Saturday, July 26, 2014

पांच पैसे के फेर में फंसा एक तंत्र

दिल्ली हाईकोर्ट महज पांच पैसे की एक लड़ाई में 41 साल से फैसला नहीं दे पा रहा जिसमें एक कंडक्टर ने गलती से एक महिला को 15 पैसे की बजाय 10 पैसे का टिकट दे दिया था। चेकिंग दस्ते ने गलती पकड़ ली और कंडक्टर नौकरी से बर्खास्त हो गया। अदालत चाहे तो भी कंडक्टर को नौकरी पर नहीं रखवा सकती क्योंकि वह रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुका है। लेकिन मुकदमा चालू आहे... पिछले कुछ दिनों में न्याय तंत्र से जुड़ी यह दूसरी खबर है जो निराशा पैदा करती है। कुछ दिन बीते होंगे, जब सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज और प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने यह कहकर न्यायिक व्यवस्था को फिर कठघरे में खड़ा कर दिया था कि तमिलनाडु के एक भ्रष्ट जज को मद्रास हाईकोर्ट का न्यायाधीश बना दिया गया और तमाम शिकायतों के बावजूद द्रमुक के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोई कदम नहीं उठाया। दबाव बनाने में उनका इशारा द्रमुक चीफ एम. करुणानिधि पर था, जिन्हें इस जज ने अतिशीघ्र जमानत दे दी थी। न्याय पालिका पर पहली बार उंगली नहीं उठीं। भ्रष्टाचार ही नहीं, अनैतिक आचरण की शिकायतें भी आम हुई हैं। मुकदमों के बोझ से मामलों के निपटारे में अनावश्यक देरी, अधिवक्ताओं की महंगी फीस और भ्रष्टाचार ने न्याय व्यवस्था को ध्वस्तीकरण के कगार पर पहुंचा दिया है। परिणामस्वरूप चारों तरफ अव्यवस्था, अपराधों की बेखौफ एवं उन्मुक्त प्रवृत्ति के साथ ही भ्रष्टाचार ने बीमारी को लाइलाज बना दिया है। आम नागरिक के दिलोदिमाग में अदालतों के प्रति विश्वास डगमगा गया है। दिल्ली हाईकोर्ट जैसे इस मामले से यह आम धारणा बन गई है कि देश की अदालतों में न्याय दुरूह हो रहा है। वादों के निस्तारण की गति इतनी धीमी है कि एक पीढ़ी के दर्ज किए मामलों पर निर्णय तीसरी-चौथी पीढ़ी तक जाकर हो पाते हैं। सियासी हस्तक्षेप बढ़ा है। भाई भतीजावाद व परिवारवाद मुश्किलें खड़ी कर रहा है। अदालती अवमानना का डर गड़बड़ियों का रक्षा कवच बन रहा है। समय-समय पर अधिवक्ता संगठनों जैसे मंचों से आवाज उठी भी, लेकिन वह बुलंद नहीं बन पाई। दरअसल, जिस तेजी से न्याय मिलना चाहिए वह लोगों को नहीं मिल पाता और बस यहीं से भ्रष्टाचार की शुरूआत हो जाती है। देश में आबादी के अनुसार कोर्ट होनी चाहिए इस बात से सरकार सहमत तो है पर जब बात संख्या बढ़ाने की होती है तो संसाधनों की कमी का रोना रोया जाता है। देश में बहुत सारे अपराध केवल इसलिए ही हो जाते हैं कि पीड़ित पक्ष को समय से न्याय नहीं मिल पाता और वे हताशा में गलत मार्ग पर चले जाते हैं। भारतीय लोकतंत्र और संविधान में निहित उपबंधों के अनुसार न्यायपालिका की भूमिका, हैसियत, महत्व और जिम्मेदारी इतनी ज्यादा है कि इसे तीसरा खंबा कहा जाता है। प्रारंभ में न्यायपालिका की जिम्मेदारी समाज में न्यायिक व्यवस्था की स्थापना और वादों-विवादों का निपटारा करना ही था। कालांतर में विधायिका और कार्यपालिका दिग्भ्रमित, भ्रष्ट और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करने लगी तो न्यायपालिका की भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई। वो न सिर्फ देश की पथ निर्देशक बल्कि एक तरह से संचालक की भूमिका में आ गई । इसका परिणाम ये हुआ कि कि देश की छोटी से बड़ी समस्या, नीति, नियमों, कानूनों, व्यवस्थाओं, अपराध, सामाजिक रीति रिवाजों, मान्यताओं के औचित्य और वैधानिकता आदि तमाम विषयों को दुरुस्त करने और सही दिशा देने की सारी जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर आ पड़ी। यहीं से वो स्थिति बनी जब न्यायपालिका पर अति सक्रियता का आरोप लगने लगा एवं कई बार खुद न्यायिक क्षेत्र से ये कहा गया कि न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्रों व अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। बलशाली होने के बाद उसे भ्रष्टाचार के कीड़े ने भी ग्रास बनाना शुरू कर दिया। निचले से लेकर उच्च स्तर तक भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की बढ़ती घटनाओं के अलावा अन्य और भी महत्वपूर्ण बातें हैं जो न्यायपालिका की साख को कम कर रही हैं और लोगों के न्यायपालिका के प्रति विश्वास में कमी का कारण बन रही हैं। इनमें सबसे बडा कारण है न्यायपालिका की निष्पक्षता पर आंच। निचले से लेकर शीर्ष स्तर तक अदालतों में पदस्थापित न्यायिक अफसरों के परिजनों, नाते-रिश्तेदारों द्वारा उन्हीं अदालतों में प्रैक्टिस करना व परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से इसके लाभ मिलने का एक बड़ा आरोप न्यायपालिका पर लगता रहा है। राजनीतिज्ञों, व्यावसायियों, आर्थिक रूप से सबल लोगों की तुलना में मध्यम एवं गरीब लोगों के साथ अलग-अलग न्यायिक व्यवहार एवं निर्णय तक देने का सीधा आरोप भी न्यायपालिका के लिए बड़ा प्रश्नचिह्न है। इसके अलावा एक आरोप ये भी है कि न्यायपालिका के फैसलों की आलोचना अक्सर मानहानि के दायरे में आने या ला दिए जाने के कारण नहीं हो पाती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि न्यायपालिका अपनी आलोचना के प्रति बिल्कुल असहिष्णु सा व्यवहार करती है। किसी भी क्षेत्र की तरह न्यायपालिका पर भी यदि तमाम कुप्रवृत्तियों का असर पड़ा रहा है तो यह अनापेक्षित नहीं है। किंतु जिस देश में अदालत को ईश्वर के बाद दूसरा दर्जा हासिल हो, वहां इस तरह की गुंजाइश नहीं हुआ करती। कभी-कभी यह अक्षम्य हो जाता है कि कोई न्यायाधीश अपने इंटर्न से छेड़छाड़ का आरोपी पाया जाए। दिनकरन जैसे जजों पर महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने के लिए देश को मजबूर होना पड़े। असल में, सारी स्थितियों में सरकार का काम बढ़ रहा है। उस पर यह दायित्व आया है कि वो न्याय की त्वरित व्यवस्था करे। आज देश की हर तहसील में प्राथमिक न्यायलय तो स्थापित किए ही जा सकते हैं। इनकी स्थापना में जो खर्च सरकार का होगा, वह कुल मुकदमों पर बोझ कम कर बहुत सारे मानव दिवसों की बचत करा देगा। देश के मानव संसाधनों को ठीक ढंग से उपयोग करना ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि जब तक हम अपने संसाधनों को सही दिशा में नहीं लगाएंगे, तब तक हमारा कोई भी लक्ष्य हमें नहीं मिल पाएगा।

कब आएंगे अच्छे दिन...

उत्तराखंड विधानसभा के उपचुनावों को यदि पैमाना माना जाए जहां तीनों सीटें कांग्रेस ने जीती हैं तो सवाल उठ रहा है कि क्या नरेंद्र मोदी के प्रति जनता की दीवानगी में कमी आई है? मोदी सरकार का दावा है कि ठोस कार्यों की नींव रखी जा रही है, जिनके नतीजे कुछ साल बाद नजर आएंगे लेकिन जनता क्या यह आसानी से मान लेने के लिए तैयार बैठी है? यूपीए सरकार में हर कदम पर समस्या से जूझ रहे अवाम में मोदी को प्रचंड बहुमत राहत पाने के लिए दिया है, और शायद व्यग्रता की जगह निराशा ले रही है, निराशा ही उम्मीदों के ज्वार को ठंडा कर रही है। प्रतिदिन वाचाल होती महंगाई की आग उत्साह पर भारी है। जनअपेक्षाओं की आंधी पर चढ़कर आने वाली सरकारों के समक्ष चुनौतियां भी बड़ी होती हैं क्योंकि जनता सत्ता परिवर्तन के साथ ही चौतरफा बदलाव देखने को उत्सुक होती है। इतिहास गवाह है कि जनता जिसे