कच्चा तेल देश की अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। मूल्य घटाने से सरकार का इंकार सोने पर सुहागा सिद्ध हुआ है और इससे सरकारी खजाने में सीधे-सीधे छह हजार करोड़ की बड़ी राशि आने का रास्ता साफ हुआ है। यह स्थिति जितने दिन रहे, भारत के लिए उतना ही अच्छा। लेकिन इसकी वजह क्या हैं, दाम कब तक गिरेंगे? भारत को कब तक लाभ होगा? क्यों गिर रहे हैं दाम?
कच्चा तेल पांच साल के निम्नतर स्तर पर है। मई 2009 में इसके जो भाव थे, आज भी वही हैं। एक नजर में देखें तो इससे घरेलू मोर्चे पर कई तरह की राहत मिल रही है। महंगाई घट रही है। आयात बिल में कमी आ रही है और सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा। पेंट, प्लास्टिक, फर्टिलाइजर और शिपिंग कंपनियां फायदा उठा रही हैं। भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। कोयला आयात में भी वह तीसरे स्थान पर है जबकि प्राकृतिक गैस का पांचवां और ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा आयातक देश है इसलिए तेल की कीमतों में कमी से सर्वाधिक लाभान्वित देशों में भारत भी प्रमुख है। हमारा शुद्ध ऊर्जा आयात, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के छह फीसदी से भी अधिक है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी तेल की ही है। 2014 की दूसरी छमाही के दौरान ऊर्जा कीमतों में करीब 40 फीसदी की कटौती से पूरे वित्त वर्ष के शुद्ध आयात बिल में सवा तीन लाख करोड़ रुपये की कमी आएगी। मूल्यों में नरमी से वित्तीय वर्ष-2015 में तेल कंपनियों की अंडर रिकवरी 40 प्रतिशत घटने का अनुमान है। नियंत्रित मूल्य और बाजार कीमत के बीच के फासले को अंडर-रिकवरी या राजस्व क्षति कहा जाता है और सरकार विभिन्न माध्यमों से कंपनियों को इसकी भरपाई करती है। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से इन कंपनियों को बड़ा फायदा होगा। इसके साथ ही भारत जैसे देशों के लिए कच्चे तेल में आगे आने वाले उछाल से निपटने की तैयारी करने का सुनहरा मौका है। माना जा रहा है कि एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, खासकर चीन और जापान, का आर्थिक विकास कुछ थम रहा है इसीलिए वहां तेल की डिमांड कम हुई है और इसी से तेल के दाम कम हो रहे हैं। भारत के लिए तो अभी सब-कुछ अच्छा दिख रहा है। महंगाई कम होने के साथ ही बचा पैसा बाजार में आने लगा है। दाम गिरना अंतर्राष्ट्रीय मंदी का लक्षण है तो इसका असर आज नहीं तो कल, भारत पर भी पड़ना है। कच्चे तेल का उत्पादन ग्राफ देखें तो इसमें ओपेक देशों की 40 फीसदी, उत्तरी अमेरिका की 17, रूस की 13, चीन और दक्षिण अमेरिका की पांच-पांच और अन्य देशों की 20 फीसदी हिस्सेदारी है। एक बड़ी वजह यह भी है कि अमेरिका में जिस हिसाब से शेल तेल और गैस का उत्पादन बढ़ा है, उससे उसकी मध्य-पूर्वी देशों पर निर्भरता खत्म हो रही है। आने वाले समय में अमेरिका इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हो सकता है।
भारत अपनी जरूरत का 20.2 फीसदी सऊदी अरब से, 13 फीसदी इराक से, 10.8 फीसदी कुवैत, 8.6 फीसदी नाइजीरिया, 7.4 फीसदी संयुक्त अरब अमीरात, 5.8 फीसदी ईरान और 34.2 फीसदी कच्चा तेल अन्य देशों से हासिल करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होते हैं, जिसमें ओपेक की बड़ी भूमिका होती है। चालू वर्ष में भी कच्चे तेल की कीमत 80-85 डॉलर प्रति बैरल तक रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। हालांकि भारत चाहेगा कि विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम कभी बहुत न बढ़ें क्योंकि हम बड़े स्तर पर र्इंधन का आयात करते हैं और सरकार की इच्छा है आॅयल बैंक बनाने की है जिससे महंगाई के