Saturday, February 21, 2015

चीन से रिश्ते की तल्खी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा से चीन बौखलाया हुआ है। मोदी ने चीन-भारत सीमा के पूर्वी हिस्से में एक कथित विवादित क्षेत्र की यात्रा की थी। वह अरुणाचल की स्थापना से जुड़े आयोजनों में शामिल भी हुए। चीन कहता है कि भारत ने 1987 में गैरकानूनी और एकपक्षीय तरीके से घोषणा की थी। अरुणाचल भारत की दुखती रग है, चीन ने वहां उसकी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा रखी है।
सीमा पर 1962 के बाद भारत ने किसी तरह का निर्माण न करके चीन को खुश रखने की कोशिश की, पर अब भारत अपनी अंतिम चौकी तक संपर्क रखने के लिए तंत्र विकसित किया जा रहा है। निष्क्रिय हवाई पट्टियों को भी दुरुस्त किया जा रहा है। चीनी सरकार ने सीमा तक अपनी पहुंच बनाने के लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने पर जोर दिया है, भारत इस मोर्चे पर निष्क्रिय ही था हालांकि मोदी सरकार बनने पर उसके काम में तेजी आई है। सीमा सड़क संगठन के मुताबिक, वह 2015 के अंत तक चीन सीमा के आसपास कुल 4200 किमी लम्बी 68 सड़कें तैयार कर लेगा। दरअसल, दोनों देशों के साथ दिक्कत यह है कि वे लम्बे समय बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं कर पाए हैं, कोई काल्पनिक विभाजन रेखा तक नहीं है। नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई थी, चीनी राष्ट्रपति ने भारत यात्रा की और मोदी वहां जाने के लिए तैयार हैं। दोनों देशों की विदेश नीति में जो नए मोड़ आए हैं, उसके तहत भारत ने जहां दक्षिण एशिया के देशों से सम्बन्धों में कटुता दूर दी, वहीं चीन ने फिलीपींस-रूस जैसे देशों से अपनी जमीनी विवाद सुलझा लिये। भारत और चीन के बीच 1981 से 1987 तक आठ दौर की वार्ताएं हुर्इं। 1988 से 2002 तक सीमा विशेषज्ञों के बीच बातचीत हुई और 2003 में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के मध्य। तब से लेकर अब तक दोनों सलाहकार 15 बार मिल चुके हैं, पर सीमा विवाद जस का तस है। चीन को पता है कि अब स्थितियां 1962 जैसी नहीं रह गई हैं और भारत भी सामरिक दृष्टि से मजबूत है। बंजर जमीन हड़पने के लिए वह जंग नहीं लड़ना चाहता बल्कि उसकी इच्छा इस अपना प्रभुत्व दिखाने की है। वह जानता है कि भारत के साथ उसका व्यापार इस साल 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और वह इतना बेवकूफ नहीं है कि लड़ाई करके अपने व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करे। वहां की सरकार भारत को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, इसलिए वह एशिया के देशों के बीच में भारत की छवि को धूमिल करने में लगी है। पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने के लिए चीन हमेशा से जी-जान से जुटा रहता है, पाकिस्तान को परमाणु तकनीक और मिसाइलें देता है ताकि पाकिस्तान भी भारत को आंखें दिखाता रहे। इसके साथ ही, चीन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह भी बना लिया है।
इसी तरह नेपाल में भी उसका जबर्दस्त दखल है जहां वह माओवादियों का समर्थन करता है। भारत से नेपाल के बरसों पुराने सांस्कृतिक रिश्ते भी काम नहीं आ रहे। म्यांमार सरकार भी चीन के दबाव में भारत को गैस देने से मुकर रही है। बांग्लादेश भी चीनी असर के चलते ही अपनी सीमा से तेल पाइपलाइन नहीं आने देना चाहता। श्रीलंका को पक्ष में करने के लिए चीन ने उस लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में मदद की, जो भारत का समर्थक माना जाता था। साथ ही बंदरगाह बनाए और आधुनिक हथियार एवं तकनीक दीं। लड़ाई के बेहाल अफगानिस्तान को भारत ने आर्थिक मदद की तो चीन भी पीछे नहीं रहा। मदद करने के नाम पर उसने वहां ताम्बे की खदानें खरीद लीं। भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का वह धुरविरोधी है, वहीं परमाणु आपूर्ति क्लब में भी हमारे खिलाफ आग उगलता रहता है। जब से उसे पता है कि भारत अमेरिका के नजदीक हो रहा है, तो वह कूटनीतिक चालें चलकर परेशान कर रहा है। उसे जापान से भारत की निकटता रास नहीं आ पा रही। जापान से उसकी तनातनी चलती रहती है, दोनों देश एक-दूसरे पर प्रभुत्व दिखाने का प्रयास करते रहते हैं। परमाणु हमले के बाद जापान चीन को चुनौती देने में सक्षम नहीं था, पर अब वह पूरी तरह से चीन की नीतियों को समझ चुका है और जानता है कि चीन जापान को कभी आगे बढ़ने नहीं देगा। बहरहाल, चीन इस वक्त भारत से दोस्ती की बात कर रहा है। जबर्दस्त प्रयास हो रहे हैं। लेकिन भारत को उसकी कूटनीतियों के मद्देनजर मालदीव, भूटान, रूस और जापान के साथ अपने सम्बन्धों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये। भारत की 15,106.70 किमी लम्बी जमीनी सीमा है, जो 17 राज्यों से गुजरती है। 7516.60 किमी की तटरेखा राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को छूती है। भारत के 1197 आईलैंड्स की 2094 किमी अतिरिक्त तटरेखा है। बेशक, इन सीमाओं की सुरक्षा देश के लिए बड़ी चुनौती है। सरकार को कुछ ठोस इंतजाम करने चाहिए, ताकि देशवासियों को लगे कि वे पूरी तरह महफूज हैं। चीन पर उसे आंख बंद करके विश्वास करने से बचना होगा। मोदी ने जिस तरह वार्ता के साथ अपनी ढांचागत सुविधाएं मजबूत करने के प्रयास किए हैं, उन्हें जारी रखना भारत के हित में है। भारत को कोई गलती न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर सकती है बल्कि सुरक्षा को चुनौती भी सिद्ध हो सकती है।

Friday, February 13, 2015

एक नायिका का पतन...