सिर-आंखों पर बैठाती है, उसे भरोसा टूटने पर अपने मन से निकाल भी देती है। मोदी सरीखी चुनावी कामयाबी 1971 में इंदिरा गांधी को मिली थी। जिस प्रकार अच्छे दिनों की आस लेकर आम जनता मोदी के साथ खड़ी थी, ठीक ऐसे ही गरीबी हटाओ के लोकलुभावन नारे पर यकीन कर जनता ने इंदिरा को को दो तिहाई बहुमत दिया था। इंदिरा की लोकप्रियता का ग्राफ भी मोदी की तरह चरम पर था किंतु 1972-73 में सूखे के कारण देश में अकाल पड़ गया। खाड़ी में अशांति से विश्व बाजार में तेल की कीमत चार गुना बढ़ गई। परिणामस्वरूप, खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में 27 प्रतिशत की ऐतिहासिक वृद्धि हुई। इंदिरा को भी मोदी की मानिंद सत्ता में पहुंचाने में पहली बार मतदान करने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों की भूमिका रही किंतु महंगाई ने बाद में उन्हें बेहद अलोकप्रिय बना दिया। मोदी इससे सबक ले सकते हैं। राजनीतिक समझ-बूझ के लिए प्रसिद्ध मौजूदा सत्ता नायक जानते भी होंगे कि स्थितियों में बदलाव के लिए जनता की व्यग्रता ने उन्हें कुर्सी तक पहुंचाया है। अब अगर, उनकी सरकार को कसौटी पर कसा जाए तो स्थितियां बहुत अच्छी नजर नहीं आतीं। महंगाई के मोर्चे पर सरकार ने सख्ती के आदेश दिए, लेकिन हुआ कुछ नहीं, और बात प्रपंच सरीखी लगकर समाप्त हो गई। अच्छे दिनों का मतलब था क्या, लोगों ने माना था कि मोदी के पीएम बनने के बाद पांच बातें हो जाएं तो अच्छे दिनों का आगाज मान लिया जाएगा। सबसे पहले महंगाई कम होनी चाहिये थी। महंगाई मतलब, सब्जी, अनाज और दूसरी रोज की खाने-पीने चीजें उन्हें सस्ती मिलें। उद्यमियों को भरोसा लौटना था कि वो आसानी से उद्योग लगा चला सकें। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर अच्छा चलने लगे यानि कारें, एसी, फ्रिज खूब बिकें। लोगों को सस्ता कर्ज मिलने लगे ताकि घर-गाड़ी के सपने पूरे होने लगें। सड़क, बिजली और पानी की सहूलियत आसानी से मिल सके। सर्वाधिक जरूरी था कि देश में रोजगार के ढेरों मौके सृजित हों जिससे लोगों की कमाई का जरिया बने, कमाई बढ़ भी सके और इस तरह से खर्च और बचत हो सके कि देश की तरक्की की रफ्तार मतलब जीडीपी के आंकड़े दुरुस्त हो सके। पर हुआ क्या, टमाटर सौ रुपये किलो के भाव तक पहुंच गया। कोई सब्जी ऐसी नहीं जो सस्ती हो। आटा, दाल, चावल, दूध और दूसरी सारी जरूरी चीजें तेजी से महंगी हुई हैं। अभी तक मौसम का जो हाल रहा है, उससे साफ लग रहा है कि इस साल मॉनसून सामान्य से कम हो सकता है जिसका सीधा-सा मतलब खेती पर बुरा असर। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर भी निराश है, कारों की बिक्री का आंकड़ा बढ़ नहीं पाया है। देश में महंगे कर्ज की वजह से औद्योगिक घरानों को अपनी विस्तार योजनाएं थामनी पड़ी हैं जिससे घरेलू निवेश बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सरकार ने हर किसी को घर देने के लिए बजट में रियल स्टेट सेक्टर को बढ़ावा देने के कदम उठाए लेकिन घर खरीदने के लिए कर्ज पर ब्याज की दर अब भी बहुत ज्यादा है। इसकी वजह से रियल एस्टेट सेक्टर में जबर्दस्त ठहराव है। रियल एस्टेट सेक्टर को उम्मीद थी कि मोदी के आने से तेजी आएगी पर सरकार ने निराश ही किया। जिस तरह के आर्थिक कदम सरकार ने उठाए हैं, उससे देश की जीडीपी में खास बेहतरी नहीं होने वाली। यह चिंता की बात है क्योंकि जीडीपी ग्रोथ यानि तरक्की की रफ्तार दशक में सबसे कम साढ़े पांच प्रतिशत की है और इस वित्तीय वर्ष में कोई सकारात्मक संकेत भी नहीं मिल रहा। हालांकि इसमें समस्या भी थी, मोदी की सरकार ने जब काम शुरू किया तब तक वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही बीत चुकी थी और दूसरी तिमाही का आधार बन चुका था, ऐसे में इस तरक्की की रफ्तार को चमत्कारिक तरीके से बढ़ाना किसी भी सरकार के लिए चुनौती ही था। मुश्किलें और भी हैं। शेयर बाजार में घरेलू निवेशकों को रुचि कितनी तेजी से खत्म हुई है। अंदाज लगाइए, साल की पहली तिमाही में घरेलू निवेशकों यानि एनएसडीएल के जरिए ट्रेडिंग एकाउंट खुलवाने वालों की संख्या में आधा प्रतिशत की कमी आ गई। मोदी सरकार बनने के बाद हालात सुधरने की संभावनाएं जताई जा रही थीं पर यह उम्मीद के मुताबिक खरी सिद्ध नहीं हुर्इं। बहरहाल, मोदी सरकार के लिए आगे के दिन काफी कठिन हैं। इराक संकट की वजह से भारत का तेल आयात बिल बढ़ा है। रसोई गैस की कीमत में वृद्धि के लिए भी पेट्रोलियम मंत्रालय का दबाव है। बिजली दरों में भी प्रति यूनिट 45 प्रतिशत की वृद्धि के आसार बन रहे हैं, कमजोर मॉनसून तो सबसे बड़ी चुनौती है ही। देखना है कि बड़े वायदे करके सत्ता तक पहुंची यह सरकार क्या कदम उठाती है।

Monday, July 21, 2014

बदलाव की एक बयार

समस्याओं की तपिश और सरकारों की मनमानी के खिलाफ यह एक ठण्डी हवा का झोंका ही है। यहां सरकार और भारी-भरकम निजी कंपनियों के सामने आम आदमी है, जैसे तोप के मुकाबिल एक छोटी की सींक। शुरुआत में यह आम जन भी थर्राया-घबराया, लेकिन काम आया हौसला। आज वो धरती का सीना चीरकर खुद काला सोना निकाल रहा है, सरकार को टैक्स देता है। काफिला बढ़ रहा है, तमाम हाथ उसके साथ उठे हैं। वो जीता है, नायक सिद्ध हुआ है और कामयाबी की कथाएं रच रहा है। झारखंड के हजारीबाग जिले की यह कहानी है। बड़कागांव प्रखंड के 205 गांवों वाले कर्णपुरा घाटी क्षेत्र, विशेषकर आराहरा गांव, में काला सोना यानि कोयले का बहुमूल्य और अकूत भंडार है। सेंट्रल प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट, रांची ने अध्ययन किया तो पाया कि यहां एक एकड़ जमीन के नीचे औसतन एक लाख से ढाई लाख टन कोयला भंडार है जिसका बाजार मूल्य साठ करोड़ रुपए के आसपास है। यहां कोयला खनन के लिए जमीन के अंदर खान नहीं बनानी पड़ती, ऊपरी तीन-साढ़े तीन फुट मिट्टी हटा देने से कोयले की परत दिखने लगती है, जिसे गैंती या मामूली विस्फोट से उखाड़ा जा सकता है। वैसे, राज्य के कई क्षेत्रों में समान स्थितियां हैं और सार्वजनिक और निजी कंपनियां आजादी के बाद से ही जमकर कोयला खनन कर रही हैं। मुनाफा इतना है कि सरकार को महज तीन सौ रुपये प्रतिटन रॉयल्टी चुकानी है और बाकी पैसा जेब में। इन कंपनियों की एक दिन की कमाई तीन से चार लाख के आसपास है। बहरहाल, सरकार को नाममात्र की रायल्टी 120 से 300 रुपए प्रतिटन देकर बाकी कोयला ले उड़ती हैं और अकूत मुनाफा कमाती है। बहरहाल, कर्णपुरा पर रिपोर्ट के बाद सरकार चेती, नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन को वरवाडीह कोयला खान परियोजना के साथ ही निजी निजी क्षेत्र की इकाइयों को 16 हजार उपजाऊ भूमि पर खनन के पट्टे आवंटित कर दिए गए। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद एनटीपीसी केवल चार सौ एकड़ जमीन ही अधिग्रहीत कर पाई। इस परियोजना को धन देने वाले अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के दबाव में और कोयले की बढ़ती घरेलू मांग को देखते हुए सरकार हर कीमत पर इस परियोजन को साकार करना चाहती थी इसलिये जबर्दस्त रस्साकसी हुई। क्षेत्र के किसानों में शुरू से भ्रम था कि सरकार कोयला ले ही लेगी इसलिये विरोध करना बेकार है। उनका डर बढ़े, इसके लिए कंपनी ठेकेदार और सरकारी अफसर किसानों से कहते फिरते थे कि विकास