दिनों में कुछ दिन तक काम चल सके। गत एक दशक में तेल की कीमतें आसमान पर थीं तो सरकार को बेलगाम महंगाई को काबू में करने के लिए कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय कर कम रखने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसीलिये मौका हाथ आते ही उसने पेट्रोल और डीजल पर दो-दो रुपये उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। आज की स्थिति िमें भी पेट्रोल-डीजल उन वस्तुओं में शामिल हैं, जिन पर देश में सबसे कम टैक्स है। कच्चे तेल पर कोई सीमा शुल्क नहीं है और बिना ब्रांड वाले पेट्रोल-डीजल पर प्रति लीटर तीन रुपये से भी कम उत्पाद शुल्क है। राज्य सरकारें जरूर इस पर शुल्क लगाती हैं। सीमा शुल्क वृद्धि से मिले राजस्व से केरोसिन और रसोई गैस सब्सिडी की क्षतिपूर्ति हो जाएगी। सब्सिडी में कमी और राजस्व में बढ़ोतरी के मेल से राजकोषीय घाटे में एक फीसदी की कटौती की जा सकती है। ड्यूटी में बढ़ोत्तरी को तेल की गिरती कीमतों के साथ समायोजित किया जा सकता है, जिससे मुद्रास्फीति के फिर सिर उठाने का खतरा नहीं रह जाएगा। कुछ खतरे भी दस्तक दे रहे हैं, तेल उत्पादक देशों में भारी उथल-पुथल के संकेत मिल रहे हैं, मसलन वेनेजुएला और रूस में। यह दोनों देश तेल की आमदनी पर दूसरों से ज्यादा निर्भर हैं, जहां तक रूस का सवाल है तो पश्चिमी प्रतिबंधों और तेल की कीमतों के गिरने के गंभीर नतीजे सामने आए हैं। राष्ट्रीय मुद्राओं की दर तेजी से गिरी है, पूंजी का पलायन हो रहा है और निवेशकों ने देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा खो दिया है। यह समझना कि पुतिन के साम्राज्य के दिवालिया होने का पश्चिम पर असर नहीं होगा, भूल है। रूस दिवालिया हो जाता है तो समूची दुनिया के अर्थजगत पर बुरा असर पड़ना तय है। भारत चूंकि रूस का करीबी दोस्त रहा है, इसलिये उसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। लेकिन फिलहाल तो कोई संकट नजर नहीं आ रहा। ऐसी स्थितियों में भारत जैसे देश खुशियां मना सकते हैं।
कच्चा तेल पांच साल के निम्नतर स्तर पर है। मई 2009 में इसके जो भाव थे, आज भी वही हैं। एक नजर में देखें तो इससे घरेलू मोर्चे पर कई तरह की राहत मिल रही है। महंगाई घट रही है। आयात बिल में कमी आ रही है और सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा। पेंट, प्लास्टिक, फर्टिलाइजर और शिपिंग कंपनियां फायदा उठा रही हैं। भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। कोयला आयात में भी वह तीसरे स्थान पर है जबकि प्राकृतिक गैस का पांचवां और ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा आयातक देश है इसलिए तेल की कीमतों में कमी से सर्वाधिक लाभान्वित देशों में भारत भी प्रमुख है। हमारा शुद्ध ऊर्जा आयात, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के छह फीसदी से भी अधिक है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी तेल की ही है। 2014 की दूसरी छमाही के दौरान ऊर्जा कीमतों में करीब 40 फीसदी की कटौती से पूरे वित्त वर्ष के शुद्ध आयात बिल में सवा तीन लाख करोड़ रुपये की कमी आएगी। मूल्यों में नरमी से वित्तीय वर्ष-2015 में तेल कंपनियों की अंडर रिकवरी 40 प्रतिशत घटने का अनुमान है। नियंत्रित मूल्य और बाजार कीमत के बीच के फासले को अंडर-रिकवरी या राजस्व क्षति कहा जाता है और सरकार विभिन्न माध्यमों से कंपनियों को इसकी भरपाई करती है। