ समस्याग्रस्त बच्चों की देखभाल करता है। संसद ने मई 2012 को यौन-अपराध बाल संरक्षण अधिनियम पारित किया, जिसके तहत बाल-उत्पीड़न के सभी प्रकारों को पहली बार देश में विशिष्ट अपराध बनाया गया। ऊंचे परिवारों में मामले ज्यादा आम धारणा के विपरीत भारत में उच्च और मध्यम आय वर्ग के परिवारों में बच्चों का यौन शोषण निम्न वर्ग के मुकाबले कहीं अधिक है। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने वाली एक स्वंयसेवी संस्था ‘आलोचना’ की संयोजक भारती कोतवाल कहती हैं, उच्च और मध्यम आय वर्ग के परिवारों में बच्चों का यौन शोषण कहीं ज्यादा है, लेकिन लिंग भेद और सामाजिक दबाव के चलते यह मामले सामने नहीं आते। दक्षिण कोरिया सबसे सख्त बाल यौन शोषण रोकने की दिशा में सर्वाधिक सख्ती दक्षिण कोरिया ने दिखाई है। वह अब सीरियल बाल यौन शोषण के दोषी को सजा देने के लिए रसायनों का उपयोग करेगा। इस रसायन के इंजेक्शन से व्यक्ति का बंध्याकरण किया जाएगा। पहली सजा 45 वर्षीय दोषी व्यक्ति को मिली, उसे जुलाई में जेल से रिहा कर दिया जाएगा लेकिन प्रत्येक तीन साल तक उसे तीन माह पर इंजेक्शन दिया जाएगा। व्यक्ति 13 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों का यौन शोषण करने और उनका बलात्कार करने का दोषी पाया गया है। वर्ष 2010 में दक्षिण कोरिया ने रसायनों का उपयोग कर बंध्याकरण को कानूनी दर्जा दे दिया।

Monday, February 11, 2013

सियासत में जिंदा अफ़जल गुरु

संसद भवन पर हमले का मुख्य साजिशकर्ता अफजल गुरु अब अतीत की बात है लेकिन सियासत के गलियारों की चर्चाओं में वह जिंदा है। उस पर चर्चाएं थम नहीं रहीं। बार-बार यह कहकर खुद को देशवासी सिद्ध करने की होड़ के दिन शायद लद गए हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता, वह देश और समाज का दुश्मन होता है। अफजल को फांसी पर लटकाए जाने के बाद गोलबंदी का दौर तेजी पर है। यह साबित करने में कुछ प्रभावशाली नेता कसर बाकी नहीं छोड़ रहे कि केंद्र सरकार ने गलत फैसला किया। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि विरोधियों में एक आवाज एक सूबे के सीएम की भी है और भारत में आतंकवाद का पोषण करने वाले पाकिस्तान की वजह से यह सूबा अशांत है। हालांकि यह उनकी सियासी मजबूरी भी है। वहीं सत्तासीन पार्टी और मुख्य विपक्षी दल 'अफजल प्रलाप' में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रख रही। अलगाववादी कश्मीरी नेता यासीन मलिक के साथ भारत के मोस्ट वांटेड आतंकी सरगना हाफिज सईद की जुगलबंदी से केंद्र ने मामले में कूटनीतिक मात जरूर खाई है। पाकिस्तान ने फांसी पर टिप्पणी तो संयमित की लेकिन अंदरखाने यह साजिश रची है। अफजल गुरु को फांसी की सजा लंबे समय से राजनीतिक मुद्दा रही है। सबसे ज्यादा चर्चाएं जम्मू-कश्मीर में हुई हैं जहां आतंकवाद समूल नष्ट नहीं हुआ है और अलगाववादी ताकतें आए दिन कुछ न कुछ करतूतें कर दिया करती हैं। सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस के आला नेता फारुख अब्दुल्ला के केंद्र सरकार में मंत्री और सहयोगी दल होने की वजह से कांग्रेस दबाव में थी कि अफजल को फांसी पर फैसला टाला जाता रहे। भारतीय जनता पार्टी अक्सर तत्काल फांसी की मांग उठाकर सरकार का सिरदर्द बढ़ाती रहती थी। यही नहीं उसकी मंशा आगामी लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाने की भी थी। मुख्य विपक्षी दल में चूंकि उन नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहा है जिनकी छवि कट्टर हिंदूवादी की है इसलिये कांग्रेस महसूस करने लगी थी कि अफजल समेत आतंकियों को फांसी न देने का मुद्दा उसके गले की फांस बनने जा रहा है। इसके साथ ही, सरकार ने शायद