Saturday, February 15, 2014

दिल्ली का चक्रव्यूह

महज 49 दिनों की सत्ता के बाद अरविंद केजरीवाल ने पद छोड़ दिया। अब बातें कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप के कितने भी सिलसिले चलें, लेकिन दिल्ली की सियासत अब एक चक्रव्यूह की तरह है। केजरीवाल ने अपने छोटे से शासनकाल में दिल्ली की जनता को वो सपने दिखा दिए हैं जो पहले किसी मुख्यमंत्री ने नहीं दिखाए, वह लड़ते रहे तो लोगों को लगा कि वह उनके लिए लड़ रहे हैं, सस्ती बिजली, भरपूर पानी और जन लोकपाल के उनके आधे-अधूरे मुद्दे आने वाली किसी भी सत्ता के लिए मुश्किलों का सबब बनेंगे, यह तय है। फिर चुनाव हुए और वह सत्ता तक नहीं पहुंच पाए तो दिल्ली की जनता नए सीएम में केजरीवाल की छवि तलाशेगी। उसे लालबत्ती पसंद नहीं आएगी, जनप्रतिनिधि हमेशा साथ रहे, यह आकांक्षा नए नेतृत्व को जीने नहीं देगी। सबसे ज्यादा मुश्किल तो भारतीय जनता पार्टी के लिए है। अकेले सबसे बड़े दल के नाते फिलहाल उससे सरकार बनाने की अपेक्षा की जाएगी, वह बनाती है तो मुश्किल और नहीं बनाती तो मुश्किल, यानी इधर कुआं-उधर खाई। केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति का बिल्कुल अलग एपीसोड है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि छोटी-सी उम्र की पार्टी सत्ता तक पहुंच जाए, सभी स्थापित दलों को चकरघिन्नी बना डाले और बिना देर किए इस्तीफा देकर भी जीत की मुद्रा में नजर आए। आईआईटी से इंजीनियरिंग स्नातक अरविंद ने यह करके दिखाया है। उन्होंने लोगों की उस नब्ज पर हाथ रखा जिसे बाकी दल नजरअंदाज करते रहे थे। केजरीवाल ने सड़क पर आम जनता की शिकायतें सुनने के लिए आम दरबार लगाने की कोशिश की और इसमें अफसरों के साथ एक मंत्री को भी बैठाने का निर्णय लिया। हालांकि भारी भीड़ के चलते यह योजना अटक गई परंतु जनता को उनकी नीयत पर कोई संदेह नहीं हुआ। जनता के बीच उनकी सरकार का शपथ ग्रहण समारोह, रिश्वतखोरों को पकड़ने के लिए हेल्पलाइन, 26 जनवरी की परेड में आम आदमी की सरकार का आम आदमी की ही तरह शामिल होना, जनशिकायतों पर तत्काल संज्ञान, दिल्ली सरकार के मंत्रियों का किसी भी समय सड़कों पर आम लोगों के बीच घूमते-फिरते रहना तथा जनता की शिकायतों को व्यक्तिगत रूप से सुनना-समझना तथा उनका समाधान करना जैसे और कई कदम नि:संदेह लोकतांत्रिक व्यवस्था में बड़ी बात थे। जन लोकपाल के जिस मुद्दे पर केजरीवाल ने त्यागपत्र दिया, वो उनका मूल मुद्दा था। समाजसेवी अन्ना हजारे के जिस आंदोलन को केजरीवाल के राजनीतिक जन्म की वजह माना जाता है, वह भी जन लोकपाल के लिए ही था। लोकपाल को हजारे के समर्थन के बाद भी केजरीवाल अड़े हुए थे, वह जन लोकपाल चाहते थे और अगर दिल्ली में, वह पीछे हट जाते तो छीछालेदार का जवाब देना मुश्किल हो जाता। उप राज्यपाल नसीब जंग ने विधेयक के लिए जो प्रक्रिया बताई, कहा कि केंद्र की मंजूरी के बगैर इसे पारित नहीं किया जा सकता, केजरीवाल उस प्रक्रिया को भी पक्षपातपूर्ण सिद्ध करने में कामयाब रहे। उनका तर्क था कि पूर्ववर्ती शीला दीक्षित सरकार विद्युत सुधार के विधेयकों को केंद्र की मंजूरी के बिना पारित कर चुकी है। कांग्रेस और भाजपा ने जिस तरह एकजुट होकर विधानसभा में नसीब जंग के पक्ष में हो-हल्ला किया, उससे केजरीवाल की इस बात को बल मिला कि दोनों दल उन्हें सत्ता में देखना नहीं चाहते और दोनों की मिलीभगत है। राज्यों के मामले में केंद्र के हस्तक्षेप का विरोध करने वाली भाजपा से सवाल पूछा जाना चाहिये कि क्यों वह दिल्ली में अपने इस ज्वलंत मुद्दे से भटककर कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई। राजनीतिक प्रेक्षक मान रहे हैं कि प्राकृतिक गैस के मुद्दे पर रिलायंस और मुकेश अंबानी के विरुद्ध जंग भी केजरीवाल के प्रति जनता में सहानुभूति का विषय बन सकती है। कांग्रेस और भाजपा यहां भी यह जवाब देने में मुश्किल महसूस करेंगी कि क्यों उन्होंने एक उद्योगपति को बचाने के लिए सरकार गिरवा दी। केजरीवाल के साथ कई और प्लस प्वॉइंट्स भी हैं। वह अपने वोटरों के बीच गंभीरता से लिये जाते हैं, उन्हें ईमानदार मानने में किसी को हिचक नहीं होती क्योंकि वे आयकर विभाग की बड़ी नौकरी छोड़कर आए थे, वह चाहते तो वहीं नोटों के ढेर लगा सकते थे। अब तक इसी इतिहास ने उन्हें लोगों के बीच स्वीकार्य और विश्वसनीय बनाया है। सूचना अधिकार से लेकर बिजली, साफ-सफाई, राशन तथा अन्य कई क्षेत्रों में अपनी परिवर्तन नामक संस्था के जरिए काम ने लोगों को उन पर भरोसा करने की वजह दी थी। केजरीवाल दिल्ली के लिए नए नहीं थे बल्कि तकरीबन 15 साल से सक्रिय थे। दिल्ली की उन तमाम झुग्गियों से उनका रिश्ता बरसों पुराना है जहां नेता सिर्फ चुनाव के समय ही जाया करते हैं। कुछ मुश्किलें भी हैं जो आने वाले लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें हल करनी होंगी। जिस तरह से उनकी पार्टी देशभर में अपने विस्तार की बात कर रही है, उसके लिए जरूरी है कि हर राज्य का सक्षम प्रतिनिधित्व सामने आए यानी पार्टी सिर्फ केजरीवाल के भरोसे न रहे। पूरे देश में वह मात्र केजरीवाल के सहारे रह भी नहीं सकती। बहरहाल, एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इस नवोदित राजनीतिक पार्टी ने न केवल देश की जनता बल्कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समक्ष ऐसे प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश की है जिससे भारतीय राजनीति में परिवर्तन की एक नई आस जगी है। कल तक सत्ता को आम जनता पर राज करने का साधन समझने वाले नेता अब सड़कों पर घूमते-फिरते, आम लोगों के बीच उठते-बैठते, बातें करते तथा उनका दु:ख-दर्द सुनते दिखाई देने लगे हैं। अब इसे 'केजरीवाल इफेक्ट' कहें या पैरों के नीचे से जमीन खिसकने का भय, देश के लोगों के लिए तो यह एक शुभ संकेत ही है।

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