हमेशा हवा से बातें करने वाले कच्चा तेल बाजार की इससे बुरी स्थिति क्या होगी कि कुछ देर की उछाल के बाद उसके फिर पुराने ढर्रे पर आ जाने के आसार पैदा हो जाएं। अमेरिका ने इस बाजार को ऐसा बांधा है कि वह आसानी से तेजी पकड़ ही नहीं सकता। दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातक देश अमेरिका ने न केवल तेल की खपत कम की है बल्कि उत्पादन के साथ ही वैकल्पिक उपायों पर निर्भरता बढ़ाकर तेल उत्पादक देशों के आर्थिक समीकरण बुरी तरह उलटा दिए हैं। शेल गैस उसका सबसे बड़ा हथियार सिद्ध हो रहा है।
सऊदी शाह के इंतकाल की खबरों के बाद अगर वैश्विक परिदृश्य पर सबसे ज्यादा चर्चा किसी विषय पर हो रही है तो वो है कच्चा तेल। दरअसल, तेल की कीमतों ने वैश्विक राजनीति तय करने के लिहाज से हमेशा अहम भूमिका अदा की है। बीते कुछ माह से वैश्विक बाजार में तेल की कीमतों में अप्रत्याशित उथल-पुथल मची हुई है। लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में तेल की राजनीति फिर निर्णायक बन गयी है। तेल की गिरती कीमतों पर विचार करें तो एक बड़ा मुद्दा अमेरिका ही नजर आता है। अमेरिका की शेल गैस क्रांति मुख्यत: इस हलचल के केंद्र में है। यह गैस तकनीक पिछले एक दशक में महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार बन चुकी है। अमेरिका के इशारे पर तेल उत्पादन घटाने का विरोध कर रहा सऊदी अरब भी इससे भयाक्रांत है। अमेरिका को सर्वाधिक तेल निर्यात करने वाला यह देश महसूस करता है कि अमेरिका की कच्चे तेल पर निर्भरता अगर यूं ही घटती रही तो उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है। अमेरिका ने पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम की है, साथ ही शेल गैस ने उसके कुल र्इंधन खर्च के 30 प्रतिशत तक की भरपाई कर दी है। सीधा-सा गणित है, यह प्रतिशत बढ़ने के साथ ही सऊदी अरब की कमाई में जबर्दस्त गिरावट आएगी। यही वजह है, सऊदी शाह अब्दुल्ला के उत्तराधिकारी शाह सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सऊद ने भी तत्परता से पुरानी नीतियों पर ही चलने का ऐलान कर दिया। साफ संकेत सामने आ गए कि सऊदी अरब तेल उत्पादन की अपनी नीतियों में बिल्कुल परिवर्तन नहीं करने जा रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चूंकि मामले की गंभीरता को समझा था और अपनी भारत यात्रा की अवधि घटा दी थी, इसलिये सऊदी अरब और अमेरिका में घनिष्ठता के संकेत भी जल्द ही सामने आ गए।
लेकिन तेल बाजार में क्रांतिकारी सिद्ध हो रही यह शेल गैस है क्या? तकनीकी तौर पर शेल गैस चट्टानी संरचनाओं से उत्पादित प्राकृतिक गैस है जो बालू और लाइमस्टोन आदि की संरचनाओं से पैदा होती है। शेल दरअसल पेट्रोलियम की चट्टानें हैं, ऐसी चट्टानें जो पेट्रोलियम की स्रोत हैं। इन चट्टानों पर उच्च ताप और दबाव पड़ने से ही एक प्राकृतिक गैस उत्पन्न होती है जो एलपीजी की तुलना में कहीं अधिक स्वच्छ है। पिछले दशक में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेल की कीमतों में गिरावट आने का बड़ा कारण इसी शेल गैस को माना गया है। अमेरिका के ऊर्जा, सूचना और प्रशासन विभाग के अनुसार, 2035 तक अमेरिका की ऊर्जा की खपत की 46 प्रतिशत भाग की पूर्ति शेल गैस से ही होगी। शेल गैस उद्योग के विकास में अमेरिका को करीब ढाई दशक का समय लगा है। अमेरिकी सरकार ने 1980 के दशक में गैस शोध पर लाखों डॉलर खर्च किए थे, जिसके नतीजे अब मिलना शुरू हुए। वहां मिकीगन, टेक्सास, ओकलोहोमा, अलाबामा, कोलेरडो, वेस्ट वर्जीनिया आदि स्थानों में यह