जिन गुजरात दंगों पर अक्सर राजनीतिक हो हल्ले हुआ करते थे, उसमें समीकरण बदले हुए हैं। जिन नरेंद्र मोदी पर प्रहार होते थे, वो आज देश के पीएम हैं। फर्जी ढंग से मुठभेड़ों के कथित संरक्षणदाता अमित शाह सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पीड़ितों के सबसे बड़ी हिमायतियों में एक तीस्ता सीतलवाड़ कठघरे में हैं, कानून के शिकंजे में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आरोप इतने संगीन हैं, उन्होंने विश्वासघात किया और पीड़ितों के लिए लगे धन के ढेर से अपना ही घर भर लिया।
देशभर में चर्चित गुजरात की ढेरों घटनाओं  में तीस्ता नायिका बनकर सामने आर्इं। पीड़ितों को भरोसा था कि तीस्ता उन्हें इंसाफ दिलाएंगी। कमजोर और परेशान लोगों की उम्मीदें उनसे जुड़ीं थीं। तीस्ता ने मोदी के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ा था, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वे मोदी के खिलाफ छोटी से लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत तक गर्इं। अगर आज भी मोदी पर छोटे-बड़े आरोप लगते हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं तीस्ता की भूमिका जरूर होती है। लेकिन यह नायिका अब खलनायिका बन चुकी है। विशेष जांच दल (एसआईटी) की रपट आई तो जैसे हंगामा बरप गया। उजागर हुआ कि गुजरात दंगों में तीस्ता ने जिन लोगों के शपथपत्र प्रस्तुत किए हैं, उन्होंने खुद कहा है कि सीतलवाड़ के कहने पर शपथपत्र दिया गया है, उन्हें शपथपत्र में दी गई सूचना की जानकारी भी नहीं है। तीस्ता का दावा था कि गुलबर्ग सोसाइटी में तत्कालीन पुलिस आयुक्त पीसी पाण्डे दंगाइयों का नेतृत्व कर रहे थे, जबकि ऐसे साक्ष्य मिले कि पाण्डे घायलों को अस्पताल पहुंचाने और दंगाइयों को खदेड़ने में लगे थे। झूठी कहानियां यहीं खत्म नहीं होतीं। सुप्रीम कोर्ट में उनके स्तर से दाखिल शपथपत्र में कहा गया था कि गर्भवती कौसर बानो का सामूहिक बलात्कार हुआ और उसका बच्चा पेट फाड़ कर निकाला गया पर एसआईटी ने दोनों ही बातें झूठी पार्इं। जरीना मंसूरी नामक महिला को नरोडा पाटिया में जिंदा जलाकर मारने सम्बन्धी शपथपत्र के बारे में जांच में पाया गया कि जरीना की मौत टीबी से हुई थी। सीतलवाड़ के मुख्य गवाह रईस खान ने कहा कि गवाही देने के लिए उसे डराया-धमकाया गया। तीस्ता के दाखिल किए सारे शपथपत्र एक ही कम्प्यूटर से निकाले गए और उनमें केवल नाम बदला गया। अब मामला और गहरा रहा है। गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच उनके दरवाजे तक पहुंच चुकी है। फिलहाल जो आरोप उन पर हैं, उनके बारे में यह कह देना कि यह बदले की भावना से है, कतई सच बात नहीं। क्राइम ब्रांच की रिपोर्ट में कही गर्इं बातें चौंकाने वाली हैं।
रिपोर्ट कहती है कि तीस्ता ने दंगा पीड़ितों के पुनर्वास-सहायता और म्यूजियम आॅफ रेजिस्टेंस बनाने के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा लिया लेकिन चंदे का बड़ा हिस्सा खुद डकार गर्इं। तीस्ता की संस्थाओं सबरंग ट्रस्ट और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस को देश- विदेश से करीब पौने दस करोड़ रुपये चंदा मिला था जिसे दो भारतीय बैंकों के पांच खातों में जमा किया गया। रिपोर्ट कहती है कि तीस्ता और उनके पति जावेद आनंद ने इन रुपयों में से 3.85 करोड़ अपने नाम कर लिये। सबरंग ट्रस्ट के दो खातों में करीब सवा तीन करोड़ रुपये थे जिनके बारे में तीस्ता-जावेद आनंद ने किसी कोर्ट तक को नहीं बताया। इसी धन से वो इस्लामाबाद, लंदन और अबूधाबी के होटलों में रुकीं, वहां शॉपिंग की। दंपति ने इटली, कुवैत, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, सऊदी अरब, पाकिस्तान में इसी पैसे से खूब खरीददारी की। क्रेडिट कार्ड से खर्च हुआ था इसलिये आसानी से पकड़ में आ गया। जावेद ने जिनेवा से जूते खरीदे तो भी चंदे के पैसे ही खर्च हुए। हैरतअंगेज यह भी है कि इसी