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से इन कंपनियों को बड़ा फायदा होगा। इसके साथ ही भारत जैसे देशों के लिए कच्चे तेल में आगे आने वाले उछाल से निपटने की तैयारी करने का सुनहरा मौका है। माना जा रहा है कि एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, खासकर चीन और जापान, का आर्थिक विकास कुछ थम रहा है इसीलिए वहां तेल की डिमांड कम हुई है और इसी से तेल के दाम कम हो रहे हैं। भारत के लिए तो अभी सब-कुछ अच्छा दिख रहा है। महंगाई कम होने के साथ ही बचा पैसा बाजार में आने लगा है। दाम गिरना अंतर्राष्ट्रीय मंदी का लक्षण है तो इसका असर आज नहीं तो कल, भारत पर भी पड़ना है। कच्चे तेल का उत्पादन ग्राफ देखें तो इसमें ओपेक देशों की 40 फीसदी, उत्तरी अमेरिका की 17, रूस की 13, चीन और दक्षिण अमेरिका की पांच-पांच और अन्य देशों की 20 फीसदी हिस्सेदारी है। एक बड़ी वजह यह भी है कि अमेरिका में जिस हिसाब से शेल तेल और गैस का उत्पादन बढ़ा है, उससे उसकी मध्य-पूर्वी देशों पर निर्भरता खत्म हो रही है। आने वाले समय में अमेरिका इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हो सकता है।
भारत अपनी जरूरत का 20.2 फीसदी सऊदी अरब से, 13 फीसदी इराक से, 10.8 फीसदी कुवैत, 8.6 फीसदी नाइजीरिया, 7.4 फीसदी संयुक्त अरब अमीरात, 5.8 फीसदी ईरान और 34.2 फीसदी कच्चा तेल अन्य देशों से हासिल करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होते हैं, जिसमें ओपेक की बड़ी भूमिका होती है। चालू वर्ष में भी कच्चे तेल की कीमत 80-85 डॉलर प्रति बैरल तक रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। हालांकि भारत चाहेगा कि विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम कभी बहुत न बढ़ें क्योंकि हम बड़े स्तर पर र्इंधन का आयात करते हैं और सरकार की इच्छा है आॅयल बैंक बनाने की है जिससे महंगाई के दिनों में कुछ दिन तक काम चल सके। गत एक दशक में तेल की कीमतें आसमान पर थीं तो सरकार को बेलगाम महंगाई को काबू में करने के लिए कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय कर कम रखने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसीलिये मौका हाथ आते ही उसने पेट्रोल और डीजल पर दो-दो रुपये उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। आज की स्थिति िमें भी पेट्रोल-डीजल उन वस्तुओं में शामिल हैं, जिन पर देश में सबसे कम टैक्स है। कच्चे तेल पर कोई सीमा शुल्क नहीं है और बिना ब्रांड वाले पेट्रोल-डीजल पर प्रति लीटर तीन रुपये से भी कम उत्पाद शुल्क है। राज्य सरकारें जरूर इस पर शुल्क लगाती हैं। सीमा शुल्क वृद्धि से मिले राजस्व से केरोसिन और रसोई गैस सब्सिडी की क्षतिपूर्ति हो जाएगी। सब्सिडी में कमी और राजस्व में बढ़ोतरी के मेल से राजकोषीय घाटे में एक फीसदी की कटौती की जा सकती है। ड्यूटी में बढ़ोत्तरी को तेल की गिरती कीमतों के साथ समायोजित किया जा सकता है, जिससे मुद्रास्फीति के फिर सिर उठाने का खतरा नहीं रह जाएगा। कुछ खतरे भी दस्तक दे रहे हैं, तेल उत्पादक देशों में भारी उथल-पुथल के संकेत मिल रहे हैं, मसलन वेनेजुएला और रूस में। यह दोनों देश तेल की आमदनी पर दूसरों से ज्यादा निर्भर हैं, जहां तक रूस का सवाल है तो पश्चिमी प्रतिबंधों और तेल की कीमतों के गिरने के गंभीर नतीजे सामने आए हैं। राष्ट्रीय मुद्राओं की दर तेजी से गिरी है, पूंजी का पलायन हो रहा है और निवेशकों ने देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा खो दिया है। यह समझना कि पुतिन के साम्राज्य के दिवालिया होने का पश्चिम पर असर नहीं होगा, भूल है। रूस दिवालिया हो जाता है तो समूची दुनिया के अर्थजगत पर बुरा असर पड़ना तय है। भारत चूंकि रूस का करीबी दोस्त रहा है, इसलिये उसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। लेकिन फिलहाल तो कोई संकट नजर नहीं आ रहा। ऐसी स्थितियों में भारत जैसे देश खुशियां मना सकते हैं।
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