गैस प्रचुर मात्रा में है। कुछ वर्ष पहले अमेरिका में ही प्राकृतिक गैस की कीमतें जापान और यूरोप के बराबर थीं, लेकिन शेल गैस तकनीक के चलते आज कीमत यूरोप की तुलना में एक तिहाई है। इस गैस से निकलने वाले तेल की लागत करीब 50 डॉलर प्रति बैरल होती है। मौजूदा स्थितियों की बात करें तो करीब सौ डॉलर में अमेरिका को शुद्ध र्इंधन प्राप्त हो जाता है। विश्व में शेल गैस के भंडार अमेरिका, कनाडा और चीन में सबसे अधिक हैं। अमेरिका में भूगर्भीय और आधारभूत संरचनाएं शेल गैस तकनीक के लिए अनुकूल हैं जो अन्य देशों में नहीं है। इसी के चलते ब्रिटेन, पोलैण्ड, यूरोप, चीन और भारत जैसे स्थानों में अभी तक ये सफल नहीं हो पायी है। एक आंकलन के मुताबिक, शेल गैस क्रांति से अमेरिका की लगभग आधी ऊर्जा जरूरतों की ही पूर्ति होने लगे तो शेल गैस अमेरिका को विश्व पटल में सबसे ऊंचे स्थान में काबिज कर देगी जहां तेल खर्च के बोझ का बहुत कम दबाव होगा। 50 डॉलर प्रति बैरल खर्च को घटाने के लिए अमेरिका ऐड़ी चोटी का जोर लगा रहा है, उसके बाद की स्थिति उसके ज्यादा अनुकूल हो जाएंगी। असल में 50 डॉलर का खर्च ही एक बड़ी मुश्किल है, क्योंकि सऊदी अरब में तेल की लागत 25 डॉलर प्रति बैरल है और आयात करने पर यह तेल काफी सस्ता पड़ता है। अमेरिका जानता है कि विश्व में सत्ता में शीर्ष पर काबिज होने के लिए तेल और डॉलर पर नियंत्रण आवश्यक है। रूस का उदाहरण उसके सामने है जो तेल के अत्यधिक सस्ता हो जाने की वजह से अपनी अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव झेल रहा है। अमेरिका अभी डॉलर के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रहा है। उसकी तेल और गैस के लिए ओपेक देशों पर निर्भरता कम हो जाए, तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका असली मायने में सबसे ताकतवर हो जाएगा, यह ओबामा भी समझते हैं लेकिन वह जल्दबाजी के मूड में नहीं हैं। जल्दबाजी दिखाने पर तेल की कीमतों में उछाल और उसके नतीजतन, अर्थव्यवस्था पर बड़े दबाव का भय है।
सऊदी शाह के इंतकाल की खबरों के बाद अगर वैश्विक परिदृश्य पर सबसे ज्यादा चर्चा किसी विषय पर हो रही है तो वो है कच्चा तेल। दरअसल, तेल की कीमतों ने वैश्विक राजनीति तय करने के लिहाज से हमेशा अहम भूमिका अदा की है। बीते कुछ माह से वैश्विक बाजार में तेल की कीमतों में अप्रत्याशित उथल-पुथल मची हुई है। लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में तेल की राजनीति फिर निर्णायक बन गयी है। तेल की गिरती कीमतों पर विचार करें तो एक बड़ा मुद्दा अमेरिका ही नजर आता है। अमेरिका की शेल गैस क्रांति मुख्यत: इस हलचल के केंद्र में है। यह गैस तकनीक पिछले एक दशक में महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार बन चुकी है। अमेरिका के इशारे पर तेल उत्पादन घटाने का विरोध कर रहा सऊदी अरब भी इससे भयाक्रांत है। अमेरिका को सर्वाधिक तेल निर्यात करने वाला यह देश महसूस करता है कि अमेरिका की कच्चे तेल पर निर्भरता अगर यूं ही घटती रही तो उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है। अमेरिका ने पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम की है, साथ ही शेल गैस ने उसके कुल र्इंधन खर्च के 30 प्रतिशत तक की भरपाई कर दी है। सीधा-सा गणित है, यह प्रतिशत बढ़ने के साथ ही सऊदी अरब की कमाई में जबर्दस्त गिरावट आएगी। यही वजह है, सऊदी शाह अब्दुल्ला के उत्तराधिकारी शाह सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सऊद ने भी तत्परता से पुरानी नीतियों पर ही चलने का ऐलान कर दिया। साफ संकेत सामने आ गए कि सऊदी अरब तेल उत्पादन की अपनी नीतियों में बिल्कुल परिवर्तन नहीं करने जा रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चूंकि मामले की गंभीरता को समझा था और अपनी भारत यात्रा की अवधि घटा दी थी, इसलिये सऊदी अरब और अमेरिका में घनिष्ठता के संकेत भी जल्द ही सामने आ गए।
