Monday, January 5, 2015

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा...

जीवन क्या  तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ-सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है,
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा,
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा।
ब्रज में बहुत-कुछ है, कान्हा की नगरी मथुरा है, शाहजहां का बनाया ताजमहल है और... गोपालदास नीरज हैं। नीरज जैसा न कोई हुआ और न ही शायद होगा। नीरज क्या हैं, उनके लाखों मुरीदों से पूछिए, उनके एक-एक शब्द पर वाह-वाह की झड़ियां लगाने वालों से पूछिए। कविता के मंच पर अगर नीरज हैं तो सारा वजन उधर ही है। वो आगरे में हैं, यह गौरव इस शहर का है क्योंकि देश-दुनिया में नीरज जैसे बिरले ही हुआ करते हैं।
नीरज का जन्म चार जनवरी 1925 को इटावा के पुरावली गांव में एक साधारण कायस्थ-परिवार में हुआ था। छह साल के होंगे, जब पिता बाबू ब्रजकिशोर स्वर्ग सिधार गए। नीरज ने जो कुछ हासिल किया, वह खुद का कमाया हुआ है। उनका कवि जीवन जीवन मई 1942 से विधिवत प्रारम्भ होता है जब वह हाईस्कूल में पढ़ते थे। यह युवक गोपालदास सक्सेना कवि होकर गोपालदास सक्सेना ह्यनीरजह्ण हो गया। पहले-पहल नीरज को हिन्दी के प्रख्यात लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन का निशा नियंत्रण कहीं से पढ़ने को मिल गया। उससे वह बहुत प्रभावित हुए था। इस सम्बन्ध में नीरज ने स्वयं लिखा है- मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हां, इतना जरूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में निशा निमंत्रण पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई।
नीरज जी उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं, उन्हें राज्य सरकार ने कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया है। बातचीत का क्रम चला तो पता चला कि वह बच्चन जी से भीतर तक प्रभावित हुए। बकौल नीरज, इसके कई कारण थे, पहला तो यही कि बच्चन जी की तरह मुझे भी जिन्दगी से बहुत लड़ना पड़ा है, अब भी लड़ रहा हूं और शायद भविष्य में भी लड़ता ही रहूं। बच्चन जी की महत्ता उन्होंने 1944 में प्रकाशित अपनी पहली काव्य-कृति संघर्ष में भी लिखीं। संघर्ष में नीरज ने बच्चन जी के प्रभाव को ही स्वीकार नहीं किया, प्रत्युत यह पुस्तक भी उन्हें समर्पित की। नीरज हर जगह सम्मानित हुए। तीन बार सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित हुए। पद्मश्री, पद्म भूषण, यश भारती सम्मान मिला। लेकिन साहित्य के पुरस्कारों के प्रति उनकी नाराजगी हमेशा रही। हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों अज्ञेय, धर्मवीर भारती आदि को भारत-भारती सम्मान मिला है, मेरी इच्छा थी कि हम लोग जो हिन्दी कविता को लोकप्रिय बना रहे हैं, उनको भी मिले। ऐसे लोगों को लगातार उपेक्षित किया गया। हमें संघर्ष करना पड़ा। इसकी क्या जरूरत थी? हिन्दी सेवा के लिए हमारे लंबे संघर्ष को क्या लोग नहीं जानते हैं? फिर संस्तुति कराने की क्या जरूरत थी। संस्तुति के बाद दिया गया, वह पुरस्कार कहां रहा। हमें पहला पुरस्कार उर्दू के अनीस सिद्दीकी ने विश्व उर्दू सम्मेलन में दिया था। आठ लोगों में, एक पुरस्कार मुझे दिया गया था। लोगों ने कहा कि हिन्दी वाले को पुरस्कार क्यों दिया? अनीस ने कहा, हिन्दी-उर्दू हम नहीं जानते। हमने तो गजल सुनी है। वहां सुनने पर पुरस्कार दिया गया था, संस्तुति के बाद नहीं। जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो, उससे संस्तुति नहीं करानी चाहिए हमने देश-विदेश में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया है।
सवाल हुआ कि मंचीय और मुख्य धारा की कविता में क्या अंतर है। लोकप्रियता के लिहाज से मंचीय कविता श्रेष्ठ मानी जाती है। फिर भी आलोचक इसे उतना महत्व क्यों नही देते? उन्होंने जवाब दिया, 1950 से लेकर के 75 तक एक मूवमेंट चला। इसके तहत कवियों में किसी गीतकार का उल्लेख नहीं किया गया जबकि सन 62 तक हमारी और गोपालसिंह नेपाली की पहचान गीतकार के रूप में बन चुकी थी। हम लोगों को गवैया कवि कह दिया गया। हम लोगों की लोकप्रियता इतनी थी कि हमारे गीत-कविताएं छपकर हाथोंहाथ बिक जाया करते थे जबकि तथाकथित मुख्यधारा के कवि अपनी रचनाओं को छपवाया करते थे। फिल्मों में रहा। फिल्मी गीतों मे जो भाषा मैंने लिखकर दे दी है, वैसी आज तक कोई नहीं लिख पाया। सांसों की सरगम, सरगम की वीणा, शब्दों की गीतांजलि तू...  इतना मदिर, इतना मधुर.... वगैरह-वगैरह। 1973 में मैं बम्बई छोड़ आया। आज भी मेरे गीत बज रहे हैं। मैं मानता हूं कि आज कविता बदल रही है। नये बिम्ब हैं। लोकमन एक दिन में नहीं बनता। इन संस्कारों से कविता बनती है। एक कविता की अवधारणा यह भी है कि एक नया बिम्ब प्रस्तुत कर देना, एक किताब से ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन बिम्ब का विधान भी आना चाहिए।

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