Saturday, December 28, 2013

यमुना तट पर केजरीवाल

अरविंद केजरीवाल ने आखिरकार दिल्ली की कमान संभाल ही ली। कठिन चुनौतियां हैं और वह बार-बार कह रहे हैं कि इनसे निपटने में खरा सिद्ध होंगे। अहम मोर्चा है राजधानी के हर घर में प्रतिदिन सात सौ लीटर पानी की आपूर्ति का। बिजली की कीमतें घटाने के मामले में वह चाहें कुछ कर दिखाएं भी, लेकिन पानी का मामला बेहद मुश्किल है। जिस यमुना से उनकी दिल्ली की पानी मिलता है, पहली बात तो साल के ज्यादातर महीनों में उसमें पानी की कमी रहती है और दूसरा, हरियाणा सामने खड़ा है। कांग्रेस शासित हरियाणा आसानी से मान जाएगा, यह कतई संभव नहीं। केजरीवाल ने बड़े वादे किए थे। शक है कि उन्हें दिल्ली फतह का यकीन था। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा जता दिया। पानी दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश का भी बड़ा दर्द है। वर्ष 1995 में पांच राज्यों हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश औऱ हरियाणा के बीच यमुना जल पर समझौता हुआ था, पर यह अक्सर विवादों का विषय बनता है।हरियाणा से गुजरने के बाद यमुना दिल्ली पहुंचती है तो वह उसे काफी प्रदूषित कर देती है। उत्तर प्रदेश, खासकर ब्रज, में यमुना जल बड़ा मुद्दा है। यमुना आस्था से भी जुड़ी नदी है, भगवान कृष्ण की वजह से उसे आस्था का यह दर्जा हासिल हुआ है। हर साल ब्रज में करीब आठ करोड़ श्रद्धालु आते हैं, लेकिन जब ये लोग यमुना में गिरते नालों को देखते हैं तो उनकी भावनाएं आहत होती हैं। यही कारण है कि यमुना के किनारे भूमिगत जल भी प्रदूषित हो चुका है। आसपास के क्षेत्र में गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। आगरा-मथुरा समेत पूरा ब्रज यमुना शुद्धिकरण के लिए आंदोलनरत रहा है। संतों ने तो यमुना मुक्ति यात्रा तक आयोजित की है। ऐसे में आम आदमी पार्टी के नायक का रास्ता खासा कठिन हो जाता है कि वह दिल्ली को अपने वादे के मुताबिक पानी दे पाएंगे। केजरीवाल एक तरफ तो दिल्ली के निकटवर्ती हरियाणा में पैर पसारने की योजना बना रहे हैं, दूसरी तरफ, इसी हरियाणा के विरुद्ध उनका मोर्चा खुलने जा रहा है। वह कैसे मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा उन्हें पानी देने के लिए तैयार हो जाएंगे जबकि कृषि प्रधान हरियाणा के तमाम इलाकों के खेतों में सिंचाई और जलापूर्ति यमुना पर ही आश्रित है। आंकड़ों पर जाएं तो दिल्ली की जलापूर्ति हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर निर्भर है। दिल्ली जल बोर्ड वहां प्रतिदिन करीब 835 एमजीडी पानी की सप्लाई करता है जिसका करीब 50 प्रतिशत भाग हरियाणा से मिलता है और करीब 25 फीसदी हिस्सा गंग नहर से। उत्तर प्रदेश जहां पानी को प्रदूषित करने के लिए दिल्ली से दो-दो हाथ करने के लिए मजबूर है, वहीं हरियाणा से उसकी लड़ाई पानी की समुचित आपूर्ति को लेकर है। हरियाणा और दिल्ली के बीच भी यही विवाद है और गर्मियों में अक्सर केंद्र सरकार को दखल देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बदली स्थितियों में सवाल यह है कि केंद्र सरकार क्यों कांग्रेस शासित हरियाणा से पानी छोड़ने के लिए कहेगी जबकि पानी न मिलने पर आम आदमी पार्टी से जनता के मोहभंग का लाभ उसे मिल सकता है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार भी अपनी जनता का हक काटकर दिल्ली का गला तर करने को तैयार नहीं होगी, क्योंकि वह भी राजनीतिक रूप से आम आदमी पार्टी के बिल्कुल करीब नहीं है। उत्तर प्रदेश तो खुलकर यमुना मुक्ति आंदोलन के साथ है। यमुना रक्षक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संत जयकृष्ण दास के नेतृत्व में संचालित आंदोलन के कार्यकर्ताओं के समक्ष प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव खुलकर कह चुके हैं कि यमुना की गंदगी के लिए दिल्ली जिम्मेदार है और हरियाणा ने उसे हथिनीकुंड में रोक दिया है। सरकार की ओर से मंत्री ने हरियाणा सरकार से बात की है, आंदोलनकारी भी हुड्डा के संपर्क में हैं। अखिलेश सरकार की योजना यमुना के समानांतर नाले के निर्माण की है, साथ ही यमुना के समानांतर पाइप लाइन डालकर गंदे पानी का शोधन कर इसे कृषि और अन्य उपयोग में लाने का उसका मन है। इन परिस्थितियों में अरविंद का मोर्चा और कठिन हो जाता है। दुःख की बात यह है कि सारी मारामारी यमुना के उस जल के लिए है, जिसके जहरीला होने की हद तक प्रदूषित होने के कारण दिल्ली जल बोर्ड साल में कई बार शोधन कार्य रोक देता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी स्वीकार करता है कि हालात बहुत खराब हैं। राष्ट्रीय गंगा घाटी प्राधिकरण ने 764 ऐसी औद्योगिक इकाइयों को चिह्नित किया, जिनसे नदियों में सबसे अधिक प्रदूषण फैलता है। कुछ के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई लेकिन पूरा तंत्र भूल गया कि प्रदूषण बढ़ाने में ऐसे बहुत सारे छोटे कल-कारखाने जिम्मेदार हैं, जो अपंजीकृत हैं और ऐसी इकाइयां दिल्ली में सर्वाधिक हैं। इसके अलावा मौजूदा जलमल शोधन संयंत्रों की क्षमता पर भी शुरू से सवाल उठते रहे हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि आदर्शों की राजनीति का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल ने इतना बड़ा वादा करने से पहले जमीनी हकीकत का आंकलन क्यों नहीं किया। इसके बजाए, वह यमुना शुद्धिकरण और उसके बाद बढ़ी जल की मात्रा से दिल्ली को ज्यादा पानी देने का वादा करते तो ज्यादा अच्छा रहता। तब बदलाव की उम्मीद करने वाली उत्तर प्रदेश और हरियाणा की जनता भी उनके साथ आ पाती।

Sunday, December 22, 2013

सीमाएं लांघता 'देवयानी एपिसोड'

भारत-अमेरिका कूटनीतिक सम्बन्धों में तनातनी है। शायद पहली बार अमेरिका को किसी देश से इतना प्रबल विरोध सहना पड़ रहा है, तो भारत ने भी संभवतया पहली दफा विवाद के किसी एपीसोड पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया जताई है। साथ ही, यह दिखाने की कोशिश की है कि वह मामले से बेहद खफा है, बदला लेने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता। लेकिन भारतीय रुख तमाम प्रश्न भी खड़े कर रहा है, यदि राजनयिक देवयानी खोबरागडे के विरुद्ध शिकायत है और अमेरिका उसकी जांच कर रहा है तो हम महज विरोध की परंपरा से आगे बढ़ने में इतने व्यग्र क्यों दिख रहे हैं। यह कहां की समझदारी है कि विदेश मंत्री संसद में चीखकर कहें कि मैं देवयानी को सुरक्षित वापस नहीं ला पाया तो सदन को कभी मुंह नहीं दिखाऊंगा। क्यों देवयानी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें सुरक्षा कवच मुहैया कराया जा रहा है, ताकि यह भ्रम ही न रहे कि वह राजनयिकों के लिए तय विशेषाधिकारों की परिधि में आती हैं या नहीं। अरसे से जिसे हम मित्र सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे, उसी अमेरिका के साथ ऐसा व्यवहार क्यों हो रहा है कि वह पाकिस्तान जैसा कोई शत्रु देश हो। राजनयिकों के विशेषाधिकारों का प्रावधान है और सभी देश इन्हें पूरा आदर-सत्कार देते हैं। अमेरिका पर आरोप है कि उसने मर्यादाएं लांघीं और भारतीय राजनयिक की वस्त्र उतारकर तलाशी से भी नहीं हिचका। उन्हें खूंखार कैदियों के साथ हवालात में रखा गया। भारत ने तत्काल प्रतिक्रिया जाहिर की और अमेरिकी राजनयिकों के यह अधिकार जैसे सीज कर दिए। लेकिन यह प्रतिक्रिया बेहद निचले स्तर की रही। कहां की समझदारी है कि जिस अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों ने निशाने पर ले रखा हो, जिसके दूतावासों पर हमले किए हों, जिसके राजनयिकों के अपहरण के उदाहरण हों, उस अमेरिका के दूतावास तो हम इतना असुरक्षित छोड़ दें कि आम यातायात वहां से गुजरने लगे। माना कि आम चुनाव नजदीक हैं और अमेरिका के विरुद्ध नरम रवैये से मतदाताओं में गलत संकेत जा सकते थे लेकिन ईश्वर न करे, कि राजनयिकों और दूतावास के साथ कुछ गलत हो गया होता तो हम क्या जवाब देते। क्या तब हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न चुनावों का मुद्दा नहीं बनते? अगर अमेरिका जांच पर ही उतारू था तो क्यों हम, उसकी प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार नहीं कर रहे। होना तो यह चाहिये कि हम देवयानी के जांच में बेदाग सिद्ध होने का इंतजार करते। बजाए इसके, हमने यह सुनिश्चित करने के लिए देवयानी बची रहें, हमने उन्हें विशेषाधिकारों का कवच मुहैया कराते हुए न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में तैनात कर दिया। इस तरह उन्हें विएना संधि के तहत राजनयिकों को मिलने वाले सारे अधिकार मुहैया करा दिए गए। फिलहाल कौंसुलर अफसर होने के कारण देवयानी को ये अधिकार हासिल नहीं थे। अगर यह जरूरी भी था, तो क्यों हमारा विदेश मंत्रालय अब तक भारतीय दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ का दर्जा दिलाने में कोताही बरतता रहा जबकि वहां स्थित रूसी दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ दर्जा प्राप्त है। इसके उलट, अमेरिका ने यही विशेषाधिकार भारत स्थित अपने कूटनीतिक मिशनों के कर्मचारियों के लिए प्राप्त किया हुआ है। अमेरिका को दोष देने से पहले हमें अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि हमने अपने कूटनीतिज्ञों को कितना सुरक्षा कवच प्रदान कर रखा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि विपक्षी दलों ने भी मुद्दे से ज्यादा नहीं समझा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इंकार किया, तब तक तो खैर थी लेकिन संसद के सत्र में जिस तरह से मर्यादा की सीमाएं पार हुर्इं और अमेरिका को गालियां तक दी गर्इं, वह किस तरह से सही मानी जा सकती हैं। अमेरिका अगर भूल भी रहा था और राजनयिक के साथ गलत व्यवहार पर उतारू था तो हमारे सब्र के बांध का छलक जाना, कहां तक न्यायोचित माना जा सकता है। सियासी पार्टियों का सारा आक्रोश वोटों की राजनीति तक सीमित था, इसीलिये तो भाजपा नेता यशवंत सिन्हा शालीनता की सीमा पार कर गए और यह कह बैठे, 'भारत ने काफी संख्या में अमेरिकी राजनयिकों के साथियों को वीजा जारी किए हैं। जैसे अमेरिका में मानक से कम वेतन देना अपराध है, वैसे ही धारा 377 के तहत हमारे देश में समलैंगिक संबंध भी अपराध हैं तो भारत सरकार ऐसे सभी अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेती! उन्हें जेल में डालिए और यहीं सजा दीजिए।' इन सब बातों से इतर, अगर हम वैश्विक स्थितियों की बात करें तो अमेरिका के साथ रहकर भी हम खुद को नफे में मान सकते हैं वरना रूस की हैसियत अब पहले जैसी है नहीं और चीन जैसा दुश्मन लगातार अपनी ताकत में इजाफा कर रहा है। पाकिस्तान से चीन का गठजोड़ हमारे लिए किसी भी दिन बड़ी चुनौती बनकर रूबरू हो सकता है। ऐसे में अमेरिका ही आशा की एकमात्र किरण है और वह काफी समय से चीन पर अंकुश रखने की नीयत से एशिया में भारत की भूमिका बढ़ाने के लिए कदम उठा रहा है। अमेरिका भारत को अपना रणनीतिक साझीदार मानता है और दोनों के सुरक्षा हित साझा हैं। दोनों ही देश आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त हैं और उससे लोहा लेने के लिए मजबूर हैं। समुद्री सुरक्षा, हिन्द महासागर क्षेत्र, अफगानिस्तान और कई क्षेत्रीय मुद्दों पर दोनों देश व्यापक तौर पर अपने हित साझा करते हैं। बात का लब्बोलुआब यह है कि हमें पूरे प्रकरण में समझदारी दिखानी चाहिये थी जो हमने अभी तक नहीं दिखाई है। यह भारत और अमेरिकी सम्बन्धों के लिए कतई उचित नहीं है। यह आत्मघाती भी हो सकती है।

Saturday, December 14, 2013

सियासत और सोशल मीडिया

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार एक और मंच भी था, जहां भाषण देते नेता नहीं थे और न ही किसी पार्टी के स्तर से घोषणापत्र जारी किए जा रहे थे, वहां आम लोग ही थे और हर मुद्दे पर उनकी बेबाक राय थी। प्रत्याशियों के गुणों का मूल्यांकन था और कमियां भी खूब इंगित की जा रही थीं। सोशल मीडिया के इस मंच का असर जमकर दिखाई दिया। चारों राज्यों में जबर्दस्त मतदान के लिए भी इस मंच की प्रेरणा का अहम रोल है। सियासी पार्टी सकते में हैं, प्रचार के परंपरागत तरीकों से हटकर उन्हें, मीडिया के इस नए रूप के लिए भी रणनीति बनानी पड़ी है। असर कितना व्यापक है कि, चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव में प्रत्येक प्रत्याशी के लिए सोशल मीडिया पर उसकी सक्रियता की हर जानकारी मांगने जा रहा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों की एक अहम उपलब्धि है आम आदमी पार्टी का उदय। प्रचार अभियान के परंपरागत तरीकों से हटकर इंटरनेट की दुनिया के जबर्दस्त प्रयोग की बदौलत उसे यह उपलब्धि हासिल हुई है। आज की तारीख में शहरी मध्य वर्ग और उसमें भी युवाओं तक पहुंचने का इंटरनेट सबसे मजबूत माध्यम है। केजरीवाल की पार्टी ने सबसे पहले यह भांप लिया और पहली बार इंटरनेट के संगठित उपयोग की शुरुआत की। यही वो पहली पार्टी है जिसने अपनी एंड्रायड एप्लीकेशन बनवाई। फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के दो प्रमुख मंचों और वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब का जमकर प्रयोग किया। भाजपा भी पीछे नहीं थी। सब-कुछ इतने बेहतर तरीके से संचालित किया गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की हर सभा आनलाइन थी। फेसबुक और ट्विटर पर लिंक शेयर हो रहे थे। दोनों दलों के चुनाव प्रबंधक समझ गए थे कि चुनावी सभाओं में भाग लेने वाले ही लोग वोटर नहीं हैं, बल्कि वो भी हैं जो विभिन्न कारणों से इंटरनेट के जरिए देश के सियासी घटनाक्रमों से जुड़े रहते हैं। सूचनाएं लगातार अपडेट हो रही थीं, यह तत्परता ही है कि मतदान होने से पहले ही चुनाव नतीजों का आंकलन भी कर लिया गया, जैसे दिल्ली में मतदान से एक दिन पूर्व फेसबुक और ट्विटर पर जो ट्रेंड था, उसमें आम आदमी पार्टी को बढ़त हासिल थी। मतदान से एक दिन पहले ट्विटर पर केजरीवाल को सात लाख लोग फॉलो कर रहे थे। फेसबुक पर केजरीवाल प्रशंसकों की संख्या 10 लाख से ज्यादा थी जबकि भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार डॉ. हर्षवर्धन को ट्विटर पर महज 17 हजार लोगों ने फॉलो किया था। भाजपा देर से सक्रिय हुई, मतदान से तीन दिन पहले प्रारंभ हर्षवर्धन के फेसबुक पेज को 65 हजार लोगों ने तीन दिन में लाइक किया। लेकिन शीला दीक्षित को लेकर आकलन गलत रहा, वह लाइक के मामले में हर्षवर्धन से आगे थीं, उनके अधिकृत पेज को सवा लाख लाइक मिले थे। चुनावी मामलों में हर कदम फूंक-फूंककर रखने वालीं राजनीतिक पार्टियां यदि गंभीर हैं तो आंकड़ों के मामले में भी इंटरनेट की ताकत एक वजह है। इन्हीं आंकड़ों की बात करें तो टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आॅफ इंडिया (ट्राई) के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष 2012-13 के अंतिम दिन देश में इंटरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या 17 करोड़ 40 लाख थी, चुनाव आयोग जैसी प्रमुख इकाई ने जिसमें नौ करोड़ लोगों को वोटर माना है। इंटरनेट उपयोग करने वाले तीन-चौथाई लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। चुनाव आयोग भी मान रहा है कि मतदान प्रतिशत बढ़ने के पीछे इंटरनेट की मुख्य भूमिका रही है। आयोग की साइट पर मतदाता पंजीकरण के लिए पहुंचने वालों में करीब 70 फीसदी लोग युवा हैं और 35 वर्ष से कम आयु के हैं। यह पहला मौका है, जब देश की उस पढ़ी-लिखी विशाल युवा आबादी ने वोटर के रूप में अपना नाम दर्ज कराया है, जो सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हो सकती है। चुनाव सर्वेक्षण संचालित करने वाली कंपनी सी-वोटर का अनुमान बताता है कि इंटरनेट प्रयोग करने वाले नौ करोड़ से ज्यादा लोगों का तीन से चार फीसदी भाग आगामी आम चुनावों को प्रभावित करने की हैसियत में है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के साथ ही बंगलुरू, चण्डीगढ़, अहमदाबाद जैसे नए उभरे महानगरों में यह प्रतिशत इससे अधिक भी होने की संभावना जताई गई है क्योंकि यहां की युवा आबादी सोशल मीडिया पर दूसरे शहरों की अपेक्षा ज्यादा सक्रिय है। सी-वोटर ने अपने मतदान-पश्चात सर्वेक्षण में इंगित किया है कि इन विधानसभा चुनावों में युवाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। चुनाव आयोग के पास सूचनाएं हैं कि पार्टियां और प्रत्याशी अपने चुनावी व्यय का एक अच्छा-खासा हिस्सा सोशल मीडिया पर व्यय करने लगी हैं इसीलिये उसके स्तर से विधानसभा चुनाव से पूर्व निर्देश जारी किए गए कि राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के जरिए सोशल मीडिया पर पोस्ट सामग्री चुनाव आचार संहिता के दायरे में आएगी। उम्मीदवारों को नामांकन करते वक्त अन्य सूचनाओं के साथ अपने सोशल मीडिया एकांउट के बारे में भी सूचना देनी होगी। सोशल मीडिया की निगरानी के लिए वही तरीका अपनाया जाएगा, जो टीवी और अखबारों के लिए अपनाया जाता है। आयोग लोकसभा चुनावों में व्यवस्थाएं और कड़ी करने जा रहा है। दूसरी तरफ, सियासी दल भी मुस्तैद हैं। राष्ट्रीय दलों के साथ ही क्षेत्रीय दल भी इंटरनेट पर अपनी सक्रियता बढ़ाने के लिए कमर कस रहे हैं। फेसबुक पर पेज प्रमोट करने की सुविधा का जमकर प्रयोग हो रहा है। यानि आने वाले दिनों में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव जैसे पुरानी पीढ़ी के नेताओं की भी इंटरनेट सक्रियता बढ़ती नजर आने वाली है।