पैसे से दंपति ने वेतन लिया और बच्चों के नाम फिक्स डिपाजिट भी कराया। तीस्ता कहती हैं कि उन्होंने पैसे लौटा दिए हैं लेकिन कानून की नजर में इससे अपराध की संगीनता कम नहीं होती। तीस्ता को लेकर विवादों का क्रम यहीं खत्म नहीं होता। समस्या उनके सर्वाधिक खास लोगों में शुमार लोगों में से एक रईस खान पठान ने भी पैदा की है। उन्होंने स्वीकार किया है कि तीस्ता दंगों के फोटोग्राफ को मनमाफिक परिवर्तन करती थीं। बकौल पठान, 2002 में मैं अपने पत्रकार मित्रों से दंगों की तस्वीर लाकर उन्हें देता था। जिन दंगों में कांग्रेस के लोग शामिल थे, उन तस्वीरों में फोटो मार्क करके नाम के साथ कांग्रेसियों की तस्वीरें मैंने उन्हें दी थीं। लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। उनका प्रयास रहता था कि मात्र भाजपा और उसके लोगों पर ही निशाना सधे, कांग्रेस के प्रति उनके दिल में सॉफ्टकॉर्नर था। यह फोटोग्राफ उन्होंने गायब कर दिए, मैंने सवाल उठाने शुरू किए तो मुझे एनजीओ से निकाल दिया। मेरे पीछे गुंडे लगा दिए, धमकी दी गई कि गुजरात छोड़ जाओ। परिवार के साथ जान से मारने की धमकी आई। मैं गुजरात छोड़कर नहीं जा सकता था, क्योंकि मैंने यहां पीड़ितों की सेवा की है। मैं उनके सुख-दुख का साथी रहा हूं। आप किसी भी पी़ड़ित के पास जाकर पूछिए, उन्हें पहले कौन मिला? तीस्ता या रईस खान, जवाब मिल जाएगा। बहरहाल, तीस्ता के बेनकाब होने के पीछे अगर मोदी या उनके किसी विश्वस्त की भूमिका का शक जताया जा रहा हो, तो उसकी संभावनाएं हो सकती हैं लेकिन सबूत कह रहे हैं कि तीस्ता ने गुजरात दंगों में जो कुछ भी किया-कहा, सब सही और सच नहीं था। जरूरी यह भी है कि जांच और कार्रवाई की प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता रहे क्योंकि नरेंद्र मोदी अब एक राज्य के मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री हैं और अमित शाह भाजपा जैसी फिलहाल सर्वाधिक शक्तिशाली पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष।

Tuesday, February 10, 2015

भाजपाई उम्मीदों के साथ मोदी की भी हार

महज एक साल के अंतराल में अगर अरविंद केजरीवाल धमाकेदार जीत हासिल करने में कामयाब रहे हैं तो बेशक, उनकी मेहनत का असर है लेकिन भूमिका भारतीय जनता पार्टी की भी कम नहीं है। उसने अगर रणनीति में खामियां नहीं छोड़ी होतीं तो केजरीवाल प्रचंड बहुमत तक नहीं पहुंचते। राष्ट्रीय राजधानी के इस चुनाव के अगर नतीजे ऐतिहासिक हैं तो इसका श्रेय केजरीवाल की स्वच्छ और बदलाव लाने के लिए व्यग्र व्यक्ति की छवि को भी जाना चाहिये। बहाने लाख तलाशे जाएं, बलि का कोई भी बकरा ढूंढ लिया जाए पर हार की जिम्मेदारी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बच नहीं पाएंगे, यह तय है।
वर्ष 2013 में  जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी को 31, आम आदमी पार्टी को 28, कांग्रेस को आठ और अन्य को दो सीटें मिली थीं, इस दफा यह संख्या बढ़कर 67 के लगभग उच्चतम अंक तक पहुंच गई। तब पहले नंबर पर आई भाजपा को इस दफा महज तीन सीटें मिली हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए चुनावों में जो विजय रथ रफ्तार के चला था, आज औंधे मुंह पड़ा है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो भाजपा के स्तर से तमाम खामियां छोड़ी गर्इं। भाजपा अगर, जम्मू कश्मीर के चुनावों के साथ ही दिल्ली में चुनाव कराने का फैसला कर लेती तो नतीजे दूसरे हो सकते थे। यह देरी उस पर भारी पड़ी। आम आदमी पार्टी की तरफ से केजरीवाल घोषित सीएम उम्मीदवार थे, भाजपा ने यह फैसला करने में ही काफी वक्त ले लिया कि वह किसके चेहरे को सामने रखकर मैदान में उतरने जा रही है। फिर उन किरण बेदी को सामने लाया गया जो कभी मोदी के विरुद्ध टिप्पणी कर चुकी थीं, तमाम विवादों की जड़ में थीं, अन्ना आंदोलन की उपज होने के   बावजूद जिनकी राजनीतिक समझ को हमेशा शक की नजरों