फ्रांस की राजधानी पेरिस में 10 पत्रकारों की हत्या कर दी गई। हमलावर दो भाई थे। यह हत्याकांड है और हत्याकांड होते रहे हैं, होते रहेंगे लेकिन यहां बात कुछ मायनों में अलग है। इसलिये नहीं, कि पत्रकार मरे हैं, इसलिये भी नहीं कि आतंकवाद का शिकार हुए हैं... घटना अलग और खास इसलिये है कि शिकार वो तबका हुआ है जो सोते हुए लोगों को जगाने, सच्चाई और न्याय दिलाने जैसी अहम जिम्मेदारियां निभाने के लिए चर्चित है। भारत जैसे देशों में जो लोकतंत्र का चौथा खंभा माना गया है... विश्वसनीयता को जिसका पर्याय कहते हैं। सब-कुछ सकारात्मक है तो इसके 10 सिपाही क्यों मार डाले गए? डराता हुआ सवाल पैदा होता है कि कहीं मीडिया भी रास्ता तो नहीं भटक गया।
आतंकवाद पर लाखों बातें हुर्इं, होती रहती हैं। इसके कारण-निवारण पर भी चर्चाएं आम हैं। धार्मिक कट्टरपंथ को आतंकवाद का प्रश्रय मिलता है, यह बात भी खूब सुनी है लेकिन इनमें मीडिया महज मंच है, तो कहीं... मीडिया पक्ष तो नहीं बन रहा। दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है। हम महाभारत के संजय की तरह आंखों देखा हाल सुनाने के बजाए खुद पक्षकार बनने लगे हैं। हम न्यूज में व्यूज डालने की इंतिहा कर रहे हैं, हम अपना फर्ज निभाने के बजाए एक पक्ष की तरफ न्याय का पलड़ा झुका रहे हैं। हिंदुस्तान के ही चंद चर्चित प्रकरणों को ही याद कीजिए, बटला हाउस प्रकरण बार-बार उछाला गया। मीडिया का एक तबका यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि इस घटना का ताल्लुक दो युवकों से था। आरक्षण के लिए आन्दोलन चलाएं तो यह सिद्ध करने का प्रयास न करें कि डॉ. अम्बेडकर ने जाति विशेष के लिए इस सुविधा का प्रावधान किया और दूसरे धर्मों के पिछड़ों को भूल गए। सच्चर कमेटी की बात करें तो मुस्लिमों की बदहाली का जिक्र करें, न कि आरक्षण जैसी सरकारी सुविधाओं से सम्पन्न हो चुकी जातियों के बारे में बोलने से बचें। लेकिन इसके उलट, हम आपस में कटुता घोल रहे हैं। हम क्यों नहीं समझते कि सच्चाई हजम कर पाना मुश्किल होता है और वह भी तब, जबकि सच्चाई पर अमल होने की स्थिति में सुविधाएं छिन जाने की आशंकाएं हों। आज मुस्लिम समुदाय की आंतरिक स्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं। उसका बड़ा हिस्सा गरीबी-भुखमरी का शिकार है। ऐसी स्थितियों में धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि पिछड़ेपन के आधार पर उसे आरक्षण मिलना चाहिए। हम उस हेडली की बार-बार बात करते हैं, 26/11 का प्रमुख अपराधीे मानकर जिसके जिसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। आतंकवाद की हर घटना में उस पुरानी घटना का जिक्र करना उचित नहीं। न हेडली के मामले को ज्यादा तूल दिया जाए, न इसी मामले में चुपचाप अमेरिका ले जाई गइ अनिता उदया की चर्चा हो। फहीम अंसारी और सबाहुद्दीन अहमद को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया तो हम पत्रकार खुद विवेचना करने लगे। जरूरत नहीं कि कलम नए सिरे से उन्हें न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करे, बाइज्जत बरी होने की घोषणा से बड़ा न्याय और क्या हो सकता है? हम न्यायविद् तो नहीं, फिर जबर्दस्ती क्यों जज बनने की कोशिश करते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं कि बेगुनाह सिद्ध हुए लोगों ने जेल की सलाखों के पीछे दिन कैसे गुजारे होंगे? उनके परिवार ने क्या-क्या नहीं झेला होगा? परिवार को आतंकवाद के कलंक के साथ सिर झुकाकर अपराधियों से भी कहीं अधिक पीड़ादायक जीवन व्यतीत करने पर मजबूर होना पड़ता है, यह कम कष्टदायक नहीं है।
