अमेरिका और भारत में नजदीकियां बढ़ रही हैं तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए, यह निकालें कि दोनों देशों के रिश्ते वहां तक पहुंच गए हैं जहां कभी रूस और भारत थे। तमाम मौकों पर अमेरिका ने भारत को अहमियत दी है, तेल आयात में अपने मित्र देशों से मदद दिलाकर अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, अमेरिकी राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि हैं। उनके स्वागत में पलक- पांवड़े बिछ रहे हैं। कोई कमी न रह जाए, इसके लिए पूरा तंत्र जोर लगा रहा है। विचारों से दक्षिणपंथी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद से ही हालांकि ऐसी संभावनाएं जताई जा रही थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस को भी नाराज न करने की कोशिशें की हैं लेकिन हालात ऐसे नहीं कि वह अमेरिका को अपने देश से दूर कर पाएं।
भारत और रूस के बीच सम्बंधों पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि दोनों देशों के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे हैं। आजादी से पहले ही भारतीय नेताओं की रूस से नजदीकी रही है। 1955 में जवाहर लाल नेहरू रूस गए। शीतयुद्ध के दौरान भारत को सामरिक मामलों में रूस का सहयोग मिलाता रहा। फिलहाल, मोदी और रूस के सत्ताधीश ब्लादीमीर पुतिन दोनों के समस्या से जूझ रहे हैं, समस्या यह है कि उनके देशों को लम्बे समय से एक सूत्र में बांधे रखने वाली भू-राजनीतिक परिस्थितियां बदलनी शुरू हो गई हैं। भागीदारी का ढांचा भी पहले जैसी विशेष घनिष्ठता का सूचक नहीं रहा, उसमें विलम्बित ठहराव आ गया है। आजकल रिश्तों का सबसे बड़ा मानक आर्थिक सम्बंध हैं और भारत का रूस के साथ दोतरफा व्यापार बमुश्किल तीस हजार करोड़ रुपये का है जबकि वह चीन के साथ इससे 15 गुना राशि का कारोबार कर रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि दोनों देशों ने मुश्किल दौर में एक-दूसरे की काफी मदद की है, लेकिन एक अरसे से दोनों की एक-दूसरे पर निर्भरता घटी है। व्यापार बढ़ना दोनों देशों के हित में है लेकिन यह बढ़ नहीं पा रहा। समस्या की शुरुआत 1990 के दशक में हुई जब सोवियत संघ का विघटन हुआ। रूस ने भारत को उपयुक्त तवज्जो देना बंद कर दिया क्योंकि मास्को पश्चिमी देशों के साथ तारतम्य बैठाने और बाल्टिक सागर से प्रशांत महासागर तक साझे यूरोपीय संघ के निर्माण में जुटा था। इसी बीच भारत ने हथियारों के लिए अमेरिका, इजरायल और फ्रांस से बड़े सौदे किए जिससे रूस में नाराजगी पैदा होने लगी। दूसरी तरफ रूस और पाकिस्तान के बीच रक्षा संबंध और रूस द्वारा पाकिस्तान को एमआई-35 हेलीकॉप्टर बेचने से भारत में नाराजगी पैदा हुई। भारतीय राजनय के कठोर परिश्रम और राजनीतिक तंत्र के मजबूत आत्मविश्वास की बदौलत कठिन परिस्थितियों से भरे दशक में रूस के साथ रिश्ते किसी तरह बचे रहे। रिश्तों में तब्दीलियों का क्रम तब शुरू हुआ जब रूस की बागडोर पुतिन के हाथों में आ गई। पश्चिमी देशों के साथ उन्होंने जो कार्यशील सम्बंध बनाए, उन्होंने भारत का काम अपेक्षाकृत सरल बना दिया और भारत ने रूस एवं पश्चिमी देशों की ओर एक ही समय दोस्ती का हाथ बढ़ाने की नीति अपना ली। पर स्थितियां अब बिल्कुल विपरीत हैं। रूस से हमारे रिश्ते तेजी से बिगड़ रहे हैं। किसी भी कीमत पर पूर्व की ओर विस्तार की नाटो की महत्वाकांक्षा और पड़ोसी देशों में अपना परम्परागत प्रभाव क्षेत्र बनाए रखने की जिद के चलते रूस विवाद में फंस रहा है, पिछले वर्ष यूक्रेन के मामले में उसकी बदनामी हो चुकी है। अमेरिका भी उससे खफा है।