Saturday, December 7, 2013

नेल्सन मंडेला और मलाला...

नेल्सन मंडेला नहीं रहे और मलाला यूसुफजई को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार पुरस्कार मिला है। एक साथ ये दोनों जिक्र आश्चर्य पैदा करते हैं लेकिन दोनों का सम्बन्ध है और वो भी गहरा। दक्षिण अफ्रीका के गांधी नेल्सन मंडेला और पाकिस्तानी वीरबाला मलाला यूसुफजई एक ही विचारधारा की दो अलग-अलग पीढ़ियों का नेतृत्व करते हैं। मंडेला उन दिनों और देश में रौशनी बनकर उभरे जहां एक बड़ी आबादी का पर्याय अंधेरा था और मलाला उस पाकिस्तान की हैं जहां महिला अधिकार बेमानी हैं। महिलाएं पर्दे के भीतर हैं और उनकी आवाज दबाने के हरचंद कोशिश होती रहती है। बाकी दुनिया की तरह उन्हें तमाम तरह की आजादियां मयस्सर नहीं। समानताएं और भी हैं। नेल्सन ही मलाला के आदर्श पुरुष हैं और दोनों को इस पुरस्कार के काबिल समझा गया है। नेल्सन युग पुरुष हैं। वह स्वतंत्रता, प्रेम, समानता और ऐसे मूल्यों के प्रतीक हैं जिनकी हमें हमेशा, हर जगह जरूरत होती है। उनका लंबा संघर्ष मानवता का उदाहरण है। वह जब बड़े हुए, तब उनका देश काले-गोरों के बीच खाई में कहीं खोया हुआ था। वहां काले यानि अश्वेत सिर्फ मरने के लिए पैदा हुआ करते थे लेकिन मंडेला सबसे अलग थे। उन्होंने महज 10 साल की उम्र में लड़ने का फैसला किया। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के झण्डे तले ऐसा अभियान छेड़ा कि श्वेत सरकार मुश्किल में आ गई। वह 27 साल जेल में रहे, उगता हुआ सूरज नहीं देखा। यह उनका आत्मबल ही था कि डटे रहे और अफ्रीका की गोरी सरकार को उनके सामने झुक जाना पड़ा। मलाला की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। वह पाकिस्तान में स्वात घाटी के मिंगोरा शहर में पैदा हुर्इं। मिंगोरा पर तालिबान का कब्जा था। महज 11 साल की उम्र में ही मलाला ने डायरी लिखनी शुरू कर दी थी। वर्ष 2009 में छद्म नाम गुल मकई के तहत बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखकर मलाला पहली बार दुनिया की नजर में आ गर्इं। डायरी में उन्होंने स्वात में तालिबान के कुकृत्यों का वर्णन किया और अपने दर्द को बयां किया। लिखा, आज स्कूल का आखिरी दिन था इसलिए हमने मैदान पर कुछ ज्यादा देर खेलने का फैसला किया। मेरा मानना है कि एक दिन स्कूल खुलेगा लेकिन जाते समय मैंने स्कूल की इमारत को इस तरह देखा, जैसे मैं यहां फिर कभी नहीं आऊंगी। मलाला ने ब्लॉग और मीडिया में तालिबान की ज्यादतियों के बारे में लिखना शुरू किया तो धमकियों का अंबार लग गया। महिलाओं पर स्कूल में पढ़ने से लेकर कई पाबंदियां थीं। मलाला भी इसकी शिकार हुई। डायरी लोकप्रिय हो रही थी और उधर, लोगों में जागरूकता बढ़ रही थी। नतीजतन, तालिबान के विरुद्ध एक हवा बन गई। मात्र 14 साल की मलाला पर आतंकवादियों ने हमला किया। वह बुरी तरह घायल हुर्इं और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन गर्इं। महज 16 वर्षीय मलाला का कद आज बड़े-बड़ों से बड़ा है। उन्हें इस प्रतिष्ठित सम्मान से पहले पाकिस्तान का राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार, वैचारिक स्वतंत्रता के लिए यूरो संसद का सखारोव अवार्ड, अंतर्राष्ट्रीय बाल शांति पुरस्कार और मैक्सिको के समानता पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। मलाला एक दिन पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं। एक राजनीतिज्ञ के तौर पर मलाला पाकिस्तान के ज्यादा काम आ सकती है। पाकिस्तानी में कट्टरपंथियों की सोच का केंद्रीय तत्व बदतर किस्म का लैंगिक शोषण है, वह चाहते हैं कि देश जाहीलिया यानि पूर्वाग्रह और अज्ञानता के दिनों की ओर चला जाए। इस्लाम के सही मायने उन्हें शायद नहीं पता या फिर उनकी अनदेखी का मकसद सुर्खियां पाना है। जहां इस्लाम ने शिशु कन्या की हत्या सरीखी तमाम कुरीतियों को प्रतिबंधित करके अरब महिलाओं का दिल जीता था, वहीं पाकिस्तानी तालिबान और उसके समर्थक उस धर्म को शर्मसार करते हैं, जिसके वे अनुयायी हैं। मलाला उन सियासतदां का अच्छा विकल्प हैं जो शरीर ही नहीं, दिमाग से भी बूढ़े हो चुके हैं। सत्तर साल के परवेज मुशर्रफ की कट्टरता परस्त सोच का वह विकासवादी जवाब हैं। दोगली नीतियों से अपने मुल्क का बुरा करने वाले नवाज शरीफ से ज्यादा समझदार हैं मलाला। लेखिका और पूर्व पीएम बेनजीर भुट्टो की भतीजी फातिमा भुट्टो भी उनकी पैरोकार हैं जो निडर और बुलंद आवाज के लिए जगप्रसिद्ध हैं। वह कहने से नहीं हिचकतीं कि निडर और साफ सोच वाली आवाजें पिछड़े इलाकों से उठनी चाहिए न कि उच्चवर्गीय शहरियों के बीच से। शहरों से उठने वाली आवाजें कुछ निश्चित पृष्ठभूमि और अंग्रेजीदां तबके से आती हैं। इसका कारण यह है कि वे अंतर्राष्ट्रीय स्कूलों में गई होती हैं। पाकिस्तानियों को और ज्यादा मुखर स्वर की जरूरत है। ऐसी ही आवाज भारत, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे तमाम उन देशों से भी आनी चाहिये जहां किसी न किसी तरह की अनियमितताएं या शोषण है। भ्रष्टाचार का दानव पैर पसार रहा है। मलाला यूसुफजई उस विशाल युवा वर्ग की नुमाइंदगी करती हैं जो राजनीति में स्वच्छता चाहता है और नेल्सन मंडेला की तरह वह अन्याय बर्दाश्त करने का इच्छुक नहीं। उसे विकास की आस है, वह भ्रष्टाचार जैसे घुन का समूल नाश चाहता है। भारत जैसे युवाओं के देश का युवा भी बाकी दुनिया से अलहदा नहीं।

Sunday, November 17, 2013

चीन-पाक के मोर्चे पर खाली हाथ

मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल भी लगभग समाप्ति की ओर है। चुनावों की तैयारियां हैं, सियासी माहौल गरमा चुका है। नेताओं की रैलियों के दौर चल रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप और वोटरों को लुभाने के स्टंट भी चरम पर बढ़ रहे हैं। मौका समीक्षा का आ रहा है, सरकार कठघरे में है। पूछा जा रहा है कि दो कार्यकाल में यूपीए सरकार के हिस्से में कितनी उपलब्धियां आई हैं। भारत की आर्थिक स्थिति तेजी से गिरती जा रही है। सोचा जाता था कि भारत की विकास दर चीन के बराबर होगी या कम से कम आठ प्रतिशत तो अवश्य होगी परंतु आज यह गिरकर महज चार प्रतिशत रह गई है। खैर, समस्याएं क्या हैं और उनके कितने हल हुए, यह दीगर है। चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ ने सिद्ध किया है कि हम विदेश नीति के मोर्चे पर ढंग से वार नहीं कर पा रहे, बल्कि रक्षात्मक हुए हैं। चीन-पाकिस्तान के मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के मामले में हमारी उपलब्धियां शून्य हैं। यह हाल तब है जबकि हमारे प्रधानमंत्री ने 10 साल के कार्यकाल में हवाई जहाज से 6,20,000 मील की उड़ान भरी है और 72 बार सरकारी दौरे पर विदेश गए हैं। सबसे पहले चीन के साथ सम्बंधों की बात करें। चीन हाल के दिनों में हमलावर हुआ है और घुसपैठ से भी नहीं हिचक रहा। मनमोहन ने बीजिंग में कहा था कि, भारत और चीन हाथ मिलाते हैं तो दुनिया उत्सुकतापूर्वक देखती है लेकिन चीन जिस तरह से भारत की अवहेलना कर रहा है, उससे लगता है कि वह भारत को दूर-दूर तक अपना प्रतिस्पर्धी नहीं मानता। चीन-भारत शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच बॉर्डर डिफेंंस कोआॅपरेशन एग्रीमेंट हुआ जिसका अर्थ है चीन और भारत के फौजी सीमा पर आपस में नहीं लड़ेंगे और न उस तरह की घटना होगी जैसी कुछ माह पूर्व लद्दाख में हुई थी, जहां चीनी फौजी करीब तीन हफ्तों तक भारत की सीमा मेंं डटे रहे थे। सवाल यह है कि हम उत्साहित क्यों हैं? कुछ दशकों में दोनों देशों के सम्बंधों का विश्लेषण किया जाए तो चीन की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट हो जाएगा। वह सदैव भारत के साथ मधुर सम्बंध बनाने की बात करता रहा है परन्तु चुपके से हमारी जमीन हड़पने से भी नहीं हिचकता। उसने चार हजार किमी भूमि हड़पी हुई है। कुछ महीने पहले तक वह अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न हिस्सा मानता था लेकिन अब कहने से नहीं हिचकता कि एक दलाई लामा का जन्म चूंकि अरुणाचल प्रदेश में हुआ था इसलिये यह प्रदेश भी चीन का ही हिस्सा है। चीन जाने के इच्छुक लोगों को वह नत्थी वीजा देता है, मनमोहन के कहने पर उसने इस मसले पर अपना रुख बदलने से इंकार कर दिया। उसका तर्क है कि अरुणाचल चीन का हिस्सा है और यहां रहने वाले उसके नागरिक, अपने नागरिकों को चीन जाने के लिए वीजा की कोई जरूरत ही नहीं है। यह शत्रुतापूर्ण रवैये का ही उदाहरण है कि चीन भारत को चारों ओर से घेर रहा है, भारत के कट्टर शत्रु पाकिस्तान को वह हर तरह की आर्थिक और सामरिक मदद दे रहा है। पाकिस्तान के ग्वादर बन्दरगाह को विकसित करने का पूरा खर्च भी उठा रहा है। म्यांमार और श्रीलंका में भी बन्दरगाहों का जाल बिछा रहा है। भारत को नीचा दिखाने के लिए तमिल विद्रोहियों के साथ युद्ध में क्षतिग्रस्त हुए श्रीलंका के पुलों और सड़कों की मरम्मत करा रहा है। तमाम ढांचागत परियोजनाओं में मदद के जरिए वह श्रीलंका को सन्देश दे रहा है कि वही उसका असली मित्र है, भारत नहीं। पाकिस्तान के मोर्चे पर भी मनमोहन का यह दूसरा कार्यकाल कुछ उम्मीद जगाने में नाकाम रहा। भारत ने कोशिश की कि पाकिस्तान उग्रवाद का समर्थन बंद करे और सकारात्मक सम्बंधों की दिशा में आगे बढ़े। इसके लिए समग्र वार्ता की योजना तैयार की गई, जिसमें कश्मीर, व्यापार और मछुआरों-कैदियों की रिहाई जैसे मानवीय मुद्दों को भी शामिल किया गया। आशा थी कि पाकिस्तान व्यापार, कृषि, उद्योग, यात्रा में सुगमता जैसे मामलों में दिलचस्पी लेगा और भारत के प्रति शत्रुता की उसकी भावना कम होने लगेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। भारत को व्यापार में तरजीह का दर्जा देने के नाम पर वह टालमटोली कर रहा है। आर्थिक स्थिति जबर्दस्त ढंग से गड़बड़ाने की वजह से वह व्यापार बढ़ाना तो चाहता है लेकिन अपनी शर्तों पर। उसे लगता है कि वह आंशिक व्यापार के साथ नकारात्मक और आक्रामक नीतियों को भी जारी रख सकता है। उदाहरण देता है चीन का, जिसमें दोनों देशों के मध्य व्यापार और तनाव के साथ-साथ सीमा पर चीनी आक्रामकता का भी सह-अस्तित्व है। मनमोहन सरकार की नीतियों और वार्ता की व्यग्रता से लगता है कि वह पाकिस्तान के रवैये को स्वीकार कर रही है। पाकिस्तान में अभी तक आतंकी ढांचा मौजूद है। हम रक्षात्मक हैं, यह भूल रहे हैं कि रक्षात्मक रुख से युद्ध नहीं जीते जाते। हमारे लचर ढर्रे से लाभ में आतंकी रहते हैं और इसका खामियाजा जनता को भुगतना होता है। हमारी विदेश नीति निर्धारकों का एक तबका यह भी मानता है कि सेना और कट्टरपंथियों को काबू में करके पाकिस्तान सरकार शांति का माहौल बना सकती है, इसके लिए उसे पूरा समर्थन और छूट दी जानी चाहिये। कुछ साल पहले भारत पाकिस्तानी टेक्सटाइल उद्योग को रियायतों के लिए तैयार हो गया था लेकिन बाद में नकारात्मकता देखकर यह सहमति वापस लेनी पड़ी। सरकार यह मानने को तैयार नहीं दिखती कि पाकिस्तान पर वास्तविकता आधारित दीर्घकालीन नीति की जरूरत है। हमें उम्मीद नहीं बांधनी चाहिए कि एक दिन पाकिस्तान शत्रुतापूर्ण रवैया छोड़कर आतंकवाद का समर्थन बंद कर देगा। अमेरिका जिस तरह हर आतंकी हमले पर हमारे रुख का समर्थन करता है, हमारे पास मौका था और है कि हम पाकिस्तान को समझाएं कि आतंकवाद के पोषण के कितने गंभीर नतीजे निकल सकते हैं। हमारा ध्यान पाकिस्तान से निपटने के लिए प्रभावी उपायों की तलाश पर होना चाहिए, न कि वार्ता करने या वार्ता न करने पर। आश्चर्य की बात है कि चीन और पाकिस्तान के अहम और कठिन मोर्चे पर कूटनीतिक असफलताओं के बावजूद यूपीए सरकार कैसे अपनी पीठ ठोंकने की जुर्रत कर सकती है।

Saturday, November 16, 2013

झूठी शान के बदले जान !

