Monday, February 11, 2013
सियासत में जिंदा अफ़जल गुरु
संसद भवन पर हमले का मुख्य साजिशकर्ता अफजल गुरु अब अतीत की बात है लेकिन सियासत के गलियारों की चर्चाओं में वह जिंदा है। उस पर चर्चाएं थम नहीं रहीं। बार-बार यह कहकर खुद को देशवासी सिद्ध करने की होड़ के दिन शायद लद गए हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता, वह देश और समाज का दुश्मन होता है। अफजल को फांसी पर लटकाए जाने के बाद गोलबंदी का दौर तेजी पर है। यह साबित करने में कुछ प्रभावशाली नेता कसर बाकी नहीं छोड़ रहे कि केंद्र सरकार ने गलत फैसला किया। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि विरोधियों में एक आवाज एक सूबे के सीएम की भी है और भारत में आतंकवाद का पोषण करने वाले पाकिस्तान की वजह से यह सूबा अशांत है। हालांकि यह उनकी सियासी मजबूरी भी है। वहीं सत्तासीन पार्टी और मुख्य विपक्षी दल 'अफजल प्रलाप' में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रख रही। अलगाववादी कश्मीरी नेता यासीन मलिक के साथ भारत के मोस्ट वांटेड आतंकी सरगना हाफिज सईद की जुगलबंदी से केंद्र ने मामले में कूटनीतिक मात जरूर खाई है। पाकिस्तान ने फांसी पर टिप्पणी तो संयमित की लेकिन अंदरखाने यह साजिश रची है।
अफजल गुरु को फांसी की सजा लंबे समय से राजनीतिक मुद्दा रही है। सबसे ज्यादा चर्चाएं जम्मू-कश्मीर में हुई हैं जहां आतंकवाद समूल नष्ट नहीं हुआ है और अलगाववादी ताकतें आए दिन कुछ न कुछ करतूतें कर दिया करती हैं। सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस के आला नेता फारुख अब्दुल्ला के केंद्र सरकार में मंत्री और सहयोगी दल होने की वजह से कांग्रेस दबाव में थी कि अफजल को फांसी पर फैसला टाला जाता रहे। भारतीय जनता पार्टी अक्सर तत्काल फांसी की मांग उठाकर सरकार का सिरदर्द बढ़ाती रहती थी। यही नहीं उसकी मंशा आगामी लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाने की भी थी। मुख्य विपक्षी दल में चूंकि उन नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहा है जिनकी छवि कट्टर हिंदूवादी की है इसलिये कांग्रेस महसूस करने लगी थी कि अफजल समेत आतंकियों को फांसी न देने का मुद्दा उसके गले की फांस बनने जा रहा है। इसके साथ ही, सरकार ने शायद ये सोचा हो कि पिछले एक साल से कश्मीर में स्थिति शांतिपूर्ण रही है और लोगों का प्रतिरोध कम हो गया है। विरोध की अगुवाई संभाल रहे जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला केंद्र सरकार को चुनौती देते हैं कि वह साबित करे कि अफजल को फांसी दिया जाना सियासी फैसला नहीं था। फांसी विरोधी कहते हैं कि अफजल के साथ न्याय नहीं हुआ और उसे फांसी पारिस्थितिजन्य प्रमाणों के आधार पर दी गई न कि सुबूतों की बिना पर। अफजल को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया, उन्हें उचित मौकों पर वकील नहीं दिया गया और पूरे मामले में कई बातें गुप्त रखी गर्इं। आरोप यह भी है कि उनके खिलाफ मिले दिल्ली पुलिस की आतंक-विरोधी शाखा स्पेशल सेल ने ढीले-ढाले सुबूत पेश किए। उमर का रवैया दरअसल, राजनीतिक समीकरणों की वजह से भी है। कश्मीर में एक दशक में हालात तेजी से सुधरे हैं। उग्रवाद कमजोर हुआ है और घाटी की राजनीति देश की मुख्यधारा में शामिल हुई है। पूरी दुनिया में यह संकेत गया है कि कश्मीर में मजबूत लोकतंत्र की वापसी हो चुकी है। ऐसे में अफजल की फांसी का पाकिस्तान परस्त आतंकवादी दुरुपयोग कर सकते हैं, जनता को