से देखा गया। साथ ही, वह तानाशाह प्रवृत्ति की नजर आर्इं जिनके विरुद्ध पार्टी कैडर यह सोचते ही अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा हो गया कि सत्ता मिल गई तो वह उसे भी नहीं बख्शेंगी। इससे पहले कार्यकर्ताओं में आक्रोश पैदा हो ही चुका था। यहां तक कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय भी मन से नहीं जुट पाए। उनके समर्थकोें ने तो कई दिन तक हंगामा भी किया। दरअसल, बीजेपी चीफ अमित शाह की यह प्लानिंग थी जिसमें उम्मीदवार के कद के नेताओं के पर कतर दिए जाते हैं। उपाध्याय के भाई को बिजली मीटर सप्लाई घोटाले में लिप्त बताकर चुप करा दिया गया।
वरिष्ठ नेता विजय गोयल और डॉ. हर्षवर्धन के समर्थक भी असंतुष्ट हो गए। उधर, बेदी के साथ ही शाजिया इल्मी, कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी का प्रवेश भी आम कार्यकर्ता हजम नहीं कर पाया। इसी वजह से पार्टी ने बाद में मंत्रियों और सांसदों की भारी-भरकम फौज को प्रचार के लिए उतार दिया। ऐसी भी हालात आए जब सभा प्रबंधन के लिए कार्यकर्ता मौजूद नहीं थे और अचानक मंत्री सभा करने पहुंच गए। पूरे घटनाक्रम से ऐसी स्थिति पैदा हुई कि भाजपा को लेकर नकारात्मकता बढ़ने लगी। हालांकि कांग्रेस की निष्क्रियता भी इस हार की एक प्रमुख वजह है। जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने लापरवाह रवैया अख्तियार किया, उससे यह साफ लगने लगा था कि पार्टी ने मैदान केजरीवाल के लिए खाली छोड़ दिया है। उसके वोट बैंक पर आम आदमी पार्टी का कब्जा हुआ और ये भी बीजेपी के हार का कारण बन गया। केंद्र के फैसलों का फायदा जमीन पर नहीं दिखने से भी भाजपा को क्षति हुई है। दूसरी तरफ, केजरीवाल नकारात्मक प्रचार से बचे रहे और भ्रष्टाचार पर लगाम को मुख्य मुद्दा बनाया। आम आदमी पार्टी ने सभी वर्गों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की और कामयाब भी रही। फर्जी कम्पनियों से फंडिंग के आरोपों का बेहतर जवाब देना भी आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कई चीजें पहली बार हुर्इं। सभी दलों ने जमकर प्रयोग किए और एक से बढ़कर एक अस्त्र चलाए। लेकिन बीजेपी ने जो किया, उससे उसे अच्छे ढंग से जानने वाले भी हतप्रभ रह गए, कार्यकर्ताओं की ताकत से पहचानी जाने वाली इस पार्टी को इसी करतब का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है।

जनतंत्र में जन का दम

आखिरकार, दिल्ली ने दिलदारी दिखा दी। जिन अरविंद केजरीवाल को पहले बहुमत न होने पर  निराशा का सामना करना पड़ा था। कुछ न कर पाने के असमंजस में भगोड़ा जैसे अपमानजनक शब्दों से रूबरू होना पड़ा था, उन केजरीवाल को इस बार दिल्लीवालों ने सिर पर बैठा लिया। जीत का ऐसा तूफान मचा दिया कि नरेंद्र मोदी की लहर गुम-सी हो गई। सवाल यह है कि इतनी जबर्दस्त जीत हुई कैसे, अटकलबाजियां कैसे हवा हो गर्इं? पढ़े-लिखे लोगों की दिल्ली में मीडिया की बनाई मोदी वेब भी नहीं चली और जनतंत्र में जन का दम एक बार फिर सिद्ध हो गया।
केजरीवाल की प्रचंड जीत की वजह क्या हैं?  प्रथम दृष्टया भारतीय जनता पार्टी की नादानियों की इसमें भूमिका है। अपने नेता-कार्यकर्ताओं को किनारे कर किरण बेदी को सीएम प्रोजेक्ट करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही। इससे कार्यकर्ता घर बैठ गए और नेताओं ने सियासत के इस खेल में अपनी ही पार्टी को मात देने की जुगत भिड़ाना शुरू कर दी। जगदीश मुखी जैसे नेताओं की हार सिद्ध करती है कि जनता भाजपा से अति की रुष्ट थी जिसकी वजह लोकसभा चुनावों में किए गए वादों का पूरा न होना भी है। तीन संभावनाएं और भी हैं, पहली ये कि राष्ट्रीय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता और व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद उसकी पार्टी की रणनीति गड़बड़ा गई। उसने दिल्ली चुनाव घोषित कराने में गैरजरूरी देरी की और रहस्यमयी तरीके से डॉक्टर हर्षवर्धन की उम्मीदवारी को दरकिनार कर दिया। उनसे पार्टी को फायदा हो सकता था। मदनलाल खुराना और सुषमा स्वराज के बाद हर्षवर्धन ही दिल्ली में भाजपा का चेहरा माने जाते हैं।  