इसी तरह का मसला कश्मीर का है। बेशक, यह दो देशों के बीच का मामला होने की वजह से जटिल है लेकिन जब तक हम और पाकिस्तान कहते रहेंगे कि कश्मीर हमारा है... समस्या का समाधान नहीं होगा। पाकिस्तान कुछ भी करे, हमें तो अपने लोगों के साथ जुड़ना है इसलिये जिस दिन हम कहने लगेंगे कि कश्मीरी हमारे हैं तो समस्या हल हो जाएगी। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में जिस तरह से लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की, उससे यह सिद्ध हो ही गया है कि घाटी के लोग हमारे साथ रहना चाहते हैं। यह जनमत संग्रह की मांग करने वालों को करारा जवाब है। शाह फैसल को याद रखिए, वही शाह फैसल जो उग्रवाद के खिलाफ कामयाबी का प्रतीक बन सकता है। फैसल केवल एक मुसलमान या कश्मीरी नहीं, वह व्यक्ति है जिसने आतंकवाद के विरुद्ध सिर्फ शब्दबाण नहीं चलाए बल्कि आतंकवाद और आतंकी हालात को सहन करके दुनिया को संदेश दिया है कि आतंकवाद के विरुद्ध सफल अभियान का तरीका यह है। सिविल सर्विसेज में चुना गया शाह फैसल इतिहास बन गया है। आतंकवादी हमले में अपने पिता को खो देने के बावजूद उसने यह इबारत लिखी। पिता की हत्या महज संयोग नहीं थी, बल्कि आतंकियों को शरण न देने के फैसले में उनकी जान गई थी। पेरिस की घटना ने सिद्ध किया है कि आतंकवाद सारी दुनिया का सबसे बड़ा मसला है कदम- क़दम पर जिसमें मानवता का लहू बहा है, जिसने पेशावर में तमाम बच्चों की जान ली है, नाइजीरिया में अब तक के सबसे बड़े हमले में शहर और कई गांव फूंक डाले हैं और करीब दो हजार लोगों को मार डाला है। इसी आतंकवाद ने एक धर्म को जैसे खलनायक सिद्ध कर दिया है, जीवन जीने का ढंग सिखाने वाले धर्म को ऐसा बना दिया है जैसे वह जान लेने की शिक्षा देता हो। यह सभी पक्षों के लिए सावधानी से संभालने के योग्य मामला है, धर्म के अनुयायियों की संख्या काफी है और कई देशों में यह बहुसंख्यक हैं। ऐसी स्थिति में हमें कमियों के साथ खूबियां भी उजागर करनी ही चाहिये। एकतरफा खबर लिखने को तो वैसे भी पत्रकारिता के मूल नियमों के विपरीत माना जाता है। खबर तभी बैलेंस होती है जबकि दूसरे पक्ष का भी जिक्र हो। शराब पीकर गिरे व्यक्ति के बारे में खबर लिखने पर भी यह पूछना होता है कि वो शराब पीकर ही गिरा है या गिरे होने की कोई और वजह है? यह सावधानी समय की मांग है और हमारा पेशागत दायित्व भी।
आतंकवाद पर लाखों बातें हुर्इं, होती रहती हैं। इसके कारण-निवारण पर भी चर्चाएं आम हैं। धार्मिक कट्टरपंथ को आतंकवाद का प्रश्रय मिलता है, यह बात भी खूब सुनी है लेकिन इनमें मीडिया महज मंच है, तो कहीं... मीडिया पक्ष तो नहीं बन रहा। दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है। हम महाभारत के संजय की तरह आंखों देखा हाल सुनाने के बजाए खुद पक्षकार बनने लगे हैं। हम न्यूज में व्यूज डालने की इंतिहा कर रहे हैं, हम अपना फर्ज निभाने के बजाए एक पक्ष की तरफ न्याय का पलड़ा झुका रहे हैं। हिंदुस्तान के ही चंद चर्चित प्रकरणों को ही याद कीजिए, बटला हाउस प्रकरण बार-बार उछाला गया। मीडिया का एक तबका यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि इस घटना का ताल्लुक दो युवकों से था। आरक्षण के लिए आन्दोलन चलाएं तो यह सिद्ध करने का प्रयास न करें कि डॉ. अम्बेडकर ने जाति विशेष के लिए इस सुविधा का प्रावधान किया और दूसरे धर्मों के पिछड़ों को भूल गए। सच्चर कमेटी की बात करें तो मुस्लिमों की बदहाली का जिक्र करें, न कि आरक्षण जैसी सरकारी सुविधाओं से सम्पन्न हो चुकी जातियों के बारे में बोलने से बचें। लेकिन इसके उलट, हम आपस में कटुता घोल रहे हैं। हम क्यों नहीं समझते कि सच्चाई हजम कर पाना मुश्किल होता है और वह भी तब, जबकि सच्चाई पर अमल होने की स्थिति में सुविधाएं छिन जाने की आशंकाएं हों। आज मुस्लिम समुदाय की आंतरिक स्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं। उसका बड़ा हिस्सा