के लिए बिजली चाहिए और बिजली उत्पादन के लिए कोयला चाहिए जिसे सरकार ले ही लेगी इसलिए अपनी जमीन बचाने का आंदोलन बेकार है। हां, मुआवजे की दर पर बातचीत हो सकती है। कंपनी ने 35 हजार रुपये प्रति एकड़ से शुरुआत की और फिर, राशि को बढ़ाकर दस लाख तक कर दिया लेकिन किसान आंदोलन शुरू कर चुके थे और वो डिगे नहीं। विनोबा भावे विवि हजारीबाग के प्रोफेसर मिथिलेश डांगी नौकरी छोड़कर किसानों के साथ हो गए। उन्हें समझाया और बार-बार हौसला दिया। हालांकि एक किसान को जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। तमाम लोगों पर मुकदमे लादे गए। कारवां रुका नहीं। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया जिसने ऊर्जा में कई गुना इजाफा कर दिया। शीर्ष न्यायालय की खण्डपीठ ने केरल के लिगनाइट खनन से संबंधित मुकदमे में फैसला देते हुए व्यवस्था दी कि खनिजों को स्वामित्व उसी का है जो जमीन का स्वामी है। यह स्वामित्व जमीन की सतह से पृथ्वी के केंद्र यानि पानी से लेकर सभी खनिजों तक लागू है। न्यायालय ने कहा कि देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो खनिजों का स्वामित्व सरकार को देता हो। सरकार या कंपनियों को खनिजोंपर अधिकार प्राप्त करना है तो उन्हें वैध तरीके से जमीन का अधिग्रहण या उसे खरीदना होगा। संवैधानिक स्थिति यही है लेकिन खनिजों की बढ़ती जरूरत और अनंत मुनाफे की संभावनाओं ने तमाम स्तरों से यह प्रचार करा दिया है कि जमीन का स्वामी केवल तीन-चार फुट ऊपरी सतह का मालिक है, उसके नीचे की सभी चीजों की मालिक सरकार है और कभी भी, कैसे भी उन खनिजों को हासिल कर सकती है। उत्साहित किसान खनन के बाद निकले कोयले को बेचते हैं, फिर नियमानुसार सरकार को रॉयल्टी भी चुका रहे हैं। वास्तविकता यह है कि कर्णपुरा घाटी के आंदोलन ने न सिर्फ कोयले के स्वामित्व और उपयोग के अधिकार पर ही नहीं, बल्कि सभी प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व और विनियोजन के अधिकार का सवाल उठा दिया है। एक दशक में झारखंड में 101 परियोजनाओं पर सहमति बनी लेकिन जमीन पर सिर्फ दो ही उतर पाए क्योंकि स्थानीय जनता अपने जल, जंगल, जमीन और खनिजों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं। पूरे झारखंड में स्थानीय स्तर के ऐसे आंदोलनों की बाढ़-सी आई हुई है। आंदोलनों की वजह आर्सेलर मित्तल को जाना पड़ा, टाटा की परियोजनाएं रुक गर्इं, ईस्टर्न कोल फील्ड का विस्तार अटक गया। कोयले का उत्पादन नीचे गिर रहा है, धनबाद में कोयला खदानों पर कब्जा करने की रणनीति बनाई जा रही है। ऐसे में ये आंदोलन एक बड़े बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। देश के लिए यह एक झोंका ही सही लेकिन इसे बयार आने का संकेत तो समझा ही जा सकता है।

Friday, July 18, 2014

'बेचारों' को मौत पर बहस-मुबाहिसे

केंद्र सरकार ने इच्छामृत्यु का विरोध किया है और इसे खुदकुशी करार दिया है। उसका कहना है कि देश में इच्छा से मौत की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। कुछ समय पहले, अरुणा शानबाग के बहाने बहस हुई थी। तब और अब, यह नहीं सोचा गया कि गंभीर बीमारी से पीड़ित व्यक्ति की स्थिति क्या होती है? कितना कष्ट वो और उनके तीमारदार परिजन झेला करते हैं? हम सभी रोगियों को इलाज मुहैया कराने की स्थिति में नहीं हैं और अगर आ भी जाएं तो क्या इनके दर्द का इलाज कर पाने में खुद को सक्षम पा सकेंगे? बहरहाल, कॉमा जैसी स्थिति में पड़े इन 'बेचारों' को मौत पर बहस-मुबाहिसे का एक और दौर शुरू हुआ है। अरुणा का मामला सामने आने के बाद ही इस बहस का वास्तविक आगाज