ये सोचा हो कि पिछले एक साल से कश्मीर में स्थिति शांतिपूर्ण रही है और लोगों का प्रतिरोध कम हो गया है। विरोध की अगुवाई संभाल रहे जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला केंद्र सरकार को चुनौती देते हैं कि वह साबित करे कि अफजल को फांसी दिया जाना सियासी फैसला नहीं था। फांसी विरोधी कहते हैं कि अफजल के साथ न्याय नहीं हुआ और उसे फांसी पारिस्थितिजन्य प्रमाणों के आधार पर दी गई न कि सुबूतों की बिना पर। अफजल को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया, उन्हें उचित मौकों पर वकील नहीं दिया गया और पूरे मामले में कई बातें गुप्त रखी गर्इं। आरोप यह भी है कि उनके खिलाफ मिले दिल्ली पुलिस की आतंक-विरोधी शाखा स्पेशल सेल ने ढीले-ढाले सुबूत पेश किए। उमर का रवैया दरअसल, राजनीतिक समीकरणों की वजह से भी है। कश्मीर में एक दशक में हालात तेजी से सुधरे हैं। उग्रवाद कमजोर हुआ है और घाटी की राजनीति देश की मुख्यधारा में शामिल हुई है। पूरी दुनिया में यह संकेत गया है कि कश्मीर में मजबूत लोकतंत्र की वापसी हो चुकी है। ऐसे में अफजल की फांसी का पाकिस्तान परस्त आतंकवादी दुरुपयोग कर सकते हैं, जनता को भड़का सकते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पहले हुई, उनके हत्यारों का दोष पहले सिद्ध हुआ पर फांसी पर उनसे पहले अफजल गुरु को लटका दिया गया। इस तर्क की काट उमर के पास नहीं है और विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा मुफ्ती हमलावर रहकर उनकी मुश्किलें बढ़ा रही हैं। ऐसे में उमर अब्दुल्ला की सबसे बड़ी चुनौती उग्रवादियों के मंसूबों पर रोकथाम लगाना है। कश्मीर में गुरु को प्रतीक के तौर पर पेश कर भारत विरोधी माहौल बनाने का षड्यंत्र हो सकता है। उमर इस हालात से निपटने के लिए अपनी दलीलें दे रहे हैं और खुद को यूपीए से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वह जताना चाहते हैं कि उन्हें लोगों की भावनाओं की समझ है। फांसी से कश्मीर के तमाम अन्य समीकरण भी गड़बड़ा गए हैं। भारत और कश्मीरी अलगाववादियों के बीच वार्ता की सम्भावनाओं पर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। पृथकतावादी नेता मीरवाइज उमर फारुक ने कहा भी है कि अफजल की फांसी के बाद नई दिल्ली के साथ पुन: वार्ता के आसार समाप्त हो गए हैं क्योंकि कश्मीरी नौजवानों के बीच भारत के खिलाफ नफरत बढ़ेगी। खून-खराबे के दूसरे दौर की शुरुआत भी हो सकती है। हालांकि नए राजनीतिक हालात में मीरवाइज की हुर्रियत कांफ्रेंस अप्रासंगिक हुई है और सामने आर्इं नई ताकतें अलग जुबान में बोलने लगी हैं। मजहबी चरमपंथी और भारत विरोधी गुट साथ-साथ आने की तैयारी करते नजर आ रहे हैं। केंद्र स्तर पर भी फांसी का मुद्दा राजनीतिक समीकरणों में बदलाव की वजह बनने जा रहे हैं। कांग्रेस को तात्कालिक लाभ 21 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में मिलने जा रहा है। अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं और सरकार पर कांग्रेस का दबाव है कि वह लोक हित के फैसले करे। जनलुभावन बजट प्रस्तुत करे और महंगाई कम करने के ठोस उपाय सामने लाए। अफजल की फांसी से उत्साहित कांग्रेस मौका न गंवाते हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपनी उपलब्धियों का बखान कर सकती है। जयपुर चिंतन बैठक में तय हुआ था कि विपक्ष जिन-जिन संभावित मुद्दों पर आने वाले चुनावों में कांग्रेस को घेर सकता है, उन मुद्दों का हल निकालकर विपक्ष को नए मुद्दे खोजने में ही मजबूर कर दिया जाए। भाजपा चूंकि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के हिंदू आतंकवाद के बयान पर संसद में हो-हल्ले की तैयारी में थी इसलिये