साझा यूरोपीय संघ की रूसी अवधारणा ढेर हो गई है। यूरोप में शीतयुद्ध समाप्ति पर बनाए गए नियमों की बहाली रूस एवं पश्चिमी दुनिया के लिए मुश्किल हो गयी है। पश्चिमी दुनिया से रूस की दूरी बढ़ जाने से भारतीय विदेश नीति पर नए दबाव क्रियाशील हो गए हैं। यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र को रूस के साथ मिलाने की पुष्टि से भारत ने परहेज किया है, बिल्कुल उसी प्रकार जैसे 1979 में रूस के अफगानिस्तान में सेनाएं भेजने के मुद्दे पर उसने सार्वजनिक आलोचना से इंकार किया था। अब रूस और पश्चिमी देशों के बीच नए शीत युद्ध से भारत भी दुविधाग्रस्त हो गया है। एक ओर तो उसे पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक भागीदारी का मोह है और दूसरी तरफ पुराना दोस्त रूस है। महत्वपूर्ण रक्षा और रणनीतिक व्यापार के अलावा दोनों देशों के बीच कोई प्रभावी व्यापारिक आदान-प्रदान नहीं हो रहा। यही रूस कभी हमें वो शस्त्र उपलब्ध कराता था जो कहीं से नहीं मिलते थे। यहां तक कि परमाणु चालित पनडुब्बी अरिहंत का निर्माण में रूस से ही सहायता मिली थी। चीनी नजदीकी के लिए रूस के प्रयास भी भारत के लिए तकलीफदेह हैं। दोनों देशों में न केवल रणनीतिक घनिष्ठता बढ़ी है बल्कि रूस चीन के साथ रक्षा सम्बंधों को पुख्ता करता जा रहा है। उसे उन तकनीकों का निर्यात कर रहा है जो भारत के लिए आरक्षित हुआ करती थीं।सीधी-सपाट बात यह है कि चीन के समर्थन से मास्को एशिया में सत्ता संतुलन का काम कठिन बना रहा है। पाकिस्तान के प्रति उसका प्रेम बढ़ा है जबकि कभी वह पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की सुरक्षा की गारंटी दिया करता था। स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि यदि मास्को पश्चिम विरोधी रुख जारी रखता है, साथ ही चीन और पाकिस्तान से उसकी नजदीकियां बढ़ती जाती हैं तो भारत किसी सूरत में पुरानी दोस्ती बरकरार रखने में दिलचस्पी नहीं दिखा सकता। ऐसी परिस्थितियों में प्रश्न यह है कि अमेरिका और रूस के बीच में क्या भारत संतुलन बना पाएगा? रूस हो या अमेरिका, कारोबारी रिश्तों के मामले में दोनों ही देश भारत के हित में हैं। भारत और रूस के बीच 2011 में 8.87 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था जो 2013 में बढ़कर 10.01 अरब डॉलर हो गया। वहीं भारत ने 2013 में अमेरिका के साथ 63.7 अरब डॉलर और चीन के साथ 65.47 अरब डॉलर का कारोबार किया। भारत चाहेगा कि दोनों देशों से व्यापार में वृद्धि हो लेकिन अमेरिका ने जिस तरह खुले दिल से भारत के साथ व्यापारिक समझौते किए हैं, विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए कदम उठाए हैं, उससे रिश्तों का पलड़ा अमेरिका की तरफ झुकना तय है। ओबामा की यात्रा से भी भारत उम्मीद लगाए बैठा है। मोदी लाख यत्न करें पर लग तो यही रहा है कि रूस की तलना में हम अमेरिका के ज्यादा करीब आ रहे हैं।
भारत और रूस के बीच सम्बंधों पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि दोनों देशों के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे हैं। आजादी से पहले ही भारतीय नेताओं की रूस से नजदीकी रही है। 1955 में जवाहर लाल नेहरू रूस गए। शीतयुद्ध के दौरान भारत को सामरिक मामलों में रूस का सहयोग मिलाता रहा। फिलहाल, मोदी और रूस के सत्ताधीश ब्लादीमीर पुतिन दोनों के समस्या से जूझ रहे हैं, समस्या यह है कि उनके देशों को लम्बे समय से एक सूत्र में बांधे रखने वाली भू-राजनीतिक परिस्थितियां बदलनी शुरू हो गई हैं। भागीदारी का ढांचा भी पहले जैसी विशेष घनिष्ठता का सूचक नहीं रहा, उसमें विलम्बित ठहराव आ गया है। आजकल रिश्तों का सबसे बड़ा मानक आर्थिक सम्बंध हैं और भारत का रूस के साथ दोतरफा व्यापार बमुश्किल तीस हजार करोड़ रुपये का है जबकि वह चीन के साथ इससे 15 गुना राशि का कारोबार कर रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि दोनों देशों ने मुश्किल दौर में एक-दूसरे की काफी मदद की है, लेकिन एक अरसे से दोनों की एक-दूसरे पर निर्भरता घटी है। व्यापार बढ़ना दोनों देशों के हित में है लेकिन यह बढ़ नहीं पा रहा। समस्या की शुरुआत 1990 के दशक में हुई जब सोवियत संघ का विघटन हुआ। रूस ने भारत को उपयुक्त तवज्जो देना बंद कर दिया क्योंकि मास्को पश्चिमी देशों के साथ तारतम्य बैठाने और बाल्टिक सागर से प्रशांत महासागर तक साझे यूरोपीय संघ के निर्माण में जुटा था। इसी बीच भारत ने हथियारों के लिए अमेरिका, इजरायल और फ्रांस से बड़े सौदे किए जिससे