हुआ। पिछले 37 साल से मुंबई के अस्पताल में लगभग मृत अवस्था में पड़ी अरुणा की तरफ से अदालत में याचिका में कहा गया कि उसे दयामृत्यु की इजाजत दी जाए। अरुणा के साथ मुंबई के उस अस्पताल में क्रूरतापूर्ण ढंग से बलात्कार किया गया था जहां वह नर्स थीं। इस हादसे के कारण अरुणा को लकवा मार गया और वह अपनी आवाज खो बैठीं। डॉक्टरों के मुताबिक अरुणा की हालत में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। सरकार का कहना है कि अभी तक भारतीय संविधान में इच्छामृत्यु देने का कोई प्रावधान नहीं है। जिस देश में पैसे न होने पर अस्पताल प्रशासन गंभीर मरीजों को बाहर निकाल फेंकता है, उसी देश में एक अस्पताल एक जिंदा लाश को कितने दिन संभाल कर रख सकता है। निश्चय ही मृत्यु की मांग खुद में एक जटिल प्रश्न है? इसे यह कहकर खारिज किया जा सकता है जो चीज मनुष्य दे नहीं सकता, उसे छीनने का अधिकार सिवाय प्रकृति के, किसी को नहीं है। भारत जैसे देश के संबंध में यह एक सामाजिक मुद्दा भी है क्योंकि इच्छा मृत्यु (युथनेसिया) की इजाजत मिलने पर उसके दुरुपयोग की आशंका पैदा हो सकती है। एक खतरा यह भी है कि तब आत्महत्या के इच्छुक लोग युथनेसिया की आड़ में अपनी जिंदगी खत्म कर सकते हैं। यूं तो मेडिकल साइंस कोमा में पड़े व्यक्तियों के जीवन में कभी भी लौट आने की संभावना से इनकार नहीं करती, लेकिन इन सभी तर्कों के बावजूद एक पक्ष युथनेसिया की जरूरत का है। वे लोग जिनके लिए मृत्यु का अर्थ मरना नहीं, कष्टकर और असाध्य स्थितियों से छुटकारा पाना है, मौत को एक समाधान की तरह देखते हैं। कुछ बरस पहले तक देश में गर्भपात को गलत माना जाता था लेकिन जब गर्भ के कारण किसी मां का जीवन ही संकट में पड़ जाए तो मेडिकल साइंस में ऐसे गर्भपात को उचित ठहराया जाने लगा। सुप्रीम कोर्ट में आरंभ में इस मामले की सुनवाई के वक्त तत्कालीन चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन और जस्टिस एके गांगुली की खंडपीठ ने सवाल उठाया था कि क्या यह याचिका इच्छामृत्यु (युथनेसिया) की मांग जैसी नहीं है? इस पर शानबाग के वकील शेखर नफडे ने दलील दी थी कि फोर्स फीडिंग के सहारे शानबाग को जिलाए रखने की कोशिश असल में सम्मान के साथ जीने के अधिकार के खिलाफ है, जो उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हासिल है। शानबाग के मामले से यह लगता भी है कि यह स्वास्थ्य संबंधी कारणों से दयामृत्यु पाने के अधिकार का मसला है। शानबाग से पूर्व जयपुर के 79 वर्षीय गिरिराज प्रसाद गुप्ता ने राजस्थान हाईकोर्ट से स्वेच्छा मृत्यु के लिए इजाजत मांगी थी। उन्होंने दलील दी थी कि वह एक दर्जन असाध्य रोगों से पीड़ित हैं हालांकि परिवार वाले उनकी देखभाल में सक्षम थे, पर उन्होंने इच्छामृत्यु की मांग इसलिए की थी कि बिस्तर पर बीमार पड़े रहकर मरने की अपेक्षा वह सम्मानजनक मृत्यु चाहते हैं। हालांकि भारत में कानूनन इसकी अनुमति नहीं है, पर विधि आयोग ने एक बार इस छूट की वकालत अवश्य की है। उसने सुझाव दिया था कि ऐसे असाध्य बीमार व्यक्ति को इसकी छूट मिलनी चाहिए जिसकी हालत में सुधार की कोई उम्मीद न बची हो। देश में इसकी वकालत करने वाला संगठन सोसायटी फॉर द राइट टू डाई विद डिग्निटी भी है। गैर सरकारी संगठन कॉमनकॉज ने सुप्रीम कोर्ट ने इससे संबंधित याचिका दाखिल की हुई है। वैसे, हमारे समाज में परंपरा के रूप में स्वेच्छा मृत्यु का एक स्वरूप भी पहले से मौजूद है, जैसे हिंदू धर्म में समाधि और जैन धर्म में संथारा लेने की परंपरा। इन परंपराओं के तहत स्वस्थ व्यक्ति तक स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर सकता