हो सकता है कि अफजल की सजा पर अमल भी विपक्ष के तरकश के सभी तीरों को खत्म कर देने के प्रयास के तहत किया गया हो। भगवा आतंकवाद का मुद्दा छाया हुआ है, ऐसे में अफजल की फांसी पर अमल कर सभी तरह के आतंकवाद को समान रूप से देखने का दावा भी कांग्रेस अब कर सकती है। उग्रवाद पर ढीला रवैया अपनाने का जो आरोप उस पर लगता रहा है, वह भी इस फैसले से कमजोर पड़ा है। कांग्रेस कहने लगी है कि राष्ट्रपति की ओर से अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद फांसी संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए गए। दूसरी तरफ, भाजपा फांसी में लगी देरी को मुद्दा बना रही है। कांग्रेस फांसी का लाभ उठाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती, जबकि भाजपा की कोशिश श्रेय नकारने की है। यह बात तो लगभग तय ही है कि आने वाले समय में यह मुद्दा खासा गुल खिलाने जा रहा है।

Sunday, February 3, 2013

मोदी की तरफ बढ़ती भाजपा

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बेचैनी का दौर है। नेतृत्व कर रही भारतीय जनता पार्टी ने जबसे राजनाथ सिंह को अपनी कमान सौंपी है और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी लम्बी मुलाकात हुई है, तब से घटक दल यह सोचकर बेहाल हुए जा रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में उसका मुखौटा कौन होगा। भाजपा मोदी को लोकसभा चुनाव का मुख्य चेहरा बनाने को लगभग तैयार दिखती है और मोदी तमाम दलों के गले नहीं उतरते, उन्हें लगता है कि मोदी यदि प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हुए तो उसके अल्पसंख्यक मत अन्य दलों की ओर खिसक सकते हैं। सीधी सी समस्या है, मुस्लिम वोट सरकने से उनकी सीटें कम हो जाएंगी और वह सत्ता मिलने की स्थिति में सौदेबाजी के काबिल भी नहीं बचेंगे। जनता दल यूनाइटेड नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, अन्ना द्रमुक सुप्रीमो और तमिलनाडु की सीएम जयललिता के साथ ही तमाम चेहरे ऐसे हैं जो पीएम बनने का सपना पाले बैठे हैं, मोदी की आक्रामकता और सीटों में कमी उनके सपनों के छितरने का कारण बन सकती है। शिवसेना का रुख भी मोदी की राह का कांटा बना है। इसीलिये उन्हें खुलकर मैदान में उतारने में हिचक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा नितिन गडकरी को दोबारा भाजपा अध्यक्ष के रूप में देखने की थी लेकिन वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के वीटो ने खेल बिगाड़ दिया। मजबूरी में राजनाथ सिंह का चुनाव हुआ। यह क्षत्रिय नेता अपने पूर्ववर्ती के कार्यकाल में प्रभावशाली और गडकरी के निकटस्थ राष्ट्रीय नेताओं में एक थे। बीच का रास्ता ढूंढते वक्त उनके नाम पर सहमति बन गई। लेकिन वक्त की नजाकत समझने में राजनाथ सिंह ने देरी नहीं की और मोदी के साथ अपनी जुगलबंदी की कोशिशें तेज कर दीं। ऐसा प्रतीत हुआ कि यह भाजपा का अतीत है जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी की जुगलबंदी हुआ करती थी। अटल नरमपंथी और आडवाणी पार्टी का कट्टरपंथी चेहरा हुआ करते थे, जताने की कोशिश हुई कि राजनाथ जैसे अटल के स्थान पर हैं और मोदी आडवाणी के। राजनाथ जानते हैं कि भाजपा को ताकत मोदी को आगे करने पर ही मिल सकती है हालांकि इससे घटक दलों के नाराज होने का जोखिम है। सिंह मानकर चल रहे हैं कि घटक दलों में से कुछ यदि छिटके भी तो मोदी की सक्रिय अगुवाई सीटों की भरपाई कर देगी और असली ताकत तब भाजपा के पास होगी। सीटें ज्यादा हुर्इं तो भाजपा अपने मनपसंद नेता को पीएम पद तक पहुंचा देगी। यह नेता बेशक मोदी होंगे लेकिन रणनीति चुनाव बाद पत्ते खोलने की भी है। ऐसे में अध्यक्ष का मन मोदी को अप्रत्यक्ष