आगरा के एत्मादपुर में एक बेटी पिता की झूठी आन का शिकार बन गई। पिता ने आवेश में आकर उसे ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर मार डाला। आनर किलिंग के इस मामले से फिर उजागर हुआ है कि हमारा सामाजिक ताना-बाना अभी उतना मजबूत नहीं हुआ है जो जाति और धर्म के नाम पर पड़ने वाली चोट सहन कर सके। विचारों में 21वीं सदी की उन्नति की बात कहने वाले वैश्वीकरण के युग में रहने के इस दावेदार समाज को आखिर हुआ क्या है। झूठी शान के लिए आनर किलिंग के ऐसे तमाम मामले गाहे-बगाहे सामने आ ही जाते हैं। देश की राजधानी हो या फिर कस्बे और गांव, प्यार करने वालों को कड़ी सजा दी जाती है। शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव की दुहाई देकर देश के विकास की बात करने वाले हम लोग उस समय क्यों मौन हो जाते हैं, जब हमारे बीच ही आॅनर किलिंग के नाम पर हर साल कई बेगुनाह मौत के घाट उतार दिए जाते हैं? आनर किलिंग पर खूब हो-हल्ला मचा लेकिन हालात अब भी बदले नहीं हैं। हाल ही में हुए एक शोध से यह उजागर हुआ है कि भारत में जितने लोग आतंकवादी घटनाओं में मरते हैं, उससे कहीं ज्यादा मौतें प्यार या शारीरिक सम्बंधों की वजह से होती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की ओर से जारी वर्ष 2012 के आंकड़े भी चिंताएं पैदा करते हैं, जिनसे साफ है कि निजी दुश्मनी और संपत्ति विवाद के बाद प्यार हत्याओं की तीसरी सबसे बड़ी वजह है। यही नहीं, देश के सात राज्यों में तो प्यार ही हत्याओं की सबसे प्रमुख वजह है। इनमें 445 हत्याओं के साथ आंध्र प्रदेश पहले और 325 के आंकड़े के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। आश्चर्यजनक रूप से आॅनर किलिंग के लिए हरियाणा को कोसा जाता है लेकिन वहां प्यार के बदले महज 50 लोगों को मौत हासिल हुई, जबकि उत्तर प्रदेश में इसका साढ़े छह गुना। लेकिन ऐसी स्थितियों की वजह क्या हैं? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के सर्वेक्षण की ही बात करें तो पता चलता है कि आॅनर किलिंग के मामलों में ज्यादा वो लोग मारे गए जिन्होंने कुछ समय पूर्व ही युवावस्था की दहलीज पार की थी। कौन नहीं जानता कि उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी आता है, जिसमें युवा मन अपनी भलाई के लिए ज्यादा नहीं सोच पाता। उसका दिमाग कहीं एक जगह जाकर टिक जाता है। प्रेम-प्रसंगों की जहां तक बात है, उसे कोई सलाह भी गलत लगती है, लेकिन आज के खुले समाज में माता-पिता, भाई-बहन आपस में दिल की बात खुलकर करते हैं। आगे बढ़ने-बढ़ाने के लिए संघर्ष करते हैं। अगर समझदार, कानूनी भाषा में बालिग, होने पर सेटल होने के लिए अपने जीवनसाथी का चुनाव खुद करता या करती है, तो उस पर आपत्ति क्यों? फिर आपत्ति का यह तरीका, कि किसी को मौत के घाट उतार दिया जाए। बजाए इसके, बातचीत का रास्ता भी तो अपनाया जा सकता है। असल में हमारे समाज में बेटियों के मामले में ज्यादा आन और शान समझी जाती है। कई मामलों में देखा गया है कि बेटे ने अपने पसंद की लड़की से शादी कर ली तो उसे स्वीकार कर लिया गया लेकिन यही कदम परिवार की बेटी ने उठाया तो उसे मार डाला गया। दरअसल, मध्ययुगीन परंपरा में जीने वाले समाज ही इस अभिशाप को ढो रहे हैं। इसके उलट, जिन समाजों का विकास हो रहा है, वे इन्हें छोड़ते जा रहे हैं। वे महिलाओं का वास्तविक सम्मान और उनको बराबरी का स्थान देने लगे हैं। उनके लिए महिलाएं पुरुष के मनोरंजन का साधन नहीं हैं। अधिकांश घटनाओं के पीछे जातिगत श्रेष्ठता का अभिमान ही मुख्य कारण दिखाई देता है। अंतर्जातीय विवाह इन बर्बरताओं के मूल में दिखते हैं। प्रगतिशील हिंदू या किसी भी दूसरे धर्म के अनुयायियों ने कभी जाति को जन्मना नहीं माना, फिर किन कारणों से यह जन्मना बन गई, इस पर भी विचार करना होगा। अपने प्रिय व्यक्ति के शव को भी जलाने में संकोच नहीं करने वाला हिंदू क्यों अभी तक इस अभिशाप को ढो रहा है? विवाह के समय क्यों वह जाति के खोल में घुस जाता है? जाति के चश्मे से देखने वाले लोग यह क्यों नहीं समझते कि परिवर्तन ही जीवन है और जड़ता मौत का प्रतीक। यह उस देश की बात है, जो मंगल अभियान की बदौलत दुनिया की अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, जो सूचना प्रौद्योगिकी की महाशक्ति है। हम बेटियों को पढ़ाने-लिखाने के बड़े-बड़े दावे किया करते हैं, उन्हें बराबर सिद्ध करने के लिए क्या-कुछ नहीं कहा करते, तो फिर इस तरह की घटनाएं कैसे संकेत देती हैं? क्या छोटे-छोटे घावों के नासूर बन जाने से पहले उसका इलाज नहीं किया जाना चाहिए? क्या हमारे घरों का माहौल ऐसा नहीं बनना चाहिए कि बच्चे अपने भविष्य के बारे में सोचें और अपना करियर बनाएं। ऐसे में यदि उन्हें अपने हिसाब से योग्य जीवनसाथी नजर आए तो हम उसे सहमति प्रदान करें या सही मार्गदर्शन कर दूसरे रास्ते पर ले जाएं। पुलिस और कानून के स्तर पर भी कड़ाई की जरूरत है, क्या यह वक्त नहीं है आॅनर किलिंग के तमाम मामलों को देखते हुए हमारे नीति-नियंताओं को ठोस कदम उठाने चाहिए? कोई तो ऐसा कानून बनना चाहिए कि सम्मान के नाम पर होने वाली ये हत्याएं तत्काल प्रभाव से रुक जाएं। इंसानियत का खून होना बंद होना ही चाहिये।

Monday, November 11, 2013

अंतरिक्ष में उम्मीदों के पंख

परम्परागत प्रतिद्वंद्वी चीन और तकनीक का महारथी जापान मीलों पीछे है, और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारत की तूती बोल रही है। पिछले पांच बरस में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने जिस तरह से 15 शानदार मिशन पूरे किए हैं, व्यावसायिक जगत में पैर रखा है, मंगल अभियान की शुरुआत की है, उससे हमें गौरवान्वित होने की बड़ी वजह हासिल हुई हैं। हालांकि एक चुनौती भी है, तीन सौ अरब डॉलर से अधिक के अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का भरोसेमंद विकल्प बनने के लिए इसरो को जीएसएलवी तकनीक पर महारत साबित करनी है, शुरुआती तौर पर हम लगभग नाकाम रहे हैं। भारत में खगोलविद्या आर्य भट्ट-भास्कर के समय की विरासत है, उस समय भी हम आगे हुआ करते थे। लेकिन वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रम करीब 50 वर्ष पुराना है, यह 60 के दशक में शुरू हुआ था। 1981 की एक फोटो बीबीसी ने जारी की है जिसमें एप्पल सैटेलाइट को प्रक्षेपण के लिए बैलगाड़ी में ले जाया जा रहा है। ... और भारत अब उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों और अंतरिक्ष उपयोगों की अंतर्देशीय डिजाइनिंग और विकास की क्षमताएं प्राप्त कर चुका है। हमारी प्रक्षेपण क्षमताओं की विश्व में मान्यता है, यही नहीं, इसरो अन्य देशों के उपग्रहों का भी प्रक्षेपण कर दौलत का ढेर लगा रहा है। हमने अंतरिक्ष प्रयोगों का इस्तेमाल अन्य देशों से उलट, सरकार को लोगों के करीब ले जाने में किया है, विशेष रूप से उन लोगों के, जो दूरदराज के इलाकों में रहते हैं। टेली शिक्षा और टेली-चिकित्सा के जरिए सरकार लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रही है। एजुसैट से स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के तरीके में बदलाव आया है। ग्राम संसाधन केंद्रों से कृषि, बागवानी, मत्स्य पालन, मवेशी पालन, जल संसाधनों, माइक्रो फाइनेंस और व्यवसायिक प्रशिक्षण के क्षेत्रों में लोगों को जानकारी देने में आसानी हुई है। दूर-संवेदन क्षमताओं से प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सुचारू रूप से हो रहा है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की एक महत्वपूर्ण विशेषता शुरू हो रही है, भारतीय उद्योगों के साथ सहयोग का नजरिया। इसके तहत लघु, मध्यम तथा बड़े स्तर के 500 से भी ज्यादा उद्योगों से सम्बंध स्थापित किए हैं। सामान की खरीददारी, जानकारी के आदान-प्रदान अथवा तकनीकी परामर्श के जरिए ये रिश्ते बने हैं। अंतरिक्ष कार्यक्रम से ताल्लुक रखने के कारण अंतरिक्ष उद्योग में अब उन्नत प्रौद्योगिकी को अपनाने या जटिल निर्माण कार्य की सामर्थ्य आ गई है। इसरो ने तमाम लम्बी लकीरें खींच रखी हैं जो चीन जैसे हमारे दुश्मनों को परेशान कर रही हैं। यह हमारे दम का ही नतीजा और चीनी बेचैनी की वजह है कि अर्जेंटीना, आॅस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रुनेई, दारेस्सलाम, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, चीन, मिस्र मौसमी पूर्वानुमानों के लिए हमसे सहयोग ले रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए), फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, इंडोनेशिया, इजरायल, इटली, जापान, कजाकिस्तान, मॉरीशस, मंगोलिया, नार्वे, पेरू, रूस, स्वीडन, सीरिया, थाइलैंड, नीदरलैंड, उक्रेन, ब्रिटेन, अमेरिका और वेनेजुएला के साथ हमने अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग की संधि कर रखी हैं। अब मंगल अभियान की बात करते हैं। अमेरिका जैसी महाशक्ति बधाई दे रही है लेकिन हमारे देश में ही इस बात को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं कि क्यों आर्थिक विपन्नता की स्थिति में हमने इस अभियान पर साढ़े चार सौ करोड़ की भारी-भरकम राशि खर्च की। हम गुजरात में करीब इतनी ही राशि से सरदार वल्लभ भाई पटेल की गगनचुंबी प्रतिमा स्थापना की योजना बना सकते हैं, हर साल दीपावली पर करीब तीन हजार करोड़ के पटाखे फूंक देते हैं। पर राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए खर्च राशि पर नजरें टेढ़ी करने लगते हैं, जबकि असल में, इस अभियान की सफलता आने वाले दिनों में इसरो के लिए कमाई के नए रास्ते खोल सकती है, इंटर प्लेनेटरी लांचिंग की कामयाबी इसरो को करीब पांच सौ करोड़ रुपये की कमाई करा सकती है। अंतरिक्ष लांचिंग बाजार अच्छा-खासा है जिसमें प्रौद्योगिकी विहीन तमाम देश नासा जैसी एजेंसियों की मदद से अपने सैटेलाइट लांच कराते हैं। चूंकि नासा की मदद बड़ी राशि खर्च कराती है इसलिये यह देश सस्ता विकल्प तलाशते रहते हैं। इस मायने में जापान अब तक सबसे ज्यादा फायदा उठाता रहा है। मंगल अभियान के रास्ते रॉकेट तकनीक को सफलता मिलेगी और हम तीन सौ अरब से ज्यादा के इस अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो जाएंगे। अमेरिका और जापान की जगह इसरो को देश अहमियत देने लगें, इसके लिए प्रयास किए जाने की योजना बनाई गई है। नासा के मुकाबले इसरो महज दस प्रतिशत लागत पर ही अंतरिक्ष में सैटेलाइट भेज सकता है। भारत सरकार की नजर अफ्रीका के साथ ही मध्य एशिया के उस देशों पर ज्यादा है, जहां विकास और संचार सुविधाओं के विस्तार ने उपग्रह की जरूरतें बढ़ा दी हैं। हालांकि एक नकारात्मक बिंदु भी है। इसरो की जीएसएलवी तकनीक की असफलता चुनौती बनी हुई है। लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का दमदार और भरोसे के काबिल विकल्प बनने के लिए जीएसएलवी तकनीक पर महारत सिद्ध करने की जरूरत है। समस्या की बात यह है कि 2001 से अब तक हुए इसके परीक्षणों में सिर्फ तीन ही सफल हुए हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि हम अंतरिक्ष की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहे हैं। मंगल अभियान ने उम्मीदों को पंख लगाए हैं, सटीक कदमों से लग भी रहा है कि यह उम्मीदें पूरी होकर रहेंगी। हम होंगे कामयाब एक दिन... और वो दिन अब दूर नहीं लगता। (लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)