है पर जहां तक स्वेच्छा मृत्यु को कानूनी जामा पहनाने का सवाल है, तो बहुस्तरीय भारतीय समाज में ऐसा कर पाना आसान नहीं है। इसका एक पक्ष यह है कि अगर कानूनन ऐसी छूट दे दी गई, तो कहीं इसका दुरुपयोग न होने लगे। इसके अलावा कई डॉक्टर भी मानते हैं कि जरूरी नहीं है कि अगर कोई व्यक्ति वर्षों से बिना कोई हरकत किए बिस्तर पर पड़ा है तो उसे मौत की नींद सुलाने का इंतजाम ही किया जाए। कुछ वर्ष पहले जर्मनी में एक वाकया सामने आया था, जब 26 साल से निस्पंद बिस्तर पर पड़े एक मरीज ने एक कम्युनिकेटर के जरिए यह संदेश दिया था कि ढाई दशक के इस अरसे उससे जो कुछ कहा गया, जो कुछ उसके आसपास घटित हुआ, उसे उन सबका अहसास है। इच्छामृत्यु के विरोधी तर्क देते हैं कि जब जीवन की संभावनाएं हैं तो हम किसी को कैसे मौत के घाट उतार सकते हैं। निस्संदेह इस विषय में समाज और कानून की राय अलग-अलग है, पर दोनों को ही इस पर अवश्य विचार करना होगा कि अगर किसी वजह से एक मनुष्य की जीने की ललक और ऊर्जा खत्म हो जाए और मृत्यु उसे जीवन से बड़ी और मुक्त करने वाली प्रतीत होती हो तो ऐसे व्यक्ति को दयामृत्यु की दी जाने वाली छूट न तो अनैतिक और न ही धर्म विरुद्ध कहलाएगी। ऐसे व्यक्ति को इच्छामृत्यु की छूट देना अनैतिक नहीं हो सकता जिसके जीने की सारी संभावनाएं खत्म हो गई हों और उसे सिर्फ इसलिए जिंदा रखा गया हो कि हमारा कानून इसकी इजाजत नहीं देता। कोई व्यक्ति दिमागी रूप से सक्रिय है लेकिन उन लाइलाज बीमारियों के कारण भयंकर पीड़ा झेल रहा है जिनमें रिकवरी की कोई संभावना नहीं है, तो अवश्य ऐसी मांग पर विचार किया जाना चाहिए। जाहिर तौर पर इसके लिए कायदे-कानून और दिशानिर्देश तय किए जाने चाहिए।

Sunday, July 6, 2014

आदिवासियों का दर्द

नक्सलवाद के विरुद्ध केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का हथियार न डालने के बयान ने एक बार फिर चर्चाएं शुरू करा दी हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की यह पूर्वनीति नहीं है, वह पहले नक्सल समस्या को बातचीत के जरिए हल करने की भी हिमायत किया करती थी। ऐसे में उसका बदला रुख निराशा पैदा करता है। हम उस समस्या को पुन: नजरअंदाज कर रहे हैं जो नक्सलवाद के मूल में है। उनके कल्याण की बातें हम नहीं कर रहे, हम उन्हें रोजगार नहीं मुहैया करा रहे। यहां तक कि वो साधन भी नहीं जुटा पा रहे जो कम से कम उन्हें जीने लायक स्थिति में ही ले आएं। यह स्थिति समस्या को प्रतिदिन विकराल कर रही है। आदिवासियों की अच्छी-खासी संख्या वाले लगभग सभी राज्यों में नक्सलवाद की समस्या है। केंद्र की कोई भी सरकार रहे, इसके निदान के बजाए मुंह मोड़ने की नीति हमेशा बरकरार रही। इसी के नतीजतन, आदिवासी बेहाल होते गए। तमाम सवाल हैं जो आदिवासी हितैषियों ने पूछे हैं, जैसे सुदूर इलाकों में विकास की किरण कब और कैसे पहुंचेगी जबकि केंद्र और राज्यों के स्तर से आदिवासी कल्याण की तमाम योजना बनाई गई हैं। नक्सलवाद पर तमाम हो-हल्ला होता है, सरकार पर दबाव बनता है लेकिन फिर भी इन योजनाओं पर काम क्यों नहीं होता? क्या आदिवासी खुद विकास नहीं चाहते या उन्हें ऐसी विकास और कल्याणकारी योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं है? क्या उनके लायक योजनाएं नहीं बनायी जातीं? क्या इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार लोग नहीं चाहते कि इन्हें ढंग से लागू किया जाए? राजनीतिक रूप से कहीं-कहीं सशक्त होने के बाद भी आदिवासी नेतृत्व क्यों सक्रिय नहीं होता? दरअसल, आदिवासियों के साथ कई त्रासदियां हैं जिनमें पहली तो यह है कि वे नदियों के बीच