रूप से पीएम पद का दावेदार जताने की योजना पर चलने का है। इसके लाभ और भी हैं। सत्ता के फैसले के वक्त घटक दल ताकत में हुए तो मोदी के स्थान पर दूसरा चेहरा आगे किया जा सकता है। इसी रणनीति के तहत सिंह खुलकर मोदी का नाम नहीं रखना चाह रहे। इसी रणनीति का एक और प्लस प्वाइंट आडवाणी खेमे के किनारे हो जाने का भी है। सुषमा स्वराज इसी खेमे से हैं और बाल ठाकरे के अंतिम दिनों से शिवसेना उनके आगे आने की पैरवी कर रही है। शिवसेना नहीं चाहती कि मोदी जैसा हिंदुत्व का आक्रामक चेहरा मैदान में हो और उसके वोट बैंक पर भी डाका डाल दे। इसी क्रम में शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे से नजदीकी बढ़ाने की कोशिशें शुरू की हैं। तय है कि दोनों की एकजुटता न केवल सीटें बढ़ाने में मददगार सिद्ध होगी बल्कि मोदी के करिश्मे से भी टक्कर ली जा सकेगी। राज ठाकरे देखो और इंतजार करो की नीति अपना रहे हैं। दरअसल, वह बाल ठाकरे के उस फॉर्मूले पर ही समझौता चाहते हैं जिसके तहत पार्टी (यदि विलय संभव हुआ तब) या गठबंधन की कमान उद्धव संभालें और सरकार उनके नेतृत्व में संचालित की जाए यानि राज मुख्यमंत्री बनें। राजनाथ की नजर जयललिता और नीतीश जैसे उन नेताओं पर भी है जो खुद के पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। नीतीश मानकर चल रहे हैं कि अगले चुनाव में वह बिहार की सीटों की बल पर बड़ी कुर्सी तक पहुंच सकते हैं। इसीलिये उन्होंने अपने राज्य में सहयोगी भाजपा को बैक सीट पर बैठा दिया। उसके तमाम नेताओं को अपनी पार्टी की सदस्यता दिला दी है। हालांकि नीतीश के जनाधार में कमी आई है और राज्य के विभिन्न हिस्सों से सरकार के विरुद्ध आक्रोश के संकेत मिलने लगे हैं। भाजपा खुद को सक्रिय नहीं करना चाहतीं ताकि उस पर सरकार की नाकामी का ठींकरा न फूटने पाए। इसके साथ ही नीतीश उस पर सहयोग न करने और अपनी महत्वाकांक्षाओं के पोषण का आरोप न मढ़ सकें। नीतीश की राह में शरद यादव रोड़ा हैं। गठबंधन संयोजक शरद वैसे चमत्कार की आस में है जैसा एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने पर हुआ था। राजग में शामिल होने की जयललिता की व्यग्रता भी राजनाथ को फायदे का सौदा लग रही है। जया भी सपना देख रही हैं लेकिन वह सपना पूरा करने के लिए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की तरह किसी तीसरे मोर्चे की अगुवाई नहीं करना चाहतीं। ओडिशा में बीजू जनता दल से भी भाजपा ने अनौपचारिक तौर पर संपर्क किया है। हालांकि नवीन पटनायक ने कोई सकारात्मक संकेत दिया नहीं है। हरियाणा में भी उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। यहां भाजपा की दोस्ती औपचारिक रूप से पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के पुत्र कुलदीप विश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस से है। दोनों दलों ने भिवानी संसदीय सीट का उपचुनाव मिलकर लड़ा था जिसमें विश्नोई की जीत हुई थी। समस्या इण्डियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटाला के शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल जाने से पैदा हुई है। असल में, पिछले कुछ समय से भाजपा ने चौटाला से नजदीकियां बढ़ाना प्रारंभ कर दिया था, इसी क्रम में वह मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने गुजरात पहुंचे थे जबकि विश्नोई गैरहाजिर रहे थे। चौटाला प्रकरण से कांग्रेस उत्साहित है। भाजपा को अब यह फैसला करना है कि इस राज्य के चुनावी समर में वह अकेले उतरेगी या विश्नोई को फिर साथ लेकर। चुनावों में अभी वक्त है लेकिन राजग की तैयारियां जिस रास्ते पर हैं, उससे लगता है कि पिछले आम चुनाव के बाद वह पहली बार ज्यादा सक्रिय है।