Saturday, November 2, 2013

दुनियाभर में दीपावली

दीपावली देशों की सीमाएं पार कर चुकी है। अप्रवासी और भारतीय मूल के नागरिकों के जरिए इस प्रमुख त्योहार ने पहले अन्य देशों में दस्तक दी और अब वहां की संस्कृति में घुलने-मिलने लगा है। आप इस पर आश्चर्य करेंगे, अमेरिका में प्रतिवर्ष दीपावली के पटाखों पर खर्च में दो सौ गुना तक वृद्धि हुई है। वहां की संसद दीपावली पर प्रस्ताव पारित करती है। इसी तरह ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय अब वहां के स्थानीय माहौल के मुताबिक ध्वनि प्रदूषण की चिंता नहीं किया करते बल्कि जमकर आतिशबाजी करते हैं। दिवाली के दिन त्रिनिडाड और टुबैगो में सार्वजनिक अवकाश होता है। बेशक, यह भारतीयों की बढ़ती आर्थिक और सियासी हैसियत का असर है लेकिन विशाल भारतीय बाजारों की भूमिका भी इसमें कम नहीं है, तभी तो पटाखे अमेरिका-आस्ट्रेलिया के नामी सुपरस्टोर्स में मिला करते हैं। वो ज्यादा पुराने दिन नहीं जब विदेशों में रहने वाले हमारे भाई-बंधु संक्षिप्त-सी दीपावली मनाया करते थे। ध्वनि-वायु प्रदूषण जैसे डर उन्हें डराते थे। पटाखों के बारे में वो सोचने तक से घबराते थे। दक्षिण-पूर्व इंग्लैण्ड के हैम्पशायर की एक घटना ने तब खूब तूल पकड़ा था जब वहां के अप्रवासी भारतीय परिवार के विरुद्ध पुलिस ने महज इस आधार पर कार्रवाई कर दी थी कि उनके चलाए पटाखों से पड़ोसी का कुत्ता डर गया था। तब रक्षाबंधन पर कलाइयों पर बंधी राखियों को वह शर्ट की फुलस्लीव से छिपाते थे। अब इंग्लैण्ड के आसमान पर भी दनादन रॉकेट दागे जाते हैं। यह मामूली बात नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी के संदर्भ में भारत विश्व की नौवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अपने भौगोलिक आकार के मामले में सातवां सबसे बड़ा देश है। जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है। हाल के वर्षों में गरीबी और बेरोजगारी से सम्बन्धित मुद्दों के बावजूद हमारा देश विश्व में सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरा है। यही हमारे दम की वजह है और विदेशों में हमारे अप्रवासी और भारतीय मूल के लोगों का दबदबा बढ़ा है। आतंकवादी वारदातों में छवि खराब होने से त्रस्त पाकिस्तानी या बांग्लादेशी ऐसे खुले माहौल में नहीं जी पाते। यह भारतीय समुदाय की 'सॉफ्ट पावर' है, उनके पास नकदी है। उन्होंने विकास की कहानियां रची हैं। व्यवसाय जगत में उनका बड़ा नाम है। उनमें से तमाम लोग तो राजनीतिक हस्तियां हैं। उनका संख्याबल है जो सत्ता के पास ला सकता है और दूर भगा सकता है। उनसे सम्बन्धित देश को उम्मीदें हैं। संस्कृति का सत्ता से सीधा रिश्ता होता है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं। पूंजी के वर्तमान दौर में सत्ता बाजार के पास है और एक बहुत बड़ा बाजार भारत में है। इसी तरह की व्यावसायिक महत्वाकांक्षाओं ने अंग्रेजों को भारत का दरवाजा दिखाया था। कपास, चाय और मसालों की बेशुमार मौजूदगी ने उन्हें आकृष्ट किया था। वर्तमान बिहार के चंपारण में चंपा के जंगलों में उन्हें नील की फसल उगानी थी। भूण्डलीकरण के मौजूदा दौर में आज वह घुस तो नहीं सकते लेकिन भारत के विशाल बाजार में अपनी वस्तुओं से घुसपैठ की उनकी मंशा है और यह उनके लिए हजारों-करोड़ डॉलर की कमाई की वजह बन सकती है। भारत की सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देकर उनकी उम्मीदें बढ़ा ही दी हैं। अरबों डॉलर की आस्ट्रेलियाई ट्रांसपोर्ट और लाजिस्टक कंपनी लिनफॉक्स के संस्थापक लिंडसे फॉक्स की बातें उस सपने को उजागर करती हैं कि भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने से आय तो बढ़ती है, रोजगार के मौके भी कई गुना बढ़ जाते हैं। अकेले आस्ट्रेलिया यदि इस व्यापार को दोगुना कर 40 अरब डॉलर तक पहुंचा लेता है तो सात प्रतिशत नए उद्योग स्थापित करने होंगे और इससे तमाम लोगों को रोजगार हासिल होगा। भारत अकेली अर्थव्यवस्था है जहां हर साल 10 करोड़ नए लोग चीजें खरीदने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह संख्या आॅस्ट्रेलिया की आबादी का पांच गुना है। इसके साथ ही देश के मध्यवर्ग की खान-पान की बदलती आदतों के कारण रेस्तरां कारोबार काफी फल-फूल रहा है, यही वजह है कि विदेशी रेस्टोरेंट चेन भारत में आएदिन अपने नए-नए प्रतिष्ठान खोल रही हैं। भारत का भोजन-सेवा बाजार 50 अरब डॉलर का है जो कुछ छोटे देशों के सालाना बजट के बराबर है। इसी वजह से चिली सरीखे देशों की कम्पनियां भी ललचा रही हैं। भारतीय बाजार में चिली की शराब और समुद्री भोजन ने अपनी जगह स्थापित कर ली है। आॅटोमोबाइल बाजार भी तमाम देशों की कम्पनियों को अपने यहां मौका दे चुका है इसीलिये तमाम विदेशी नामचीन ब्रांड भारत में आसानी से सुलभ हैं। अमेरिका और यूरोप ही नहीं, अन्य देश भी हमारे दम को सलाम कर रहे हैं। त्रिनिडाड और टुबैगो में भारतीयों की अच्छी-खासी संख्या है। वहां दीपावली पर सार्वजनिक अवकाश घोषित होता है। समूचा देश एक मनचाही उत्सवधर्मिता में डूब जाता है। यहां भी पिछले दो-तीन बरस में बहुत परिवर्तन आया है। हजारों मील दूर एक भारत-सा होता है वहां। हजारों अनिवासी भारतीय अपनी मिट्टी की गंध महसूस करने के लिए ढेरों आयोजन करते हैं। सामूहिक आतिशबाजी हुआ करती है। फिजी और मॉरीशस में भी भारतीयों की संख्या काफी है। दीपावली यहां भी खूब उत्साहित करती है। दुकानों पर महीने पहले दीपावली की सेल आरंभ हो जाती है। समाचार पत्रों में दीपावली के समाचार भरने लगते हैं। एफएम रेडियो और टेलीविजन स्टेशन दीपावली के गीत, भजन और चर्चाएं प्रसारित करते हैं। खास बात यह है कि दीपावली के लिए विदेशों में उत्साह प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। विदेशों में बसे भारतीय जहां पहले भारत आकर त्योहार मनाने को प्राथमिकता दिया करते थे, आज अपने देश में ही उल्लास और उमंग का आनंद ले रहे हैं। दीपों का यह त्योहार समूचे विश्व में फैल रहा है तो यह भी तय है कि इसके उद्देश्य और मनाने की वजह का प्रचार भी हो रहा होगा, बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश तो पूरी दुनिया में आखिरकार फैलना ही चाहिये।

Sunday, October 27, 2013

मुक्ति के लिए तड़पती शिक्षा

कल्पना कीजिए, आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो खुद को डॉक्टर लिखता है और प्रैक्टिस करता है पर यह नहीं पता कि उसने डॉक्टरी की यह पढ़ाई कर कब ली? आप पहल करते हैं, विश्वविद्यालय से उसकी डिग्री सत्यापित कराने का प्रयास करते हैं और डिग्री सत्यापित भी हो जाती है। अब सच्चाई के धरातल पर आएं, ऐसा हो सकता है कि विश्वविद्यालय फर्जी डिग्री भी सत्यापित कर दें। यह कारनामा कोई एक विवि नहीं कर रहा बल्कि देशभर में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां माफिया की सक्रियता से गलत कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। प्रवेश, छात्रवृत्ति से लेकर शिक्षण, परीक्षाएं और परीक्षाफल तक, सब गड़बड़ियों का शिकार बना है। ऐसे रैकेट सैकड़ों-हजारों में हैं जो नियमविरुद्ध मनमाफिक संस्थानों में प्रवेश दिला सकते हैं। छात्रवृत्ति का करोड़ों-अरबों रुपया डकार रहे हैं, पढ़ाने के लिए कोचिंग जैसे समानांतर तंत्र बना चुके हैं और परीक्षाफल में गड़बड़ियों की बदौलत फेल अभ्यर्थी को पास कराने का धंधा कर धनकुबेर बन चुके हैं। परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी में हताशा बढ़ रही है, सरकारी शिक्षा तंत्र से इतर वो दूसरे विकल्प चुनने के लिए मजबूर है। शिक्षा देश का भविष्य बनाती है। कहा जाता है कि शिक्षा का स्तर जैसा होगा, देश भी वैसा ही बनेगा। अपने देश की बात करें तो वर्तमान भय, भूख और भ्रष्टाचार का शिकार है तो हम भविष्य रुपहला होने की उम्मीद लगा रहे हैं। हमें लगता है कि भावी पीढ़ी कुछ कर दिखाएगी और हम महाशक्ति बनने का सपना साकार कर पाएंगे लेकिन शिक्षा के जिस जरिए से हम यह स्वप्न बुन रहे हैं, वह दिनोंदिन खोखला हो रहा है। भ्रष्टाचार की दीमक शिक्षा के मंदिरों की चौखट चाट रही है। बड़ी अजीब सी स्थिति है, हम लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति की आलोचना का कोई मौका नहीं छोड़ते और उसका विकल्प भी नहीं तलाशते। शिक्षा क्षेत्र में ईमानदारी की जरूरत बताते हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। शिक्षा का पूरा तंत्र जैसे जाम सा है, आरोपों के घेरे में बुरी तरह घिरा हुआ है। माफिया की दखलंदाजी इस हद तक बढ़ गई है कि फर्जी शैक्षिक कागजातों को भी सत्य सिद्ध कर दिया जाता है। केंद्रीय विश्वविद्यालय और आईआईटी-आईएमएम जैसे संस्थान अंगुलियों पर गिनने लायक ही हैं, राज्य विश्वविद्यालयों का तो पूरी तरह बेड़ा गर्क हो रहा है। यहां कर्मचारी-अफसर सब लूट मचाने में लगे हैं, ईमानदार अगर कोई आ जाए तो उसे काम ही नहीं करने दिया जाता। तथ्यों के आधार पर बात करें तो स्थितियों का अंदाज लगा पाना ज्यादा आसान होगा। उजागर होगा कि संख्या की दृष्टि से अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नम्बर पर आने वाली भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था गुणवत्ता के मामले में सबसे नीचे है और दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वाले नौ विद्यार्थियों में सिर्फ एक ही कॉलेज का मुंह देख पाता है। उच्च शिक्षा के लिए पंजीकरण कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानि मात्र 11 फीसदी भारत में है जबकि हम जिस महाशक्ति अमेरिका से अपनी मेधा की तुलना करते हैं, वहां यह अनुपात 83 प्रतिशत है। इस अनुपात को 15 फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य है और इसके लिए भारत को करीब सवा दो लाख करोड़ रुपया खर्च करना होगा, जबकि हमने पंचवर्षीय योजना के लिए सिर्फ 77 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। सरकारी निष्क्रियता की वजह से देसी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फीसदी शिक्षकों की कमी है। शिक्षा के पुरसाहाल और हमारी अनदेखी का ही नतीजा है कि डिग्रियों की हैसियत घट रही है। छात्रों को नौकरी नहीं मिल पा रही और माध्यमिक विद्यालयों में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कई राज्य विश्वविद्यालयों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने नकारात्मक सूची में डाल दिया है और वो इन विश्वविद्यालयों से पासआउट छात्रों को नौकरी के लिए कॉल तक नहीं करते, इंटरव्यू और नौकरी मिलना तो दूर की बात है। नैसकॉम और मैकिन्से सरीखी प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के रिसर्च के अनुसार, इंजीनियरिंग डिग्री प्राप्त चार में से सिर्फ एक और मानविकी के 10 में से एक छात्र को ही नौकरी के योग्य माना जा रहा है। इस स्थिति से भारत के उस दावे की हवा निकल जाती है कि उसके पास विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी और वैज्ञानिक शक्ति का जखीरा है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (नैक) के सर्वे का निष्कर्ष है कि देश के 90 फीसदी कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमजोर है। यह स्थिति तो तब है जबकि भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी, ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं हो पाते। आश्चर्यजनक रूप से हम निजी क्षेत्र को तो शिक्षा में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं लेकिन प्रतिस्पर्धा का माहौल नहीं बना पा रहे। इसी के नतीजतन, आजादी के पहले 50 साल में सिर्फ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला था लेकिन पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दे दी गई। ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र के प्रवेश से शिक्षा का बुरा ही हुआ, कई विश्वविद्यालय तो ऐसे भी बने हैं जिन्होंने अल्प समय में ही दुनियाभर में नाम कमाया है। लेकिन अपवाद ज्यादा हैं, कमाई मात्र के लिए आने वाले ने शिक्षा का बेड़ा गर्क ही किया है। इन्हीं नकारात्मक स्थितियों का नतीजा है कि प्रतिभा पलायन के साथ ही विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रति मेधावी छात्र-छात्राओं का रुझान बढ़ा है। भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानि करीब 43 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं क्योंकि देशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर उन्हें पसंद नहीं आ रहा। (लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)

Monday, October 21, 2013

मंगलम का अमंगल

कोयला घोटाले की तपिश इस बार उद्योग जगत तक पहुंची है और चपेट में आए हैं 40 अरब डॉलर से ज्यादा की परिसंपत्तियों वाले औद्योगिक घराने के सर्वेसर्वा कुमारमंगलम बिड़ला। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने न केवल बिड़ला समूह की कंपनी हिंडाल्को के दफ्तरों पर छापे मारे हैं बल्कि कुमारमंगलम के विरुद्ध भी प्राथमिकी दर्ज कर ली है। सरकार भी सकते में है क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से उसका ‘तोता’ कहे जाने वाली जांच एजेंसी ने एक बड़े उद्यमी पर निशाना साधा और चुनावी बेला में उसके समक्ष बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी। बात इतनी होती तो भी खैर थी, उद्योग जगत ने जिस तरह के तेवर दिखाए हैं, उससे देश में निवेश का माहौल प्रभावित होने का खतरा पैदा हुआ है। सरकार खुद सफाई की मुद्रा में है। कुमारमंगलम निश्चिंत हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है इसलिए वह एफआईआर से परेशान नहीं हैं लेकिन इससे सीबीआई को लेकर बहस का नया दौर चलने की संभावनाएं बनी हैं। पूरे मसले में सीबीआई सामने आकर बोलने से बच रही है तो शक है कि कहीं वह अंधेरे में तीर तो नहीं चला रही। मोइली की बात कहीं सही तो नहीं, जिसमें उन्होंने कहा था कि सीबीआई ने जो किया, यदि वह सबूतों पर आधारित है तो उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो हमें सावधान रहना चाहिए। कोयला घोटाला वैसे ही सरकार के गले में फंसा हुआ है, प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह तक कठघरे में हैं। हिंडाल्को पर छापेमारी चर्चा का उतना विषय नहीं थी कि तभी सीबीआई ने कुमारमंगलम पर वार कर दिया। उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज होते ही तूफान आ गया। अंदरखाने की सरगर्मियां तब सतह पर आर्इं जब केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कड़े तेवर दिखाए। वह खुलकर बोले, कानून को अपना काम करने देना चाहिए लेकिन यह भी ख्याल रखने की जरूरत है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार या कोई भी एजेंसी कानून से बड़ी नहीं है। भारत कतई रूस की तरह काम नहीं कर सकता, जहां सभी अरबपतियों को जेल के भीतर डाल दिया जाता है। यहां औरंगजेब का शासन नहीं है, कानून का राज चलता है। इससे पहले वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा हमलावर थे। उन्होंने इसे देश में निवेश का माहौल खराब करने वाला कदम बताया था। उद्योग जगत की ओर से मोर्चा संभाला भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने। उसने कहा कि साख बनाने में वर्षों लग जाते हैं और बिगड़ने में जरा भी वक्त नहीं लगता इसलिए ऐसी कार्रवाई से पहले सावधानी बरतने की जरूरत है। बहरहाल, सरकार की चिंताओं की वजह है। कई राज्यों में विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं और अगले साल आम चुनाव प्रस्तावित हैं। चुनावी वक्त में राजनीतिक दलों और उद्योग जगत की दोस्ती चर्चाओं में रहा करती है। इसके अतिरिक्त एक बड़े उद्योगपति के फंसने से सरकार पर आरोपों का नया दौर शुरू हो सकता है। और तो और... उद्योग जगत यदि खुद को मुश्किल में महसूस करेगा तो निवेश का माहौल प्रभावित तो होगा ही। केंद्र की यूपीए सरकार से वैसे भी उद्यमियों की नाराजगी ही रही है। यूपीए-2 के पहले आम बजट में जिस तरह से उद्योग जगत से विमुख रहने की अप्रत्यक्ष नीति शुरू की गई थी, वह वित्तीय वर्ष 2013-14 के बजट तक अनवरत चली। देश की अर्थव्यवस्था का यह अहम घटक कर रियायतों के लिए तरसता रहा। तटस्थ बजट की शैली पर चलते हुए सरकार ने न तो अपने आम मतदाता का ही भला किया, ना ही उद्योगों का। आक्रोश की स्थिति भांपने के लिए रतन टाटा का वह भाषण याद कीजिए, जिसमें उन्होंने यूपीए के बजाए नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। वह यह कहने से भी नहीं हिचके कि नेतृत्व की कमी की वजह से देश में आर्थिक संकट है। सरकार निजी क्षेत्र में चंद प्रभावशालियों के निहित स्वार्थों के प्रभाव के आगे झुकी है और नीतियां बदली गई हैं, लटकाई गई हैं और उनके साथ छेड़छाड़ हुई है। जिस तरह से कुछ नीतियां अगर तैयार की गर्इं तो उन्हें उसी रूप में क्रियान्वित किया जाना चाहिये था, इससे उद्योग जगत प्रगति की राह पर बढ़ता और देश का भला होता। आर्थिक मोर्चे पर भी सरकार असफल सिद्ध हुई है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही महंगाई चरम सीमा तक बढ़ी और रुपया ऐतिहासिक अवमूल्यन का शिकार हुआ। घरेलू उद्योगों की ओर से मांग की गई थी कि बाजार का रुख आयात मूल्य में इजाफा कर आयातित वस्तुओं के देसी विकल्पों की तरफ मोड़ा जाना चाहिये। एक मांग विदेशी वस्तुओं के आयात पर विशेष अधिभार लगाने की भी थी। अधिभार लगाते वक्त कीमत कम करने वाले रक्षात्मक उपाय किए जाने की वकालत हुई थी। सरकार को डर था कि इस अधिभार से उस पर संरक्षणवादी नीतियों के पोषण का आरोप लग सकता है किंतु उद्योग जगत ने सुझाव दिया कि यह कुछ अवधि के लिए हो और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होते ही इसे हटा लिया जाए। इस अवधि में उद्योग जगत भी अपना भला करने में सक्षम हो जाएगा। अधिभार को विश्व व्यापार संगठन में अधिसूचित किया जाए ताकि व्यापार साझेदारों में भारत को लेकर भरोसे की कमी न हो। इस बीच सभी क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होने वाले अधिभार से आम और खास का फर्क नहीं रह जाएगा और इससे गड़बड़ी की आशंकाएं कम होंगी अन्यथा स्थिति 1991 से पहले जैसी हो सकती है। लेकिन सरकार चेती नहीं। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति पर भी उद्योग जगत ने बार-बार असहमति जताई। उद्योग जगत रिजर्व बैंक से दरों में कटौती की उम्मीद कर रहा था ताकि उपभोक्ताओं के लिए आवास और वाहन ऋण थोड़े सस्ते हो जाते और बाजार में रौनक लौटती। निराशा के भंवर में डुलाती रही सरकार से कुमारमंगलम के विरुद्ध एफआईआर ने नाराजगी और बढ़ाई है। सरकार को तत्परता से कदम उठाना होगा, यह चाहे सीबीआई पर सबूत सार्वजनिक करने का दबाव बनाने की प्रक्रिया ही क्यों न हो। साथ ही यह ध्यान भी रखना होगा कि आम जनता में यह संकेत न जाए कि वह दबाव में झुक गई।

