Sunday, February 3, 2013
मोदी की तरफ बढ़ती भाजपा
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बेचैनी का दौर है। नेतृत्व कर रही भारतीय जनता पार्टी ने जबसे राजनाथ सिंह को अपनी कमान सौंपी है और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी लम्बी मुलाकात हुई है, तब से घटक दल यह सोचकर बेहाल हुए जा रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में उसका मुखौटा कौन होगा। भाजपा मोदी को लोकसभा चुनाव का मुख्य चेहरा बनाने को लगभग तैयार दिखती है और मोदी तमाम दलों के गले नहीं उतरते, उन्हें लगता है कि मोदी यदि प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हुए तो उसके अल्पसंख्यक मत अन्य दलों की ओर खिसक सकते हैं। सीधी सी समस्या है, मुस्लिम वोट सरकने से उनकी सीटें कम हो जाएंगी और वह सत्ता मिलने की स्थिति में सौदेबाजी के काबिल भी नहीं बचेंगे। जनता दल यूनाइटेड नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, अन्ना द्रमुक सुप्रीमो और तमिलनाडु की सीएम जयललिता के साथ ही तमाम चेहरे ऐसे हैं जो पीएम बनने का सपना पाले बैठे हैं, मोदी की आक्रामकता और सीटों में कमी उनके सपनों के छितरने का कारण बन सकती है। शिवसेना का रुख भी मोदी की राह का कांटा बना है। इसीलिये उन्हें खुलकर मैदान में उतारने में हिचक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा नितिन गडकरी को दोबारा भाजपा अध्यक्ष के रूप में देखने की थी लेकिन वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के वीटो ने खेल बिगाड़ दिया। मजबूरी में राजनाथ सिंह का चुनाव हुआ। यह क्षत्रिय नेता अपने पूर्ववर्ती के कार्यकाल में प्रभावशाली और गडकरी के निकटस्थ राष्ट्रीय नेताओं में एक थे। बीच का रास्ता ढूंढते वक्त उनके नाम पर सहमति बन गई। लेकिन वक्त की नजाकत समझने में राजनाथ सिंह ने देरी नहीं की और मोदी के साथ अपनी जुगलबंदी की कोशिशें तेज कर दीं। ऐसा प्रतीत हुआ कि यह भाजपा का अतीत है जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी की जुगलबंदी हुआ करती थी। अटल नरमपंथी और आडवाणी पार्टी का कट्टरपंथी चेहरा हुआ करते थे, जताने की कोशिश हुई कि राजनाथ जैसे अटल के स्थान पर हैं और मोदी आडवाणी के। राजनाथ जानते हैं कि भाजपा को ताकत मोदी को आगे करने पर ही मिल सकती है हालांकि इससे घटक दलों के नाराज होने का जोखिम है। सिंह मानकर चल रहे हैं कि घटक दलों में से कुछ यदि छिटके भी तो मोदी की सक्रिय अगुवाई सीटों की भरपाई कर देगी और असली ताकत तब भाजपा के पास होगी। सीटें ज्यादा हुर्इं तो भाजपा अपने मनपसंद नेता को पीएम पद तक पहुंचा देगी। यह नेता बेशक मोदी होंगे लेकिन रणनीति चुनाव बाद पत्ते खोलने की भी है। ऐसे में अध्यक्ष का मन मोदी को अप्रत्यक्ष रूप से पीएम पद का दावेदार जताने की योजना पर चलने का है। इसके लाभ और भी हैं। सत्ता के फैसले के वक्त घटक दल ताकत में हुए तो मोदी के स्थान पर दूसरा चेहरा आगे किया जा सकता है। इसी रणनीति के तहत सिंह खुलकर मोदी का नाम नहीं रखना चाह रहे। इसी रणनीति का एक और प्लस प्वाइंट आडवाणी खेमे के किनारे हो जाने का भी है। सुषमा स्वराज इसी खेमे से हैं और बाल ठाकरे के अंतिम दिनों से शिवसेना उनके आगे आने की पैरवी कर रही है। शिवसेना नहीं