एक तथ्य यह भी है कि विधानसभा चुनावों की घोषणा से कहीं पहले ही केजरीवाल ने अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। विवादास्पद किरण बेदी को स्थानीय नेतृत्व के सिर पर थोपे जाने के फैसले ने मोदी कार्ड को बेअसर कर दिया तो उसमें भी हर्षवर्धन को किनारे किए जाने की भूमिका है। यहां तक कि भाजपा ने 'आप' के असंतुष्टों को अपनी ओर खींचकर सरकार बनाने की कोशिशों के पीछे अपना कीमती समय बर्बाद किया। पार्टी यह सिद्ध करने में नाकाम रही कि दिल्ली में सत्ता मिलती है तो केंद्र में भी सरकार होने से लाभ का प्रतिशत कई गुना हो सकता है, वह यह समझा पाती तो मतदाताओं को राष्ट्रीय राजधानी के आर्थिक हितों का भी ध्यान आता। दूसरी संभावना इस गलती से उपजती है कि लोकसभा चुनाव में अपने ही गढ़ में एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही आम आदमी पार्टी को चुका हुआ मान लिया गया। केजरीवाल को मफलर के प्रयोग पर आड़े हाथों लिया गया, यह मतदाताओं को नागवार गुजरा। आश्चर्य हुआ कि कैसे एक नेता की सरल वेशभूषा पर हो-हल्ला हो रहा है। आम आदमी पार्टी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के दौरान मोदी के दस लाख रुपये कीमत के सूट पहनने से इस मुद्दे को काउंटर किया। लोगों ने उसकी बात को ध्यान से सुना। भाजपा ने पूरे अभियान के दौरान केजरीवाल को भगोड़ा कहकर कम आंकने की कोशिश की लेकिन इस मुद्दे को भी केजरीवाल ने माफी मांग कर हल्का कर दिया। उन्होंने पलायन की वजह समझार्इं और इस गलती का इस्तेमाल भी पार्टी के फायदे के लिए कर लिया।
केजरीवाल ने कहा, हमने कोई भी फैसला करने से पहले दिल्ली के लोगों से सलाह ली थी लेकिन हमारी गलती ये थी कि इस्तीफा देने से पहले हमें आपसे पूछना चाहिए था। 'पांच साल केजरीवाल' के नारे को लेकर चला केजरीवाल की पार्टी का चुनाव अभियान इसलिये भी कामयाबी के मुकाम तक पहुंचा क्योंकि मतदाताओं को वह समझाने में सफल रही कि अल्पकाल की सरकार से अरविंद की योग्यताओं का आकलन दरअसल, उनका अपमान है। आम आदमी पार्टी की जीत का तीसरा प्रमुख कारण कांग्रेस पार्टी का बेमन से किया गया चुनाव प्रचार भी है। पार्टी के उपाध्यक्ष और स्टार प्रचारक राहुल गांधी का आखिरी क्षणों में चुनाव प्रचार के लिए उतरना वोटरों को ये समझाने में नाकाम रहा कि पार्टी रेस में बनी हुई है। शीला दीक्षित सरकार की नाकामियों पर उन्होंने अप्रत्याशित रूप से न माफी मांगी, और न ही सरकार बन जाने की सूरत में अपनी पार्टी की प्राथमिकताएं बताने की जहमत उठाई। स्पष्ट-सा संकेत गया कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस वॉकओवर के मूड में है। इससे उसका पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ सरक गया। कांग्रेस का पतन और मोदी लहर में ठहराव से कहीं ज्यादा, दिल्ली चुनावों की अहमियत आम आदमी पार्टी के दोबारा उभार से है। प्रश्न यह भी है कि मामूली संसाधन, आंतरिक विभाजन और मीडिया के बड़े तबके की बेरुखी के बावजूद पार्टी आखिर ये कैसे कर पाई? 'आप' हकीकत समझ गई थी। मीडिया ने एकतरफा खबरें और सर्वेक्षण देना शुरू किया तो उसने काउंटर करना शुरू कर दिया। लोगों को समझाया कि मीडिया बिका हुआ है और वह वही दिखाएगा जो मोदी चाहेंगे। टीवी चैनलों पर एक-तरह की ही खबरों ने लोगों को मजबूर किया कि वह आम आदमी पार्टी की बात पर भरोसा करें। बहरहाल, इन चुनाव नतीजों ने इस बुनियादी विचार को मजबूत किया कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता उस पार्टी को ही अहमियत देती है जो उसकी बात करे। उसे तत्काल  नतीजे चाहिये, वादों को कसौटी पर तौलने में वह किसी तरह की देरी नहीं करती। केजरीवाल को भी यह समझना होगा कि वादों में देरी से जनता