Sunday, October 13, 2013

नदियों को डंसता प्रदूषण

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर हटाने से इंकार किया है। प्रदूषण की मार से दम तोड़ रहीं इन नदियों के लिए यह आदेश जीवनदायिनी की तरह है। हाल कितना खराब है, बताने की जरूरत नहीं। उदाहरण के लिए दिल्ली में यमुना महज 22 किमी बहती है किंतु वहां हर सवा किमी पर बहने वाले 18 बड़े नाले उसका दम निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। आगरा हो या दिल्ली, पानी को साफ करने के वास्ते जो गिने-चुने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं, उनमें फिर से गंदे नाले का पानी आ मिलता है। नाले को टैप करने के इंतजाम महज दिखावे के हैं। प्रदूषण रोकने के सरकारी इंतजाम की तो बात ही छोड़िए, हम खुद भी नदियों का बेड़ा गर्क करने से बाज नहीं आ रहे। समस्या इसीलिये तेजी से बढ़ रही है। नदियां हमारे जीवन के साथ ही हमारी संस्कृति और परंपराओं का अंग हैं। ऐसे में प्रदूषण के बढ़ते ग्राफ में हमारी हिस्सेदारी दुर्भाग्य का विषय है। यमुना हिमालय के चंपासागर ग्लेशियर से निकलती है और 1376 किमी का सफर तय करते हुए इलाहाबाद पर गंगा में विलीन हो जाती है। प्रदूषण का हाल सभी जगह खराब है लेकिन दिल्ली में वजीराबाद से ओखला बैराज तक नालों के कूड़ा-कचरे के साथ ही औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले रसायनों से विषैली हो जाती है। जुलाई में हुए एक परीक्षण के मुताबिक, हरियाणा में ताजेवाला बांध में बायोकेमिकल आॅक्सीजन डिमांड यानि बीओडी शून्य है यानि यहां का पानी प्रयोग करने लायक है लेकिन दिल्ली में भीषण प्रदूषण की वजह से बीओडी का स्तर 23 तक पहुंच गया है, जिससे नदी में मछलियां मर जाती हैं और वनस्पतियों की समाप्ति हो जाती है। दिल्ली में यमुना को लोगों ने मृत नदी कहना शुरू कर दिया है। यह हाल तो तब है जबकि 1993 से 2008 तक यमुना की सफाई के लिए केंद्र सरकार ने 13 अरब रुपये खर्च किए हैं। विश्व बैंक जैसी अन्य एजेंसियों ने तो यहां हजारों करोड़ रुपये फूंके हैं। दिल्ली के निजामुद्दीन पुल के नीचे देखने पर पता चलता है कि यमुना की स्थिति कितनी खराब है। पिछले 15 साल में यहां यमुना जल में घुली आॅक्सीजन की मात्रा शून्य के स्तर पर टिकी है। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यमुना की स्थिति पर डॉ. विनोद तारे और डॉ. पूर्णेंदु बोस की रिपोर्ट बताती है कि वजीराबाद बैराज के बाद यमुना में जो भी पानी बह रहा है, वह पूरी तरह से सीवेज का पानी है यानि दिल्ली में यमुना नहीं, सिर्फ नाला बहता है। यमुना की जो सूरत दिल्ली में है, कमोवेश वही अन्य शहरों में है। इसी तरह का हाल गंगा का है। इलाहाबाद और वाराणसी जैसे धार्मिक महत्व के शहरों में गंगा का प्रदूषण चरम पर है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए 1985 गंगा एक्शन प्लान शुरू करने की घोषणा की थी। इसका पहला चरण 31 मार्च, 2000 को पूरा मान लिया गया और इस पर 462 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसके बाद गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण शुरू हुआ जिसमें यमुना और दूसरी नदियों के एक्शन प्लान भी शामिल कर लिये गए, दिसम्बर 2012 तक इसमें 2598 करोड़ रुपये खर्च हुए। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। संगम सरीखे धार्मिक महत्व के स्थल की बदौलत के बावजूद बीओडी की अधिकतम डिमांड तीन एमजी प्रतिलीटर की तुलना में 11.4 एमजी प्रतिलीटर है। वहीं वाराणसी में बीओडी 14.4 एमजी प्रतिलीटर है। हजारों करोड़ रुपये फूंकने के बाद भी नतीजे आने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती, वहीं और पैसा खर्च करने के बहाने ढूंढे जा रहे हैं। प्रदूषण की बात ज्यादा उठी, मथुरा-वृंदावन से यमुना प्रदूषण के विरुद्ध उठी आवाज दिल्ली पहुंच गई तो आनन-फानन में एक प्रस्ताव तैयार किया गया और कह दिया गया कि यमुना के प्रदूषण का अगर दिल्ली में इलाज कर दिया जाए तो समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकता है। सवाल उठा कि इसमें कितनी राशि खर्च होगी, तो जवाब दिया गया कि 1217 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से अगले 15 साल में 18 हजार करोड़ रुपये। नदियों के प्रदूषण का बुरा असर भूजल स्तर पर भी हो रहा है। आर्गेनिक केमिस्ट्री में एमएससी ऋषिकेश के 36 वर्षीय आचार्य नीरज ने 2010 में गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा की पैदल यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान लगातार गंगा या उसके पास लगे हैंडपपों का पानी पीते रहने से उनके शरीर में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ गई। उनके शोध के निष्कर्षों में अंकित है कि किसी भी नदी के पास जमीनी स्तर पर प्रदूषण साफ करने के उपाय कभी लागू नहीं हुए और इसी वजह से गंगा एक्शन प्लान नाकाम हुआ। जाधवपुर विवि के प्रो. दीपंकर चक्रवर्ती के 15 वर्ष लम्बे शोध में पता चला कि पटना, बलिया, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर तक नदी किनारे आॅर्सेनिक की मात्रा चरम स्थिति में है। यमुना में दिल्ली के पास गढ़ मुक्तेश्वर तक आॅर्सेनिक की पुष्टि हुई है। अब अगर मूर्तियों के विसर्जन से प्रदूषण की स्थिति की बात की जाए तो स्थिति और भी गंभीर नजर आने लगेगी। नदी में हजारों मूर्तियों के विसर्जन के दौरान पूजा सामग्री, पॉलीथिन बैग, फोम, फूल, खाद्य सामग्री, साज-सज्जा का सामान, मेटल पॉलिश, प्लास्टिक शीट, कॉस्मेटिक का सामान डाला जाता है, जो प्रदूषण का हाल और बिगाड़ देता है। मूर्ति विसर्जन से पानी की चालकता पीएच, ठोस पदार्थों की मौजूदगी, बीओडी और घुलनशील आक्सीजन (डीओ) में कमी बढ़ जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्ययन के मुताबिक सामान्य समय में यमुना के पानी में पारे की मात्रा लगभग नहीं के बराबर होती है, लेकिन धार्मिक उत्सवों के दौरान यह अचानक बढ़ जाती है। यहा तक कि क्रोमियम, तांबा, निकल, जस्ता, लोहा और आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का पानी में अनुपात भी बढ़ जाता है। हम यह क्यों नहीं समझते कि समय के साथ परंपराएं भी बदली जानी चाहिये, यदि वह भीषण संकट की दस्तक दे रही हों। नदियां दूषित हो रही हैं। सूख रही हैं, जहां पानी है, वहां वेग नहीं है जो तमाम प्रदूषण को बहाकर ले जा सके। जरूरत किसी वैकल्पिक व्यवस्था की है जिससे परंपरा भी निभ जाएं और नदियों की जान भी बच जाए। आस्था के नाम पर अड़ियल रवैये से अब काम नहीं चलने वाला वरना भावी पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी।

Saturday, October 12, 2013

कारगिल से केरन तक...

सन् 1999 में भारत को मजबूरीवश कारगिल का संग्राम लड़ना पड़ा था और अब, 2013 में लगभग उसी शैली में दो हफ्ते तक पाक सीमावर्ती क्षेत्र केरन में हमारी सेना आतंकियों से जूझती रही। लगभग तीन दर्जन से ज्यादा पाक आतंकी मौत के घाट उतारे गए। भारतीय सेना के बड़े आॅपरेशन में एके-47 और स्नाइपर राइफलों के अलावा अन्य घातक युद्ध हथियार, रेडियो सेट, गोला-बारूद, दवाइयां, खाद्य पदार्थ जैसी सामग्री बरामद हुई। कारगिल की तरह केरन में भी आतंकी लंबी लड़ाई के लिए आए थे। आश्चर्य की बात यह है कि कुशल और पेशेवर भारतीय सेना को एक बार फिर लोहे के चने चबाने पड़े। कारगिल जैसी ही गफलत की धुंध केरन में छाई रही और सेना को फिर अंधा युद्ध लड़ना पड़ा। सवाल यह है कि सेना की खुफिया यूनिट पहले की तरह समय से सटीक जानकारी क्यों नहीं जुटा सकी? कारगिल की तरह केरन में भी सैन्य कार्रवाई विलंब से क्यों शुरू हुई? गनीमत यह है कि इस बार पाक आतंकी कारगिल की तरह बड़ी मुसीबत नहीं बन पाए। कारगिल युद्ध में हमें पांच सौ से ज्यादा सैनिकों का बलिदान देना पड़ा था। केरन क्षेत्र के गांव शाला भाटा में चले आॅपरेशन में हमारा एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ। बकौल सेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह, पाकिस्तानी सेना ने कारगिल की तरह घुसपैठ कराई थी। घुसपैठिये कारगिल की तरह पहाड़ पर नहीं बल्कि नाले में छिपे बैठे थे। लश्कर-ए-तोइबा और हिजबुल मुजाहिदीन नामक खूंखार आतंकी संगठनों के यह लोग लगातार पाकिस्तानी सेना के संपर्क में थे। हालांकि भारत में पाक उच्चायुक्त सलमान बशीर ने घुसपैठियों को पाक समर्थन के आरोप को गलत करार दिया लेकिन भारतीय सेना ने इन आतंकियों के कब्जे से एक खत बरामद किया जिसमें साजिश की पूरी कहानी दर्ज थी। पाक घुसपैठियों के कई संदेश इंटरसेप्ट हुए जिनसे पता चला कि उन्हें रसद और हथियारों की सप्लाई निरंतर जारी थी। यह सब, तब हुआ जब सीमा के इस पार और उसपार एक बार फिर अमन की कलियां फूट रही थीं। अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाक समकक्ष नवाज शरीफ मिल रहे थे। भारत पाक को आतंक के खिलाफ नसीहतें और चेतावनियां दे रहा था। इधर, सीमा पर पाक सेना और बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई का नापाक गठजोड़ अपनी पुरानी कूटनीति लागू कर रहा था। हालात लगभग कारगिल के समय जैसे ही थे। तब भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ थे और वह तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से प्रेम की पींगें बढ़ा रहे थे। भावुक होकर वाजपेयी तब बस से लाहौर जा पहुंचे थे। उस समय के खलनायक पाक सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ बन गए। उन्होंने कारगिल की पहाड़ियों में जा छिपे आतंकियों को सेना का खुला समर्थन दे दिया और भारत के विरुद्ध बाकायदा युद्ध छेड़ दिया। बाद में आरोप यह भी लगा कि मुशर्रफ ने युद्ध के बाबत नवाज से सहमति भी नहीं ली थी। बताया तो यहां तक गया था कि मुशर्रफ साजिश में इस कदर लिप्त थे कि भारतीय सीमा में चहलकदमी करके मौके का जायजा लेकर लौट गए थे। इसके बाद उनके निर्देश पर युद्ध शुरू हो गया। दो दिन पहले ही पूर्व पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी का बयान आया है कि वह सेना और आईएसआई को सत्ता के काफी करीब खींचकर लाए थे। मतलब साफ है कि पाकिस्तान में हुक्मरान और सेना के बीच दूरियां बनी रहती हैं। वहां सेना ही निर्णायक भूमिका में रहती है। जब भी सत्ता से टकराव होता है तो जम्हूरियत को रद्दी की टोकरी में फेंककर सैन्य तानाशाह बागडोर अपने हाथ में ले लेते हैं। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं। पाकिस्तान में पिछले पांच साल तक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की चुनी हुई सरकार चली । यह वहां की जम्हूरियत के लिए एक आश्चर्य से कम नहीं है। हालांकि इस बीच पाक सेना ने सीमा पर कई दर्जन बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया। कई बार खूंखार आतंकियों को रात के अंधेरे में हमारी सीमा में प्रवेश कराकर संगीन वारदातें करार्इं। एक बार तो आतंकी हमारे दो सैनिकों के सिर ही काटकर ले गए। इससे पूरे देश में उबाल आ गया। तब से लगातार अब तक पाक सेना हरकत-दर-हरकत करने पर उतारू है। भारत लगातार अमन का सपना पाले हुए है जो टूटता ही नहीं। मगर सवाल यह है कि कारगिल और केरन जैसी बड़ी वारदातों को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। आखिर पुराने शत्रु द्वारा लगातार पैदा की जा रही गफलत की धुंध के बीच कब तक हम अंधा युद्ध करते रहेंगे। सारी दुनिया को पता है कि गुलाम कश्मीर के कई क्षेत्रों में लश्कर-ए-तोइबा और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठन प्रशिक्षण शिविर चलाते हैं। पाक सेना और वहां की सरकार उन्हें खुला समर्थन देती है। यही खूंखार तत्व जब तब भारत की सीमा में घुसकर खून खराबा करते हैं। देश में कई तरह से यह आवाज उठी है कि भारत आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को स्वयं समाप्त करे तभी सीमा पर शांति स्थापित हो सकती है। कैसा विद्रूप है कि मुंबई हमले का मास्टरमाइंड और जमात-उल-दावा नामक धार्मिक संगठन के मुखिया हाफिज सईद को पाक का सरकारी संरक्षण प्राप्त है और वह खुलेआम सार्वजनिक मंचों से भारत को युद्ध के लिए ललकारता है। सईद स्वयं आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलवाता है तथा सिरफिरे युवकों को गुमराज करके भारत पर हमले कराता है। दरअसल, यह एक छद्म युद्ध है जो पाकिस्तान की सेना ने 1972 में हुए शिमला समझौते के बाद से छेड़ रखा है। पाकिस्तान के राजनीतिक चेहरे दुनिया के सामने चाहे जो कहें मगर वे करते वही हैं, जो वहां की सेना चाहती है। पाक सेना ने आईएसआई की मदद से बांग्लादेश बनने के बाद रंजिशवश कई कूटनीतियां बना रखी हैं जिसे भारत को समझना होगा। याद कीजिए तब जुल्फिकार अली भुट्टो गुलाम कश्मीर में तकरीरें किया करते थे कि पाक भारत से एक हजार साल तक लड़ता रहेगा। उनकी कूटनीति का परिणाम आज भी आतंकी हमलों के रूप में भारत भोग रहा है। 1972 से अब तक के आतंकी हमलों से भारत को सबक सीखना चाहिए। पाक द्वारा लगभग 40 साल पहले छेडेÞ गए छद्म युद्ध के खिलाफ भारत को वास्तविक युद्ध लड़ना ही पडेÞगा अन्यथा कारगिल और केरन जैसी मानसिक त्रासदियां देश को झेलनी ही पडेÞंगी।