लेकिन तेल बाजार में क्रांतिकारी सिद्ध हो रही यह शेल गैस है क्या? तकनीकी तौर पर शेल गैस चट्टानी संरचनाओं से उत्पादित प्राकृतिक गैस है जो बालू और लाइमस्टोन आदि की संरचनाओं से पैदा होती है। शेल दरअसल पेट्रोलियम की चट्टानें हैं, ऐसी चट्टानें जो पेट्रोलियम की स्रोत हैं। इन चट्टानों पर उच्च ताप और दबाव पड़ने से ही एक प्राकृतिक गैस उत्पन्न होती है जो एलपीजी की तुलना में कहीं अधिक स्वच्छ है। पिछले दशक में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेल की कीमतों में गिरावट आने का बड़ा कारण इसी शेल गैस को माना गया है। अमेरिका के ऊर्जा, सूचना और प्रशासन विभाग के अनुसार, 2035 तक अमेरिका की ऊर्जा की खपत की 46 प्रतिशत भाग की पूर्ति शेल गैस से ही होगी। शेल गैस उद्योग के विकास में अमेरिका को करीब ढाई दशक का समय लगा है। अमेरिकी सरकार ने 1980 के दशक में गैस शोध पर लाखों डॉलर खर्च किए थे, जिसके नतीजे अब मिलना शुरू हुए। वहां मिकीगन, टेक्सास, ओकलोहोमा, अलाबामा, कोलेरडो, वेस्ट वर्जीनिया आदि स्थानों में यह गैस प्रचुर मात्रा में है। कुछ वर्ष पहले अमेरिका में ही प्राकृतिक गैस की कीमतें जापान और यूरोप के बराबर थीं, लेकिन शेल गैस तकनीक के चलते आज कीमत यूरोप की तुलना में एक तिहाई है। इस गैस से निकलने वाले तेल की लागत करीब 50 डॉलर प्रति बैरल होती है। मौजूदा स्थितियों की बात करें तो करीब सौ डॉलर में अमेरिका को शुद्ध र्इंधन प्राप्त हो जाता है। विश्व में शेल गैस के भंडार अमेरिका, कनाडा और चीन में सबसे अधिक हैं। अमेरिका में भूगर्भीय और आधारभूत संरचनाएं शेल गैस तकनीक के लिए अनुकूल हैं जो अन्य देशों में नहीं है। इसी के चलते ब्रिटेन, पोलैण्ड, यूरोप, चीन और भारत जैसे स्थानों में अभी तक ये सफल नहीं हो पायी है। एक आंकलन के मुताबिक, शेल गैस क्रांति से अमेरिका की लगभग आधी ऊर्जा जरूरतों की ही पूर्ति होने लगे तो शेल गैस अमेरिका को विश्व पटल में सबसे ऊंचे स्थान में काबिज कर देगी जहां तेल खर्च के बोझ का बहुत कम दबाव होगा। 50 डॉलर प्रति बैरल खर्च को घटाने के लिए अमेरिका ऐड़ी चोटी का जोर लगा रहा है, उसके बाद की स्थिति उसके ज्यादा अनुकूल हो जाएंगी। असल में 50 डॉलर का खर्च ही एक बड़ी मुश्किल है, क्योंकि सऊदी अरब में तेल की लागत 25 डॉलर प्रति बैरल है और आयात करने पर यह तेल काफी सस्ता पड़ता है। अमेरिका जानता है कि विश्व में सत्ता में शीर्ष पर काबिज होने के लिए तेल और डॉलर पर नियंत्रण आवश्यक है। रूस का उदाहरण उसके सामने है जो तेल के अत्यधिक सस्ता हो जाने की वजह से अपनी अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव झेल रहा है। अमेरिका अभी डॉलर के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रहा है। उसकी तेल और गैस के लिए ओपेक देशों पर निर्भरता कम हो जाए, तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका असली मायने में सबसे ताकतवर हो जाएगा, यह ओबामा भी समझते हैं लेकिन वह जल्दबाजी के मूड में नहीं हैं। जल्दबाजी दिखाने पर तेल की कीमतों में उछाल और उसके नतीजतन, अर्थव्यवस्था पर बड़े दबाव का भय है।
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