घने जंगलों में रहते हैं। उनका बसेरा ज्यादातर लौह अयस्क और बॉक्साइट जैसी खनिज संपदा की पहाड़ियों पर रहा है जहां जीवन के लिए दुरूह स्थितियां हैं। औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलने के साथ आदिवासियों के बसेरे और आजीविका के साधन बांध और खनन परियोजनाओं की बलि चढ़ गए। दूसरी त्रासदी यह है कि आदिवासियों को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसा कोई मसीहा नहीं मिला। एक ऐसा नेता, जिसका अखिल-भारतीय महत्व हो और जो हर जगह आदिवासियों के मन में उम्मीद और प्रेरणा का अलख जगा सके। शिबू सोरेन जैसे नेता मिले भी तो वह क्षेत्रीय स्तर से आगे नहीं बढ़ पाए और अगर बढ़ भी गए तो बंगारू लक्ष्मण की तरह भ्रष्टाचार जैसी राजनीति की बुराइयों में खत्म हो गए। तीसरी त्रासदी इसे मान सकते हैं कि आदिवासी कुछ पहाड़ी जिलों तक सिमटे हुए हैं और इस तरह वे ऐसा वोट बैंक तैयार नहीं करते, जिसकी आवाज राजनीतिक नेतृत्व सुन सकें। कहने का आशय यह है कि वोट बैंक न होने की वजह से उनकी आवाज दब जाती है और फायदा दूसरे वर्गों को मिल जाता है। चौथी और सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अनुसूचित जनजाति कोटे के अंतर्गत नौकरियों का बड़ा हिस्सा तथा प्रतिष्ठित कॉलेजों की ज्यादातर आरक्षित सीटें पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों के पास चली जाती हैं, जो अच्छे स्कूलों में पढ़े होते हैं और जिनकी अंग्रेजी भी अच्छी होती है। अपने यूपी की बात करें तो यहां ज्यादातर इस कोटे की सीटों पर राजस्थान की मीना जैसी जातियां कब्जा कर लेती हैं जो भरपूर आरक्षण मिलने के बाद से आम तौर पर समृद्ध-सी प्रतीत होने लगी हैं। उनका उच्च सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है, न ही सियासी आवाज है लिहाजा वन, पुलिस, राजस्व, शिक्षा और स्वास्थ्य महकमे से जुड़े अधिकारी उनके साथ अक्सर निर्ममता से पेश आते हैं। देश में जहां दलितों की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक ज्यादा पहुंच नहीं है, वहीं आदिवासियों की स्थिति तो और भी बदतर है। इस स्थिति को अगर हम पांचवीं त्रासदी कहें तो छठी त्रासदी ये है कि आदिवासी ज्यादातर अपने माहौल के अंदरूनी ज्ञान के आधार पर ही आजीविका कमाने का हुनर सीखते हैं, जिसका आसानी से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। समस्या यह भी है कि ये हुनर पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित नहीं हो पा रहा और नई पीढ़ियां इससे लगभग अनभिज्ञ हो रही हैं। सातवीं समस्या भाषा को लेकर है, देश में संथाली को छोड़कर किसी भी आदिवासी बोली को आधिकारिक मान्यता हासिल नहीं लिहाजा इन्हें सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता। शिक्षा का माध्यम उनकी भाषा में न होने के कारण आदिवासी छात्र स्कूली पढ़ाई के समय से ही असहज स्थिति में रहते हैं। इसके अलावा पिछले दो-ढाई दशकों में आदिवासी इलाकों में माओवादी चरमपंथियों के बढ़ते प्रभाव के रूप में एक और त्रासदी जुड़ गई है। भले ही ये माओवादी खुद को आदिवासियों का रहनुमा बताते हों, लेकिन उन्होंने इनकी समस्याओं का कोई समाधान पेश नहीं किया है। वह अपने वर्ग की गरीबी का इस्तेमाल करते हैं इसीलिये उन्हें बहलाने-फुसलाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती। आदिवासी लंबे समय से इंतजार कर रहे हैं कि उनकी इन वास्तविक समस्याओं पर विचार-मंथन होना चाहिये। यह सबसे असुरक्षित और सर्वाधिक पीड़ित वर्ग है। नरेंद्र मोदी सरकार को इस हफ्ते बजट पेश करते समय इन आदिवासियों की ओर भी ध्यान देना चाहिये।