Wednesday, September 18, 2013

नीना के ताज से बेचैन अमेरिकी

यह खुद के प्रगतिवादी और नस्लभेद विरोधी होने की बढ़-चढ़कर बातें करने वाले अमेरिका का दूसरा चेहरा है। भारतीय मूल की सुंदरी नीना दावुलूरी ने 'मिस अमेरिका-2014' खिताब क्या जीता, वहां मानो भूचाल आ गया है। नीना प्रतियोगिता जीतने वाली भारतीय मूल की पहली अमेरिकी महिला हैं। अमेरिकी लोगों ने नीना दावुलूरी के भारतीय मूल के होने के आधार पर नस्ली भेदभाव से प्रेरित टिप्पणियां करते हुए गुस्सा जताया। जो लोग नीना दावुलूरी के खिताब जीतने की नस्ल के आधार पर बुराई कर रहे हैं उन्हें प्रतियोगिता के जजों के फैसले पर भी शक है। हालांकि मिस अमेरिका प्रतियोगिता के जजों ने खुलकर यह कहा है कि उन्होंने नीना दावुलूरी को उनकी विशेषताओं के कारण खिताब के लिए चुना है। इसके बावजूद नीना दावुलूरी के मिस अमेरिका के खिताब जीतने पर कुछ लोगों ने नस्ली टिप्पणियां जारी की हैं। कुछ लोगों ने नीना दावुलूरी द्वारा प्रतियोगिता के दौरान बॉलीवुड का डांस करने पर भी नाराजगी जताई। नीना दावुलूरी के माता-पिता मूल रूप से भारत में आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा जिले के रहने वाले हैं और कई दशक पहले यह परिवार अमेरिका में आकर बस गया था। जनगणना ब्यूरो के 2010 केआंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में अब करीब 32 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। उनमें से बड़ी संख्या में पेशेवर मेडिकल डॉक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर और कंपनियों के मालिक हैं। इस प्रकार नीना दावुलूरी को निशाना बनाए जाने से बहुत से भारतीय और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी नाराज हैं। इसके अलावा जहां एक ओर कुछ अमेरिकी नस्ली टिप्पणियां कर रहे हैं तो बहुत से अमेरिकी नीना दावुलूरी की जीत पर खुश हैं और नस्ली टिप्पणियां करने वालों की निंदा भी कर रहे हैं। वैसे मिस अमेरिका ने तो पहले ही कह दिया है कि वह नस्ली टिप्पणियों पर तवज्जो नहीं देतीं। नीना दावुलूरी का कहना है कि मुझे इन सब बातों से ऊपर उठकर देखना है। हर चीज से ऊपर मैंने हमेशा खुद को एक अमेरिकी माना है। नीना ने अमेरिका की नई नस्ल को संदेश के बारे में कहा कि मैं खुश हूं कि 'मिस अमेरिका' संस्था ने देश में विविधता को भी महत्व दिया है। अब अमेरिका में जो बच्चे घरों में टीवी पर प्रतियोगिता देख रहे हैं, वह एक नई 'मिस अमेरिका' को भी देख सकते हैं। अमेरिका के न्यूयॉर्क राज्य के सेराक्यूज शहर में रहने वाली नीना हमेशा अच्छी छात्रा रही हैं और वह डॉक्टर बनना चाहती हैं। उनके पिता चौधरी धन दावुलूरी भी शहर के संत जोजफ असपताल में डॉक्टर हैं। इस खिताब के साथ उन्हें 50 हजार अमेरिकी डॉलर की स्कॉलरशिप मिली है, जिसे वो अपनी पढ़ाई पर खर्च करेंगी। मिस अमेरिका प्रतियोगिता में कुल 53 प्रतिभागी थे। इनमें से अमेरिका के हर राज्य की एक प्रतिभागी थी। इसके अलावा एक वाशिंगटन डीसी, पोर्तो रिको और यूएस वर्जिन आइलैंड से भी प्रतिभागी थीं। प्रतियोगिता में स्विम सूट, ईवनिंग गाउन, टैलेंट और इंटरव्यू जैसे कई राउंड्स थे। भारतीय मूल की नीना नेमिस ने जैसे ही मिस अमेरिका 2014 का खिताब जीतकर इतिहास रचा और दूसरी तरफ उन पर नस्लीय कॉमेंट शुरू हो गए। उनको विजेता घोषित करने के साथ ही अमेरिका में सोशल मीडिया पर जमकर नस्लीय टिप्पणियांकी जा रही हैं। लोगों ने 'अरब ने जीता मिस अमेरिका का ताज' और 'क्या हम 9/11 भूल गए हैं', जैसे कॉमेंट पोस्ट किए हैं। किसी ने उन्हें मिस टेररिस्ट कहा, तो किसी ने उन्हें मिस अलकायदा ही करार दिया। ट्विटर पर लोगों ने लिखा, 'कैसे कोई विदेशी मिस अमेरिका बन सकती हैं।' नीना के रंग को लेकर भी घटिया टिप्पणी की गई है। कई लोगों ने उन्हें मोटी तो कई न उन्हें विदेशी तक कह डाला। कई लोगों ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति ओबामा को खुश करने के लिए उन्हें मिस अमेरिका बनाया गया है। हालांकि, नीना के खिलाफ सोशल साइट्स पर चलाए जा रहे इस हेट कैंपेन का भारतीयों ने भी जवाब दिया है। एक भारतीय ने ट्वीट किया है, 'डियर अमेरिका, अगर आप नस्लवादी होना चाहते हैं तो आपको कोई नहीं रोक रहा है, लेकिन पहले भूगोल का अपना ज्ञान तो सुधारिए।' वैसे, तथ्य यह है कि 53 अमेरिकी सुंदरियों को पछाड़कर मिस अमेरिका का ताज पहनने वाली नीना पूरी तरह से अमेरिकी हैं। उनके पिता दावुलूरी चौधरी ने अमेरिका में उच्च शिक्षा हासिल की और स्त्री रोग विशेषज्ञ के तौर पर वहां बस गए। नीना का जन्म सिराकुसे, न्यूयॉर्क में हुआ, लेकिन चार वर्ष की उम्र में वह ओकलाहोमा और फिर 10 वर्ष की उम्र में मिशीगन रहने चली गर्इं। उन्होंने मिशीगन विश्वविद्यालय से विज्ञान की पढ़ाई की और अब वह अपने पिता की तरह डॉक्टर बनना चाहती हैं। नीना इस पूरे विवाद को तूल नहीं देना चाहतीं। उन्होंने कहा, 'मुझे इस बात की खुशी है कि मंच पर विविधता को स्वीकार किया गया। हाल के सालों में मुझे अपनी संस्कृति को लेकर गलत धारणाओं का सामना करना पड़ा है। लोग पूछते हैं कि क्या मेरे मां-बाप मेरी शादी का फैसला करेंगे, जैसा कि आमतौर पर भारतीय संस्कृति में होता है।' उन्होंने कहा, 'पहली भारतीय-अमेरिकी के तौर पर मिस अमेरिका बनने पर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं।'नीना की जीत भारतीय अमेरिकियों के लिए ठीक वैसी ही है, जैसी यहूदी समुदाय के लिए बेस मेरसन की जीत थी। मेरसन वर्ष 1945 में मिस अमेरिका का खिताब जीतने वाली यहूदी समुदाय की पहली महिला थीं। एक सासंद ने कहा कि नीना की जीत सिर्फ उनके लिए ही नहीं, बल्कि अमेरिका में रहने वाले पूरे भारतीय समुदाय के लिए गौरव की बात है।

Sunday, September 8, 2013

नरेंद्र मोदी का दांव

नरेंद्र मोदी के बयान के निहितार्थ क्या हैं, राजनीति के गलियारों में यह सवाल खूब गरम है। अब तक प्रधानमंत्री पद पर अपनी उम्मीदवारी के सवाल को लगभग टाल जाने वाले मोदी अगर यह कह रहे हैं कि गुजरात में उन्हें 2017 तक का जनादेश मिला है और तब तक वह वहीं सेवा करेंगे तो यह गर्माहट बढ़नी स्वाभाविक ही लगती है। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान की कमान मिलने के बाद जिस नेता के इर्द-गिर्द सारा कौतूहल केंद्रित हो जाता हो, जिसे पीएम पद का सबसे ज्यादा मजबूत प्रत्याशी मान लिया गया हो, स्वतंत्रता दिवस पर पहली बार जिस नेता के भाषण को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के संबोधन के बराबर महत्व मिला हो, वह अगर खुलकर पीएम पद पर पहुंचने के अपने किसी सपने से इंकार कर रहा हो, तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिदृश्य को लेकर अटकलें थम जानी ही हैं। मोदी का बयान इसलिये रणनीति का हिस्सा लगता है क्योंकि वह पिछले दो वर्ष से खुद को पीएम पद के दावेदार के तौर पर ही तैयार कर रहे हैं। अपनी इमेज ब्रांडिंग भी उन्होंने इसी लिहाज से की है। मोदी के अपनी पार्टी की केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने के बाद जिस तरह से हलचलें शुरू हुर्इं, आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले, उससे यह तो निर्विवाद रूप से कहा ही जा सकता है कि वह अन्य सभी दावेदारों में सबसे आगे हैं। सियासी तौर पर हाशिये पर विचरण कर रही भाजपा के लिए वह एक संजीवनी बनकर आए। पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार हुआ और एक-एक करके दूसरी पंक्ति के सभी नेताओं ने उनकी दावेदारी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यहां तक कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी भी मान ही गए। मोदी ने इंकार किया तो उनके सबसे निकटतम प्रतिद्वंद्वी माने जा रहे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अपनी आपत्ति से संबंधी मीडिया रिपोर्टों को बेबुनियाद बताकर पल्ला झाड़ लिया। जब पूरी पार्टी मोदी के साथ है, अपने अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मोदी प्रेम के आगे नतमस्तक है तो फिर मुश्किल है कहां। क्यों मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी किसी भी दावेदारी से इंकार कर रहे हैं। दरअसल, आडवाणी अब भी अंदरखाने सक्रिय हैं और सुषमा स्वराज भी मोदी के नाम पर तैयार नहीं इसीलिये मोदी के नाम की सार्वजनिक घोषणा में रुकावट आ रही है। मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं, संघ को उनसे सहानुभूति है इसलिये ही संघ प्रमुख मोहन भागवत सक्रिय हुए और उन्होंने आडवाणी के साथ ही राजनाथ और सुषमा से मुलाकात की। वह कहने से नहीं हिचके कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के मुद्दे पर जो भी फैसला करना है, वो जल्दी किया जाए। देरी से भाजपा को क्षति होगी। यह बयान मोदी की रणनीति का हिस्सा लगता है, तभी तो उन्होंने वह समय चुना जब संघ और भाजपा नेताओं की बड़ी बैठक आठ और नौ सितम्बर को दिल्ली में प्रस्तावित है। इसमें अन्य मुद्दों के साथ ही मोदी की पीएम पद पर उम्मीदवारी का फैसला भी होना है। बैठक की तैयारी के क्रम में संघ के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी आडवाणी से मिल चुके हैं। बैठक में सुषमा ने साफ कहा कि इस समय मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा पर उनके लिए संसद में नेता विपक्ष के तौर पर काम करना कठिन हो जाएगा। आडवाणी का कहना था कि इस बारे में कोई फैसला चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद होना चाहिए वरना नरेंद्र मोदी खुद मुद्दा बन जाएंगे। ढाल के तौर पर चौहान का नाम लिया गया, चौहान ने यह बात सरसंघ चालक मोहन भागवत से पहले ही कह रखी है। आडवाणी, सुषमा के साथ ही भाजपा संसदीय दल में मोदी विरोधी तीसरे सदस्य मुरली मनोहर जोशी हथियार डाल चुके हैं। मुश्किलें भी मोदी के बयान की वजह बनी हैं जिनका पार्टी के भीतर उनके विरोधी प्रयोग कर रहे हैं। इसी क्रम में गुजरात के आईपीएस डीजी बंजारा के इस्तीफे की बात यह कहते हुए उठाई गई कि इसका गलत प्रयोग हो सकता है लेकिन इस्तीफा नामंजूर करके मोदी ने यह अस्त्र बेअसर कर दिया। विरोधियों की जिस बात को सबसे ज्यादा वजन मिल रहा है, वह यह है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में चुनाव बाद कमजोर स्थिति पर मोदी के लिए समर्थन जुटा पाना बेहद मुश्किल कार्य है। चुनाव पूर्व भी अन्य दल साथ आने से हिचक रहे हैं। ऐसे दलों में यह लोग चंद्रबाबू नायडू और जयललिता का नाम ले रहे हैं जो अपने-अपने राज्यों में मुस्लिम वोटों की वजह से मोदी के समर्थन से बच रहे हैं। इसके साथ ही बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक भी मोदी को पसंद नहीं करते। यह नेता संघ को समझा रहे हैं कि बिना पीएम प्रत्याशी घोषित किए चुनाव लड़ने पर कई दल साथ आ जाएंगे जो चुनाव पश्चात सरकार बनने की स्थिति में विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों के चलते साथ रहने से नहीं हिचकेंगे। इसके साथ ही मोदी का स्वभाव भी विरोधियों को डरा रहा है, वह किसी की परवाह नहीं किया करते और तानाशाह की तरह व्यवहार करते हैं। वह इस तरह पेश आते हैं, मानो जैसा वह कहेंगे, वैसा ही चलेगा। नेताओं को लगता है कि पीएम बनने के बाद उनकी भूमिका गणेश परिक्रमा तक सीमित हो जाएगी और मोदी सत्ता के एकमात्र केंद्र बनकर स्थापित हो जाएंगे। मोदी जिसे चाहेंगे, वह आगे होगा और बाकी लोगों को नेपथ्य में धकेल दिया जाएगा। नरेंद्र अब तक अपनी राजनीतिक लड़ाई अकेले लड़ते आए हैं। शिक्षक दिवस पर पीएम की दावेदारी पर अनमनेपन से उन्होंने एक दांव खेल दिया। आने वाले दिनों में उनके अन्य कदम देखना खासा दिलचस्प होगा। पार्टी नेतृत्व और संघ, दोनों जानते हैं कि मोदी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय हैं। पार्टी में वह अकेले ऐसे नेता हैं जो मतदाताओं में पार्टी के लिए उत्साह पैदा करने में सक्षम हैं। इसीलिये मोदी शब्दबाण से काम चला रहे हैं। (लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

Monday, September 2, 2013

बलात्कार की सज़ा महज तीन साल !!!