भड़का सकते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पहले हुई, उनके हत्यारों का दोष पहले सिद्ध हुआ पर फांसी पर उनसे पहले अफजल गुरु को लटका दिया गया। इस तर्क की काट उमर के पास नहीं है और विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा मुफ्ती हमलावर रहकर उनकी मुश्किलें बढ़ा रही हैं। ऐसे में उमर अब्दुल्ला की सबसे बड़ी चुनौती उग्रवादियों के मंसूबों पर रोकथाम लगाना है। कश्मीर में गुरु को प्रतीक के तौर पर पेश कर भारत विरोधी माहौल बनाने का षड्यंत्र हो सकता है। उमर इस हालात से निपटने के लिए अपनी दलीलें दे रहे हैं और खुद को यूपीए से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वह जताना चाहते हैं कि उन्हें लोगों की भावनाओं की समझ है। फांसी से कश्मीर के तमाम अन्य समीकरण भी गड़बड़ा गए हैं। भारत और कश्मीरी अलगाववादियों के बीच वार्ता की सम्भावनाओं पर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। पृथकतावादी नेता मीरवाइज उमर फारुक ने कहा भी है कि अफजल की फांसी के बाद नई दिल्ली के साथ पुन: वार्ता के आसार समाप्त हो गए हैं क्योंकि कश्मीरी नौजवानों के बीच भारत के खिलाफ नफरत बढ़ेगी। खून-खराबे के दूसरे दौर की शुरुआत भी हो सकती है। हालांकि नए राजनीतिक हालात में मीरवाइज की हुर्रियत कांफ्रेंस अप्रासंगिक हुई है और सामने आर्इं नई ताकतें अलग जुबान में बोलने लगी हैं। मजहबी चरमपंथी और भारत विरोधी गुट साथ-साथ आने की तैयारी करते नजर आ रहे हैं।
केंद्र स्तर पर भी फांसी का मुद्दा राजनीतिक समीकरणों में बदलाव की वजह बनने जा रहे हैं। कांग्रेस को तात्कालिक लाभ 21 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में मिलने जा रहा है। अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं और सरकार पर कांग्रेस का दबाव है कि वह लोक हित के फैसले करे। जनलुभावन बजट प्रस्तुत करे और महंगाई कम करने के ठोस उपाय सामने लाए। अफजल की फांसी से उत्साहित कांग्रेस मौका न गंवाते हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपनी उपलब्धियों का बखान कर सकती है। जयपुर चिंतन बैठक में तय हुआ था कि विपक्ष जिन-जिन संभावित मुद्दों पर आने वाले चुनावों में कांग्रेस को घेर सकता है, उन मुद्दों का हल निकालकर विपक्ष को नए मुद्दे खोजने में ही मजबूर कर दिया जाए। भाजपा चूंकि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के हिंदू आतंकवाद के बयान पर संसद में हो-हल्ले की तैयारी में थी इसलिये हो सकता है कि अफजल की सजा पर अमल भी विपक्ष के तरकश के सभी तीरों को खत्म कर देने के प्रयास के तहत किया गया हो। भगवा आतंकवाद का मुद्दा छाया हुआ है, ऐसे में अफजल की फांसी पर अमल कर सभी तरह के आतंकवाद को समान रूप से देखने का दावा भी कांग्रेस अब कर सकती है। उग्रवाद पर ढीला रवैया अपनाने का जो आरोप उस पर लगता रहा है, वह भी इस फैसले से कमजोर पड़ा है। कांग्रेस कहने लगी है कि राष्ट्रपति की ओर से अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद फांसी संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए गए। दूसरी तरफ, भाजपा फांसी में लगी देरी को मुद्दा बना रही है। कांग्रेस फांसी का लाभ उठाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती, जबकि भाजपा की कोशिश श्रेय नकारने की है। यह बात तो लगभग तय ही है कि आने वाले समय में यह मुद्दा खासा गुल खिलाने जा रहा है।
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