रूस में नाराजगी पैदा होने लगी। दूसरी तरफ रूस और पाकिस्तान के बीच रक्षा संबंध और रूस द्वारा पाकिस्तान को एमआई-35 हेलीकॉप्टर बेचने से भारत में नाराजगी पैदा हुई। भारतीय राजनय के कठोर परिश्रम और राजनीतिक तंत्र के मजबूत आत्मविश्वास की बदौलत कठिन परिस्थितियों से भरे दशक में रूस के साथ रिश्ते किसी तरह बचे रहे। रिश्तों में तब्दीलियों का क्रम तब शुरू हुआ जब रूस की बागडोर पुतिन के हाथों में आ गई। पश्चिमी देशों के साथ उन्होंने जो कार्यशील सम्बंध बनाए, उन्होंने भारत का काम अपेक्षाकृत सरल बना दिया और भारत ने रूस एवं पश्चिमी देशों की ओर एक ही समय दोस्ती का हाथ बढ़ाने की नीति अपना ली। पर स्थितियां अब बिल्कुल विपरीत हैं। रूस से हमारे रिश्ते तेजी से बिगड़ रहे हैं। किसी भी कीमत पर पूर्व की ओर विस्तार की नाटो की महत्वाकांक्षा और पड़ोसी देशों में अपना परम्परागत प्रभाव क्षेत्र बनाए रखने की जिद के चलते रूस विवाद में फंस रहा है, पिछले वर्ष यूक्रेन के मामले में उसकी बदनामी हो चुकी है। अमेरिका भी उससे खफा है।
साझा यूरोपीय संघ की रूसी अवधारणा ढेर हो गई है। यूरोप में शीतयुद्ध समाप्ति पर बनाए गए नियमों की बहाली रूस एवं पश्चिमी दुनिया के लिए मुश्किल हो गयी है। पश्चिमी दुनिया से रूस की दूरी बढ़ जाने से भारतीय विदेश नीति पर नए दबाव क्रियाशील हो गए हैं। यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र को रूस के साथ मिलाने की पुष्टि से भारत ने परहेज किया है, बिल्कुल उसी प्रकार जैसे 1979 में रूस के अफगानिस्तान में सेनाएं भेजने के मुद्दे पर उसने सार्वजनिक आलोचना से इंकार किया था। अब रूस और पश्चिमी देशों के बीच नए शीत युद्ध से भारत भी दुविधाग्रस्त हो गया है। एक ओर तो उसे पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक भागीदारी का मोह है और दूसरी तरफ पुराना दोस्त रूस है। महत्वपूर्ण रक्षा और रणनीतिक व्यापार के अलावा दोनों देशों के बीच कोई प्रभावी व्यापारिक आदान-प्रदान नहीं हो रहा। यही रूस कभी हमें वो शस्त्र उपलब्ध कराता था जो कहीं से नहीं मिलते थे। यहां तक कि परमाणु चालित पनडुब्बी अरिहंत का निर्माण में रूस से ही सहायता मिली थी। चीनी नजदीकी के लिए रूस के प्रयास भी भारत के लिए तकलीफदेह हैं। दोनों देशों में न केवल रणनीतिक घनिष्ठता बढ़ी है बल्कि रूस चीन के साथ रक्षा सम्बंधों को पुख्ता करता जा रहा है। उसे उन तकनीकों का निर्यात कर रहा है जो भारत के लिए आरक्षित हुआ करती थीं।सीधी-सपाट बात यह है कि चीन के समर्थन से मास्को एशिया में सत्ता संतुलन का काम कठिन बना रहा है। पाकिस्तान के प्रति उसका प्रेम बढ़ा है जबकि कभी वह पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की सुरक्षा की गारंटी दिया करता था। स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि यदि मास्को पश्चिम विरोधी रुख जारी रखता है, साथ ही चीन और पाकिस्तान से उसकी नजदीकियां बढ़ती जाती हैं तो भारत किसी सूरत में पुरानी दोस्ती बरकरार रखने में दिलचस्पी नहीं दिखा सकता। ऐसी परिस्थितियों में प्रश्न यह है कि अमेरिका और रूस के बीच में क्या भारत संतुलन बना पाएगा? रूस हो या अमेरिका, कारोबारी रिश्तों के मामले में दोनों ही देश भारत के हित में हैं। भारत और रूस के बीच 2011 में 8.87 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था जो 2013 में बढ़कर 10.01 अरब डॉलर हो गया। वहीं भारत ने 2013 में अमेरिका के साथ 63.7 अरब डॉलर और चीन के साथ 65.47 अरब डॉलर का कारोबार किया। भारत चाहेगा कि दोनों देशों से व्यापार में वृद्धि हो लेकिन अमेरिका ने जिस तरह खुले दिल से भारत के साथ व्यापारिक समझौते किए हैं, विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए कदम उठाए हैं, उससे रिश्तों का पलड़ा अमेरिका की तरफ झुकना तय है। ओबामा की यात्रा से भी भारत उम्मीद लगाए बैठा है। मोदी लाख यत्न करें पर लग तो यही रहा है कि रूस की तलना में हम अमेरिका के ज्यादा करीब आ रहे हैं।
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