रेप जैसी घटना ईश्वर न करे, किसी लड़की के साथ हो। अब दिल्ली गैंगरेप की ही बात करें, पीड़ित दामिनी को सबसे ज्यादा कष्ट देने वाले अपराधी को महज तीन साल की सजा हुई है, क्योंकि वह किशोर है। किशोर न्यायालय के स्तर से तीन साल की इस सजा पर पीड़ित लड़की की मां की प्रतिक्रिया आई है, इससे अच्छा तो यही था कि उसे मुक्त ही कर दिया जाता क्योंकि उसकी किशोर वय दो वर्ष चार महीने रहेगी, इस अवधि में उसका चाल-चलन, व्यवहार अच्छा रहा और हर वर्ष सजा में कुछ दिन की माफी शामिल हो गयी तो वह और जल्दी मुक्त हो जाएगा। यह दरअसल, भारतीय कानूनों की विसंगतियों में से एक है। राजनीतिक दल दायरे में आने लगें तो हम सूचना का अधिकार कानून बदलने की सोच सकते हैं, अपराधी राजनीतिज्ञों के शिकंजे में फंसने पर कानून बदल भी सकते हैं लेकिन इतने गंभीर अपराध का कानून महज इस आधार पर बदलने की नहीं सोचते कि इससे सामाजिक असंतुलन पैदा होने का खतरा है। बेशक, इससे किशोरवय लड़के बलात्कार की सजा से डरना छोड़ दें। इस प्रश्न को लेकर दो मुद्दे उठे हैं एक तो किशोर की परिभाषा क्या की जाये? क्या यह परिभाषा यदि मताधिकार के लिए निर्धारित आयु पूरी नहीं की है तो उसे किशोर की संज्ञा दी जाये या ऐसा व्यक्ति जो शारीरिक, मानसिक और सोच के आधार पर वयस्क नहीं हुआ है उसे माना जाये। इस रूप में यह मान्यता आयु के आधार पर ही निर्धारित करनी पड़ेगी जिससे इसका परिपालन संभव हो पाये। वोट देने वाला वयस्क तो 18 साल का होता है, साथ ही इस आयु के बाद उसे सम्पत्ति के स्थानान्तरण के अधिकार भी प्राप्त हो जाते हैं। हालांकि 14 वर्ष से अधिक आयु वाले किशोर को मोटर साइकिल और इंजन वाली गाड़ियां चलाने का लाइसेंस दिया जा सकता है। बैंकों के खातों के संचालन के लिए भी जो नियम बनाये गये हैं उसके लिए भी पात्रता की श्रेणी में ही आता है। इसी प्रकार पुरुष और महिला के शारीरिक विकास के सम्बन्ध में भी यही माना जाता है कि महिलाओं के शरीर का विकास जल्दी होता है। अरब में तो एक नौ वर्ष की बालिका के भी मां बन जाने के समाचार छपे थे। कहा यह जाता है कि यह उष्ण कटिबंध वाले क्षेत्रों के वातावरण का प्रभाव है, इसलिए भारत जैसे समशीतोष्ण देश में यदि किशोर के वय निर्धारण का प्रश्न है तो उसके प्रमुख तत्व क्या होने चाहिए। इसलिए महिलाओं में 16 वर्ष से कम आयु की बच्चियों को गर्भधारण और प्रजनन की आयु मान ली जाती है क्योंकि परिपक्वता के यहमानक उसके रजस्वला होने से ही आंके जाने लगते हैं, विभिन्न अंगों का विकास उसी के अनुकूल होता है। जहां तक किशोर वय वाले पुरुषेन्द्रीय बच्चों का सम्बन्ध है इस मामले में भी यह तथ्य आया था कि 23 वर्ष की उस महिला के साथ सबसे अधिक सक्रिय यही किशोर वय वाला ही था और उसने ही महिला को अन्य तरीकों से भी घायल करने की भूमिका अदा की। इसे उसकी मूर्खता या बचपना कहा जाये या यह माना जाये कि इसमें आपराधिक प्रवृत्ति और काम भावना के लिए आवश्यक शारीरिक विकास हो चुका था। लेकिन सजा इसलिए कम मिली क्योंकि पूर्ण सजा की पात्रता में कुछ दिन बाकी थे। इसलिए यदि इसे अवयस्क माना जाये तब भी क्या अवयस्क और किशोर दोनों समानार्थी हैं। जहां तक न्यायालयों का सम्बन्ध है वे स्वतंत्र और अपनी इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने वाले नहीं हैं बल्कि उन्हें स्थापित न्यायिक भावनाओं और गठित मायार्दाओं के अधीन रहकर ही अपने दायित्वों का निर्वहन करना होता है। इसलिए कानून के बारे में निर्णायक तो इसे बनाने वाला है न कि तदनुरूप आचरण के लिए निर्धारित न्यायालय। क्योंकि इसे तो कानून में किसी प्रकार का संशोधन, परिवर्धन करने का अधिकार नहीं है और इसकी व्याख्याओं का निर्धारण भी प्रारम्भिक न्यायालय नहीं बल्कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय करते हैं। लेकिन कानून निर्माण की शक्ति के सम्बन्ध में वे भी विधायिकाओं के सामूहिक समझदारी पर ही आश्रित हैं। लेकिन जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस वर्मा आयोग के समक्ष संशोधन और परिवर्तन के लिए विचाराधीन था तो इन न्यायिक अधिकारियों की भी राय यही थी कि इसमें आयु के सम्बन्ध में कोई परिवर्तन करना उचित नहीं होगा। इसलिए यदि विधायिकाओं की सामूहिक समझदारी से ही न्यायिक विवेक भी साझा कर ले तो यह मानना पड़ेगा कि दोनों की सोच में साम्यता है। किशोर वय के निर्धारण का जब प्रश्न उठेगा तो विचारणीय यह भी होना चाहिए कि किशोर और वयस्क में वे कौन से अन्तर हैं जिसके कारण दोनों के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएं, विचार और दण्ड प्रक्रिया के प्राविधान हैं। इस क्यों का स्पष्ट उत्तर तो होना ही चाहिए। इस शारीरिक कर्म, परिपक्वता के निर्धारक तत्व क्या हों, इस पर भी ध्यान दिया ही जाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि आयु की इन सीमाओं का संधिकाल के सम्बन्ध में भी क्या अलग विधान नहीं होना चाहिए? न्यायालय ने बनाये गये कानून की मजबूरी के कारण जो दण्ड दिया है उसका एक समाधान तो यह भी हो सकता है कि जिन 11 धाराओं में उसे सजाएं दी गयी हैं वे साथ-साथ चलेंगी या अलग। परम्पराओं के अनुसार तो सबसे अधिक सजा ही इस मामले में निर्णायक होती है लेकिन इसमें इस मामले में सजा जो भी मिले लेकिन यह ऐसा प्रश्न है जिस पर विधायिका को एक बार विचार करना ही चाहिए क्योंकि जब पुराना कानून बना था और आज के युग में अन्तर आ गया है। वयस्कता पहले की अपेक्षा जल्दी प्राप्त की जा सकती है इसीलिए मतदान की आयु भी 21 से घटाकर 18 की गयी थी कि इस आयु का व्यक्ति भावी व्यवस्था बनाने के लिए निर्णायक राय देने का पात्र है। इसलिए किशोर वय निर्धारित करने के प्रश्न पर भी पुनर्विचार नयी स्थितियों और बदलते हुए युग परिवेश के अनुकूल किया जाना चाहिए। यह मानते हुए कि केवल दण्ड से ही समाज को नहीं सुधारा जा सकता, इसलिए जेलों को भी दण्डगृह के बजाय सुधारगृह कहा जाने लगा है। चूंकि अपराधों को रोकने के लिए दण्ड प्रक्रिया अपनायी गयी थी और जब तक यह रहती है तब तक उसके प्रभावों और विसंगतियों पर भी ध्यान देना ही पड़ेगा। यह सोचने का वक्त है वरना कहीं देर न हो जाए।

Sunday, August 11, 2013

आजाद देश के महात्मा

हम आजाद हैं, क्योंकि हम एक थे। न हिंदू थे और न मुसलमान, सिर्फ भारतीय। एकता का ही असर था कि ब्रतानिया हुकूमत से आजादी हासिल कर पाए लेकिन आजाद क्या हुए, बेलगाम हो गए। भारतीय से हिंदू, मुसलमान और सिख, ईसाई हो गए। लड़ते हैं, झगड़ते हैं। आजादी की इस 67 वीं सालगिरह पर मनन का वक्त है, आत्म चिंतन की जरूरत है। महात्मा के हम अनुयायी क्यों उन्हीं की दी हुई शिक्षाएं भूल रहे हैं। गांधीजी नहीं चाहते थे कि हम लड़ें, इसके बजाए हमेशा भाईचारे से रहें। पश्चिम बंगाल में हिंदू-मुस्लिम दंगे उन्होंने अकेले अपने प्रयासों से ही शांत करा दिए। पंद्रह अगस्त 1947, पूरा देश आजादी के जश्न में मशगूल था लेकिन महात्मा दु:खी थे, उन्हें जैसे लग नहीं रहा था कि यह जश्न मनाने का वक्त है। पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभभाई पटेल का आमंत्रण ठुकराकर वह दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर कलकत्ता के नोआखाली क्षेत्र में हिंदू-मुस्लिमों के बीच सौहार्द बनाने में प्राण-प्रण से जुटे थे। उनके बेकल मन ने मजबूर किया कि वह आजादी की वर्षगांठ अनशन पर रहकर मनाएंगे। वह मानते थे कि संपूर्ण आजादी तब ही है जबकि जाति-धर्म का भेद न हो और भाईचारा कायम रहे। देनी पड़ सकती है जान भी आजादी से कुछ सप्ताह पहले की बात है। नेहरूजी और सरदार पटेल ने गांधीजी के पास दूत भेजा, जो आधी रात को वहां पहुंचा। गांधीजी ने पहले उसे भोजन कराया और फिर पत्र खोलकर देखा। उसमें लिखा था-बापू, आप राष्ट्रपिता हैं। 15 अगस्त 1947 पहला स्वाधीनता दिवस होगा। हम चाहते हैं कि आप दिल्ली आकर हमें अपना आशीर्वाद दें। महात्मा नाराजगी छिपा न सके। बोले, कितनी मूर्खतापूर्ण बात है। बंगाल जल रहा है। हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे की हत्याएं कर रहे हैं और मैं कलकत्ता के अंधकार में उनकी मर्मान्तक चीखें सुन रहा हूं तब मैं कैसे दिल में रोशनी लेकर दिल्ली जा सकता हूं। शांति कायम करने के लिए मुझे यहीं रहना होगा और जरूरत पड़ी तो सौहार्द और शांति सुनिश्चित करने के लिए जान भी देनी होगी। नेहरू-पटेल को ‘उपहार’ दूत को विदा करने के लिए वह बाहर निकले और एक पेड़ के नीचे खडेÞ थे कि तभी एक सूखा पत्ता शाख से टूटकर गिरा। गांधीजी ने उसे उठाया और हथेली पर रखकर कहा-‘मेरे मित्र, तुम दिल्ली लौट रहे हो। नेहरू और पटेल को मैं क्या उपहार दे सकता हूं, मेरे पास न सत्ता है और न सम्पत्ति। पहले स्वतंत्रता दिवस पर मेरे उपहार के रूप में यह सूखा पत्ता उन्हें दे देना। ,दूत की आंखें सजल हो गर्इं। गांधीजी परिहास के साथ बोले- ‘भगवान कितना दयालु है। वह नहीं चाहता कि गांधी सूखा पत्ता भेजे इसलिए उसने इसे गीला कर दिया। यह खुशी से दमक रहा है। अपने आंसुओं से भीगे इस पत्ते को उपहार के रूप में ले जाओ।, सत्ता से सावधान रहो आजादी के दिन गांधीजी का आशीर्वाद लेने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार के मंत्री भी मिलने आए। गांधी जी ने उनसे कहा-‘विनम्र बनो, सत्ता से सावधान रहो। सत्ता भ्रष्ट करती है। याद रखिए, आप भारत के गरीब गांवों की सेवा करने के लिए पदासीन हैं।, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द कायम करने के लिए गांधीजी गांव-गांव घूमे। हिंदुओं और मुसलमानों से शांति बनाए रखने की अपील की और शपथ दिलाई कि वे एक-दूसरे की हत्याएं नहीं करेंगे। वह हर गांव में यह देखने के लिए कुछ दिन रुकते थे कि जो वचन उन्होंने दिलाया है, उसका पालन हो रहा है या नहीं। बच्चों ने सिखाया बड़ों को पाठ उसी दौरान एक गांव में गांधीजी ने हिंदुओं और मुस्लिमों से सामूहिक प्रार्थना के लिए झोपड़ियों से बाहर आने का आह्वान किया। लेकिन इसका असर नहीं हुआ। आधे घंटे तक इंतजार के बाद उन्होंने साथ लाई गेंद दिखाकर बच्चों से कहा, आपके माता-पिता एक-दूसरे से डरते हैं लेकिन तुम्हें कैसा डर। तुम तो निर्दोष हो, भगवान के बच्चे हो। बच्चे खेलने लगे तो उन्होंने ग्रामीणों से कहा- तुम ऐसा साहस चाहते हो तो अपने बच्चों से प्रेरणा लो। वह एक-दूसरे से नहीं डरते। मेरे साथ आधे घंटे तक खेले। मेहरबानी करके उनसे कुछ सीखो। इन शब्दों का जादू सा असर हुआ। देखते-देखते वहां बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई और उन्होंने शपथ ली कि वे एक-दूसरे की हत्या नहीं करेंगे। किसी को बताना मत, दंगा हो जाएगा एक गांव में प्रार्थना सभा के दौरान एक मुस्लिम व्यक्ति ने गांधीजी का गला पकड़ लिया। हमले से वह नीचे गिर पड़े। उन्होंने कुरान की एक सुंदर उक्ति कही, जिसे सुनकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा और अपराध बोध से कहने लगा- ‘मुझे खेद है। मैं गुनाह कर रहा था। मैं आपकी रक्षा करने के लिए आपके साथ रहने के लिए तैयार हूं। मुझे कोई भी काम दीजिए।, गांधीजी ने उससे कहा कि तुम सिर्फ एक काम करो। जब तुम घर वापस जाओ तो किसी से भी नहीं कहना कि तुमने मेरे साथ क्या किया। नहीं तो हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाएगा। मुझे और खुद को भूल जाओ। आदमी पश्चाताप करता हुआ चला गया। महात्मा गांधी के भगीरथ प्रयासों से नोआखाली में शांति स्थापित हो गई। आत्महत्या की सोची थी मैंने अपनी आत्मकथा में ’चोरी और प्रायश्चित, शीर्षक के तहत राष्ट्रपिता ने लिखा है, एक रिश्तेदार से सिगरेट की लत गई। पैसे तो होते नहीं थे इसलिये ढूंढकर उसके ठूंठ पीने लगा लेकिन जैसे यह पराधीनता थी, मुझे अखरने लगी। दु:ख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम ऊब गए और आत्महत्या कर फैसला कर डाला! पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन देगा? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है। हम जंगल में जाकर धतूरे के बीज ले आए। सुनसान जगह की तलाश की लेकिन जहर खाने की हिम्मत नहीं हुई । अगर तुरंत मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक बीज खाने की हिम्मत ही न हुई। मौत से डरा और तय किया कि रामजी के मंदिर में दर्शन करके शांत हो जाएं और आत्महत्या करने की बात भूल जाएं। मैं समझ पाया कि मन में आत्महत्या का विचार लाना कितना आसान है और सचमुच आत्महत्या करना कितना मुश्किल। आत्महत्या के इस विचार का नतीजा ये हुआ कि हम दोनों की सिगरेट चुरा कर पीने की और नौकरों की जेब से पैसे चुरा कर सिगरेट फूंकने की आदत जाती रही। बड़े होकर सिगरेट पीने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। (गांधी जी की आत्मकथा ‘द स्टोरी आफ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ, प्रस्तुति: अनिल दीक्षित)

Friday, August 2, 2013

राजनीति के फेर में फॉर्मूला-वन

उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा स्थित बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट में फॉर्मूला-वन रेस खेल जगत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति के फेर में फंस रही है। फिलहाल 2014 के कैलेण्डर से ये गायब हुई है। आयोजक कम्पनी ने भरोसा जताया है कि 2015 से यह नियमित हो जाएगी लेकिन रफ्तार की दौड़ के महारथियों का एक पूरा गुट विरोध पर उतारू है और नहीं चाहता कि भारत को इसकी मेजबानी मिले। अगले दस साल में करीब 90 हजार करोड़ का व्यवसाय और 15 लाख से ज्यादा रोजगार देने की सम्भावना वाली इस रेस में बाधा आई तो देश को बड़ा झटका लगेगा। जो विकल्प तलाशे जा रहे हैं, न वह टिकाऊ हैं, न ही फॉर्मूला-वन की तरह लाभदायक। भारतीय बेशक, फॉर्मूला-वन रेसों के बारे में जानते हों लेकिन उन्होंने अपने देश में इसका आनंद पहली बार 2011 में लिया। फॉर्मूला रेसिंग में न सिर्फ देश-विदेश की लेटेस्ट और ट्रेंडी स्पोर्ट्स कार देखने को मिलती हैं बल्कि माइकल शूमाकर, निको रोजबर्ग, राफ शूमाकर जैसे नामचीन सितारे भी भाग लेने आते हैं। पहली दफा आयोजित ग्रांप्री बड़ी उपलब्धि थी। रफ्तार के खेल से हर साल करोड़ों डॉलर कमाई कराने वाली इस रेस ने उम्मीदें जगा दीं। लेकिन फॉर्मूला-वन के प्रमुख बर्नी एकलस्टन ने यह कहकर झटका दिया है कि भारत में अगले साल फर्राटा रेस होने की सम्भावना नहीं है। बर्नी की नजर में इसकी वजह सियासी हैं। पर राजनीति है क्या? दरअसल, इस रेस में भाग लेने वाली कम्पनियों में से कुछ की रुचि भारत से ज्यादा अन्य देशों में है, जिनमें रूस सबसे आगे है। 2014 के सत्र में 22 रेसों के आयोजन की बात हो रही है लेकिन फॉर्मूला-वन टीमें 20 रेसों तक ही टिकी रहना चाहती हैं। रूस के साथ ही आस्ट्रिया में अगले वर्ष एफ वन रेस कराने को लेकर भी काफी होड़ है। ऐसे में दो साल पहले एफ वन में पदार्पण करने वाले भारत को ही बाहर करने के लिए आसान शिकार माना जा रहा है। लेकिन रेस में एक साल की भी बाधा आने से तमाम नुकसान हैं। बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट ग्रेटर नोएडा में अंतरराष्ट्रीय स्तर के यमुना एक्सप्रेस-वे के पास बना है जिसने आगरा से नोएडा की दूरी घटाकर ढाई-तीन घंटे के आसपास कर दी है। फिलहाल वहां रेसिंग ट्रैक ही मुख्य है लेकिन योजना के मुताबिक आने वाले समय में यह तमाम अन्य विशेषताओं से परिपूर्ण होगा। ख्वाब तो वहां सपनों का शहर बनाने के भी हैं। रियल एस्टेट सेक्टर ने वहां बड़ी-बड़ी योजनाएं प्लान कर रखी हैं, पर तमाम प्रयासों के बावजूद हम विदेशी निवेश को आकर्षित करने में नाकाम रहे हैं। उत्तर प्रदेश ने खुद भी प्रयास किए, आगरा में कन्फेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज के साथ समिट आयोजित की लेकिन महीनों बाद एक भी विदेशी निवेशक नहीं आया है। फॉर्मूला-वन ने हमारी खूब कमाई कराई है। फॉर्मूला-वन का टिकट महंगा होता है। इसका आकर्षण जिस वर्ग में है, वो अपने वतन से आकर खूब पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहता है। बड़े-बड़े होटलों में रहता है, हवाई यात्राएं करता है और पर्यटन महत्व के आगरा, जयपुर जैसे शहर भी घूमता है। इसके अलावा फॉर्मूला-वन का रेसिंग सर्किट बनाने में करीब दो हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह मात्र इसी रेस में प्रयोग हो सकता है, अन्य खेलों के लिए इसका कोई उपयोग नहीं। जेपी ग्रुप ने सर्किट के लोभ में ही यमुना एक्सप्रेस-वे प्रोजेक्ट हाथ में लिया था। सवाल यह है कि क्या घाटे की स्थिति का असर इस मार्ग के आसपास के विकास पर नहीं पड़ेगा? सरकारी आय की नजर से देखें तो राजस्व की क्षति भी होना तय है। याद कीजिए, फॉर्मूला-वन रेस के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी करने के लिए केंद्रीय खेल मंत्रालय प्रतिवर्ष दस करोड़ रुपये वसूल करता है जो राष्ट्रीय खेल विकास निधि में जमा हो जाता है। इसके अलावा लाखों डॉलर मूल्य की कारें, उनके टायर, उपकरण, तेल जैसी अन्य जरूरी चीजें लाने की एवज में खिलाड़ियों की प्रायोजक कम्पनियां करोड़ों रुपये कस्टम ड्यूटी अदा करती हैं। गत वर्ष केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क विभाग ने छह सौ करोड़ रुपये सुरक्षित धनराशि के रूप में जमा कराए थे। सबसे बड़ा नुकसान तो उन भारतीयों का है, जो रेस के दिनों में अस्थायी व्यवसाय के जरिए कमाई करते हैं। इस रेस का आयोजन बेशक निजी क्षेत्र की कम्पनी करती हो लेकिन जिस कद की यह रेस है, उसके लिए सरकार के भी सक्रिय होने की जरूरत है। खेल जगत में खेल मंत्रालय की सक्रियता बढ़ी है। उसने बेलगाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर भी शिकंजा कसने की कोशिशें शुरू कर दी हैं, जिससे खेलों में पारदर्शिता से इंकार नहीं किया जा सकता। फॉर्मूला-वन रेस के आयोजन ने भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि बना दी है। रेस पर जिस तरह बेशुमार खर्च किया जाता है, उससे आयोजक देश अन्य देशों की कतार से अलग खड़े हो जाते हैं। हालांकि आयोजक जेपी समूह ने वर्ष 2015 से इस रेस के सुचारु आयोजन की प्रतिबद्धता जताई है, पर एक वर्ष का ही सही, यह गतिरोध भारतीय छवि खराब कर सकता है। वैसे बर्नी एकलस्टन के मुताबिक, भारत में 2014 फॉर्मूला वन ग्रांप्री की मेजबानी के भविष्य के बारे में फैसला सितम्बर में विश्व मोटर स्पोर्ट परिषद की बैठक के दौरान होगा, जहां वह रेस संचालक अंतरराष्ट्रीय आटोमोबाइल महासंघ को 2014 का स्थायी कार्यक्रम सौंपेंगे। बर्नी एकलस्टन ही रेस का कैलेण्डर तैयार करते हैं और वही आमतौर पर महासंघ के सामने औपचारिक मंजूरी के लिए पेश करते हैं। फॉर्मूला-वन रेस के लिए 22 जगहों के आवेदन हैं जबकि इस रेस में हिस्सा लेने वाली टीमें चाहती हैं कि 20 से ज्यादा रेस न हों।