चाहती कि मोदी जैसा हिंदुत्व का आक्रामक चेहरा मैदान में हो और उसके वोट बैंक पर भी डाका डाल दे। इसी क्रम में शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे से नजदीकी बढ़ाने की कोशिशें शुरू की हैं। तय है कि दोनों की एकजुटता न केवल सीटें बढ़ाने में मददगार सिद्ध होगी बल्कि मोदी के करिश्मे से भी टक्कर ली जा सकेगी। राज ठाकरे देखो और इंतजार करो की नीति अपना रहे हैं। दरअसल, वह बाल ठाकरे के उस फॉर्मूले पर ही समझौता चाहते हैं जिसके तहत पार्टी (यदि विलय संभव हुआ तब) या गठबंधन की कमान उद्धव संभालें और सरकार उनके नेतृत्व में संचालित की जाए यानि राज मुख्यमंत्री बनें।
राजनाथ की नजर जयललिता और नीतीश जैसे उन नेताओं पर भी है जो खुद के पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। नीतीश मानकर चल रहे हैं कि अगले चुनाव में वह बिहार की सीटों की बल पर बड़ी कुर्सी तक पहुंच सकते हैं। इसीलिये उन्होंने अपने राज्य में सहयोगी भाजपा को बैक सीट पर बैठा दिया। उसके तमाम नेताओं को अपनी पार्टी की सदस्यता दिला दी है। हालांकि नीतीश के जनाधार में कमी आई है और राज्य के विभिन्न हिस्सों से सरकार के विरुद्ध आक्रोश के संकेत मिलने लगे हैं। भाजपा खुद को सक्रिय नहीं करना चाहतीं ताकि उस पर सरकार की नाकामी का ठींकरा न फूटने पाए। इसके साथ ही नीतीश उस पर सहयोग न करने और अपनी महत्वाकांक्षाओं के पोषण का आरोप न मढ़ सकें। नीतीश की राह में शरद यादव रोड़ा हैं। गठबंधन संयोजक शरद वैसे चमत्कार की आस में है जैसा एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने पर हुआ था। राजग में शामिल होने की जयललिता की व्यग्रता भी राजनाथ को फायदे का सौदा लग रही है। जया भी सपना देख रही हैं लेकिन वह सपना पूरा करने के लिए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की तरह किसी तीसरे मोर्चे की अगुवाई नहीं करना चाहतीं। ओडिशा में बीजू जनता दल से भी भाजपा ने अनौपचारिक तौर पर संपर्क किया है। हालांकि नवीन पटनायक ने कोई सकारात्मक संकेत दिया नहीं है। हरियाणा में भी उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। यहां भाजपा की दोस्ती औपचारिक रूप से पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के पुत्र कुलदीप विश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस से है। दोनों दलों ने भिवानी संसदीय सीट का उपचुनाव मिलकर लड़ा था जिसमें विश्नोई की जीत हुई थी। समस्या इण्डियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटाला के शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल जाने से पैदा हुई है। असल में, पिछले कुछ समय से भाजपा ने चौटाला से नजदीकियां बढ़ाना प्रारंभ कर दिया था, इसी क्रम में वह मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने गुजरात पहुंचे थे जबकि विश्नोई गैरहाजिर रहे थे। चौटाला प्रकरण से कांग्रेस उत्साहित है। भाजपा को अब यह फैसला करना है कि इस राज्य के चुनावी समर में वह अकेले उतरेगी या विश्नोई को फिर साथ लेकर। चुनावों में अभी वक्त है लेकिन राजग की तैयारियां जिस रास्ते पर हैं, उससे लगता है कि पिछले आम चुनाव के बाद वह पहली बार ज्यादा सक्रिय है।
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