उनसे भी रुष्ट हो सकती है, और इस स्थिति में स्वभाव की वजह से वह खुद भी परेशान हो सकते हैं। पानी-बिजली के मोर्चे पर उन्हें चुनौतियों का सामना करना है, वहीं दिल्ली के कामकाजी लोगों को आकर्षित करने के लिए घर, शिक्षा, वाई-फाई और यहां तक कि नौकरियों का वादा पूरा करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा के लिए यह चुनाव सबक हैं कि वह पुराने कार्यकर्ताओं को किनारे बैठाकर कोई जंग नहीं जीत सकती। दलबदलुओं के दम पर लड़ने में मिली हार का यह सबक उसे जितने ज्यादा दिन याद रहे, उतना ही अच्छा।

Sunday, February 8, 2015

चरमपंथ से जूझता अमेरिका

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने देश के मुस्लिम चरमपंथियों से चर्चा की है। यह अप्रत्याशित है और साथ ही, बयार के विरुद्ध भी। चरमपंथ की बार-बार मुखालफत करने वाले इस देश के राष्ट्रपति यदि ऐसे लोगों से चर्चा करने लगें जिनकी वजह से उनके देश में ज्यादातर विवादों का जन्म होता है तो अचरज स्वाभाविक ही है। असल में, अमेरिका उस चरमपंथ से विचलित है जो संगठित है और नियमों के दायरे में ही विस्तार पा रहा है। स्थितियां दिन-प्रतिदिन सुपर पावर के नियंत्रण से निकल रही हैं।
अमेरिका में सर्वाधिक चर्चित सेंटर फॉर स्टडी के अधिकांश मुस्लिम सदस्य अतिवादी हैं। सेंटर के अभिन्न अंग कामरान बुखारी बरसों तक पश्चिम के कट्टर इस्लामवादी संगठन अल मुहाजिरोन में उत्तरी अमेरिका का प्रवक्ता रहा है। अमेरिका की नजर में यह सर्वाधिक सक्रिय चरमपंथी है, वह खुलकर बोलता है पर कभी वहां के कानून का उल्लंघन नहीं करता। इस संगठन ने 11 सितम्बर की पहली वर्षगांठ को इतिहास का शीर्ष दिवस बताकर उल्लास मनाया था और दूसरी वर्षगांठ को शानदार 19 की संज्ञा दी थी। इसकी वेबसाइट पर भी अमेरिका की कैपिटोल इमारत को ध्वस्त होते चित्रित किया गया है। अल मुहाजिरोन का इंग्लैण्ड प्रमुख उमर बिन बकरी ने कश्मीर, अफगानिस्तान और चेचन्या जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में लड़ने के लिए जिहादियों की भर्ती करना भी स्वीकार कर चुका है। अल मुहाजिरोन का एक सदस्य आत्मघाती हमले के लिए इजरायल गया था। अल मुहाजिरोन का ही एक कार्यकर्ता हानी हंजोर 11 सितम्बर की घटना में अप्रत्यक्ष रूप से लिप्त था। अमेरिकी शान्ति संस्थान का इस सेंटर से गठजोड़ है। इस प्रतिष्ठित संस्थान से जुड़े होने की वजह से अमेरिकी सरकार खुलकर कुछ कर भी नहीं पाती। नकारात्मक पक्ष यह भी है कि इस गठजोड़ से पूर्व किसी ने आवश्यक छानबीन नहीं की और संगठन अपने से पूर्व की सूचनाओं पर निर्भर रहा। इस प्रकार कभी बंद कमरे में रहा अप्रतिष्ठित संगठन सेंटर फॉर स्टडी मुख्यधारा में अपना स्थान बनाने में सफल रहा। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान भी इसके प्रति आंख मूंदकर चलता रहा। अमेरिकी सेना ने जब इस संगठन की जिहाद से जुड़ी आपराधिक गतिविधियों का खुलाला किया, तक उसकी आंख खुल पाई। तब सात इस्लामवादियों को गिरफ्तार किया गया। कट्टरपंथ की काली कहानियां यहीं खत्म नहीं हो रहीं, न्यूयॉर्क जेल में कुछ धार्मिक शाखाओं का गठन किया गया। इस शाखा से वो लोग जुड़े जो आतंकवादी घटनाओं में लिप्तता की पुष्टि के बाद गिरफ्तार हुए थे। यहां यह घोषणा तक हुई कि 11 सितम्बर की घटना बुरे लोगों के लिए ईश्वर का दण्ड थी। बोस्टन के मेयर ने वहां की इस्लामिक सोसायटी को बाजार से 10 प्रतिशत कम कीमत में भूमि उपलब्ध करायी। बाद में पता चला कि सोसायटी का सम्बंध उस जिहादी संगठन से है जिसका अमेरिका में प्रवेश प्रतिबंधित है। उसका कार्यकर्ता संघीय जेल में है और एक इजरायल पर आत्मघाती आक्रमणों की प्रशंसा का आरोपी है।