गरीबी-भुखमरी का शिकार है। ऐसी स्थितियों में धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि पिछड़ेपन के आधार पर उसे आरक्षण मिलना चाहिए। हम उस हेडली की बार-बार बात करते हैं, 26/11 का प्रमुख अपराधीे मानकर जिसके जिसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। आतंकवाद की हर घटना में उस पुरानी घटना का जिक्र करना उचित नहीं। न हेडली के मामले को ज्यादा तूल दिया जाए, न इसी मामले में चुपचाप अमेरिका ले जाई गइ अनिता उदया की चर्चा हो। फहीम अंसारी और सबाहुद्दीन अहमद को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया तो हम पत्रकार खुद विवेचना करने लगे। जरूरत नहीं कि कलम नए सिरे से उन्हें न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करे, बाइज्जत बरी होने की घोषणा से बड़ा न्याय और क्या हो सकता है? हम न्यायविद् तो नहीं, फिर जबर्दस्ती क्यों जज बनने की कोशिश करते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं कि बेगुनाह सिद्ध हुए लोगों ने जेल की सलाखों के पीछे दिन कैसे गुजारे होंगे? उनके परिवार ने क्या-क्या नहीं झेला होगा? परिवार को आतंकवाद के कलंक के साथ सिर झुकाकर अपराधियों से भी कहीं अधिक पीड़ादायक जीवन व्यतीत करने पर मजबूर होना पड़ता है, यह कम कष्टदायक नहीं है।
इसी तरह का मसला कश्मीर का है। बेशक, यह दो देशों के बीच का मामला होने की वजह से जटिल है लेकिन जब तक हम और पाकिस्तान कहते रहेंगे कि कश्मीर हमारा है... समस्या का समाधान नहीं होगा। पाकिस्तान कुछ भी करे, हमें तो अपने लोगों के साथ जुड़ना है इसलिये जिस दिन हम कहने लगेंगे कि कश्मीरी हमारे हैं तो समस्या हल हो जाएगी। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में जिस तरह से लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की, उससे यह सिद्ध हो ही गया है कि घाटी के लोग हमारे साथ रहना चाहते हैं। यह जनमत संग्रह की मांग करने वालों को करारा जवाब है। शाह फैसल को याद रखिए, वही शाह फैसल जो उग्रवाद के खिलाफ कामयाबी का प्रतीक बन सकता है। फैसल केवल एक मुसलमान या कश्मीरी नहीं, वह व्यक्ति है जिसने आतंकवाद के विरुद्ध सिर्फ शब्दबाण नहीं चलाए बल्कि आतंकवाद और आतंकी हालात को सहन करके दुनिया को संदेश दिया है कि आतंकवाद के विरुद्ध सफल अभियान का तरीका यह है। सिविल सर्विसेज में चुना गया शाह फैसल इतिहास बन गया है। आतंकवादी हमले में अपने पिता को खो देने के बावजूद उसने यह इबारत लिखी। पिता की हत्या महज संयोग नहीं थी, बल्कि आतंकियों को शरण न देने के फैसले में उनकी जान गई थी। पेरिस की घटना ने सिद्ध किया है कि आतंकवाद सारी दुनिया का सबसे बड़ा मसला है कदम- क़दम पर जिसमें मानवता का लहू बहा है, जिसने पेशावर में तमाम बच्चों की जान ली है, नाइजीरिया में अब तक के सबसे बड़े हमले में शहर और कई गांव फूंक डाले हैं और करीब दो हजार लोगों को मार डाला है। इसी आतंकवाद ने एक धर्म को जैसे खलनायक सिद्ध कर दिया है, जीवन जीने का ढंग सिखाने वाले धर्म को ऐसा बना दिया है जैसे वह जान लेने की शिक्षा देता हो। यह सभी पक्षों के लिए सावधानी से संभालने के योग्य मामला है, धर्म के अनुयायियों की संख्या काफी है और कई देशों में यह बहुसंख्यक हैं। ऐसी स्थिति में हमें कमियों के साथ खूबियां भी उजागर करनी ही चाहिये। एकतरफा खबर लिखने को तो वैसे भी पत्रकारिता के मूल नियमों के विपरीत माना जाता है। खबर तभी बैलेंस होती है जबकि दूसरे पक्ष का भी जिक्र हो। शराब पीकर गिरे व्यक्ति के बारे में खबर लिखने पर भी यह पूछना होता है कि वो शराब पीकर ही गिरा है या गिरे होने की कोई और वजह है? यह सावधानी समय की मांग है और हमारा पेशागत दायित्व भी।
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