Tuesday, July 30, 2013

तेलंगाना पर कांग्रेस का राजनीतिक दांव

लम्बे समय के हंगामे, खून-खराबे और राजनीतिक दांव-पेच के दौर का असर हुआ है और पृथक तेलंगाना राज्य को मंजूरी दे दी गई है। जिस दिन यह अस्तित्व में आएगा, देश का यह 29 वां राज्य होगा। हालांकि पहली नजर में यह राजनीतिक पैंतरा ही है क्योंकि राज्य के अस्तित्व में आने के लिए अभी तमाम औपचारिकताएं होना बाकी हैं। सबसे पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल इसे मंजूरी देगा। यह प्रक्रिया अगले दिन ही पूरी कर लिये जाने का इरादा जाहिर कर दिया गया है। इसके लिए कैबिनेट के विशेष बैठक बुलाई गई है। इसके बाद फिर राज्य विधानसभा और संसद से प्रस्ताव पास होगा। इसके बाद अध्यादेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होंगे। जिस तरह की संभावनाएं जतायी जा रही हैं, कांग्रेस इस पूरी प्रक्रिया को अगले चार-पांच महीने में पूरी करने का मन बना रही है क्योंकि इससे उसे राजनीतिक लाभ तय है। यही समझाकर उसने मुद्दे पर विरोध की अगुवाई संभाल रहे आंध्र प्रदेश के नेताओं को शांत बैठाया है। फिर क्या वजह हैं जो यूपीए के घटक दलों में विचार के लिए मुद्दा लाया गया है और इसी दिन कांग्रेस कार्यसमिति ने मंजूरी दे दी। इस फैसले की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैं। राहुल जल्दबाजी में यह फैसला कराने के इच्छुक थे क्योंकि उन्हें तेलंगाना में राजनीति अपनी पार्टी के अनुकूल बनने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। लेकिन पार्टी में इस पर आम सहमति नहीं, उसके एक तबके को लगता है कि राहुल गांधी पार्टी के एक बड़े वर्ग के आकलन को दरकिनार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के कई नेता अलग राज्य बनाए जाने के खिलाफ हैं। पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद जहां राहुल की हां-हां में इसे हवा दे रहे हैं, वहीं दिग्विजय सिंह, सुशील कुमार शिंदे, आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नरसिम्हन और मुख्यमंत्री किरन कुमार खिलाफ हैं। पीएम के खिलाफ होने के पीछे सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट हैं। देश की अंदरूनी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार इन एजेंसियों को लगता है कि तेलंगाना बनाने को लेकर सरकार का फैसला बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि यह इलाका नक्सल गतिविधियों का केंद्र बन जाएगा। देश के कई नक्सल नेता तेलंगाना क्षेत्र के करीमनगर जैसे जिलों से आते हैं। दरअसल, यह मुद्दा कांग्रेस के गले में फंसने लगा था। हालांकि इसके विरोधी भी कम नहीं थे और जिस तरह से इस्तीफों का दौर चला, उससे लगने लगा था कि कांग्रेस फैसला टाल सकती है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तक ने जिस तरह दबाव बनाने के लिए सुर अलापे, उससे इस संभावना को बल मिला था। नेतृत्व समझ रहा था कि आंध्र प्रदेश में यह मुद्दा एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की तरह है। राज्य बनाने या न बनाने, दोनों स्थितियों में हालात उसके प्रतिकूल होने लगे थे। आंध्र प्रदेश की लगभग 42 प्रतिशत आबादी तेलंगाना क्षेत्र में रहती है और बाकी रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में। राजनीतिक तौर पर नया राज्य बनाने का निर्णय उसके हित में था क्योंकि तेलंगाना में उसका मुकाबला अकेली तेलंगाना राष्ट्र समिति से है जबकि बाकी के राज्य में वह तीन मजबूत पार्टियों से मुकाबिल है। अलग राज्य बनने पर चाहे समिति को राजनीतिक लाभ मिले लेकिन केंद्र से मंजूरी दिलाने का श्रेय उसे भी मिलना तय ही है। तेलंगाना में वह हार बर्दाश्त कर भी लेती लेकिन शेष क्षेत्र में प्रभावशाली होकर उभरी जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस ने सिरदर्द बढ़ा रखा है। आज स्वीकृति देने वाली कांग्रेस इस मुद्दे पर कई बार पलटी मार चुकी है। याद कीजिए, 1971 में तेलंगाना प्रजा समिति ने तेलंगाना क्षेत्र से 10 लोकसभा सीटें जीतकर मुद्दा उभारा था, तब कांग्रेस ने पल्ला झटक लिया था। लेकिन 2004 में चंद्रशेखर राव ने आंदोलन का बिगुल बजा रखा था, तब वह उनके साथ हो गई और राव को मंत्री पद से नवाज दिया। माना गया कि तेलंगाना पर कांग्रेस अब अनुकूल रुख अपना रही है लेकिन यह दोस्ती भी ज्यादा नहीं चली और दो साल बाद ही वह सार्वजनिक रूप से अलग राज्य पर अपनी हिचकिचाहट दिखाने लगी। इस पर राव ने कांग्रेस ने रिश्ता तोड़ लिया। न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग की वो रिपोर्ट भी उसने ठण्डे बस्ते में डाल दी जिसमें राज्य को लेकर कई विकल्प सुझाए गए थे। नए राज्य गठन में मुश्किलें भी आना तय है। आंध्र प्रदेश की सम्पत्ति को बांटना आसान नहीं है। राज्य के 45 प्रतिशत जंगल तेलंगाना इलाके में हैं और देश के 20 फीसदी से ज्यादा कोयला भण्डार भी। कांग्रेस के लिए तात्कालिक लाभ भाजपा के पैर बांधना भी है जो राव से दोस्ती करके आंध्र प्रदेश में खाता खोलने के लिए तैयारी कर रही थी। चुनावी तालमेल की रूपरेखा तय करने के लिए भाजपा राव के नजदीकियों से कई दौर की वार्ता कर चुकी थी और अंतिम फैसला उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह को करना था। नई परिस्थिति में यह समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, यह तय है।

Wednesday, July 24, 2013

अब तो अपने 'रूपे' का इंतजार...

भारतीय अर्थ जगत में एक बदलाव दस्तक दे रहा है। आसार अच्छे हैं। इस परिवर्तन के तहत जल्द ही माइस्त्रो, वीजा, मास्टर, अमेरिकन एक्सप्रेस और साइरस कार्ड के दिन लदने वाले हैं, उनकी जगह लेगा भारतीय कार्ड रूपे। सितम्बर से यह भारतीय कार्ड विदेशी समकक्ष कार्डों को खदेड़ने में सफल होने लगेगा। वित्तीय तंत्र के लिए यह अच्छा संकेत होगा। प्रतिदिन करीब तीन हजार करोड़ रुपये जो लेन-देने के दौरान दुनिया में सर्वाधिक प्रचलित इन कार्डों को चलाने वाली प्रतिष्ठित विदेशी कम्पनियों के खाते में फंस जाते हैं, वह रूपे (Ru-pay) के जरिए भारत में ही रहेंगे और भारतीय मुद्रा तंत्र को मजबूती देंगे। आपके पास डेबिट या क्रेडिट कार्ड वीजा का होगा या मास्टर या माइस्त्रो या फिर साइरस का। अमेरिकन एक्सप्रेस भी प्रचलित ब्रांड है। असल में, यह दुनियाभर में प्रचलित इलेक्ट्रॉनिक मुद्रा कार्ड हैं। ये कार्ड विदेशी भुगतान प्रणाली पर चलते हैं। इनका दुनियाभर की भुगतान प्रणाली पर एकछत्र राज है। आसान शब्दों में कहें तो दुनिया के ज्यादातर देशों की बैंकें भारी-भरकम राशि देकर इन कार्ड कम्पनियों से करार करती हैं। इससे वीजा जैसे कार्डों के जरिए आर्थिक लेन-देन इलेक्ट्रॉनिक रूप में होने लगता है। व्यावहारिक रूप में यह प्लास्टिक कार्ड इलेक्ट्रॉनिक चेक की भांति कार्य करता है, इसके जरिए शाखा में बगैर जाए आप अपना धन खाते से निकाल सकते हैं। कार्डों का उपयोग कुछ देशों में इतना व्यापक हो चुका है कि इसने चेक की जगह ले ली है। अन्य देशों की तरह भारत में भी इंटरनेट बैंकिंग, आनलाइन कर भुगतान, क्रेडिट एवं डेबिट कार्डों का प्रयोग, इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा प्रणाली, राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (एनईएफटी), के साथ ही तत्काल सकल भुगतान प्रणाली आदि को आधुनिक बना दिया है। इससे कार्यकुशलता आई, कार्य किफायती हुआ, भुगतान प्रणालियों में पारदर्शिता आई और विश्वसनीयता भी बढ़ गई। आधुनिकीकरण के इसी दौर में मजबूरी में ही सही, पर विदेशी कम्पनियों के कार्डों का वर्चस्व स्थापित हो गया। एक अनुमान के अनुसार, दुनिया के करीब 43 प्रतिशत आनलाइन भुगतानों का माध्यम मास्टर कार्ड है। इसी तरह वीजा कार्ड का अच्छा-खासा बाजार है। एक्सिस बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में दो करोड़ 30 लाख से ज्यादा वीजा क्रेडिट कार्ड हैं जबकि 30 करोड़ के आसपास एटीएम कार्ड यानि डेबिट कार्ड धारक। समस्या यह नहीं कि यह कार्ड विदेशी हैं, बल्कि यह है कि हमारे वित्तीय लेन-देन का लगभग आधे से ज्यादा तंत्र इन्हीं कार्डों पर आश्रित हो गया है। हालांकि मुश्किलें भी कम नहीं। उदाहरण से समझें कि यदि आपने किसी वस्तु के लिए आनलाइन पेमेंट किया या कोई बिल अदा किया। तकनीकी कारणों से पेमेंट फेल हो गया लेकिन राशि आपके खाते से कट गई तो जितने दिन राशि आपके खाते में वापस नहीं आएगी, उसमें इन कार्ड कम्पनियों का भी फायदा है। एक तो अंतरणों की संख्या एक से बढ़कर दो हो जाएगी। ऊपर से, पेमेंट के लम्बित होने के वक्त का ब्याज भी जेब में जाएगा। चूंकि सेवाएं लेना बैंकों की मजबूरी है इसलिये यह कम्पनी अपनी शर्तों पर ही काम किया करती हैं। सेवा शुल्क भी इतना ज्यादा है कि बैंकें एटीएम स्थापना के बाद अन्य शुल्क लगाकर इस खर्च की भरपाई किया करती हैं। ऐसे में आवश्यकता थी कि किसी न किसी तरह विदेशी कार्डों का आधिपत्य समाप्त या बेहद कम कर दिया जाए। यही आवश्यकता रूपे कार्ड की जननी बन गई। एशिया की आर्थिक महाशक्ति चीन पहले ही यूनियन पे आॅफ चाइना के नाम से विदेशी कार्डों का विकल्प तलाश चुकी थी। वर्ष 2009 में भारतीय रिजर्व बैंक की पहल पर भारतीय बैंक संघ ने गैर-लाभकारी भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम बनाया और निगम ने अप्रैल 2011 में रूपे को विकसित किया। अगले ही माह महाराष्ट्र में शहरी सहकारी क्षेत्र के गोपनीथ पाटिल पर्तिक जनता सहकारी बैंक के माध्यम से पहला रूपे कार्ड लांच हो गया। इसके बाद काशी-गोमती संयुक्त ग्रामीण बैंक ने यह कार्ड जारी किया। निगम इस समय सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों को जोड़ने की कवायद में जुटा है, इनमें बैंक आॅफ इंडिया पहला बैंक है जिसने रूपे को स्वीकार किया है। इन बैंकों ने वित्तीय समावेशन के तहत जोड़े गए ग्राहकों को यह कार्ड जारी किया। यह कार्ड अभी सीमित सेवाएं दे रहा है, लेकिन बाद में इसे क्रेडिट कार्ड के रूप में भी जारी किया जाएगा। योजना के मुताबिक, सितम्बर में व्यावसायिक तौर पर जारी होने के बाद यह कार्ड वीजा और मास्टर कार्ड जैसी वैश्विक भुगतान प्रणाली की जगह ले लेगा। इसके लिए देशभर की करीब आठ लाख आॅटोमेटिक टेलर मशीन (एटीएम) में बदलाव होगा। बदलाव की यह प्रक्रिया हालांकि शुरू हो चुकी है, अभी तक करीब पौने दो लाख मशीनों में यह बदलाव किया जा चुका है। इस माह के अंत तक यह संख्या पांच लाख पहुंच जाएगी। इसके तहत प्रत्येक एटीएम को रूपे गेटवे कार्ड के लिए सॉफ्टवेयर से लैस किया जा रहा है, फिर इनमें वीजा, मास्टर, साइरस या माइस्त्रो कार्ड के साथ ही रूपे कार्ड का इस्तेमाल भी संभव होगा। हालांकि बैंकों और उनके ग्राहकों के लिए कार्ड में बदलाव की पूरी प्रक्रिया बेहद खर्चीली साबित हो रही है। बैंक प्रत्येक नए कार्ड पर 45 रुपये के आसपास खर्च कर रहे हैं। कुछ बैंक विभिन्न लाभकारी योजनाओं में निवेश करने वाले ग्राहकों के लिए यह राशि अपनी जेब से अदा कर रहे हैं तो कुछ की योजना ग्राहकों से वसूल करने की है। दीर्घकालिक लाभ हासिल होने की पक्की संभावना के चलते यह सौदा न बैंकों के लिए घाटे का है और न उसके ग्राहकों के लिए। एटीएम संचालन में सुविधा बढ़ोत्तरी और विभिन्न शुल्कों में कटौती यह दर्द कम करने वाली है।