काउंसिल आॅन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस भी कम विवादित नहीं। उसने बेखौफ होकर एक सर्वेक्षण के निष्कर्ष सार्वजनिक किए हैं, जिसमें कहा गया है कि 67:33 के अनुपात से अमेरिकी मुसलमान सोचते हैं कि अमेरिका अनैतिक है। हालांकि बात में यह उजागर हो गया कि प्रायोजकों ने वास्तविक परिणामों को छिपाने के लिए शोध को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। परंतु इस बौद्धिक छल और राजनीतिक धोखे के लिए सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। संगठन ने इतने संगठित रूप से घृणा का प्रचार किया ताकि धार्मिकस्थलों में आने वाले लोगों तक में अमेरिका की छवि प्रभावित हो जाए। इसके अतिरिक्त बड़ी मात्रा में ऐसे साक्ष्य सामने आए हैं जो संकेत देते हैं कि अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों के विचार अमेरिका की सामान्य जनसंख्या से भिन्न हैं। इसका उदाहरण इस सर्वेक्षण के जरिए संगठन ने खुद दिया है। दुनिया में मुस्लिम आबादी के भविष्य के बारे में अपनी तरह का पहला आकलन करने वाले एनजीओ प्यू रिसर्च सेंटर और जॉन टेंपलटन फाउंडेशन के प्रोजेक्ट डायरेक्टर माइकल ड्यू ने ये कहकर चर्चाओं का नया क्रम शुरू किया है कि अमेरिका में बढ़ता कट्टरपंथ और संघ सरकार की सक्रियता का आपसी सम्बंध है जिसके तहत राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश के चरमपंथियों से बातचीत की। ड्यू के नेतृत्व में जन्म-मृत्यु और विस्थापन दरों के आधार हुई स्टडी 'द फ्यूचर आॅफ ग्लोबल मुस्लिम पॉपुलेशन' यानी वैश्विक मुसलमान आबादी का भविष्य में कहा गया है कि वर्ष 2030 तक अमेरिका में मुसलमानों की जनसंख्या दोगुनी से अधिक होगी, 2010 में अमेरिका में 26 लाख मुसलमान थे जो 2030 में बढ़कर 62 लाख हो जाएंगे। अमेरिका को यह चिंता भी परेशान कर रही है। बहरहाल, ओबामा ने वार्ता का जो दौर शुरू किया है, उसकी सराहना की जानी चाहिये लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया में आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिकी लड़ाई का कोई नकारात्मक संकेत न जाए। अमेरिका ने जिस तरह से उग्रवाद के वित्तीय स्रोतों की घेराबंदी की है, उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्यात संगठनों की रीढ़ टूटी है। ओबामा के वार्तालाप से यह संकेत जा सकता है कि वह चरमपंथ के सामने झुक रहे हैं। ऐसी स्थितियां अमेरिका की लड़ाई को कमजोर कर सकती हैं।

चीन के अंदर की सच्चाइयां...

क्या यह सच है कि दुनिया के ताकतवर देशों में शुमार चीन की अर्थव्यवस्था पानी के महज एक बुलबुले की तरह है जो कभी भी फुस्स हो सकता है? चीन के भीतर आंतरिक असंतोष इतना है कि वह भीतर की खबरें बाहर नहीं आने देता? डराकर रखने और असंतोष दमन के पीछे उसका मकसद  कहीं यह तो नहीं कि बाकी दुनिया के सामने उसकी असली तस्वीर न आ पाए? मीडिया और इंटरनेट सेंसरशिप के पीछे राज तो हैं ही। चीन के बारे में जो भी नकारात्मक खबरें सार्वजनिक हुई हैं, उनका निष्कर्ष है कि चीन में सब-कुछ ठीक नहीं।
वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी याद कीजिए। तब अमेरिका समेत कई देशों में अर्थव्यवस्थाएं चरमरा गई थीं हालांकि भारत अछूता था और हम ने सिद्ध किया था कि हमारी अर्थव्यवस्था तमाम ऐसे जटिल पेंचों में फंसी है कि आसानी से ढेर नहीं हो सकती। हम कुछ ही चीजों पर ही निर्भर अर्थव्यवस्था वाले देश नहीं हैं। कृषि हमारी रीढ़ है और मजबूत सहारा भी है। मंदी के उन दिनों में चीन पर प्रत्यक्ष असर तो कम हुआ था लेकिन वह अमेरिकी बांड्स में गिरावट की खबरों से सकते में आ गया था। लगा था कि बांड्स में उसका बड़ा निवेश औंधे मुंह गिरेगा तो अर्थव्यवस्था को ढेर होने से कोई नहीं बचा पाएगा। समझ-बूझ काम आई और उसने इस संकट से किसी तरह निपटने के बाद वैश्विक स्तर पर निवेश के लिए सर्वाधिक प्रिय अमेरिकी बांड्स के विकल्प तलाश लिये। मंदी टली तो वर्ष 2014 में इसके लौटने की आशंकाएं गहराने लगीं। तमाम भविष्यवाणियां हुर्इं कि 2014 पहले भी भीषण मंदी का वर्ष होगा। इस वर्ष में कोई नकारात्मक संकेत खुलकर सामने नहीं आए परंतु चीन को मुश्किलें हुई हैं। वहां की प्रांतीय सरकारों का ऋण बढ़कर 8000 अरब युआन (लगभग 1,200 अरब डॉलर) हो जाने से यूरोप जैसी मंदी के प्रति आगाह किया जा रहा है। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद का 20 फीसदी है। कहा गया है कि चीन को यूरोपीय तर्ज पर वित्तीय संकट रोकने के लिए स्थानीय सरकारों के ऊपर बढ़ते ऋण को लेकर सतर्क होना चाहिए। चीन का संयुक्त सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 50 फीसदी हो सकता है। इन ऋणों में ट्रेजरी बांड, पालिसी ऋण और स्थानीय सरकार के छिपे ऋण शामिल हैं। यह अनुमान चीन बैंकिंग विनियामक आयोग के आंकड़ों से अधिक है जिनमें कहा गया था कि स्थानीय सरकारों के ऊपर 7660 अरब यूआन (लगभग 1014 अरब डॉलर) का कर्ज हो सकता है। चीन के लिए यह स्थितियां अप्रत्याशित नहीं हैं, इसलिये उसके स्तर से कोई उपाय नहीं किए गए हैं। यहां इस संभावना को बल मिलता है कि चीन अपनी आर्थिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं से न केवल परिचित था अपितु उसने मान लिया था कि इनका फिलहाल इलाज संभव नहीं है। हालांकि ऊपरी तौर पर माना जाता था कि चीन किसी भी संकट को काबू करने के लिए तत्परता से कदम उठाता है।
खाद्यान्न संकट भी उसे चैन नहीं लेने दे रहा। चीन की जनसंख्या सार संसार की जनसंख्या का 20 प्रतिशत है। दरअसल, सार संसार में खेती योग्य जितनी भूमि है, उसका केवल सात प्रतिशत ही चीन में है। इसके बावजूद चीन ने चावल, गेहूं और मक्का की भरपूर पैदावार की और अपने देश की जनता को अनाज की कमी नहीं होने दी। पर स्थितियां इस बार बिगड़ी हैं और विकराल हुई हैं क्योंकि चीनी आबादी दुनिया में सर्वाधिक है। समस्या इस कारण भी है कि मौसम की मार के कारण चावल उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वहां पर पानी की भारी कमी है और भारत की तरह भारत की तरह कृषि अलाभकारी है। इसी वजह से प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में लोग गांव छोड़कर शहरों में पलायन कर रहे हैं। पलायन की यह दर भारत से करीब तीन गुनी है। यह स्थिति तब है जबकि ग्रामीण जनता को गांव में रहकर खेतीबाड़ी के लिए सरकार प्रोत्साहित कर रही है और उन्हें आर्थिक सहायता भी दी जा रही है। परेशानहाल सरकार का प्रयास है कि खाद्यान्न की कमी को देखते हुए कम से कम तीन करोड़ एकड़ जमीन को खेती योग्य बनाकर उनमें प्रतिवर्ष कम से कम तीन फसलें उगाई जाएं अन्यथा चीन की विशालकाय जनता का पेट भरना असंभव होगा। फिलहाल निर्यात प्रतिबंध और विदेशों से अनाज मंगाकर के खाद्यान्न संकट के समाधान का प्रयास किया गया है परन्तु कृषि की हालत जिस प्रकार दिनों-दिन बिगड़ रही है, उसमें यह उपाय ऊंट के मुंह में जीरे की मानिंद सिद्ध होना तय है। संकटों की ही बात करें तो वहां खाद्य तेल का भी संकट है। चीन पहले बेशुमार तेल आयात करता था पर यह उपाय भी नाकाफी हुआ है। हालांकि सबसे ज्यादा समस्या आर्थिक तंत्र को लेकर है। उद्योगों में उत्पादन कम हुआ है और पिछले एक वर्ष में वहां श्रमिक हड़ताल की चेतावनियों में इजाफा हुआ है हालांकि डरा-धमका या समझाकर चीन ने तात्कालिक समाधान तो कर लिया पर इस बात की क्या गारंटी कि यह श्रमिक अब पूरी तन्मयता से काम करने लगे होंगे। अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ चीन को ताश के पत्तों का महल कहते हैं। उनकी नजर में, शेयर बाजार की जर्जर स्थिति, अनियंत्रित वायु -जल प्रदूषण, प्रांतीय सरकारों पर केंद्रीय नियंत्रण में कमी, राष्ट्रीय आय में कमी, भूमि और आवास योजनाओं का पुरसाहाल, बैंकों का बढ़ता घाटा, कर्मचारी हित की पेंशन योजनाओं की अनदेखी,  बढ़ता भ्रष्टाचार और महंगी चिकित्सा सेवाएं उसके लिए कोढ़ में खाज की तरह हैं। चीन हालात समझ रहा है, उसने कृषि बजट में 30 प्रतिशत की वृद्धि की है। अन्य उपाय भी किए जा रहे हैं लेकिन यह उपाय तब तक कारगर सिद्ध हो सकते हैं जब तक स्थितियां नियंत्रण में रहें।